________________
३४२
भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१ २२. तीन विकलिंद्री मिनख तिर्यंच नें, वचायां धर्म जांणें जो देव जी।
तो त्यानेइ वचावण री खप करें, समदिष्टी देवता स्वमेव जी॥
२३. नाहर चीत्रादिक दुष्ट जीव छ, करें गायादिक री घात जी।
गायादिक ने तो खावा दें नही, त्यांने पिण देव अचित खवात जी॥
२४. जीव जीव तणों भषण करें, त्यांने वचावें अचित्त खवाय जी।
जो यूं कीयां में धर्म नींपजे, तो देवता करें ओहीज उपाय जी॥
२५. अढाइ दीप में मनखां तणे, घर घर आरंभ करें जांण जी।
ते तो कतल करें जीवां तणी, छ ही काय तणों घमसांण जी॥
२६. नित एकीका घर में जू जूओं, आरंभ हुवें दिन रात जी।
छेदन भेदन करें नीलोतरी, करें अनंत जीवां री घात जी॥
२७. दलणों पीसणों में पोवणों, घर घर चूहलो धुकावें तास जी।
आवटकूटों करें छव काय नों, करें अनंत जीवां रो विणास जी॥
२८. एकीका समदिष्टी देवता, त्यांरी सक्त घणी छे अतंत जी।
अढ़ी दीप नों आरंभ मेट नें, वचावें जीव अनंत जी॥
२९. अढ़ी दीप तणा मंनखा भणी, भूखा त्रिषा न राखें कोय जी।
अचित अन्न पाणी नीपजाय नें, सगला ने करें तिरपत सोय जी॥
३०. विविध प्रकार ना भोजन करें, विविध प्रकार ना पकवांन जी।
खादिम सादिम विविध प्रकार ना, विविध प्रकारे शीतल पांन जी॥
३१. साग वंजन विविध प्रकार ना, फल नीलोती विविध प्रकार जी।
मनसा भोजन सगला मिनखां भणी, करावें देवता वार-वार जी॥