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भिक्षु वाङ्मय खण्ड - १
५२. जो धर्म हुवें श्रावक नें पोषीयां, तो देवता पिण करें ओ धर्म जी । असंख्याता श्रावकां नें पोष नें काटता निज पाप कर्म जी ॥
तांम
५३. असंख्याता द्वीप समुद्र में, असंख्याता श्रावक छें त्यांनें पोषें समदिष्टी देवता, जो जांणें धर्म नों कांम
जी ।
जी ॥
जी ।
५४. श्रावक रो खांणों पेंणों सर्वथा, इविरत में कह्यों छें आंम तिणसूं समदिष्टी देवता, एहवों किम करसी कांम जी ॥
५५. सक्रइंद्र ने इसांणइंद्र छें, तिरछा लोक तणा सिरदार जी । हाल हुकम छें सगलां उपरे, असंख्याता दीप समुद्र मझार जी ॥
५६. मछ गलागल लग रही, सारा द्वीप समुद्रां माहि जी । जो धर्म हुवें जीव वचावीयां, तो इंद्र थोडा में देवें मिटाय जी ॥
५७. भगवंत कह्यों हुवें इंद्र नें, जीव वचायां धर्म होय जी । तो दोनूं इंद्र जीव वचावता, आलस नही करता कोय जी ।।
५८. मछ मछां आगा सूं छोडाय नें, मछां नें देता जीवा वचाय जी । त्यांनें पिण भूखा नही राखता, अचित मछ कर देता खवाय जी ॥
५९. यूं कियां जिन धर्म नीपजें, तों भगवंत सीखावत आप जी । वले आगना देता तेहनें, वले चोड़ें करता आहीज थाप जी ॥
६०. जीव नें जीवा वचावीयां, ओ तों संसार नों उपगार जी । तठे जिन आगना जाबक नही, धर्म पिण नही छें लिगार जी ॥
६१. छ काय रा सस्त्र वचावीयां, छ काय रों वेरी होय जी । त्यांरो जीतब पिण सावद्य कह्यों, त्यांनें वचाया धर्म न कोय जी ॥