Book Title: Acharya Bhikshu Tattva Sahitya 01
Author(s): Tulsi Ganadhipati, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Sukhlal Muni, Kirtikumar Muni, Shreechan
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 358
________________ ३४८ भिक्षु वाङ्मय खण्ड - १ ५२. जो धर्म हुवें श्रावक नें पोषीयां, तो देवता पिण करें ओ धर्म जी । असंख्याता श्रावकां नें पोष नें काटता निज पाप कर्म जी ॥ तांम ५३. असंख्याता द्वीप समुद्र में, असंख्याता श्रावक छें त्यांनें पोषें समदिष्टी देवता, जो जांणें धर्म नों कांम जी । जी ॥ जी । ५४. श्रावक रो खांणों पेंणों सर्वथा, इविरत में कह्यों छें आंम तिणसूं समदिष्टी देवता, एहवों किम करसी कांम जी ॥ ५५. सक्रइंद्र ने इसांणइंद्र छें, तिरछा लोक तणा सिरदार जी । हाल हुकम छें सगलां उपरे, असंख्याता दीप समुद्र मझार जी ॥ ५६. मछ गलागल लग रही, सारा द्वीप समुद्रां माहि जी । जो धर्म हुवें जीव वचावीयां, तो इंद्र थोडा में देवें मिटाय जी ॥ ५७. भगवंत कह्यों हुवें इंद्र नें, जीव वचायां धर्म होय जी । तो दोनूं इंद्र जीव वचावता, आलस नही करता कोय जी ।। ५८. मछ मछां आगा सूं छोडाय नें, मछां नें देता जीवा वचाय जी । त्यांनें पिण भूखा नही राखता, अचित मछ कर देता खवाय जी ॥ ५९. यूं कियां जिन धर्म नीपजें, तों भगवंत सीखावत आप जी । वले आगना देता तेहनें, वले चोड़ें करता आहीज थाप जी ॥ ६०. जीव नें जीवा वचावीयां, ओ तों संसार नों उपगार जी । तठे जिन आगना जाबक नही, धर्म पिण नही छें लिगार जी ॥ ६१. छ काय रा सस्त्र वचावीयां, छ काय रों वेरी होय जी । त्यांरो जीतब पिण सावद्य कह्यों, त्यांनें वचाया धर्म न कोय जी ॥

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