Book Title: Acharya Bhikshu Tattva Sahitya 01
Author(s): Tulsi Ganadhipati, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Sukhlal Muni, Kirtikumar Muni, Shreechan
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 350
________________ ३४० भिक्षु वाङ्मय खण्ड - १ १२. जो धर्म हुवें सावद्य दांन में, असंजती नें वचायां हुवें धर्म जी । तो निश्चें समदिष्टी देवता, ओ धर्म करे काटें कर्म जी ॥ १३. कर्म कटे इण सावद्य धर्म सूं, एहवा सावद्य कांमा अनेक जी । ते तो थोड़ा सा परगट करूं, ते सुणजों आंण ववेक जी ॥ १४. मछ गलागल लग रही, सारा दीप समद्रां माहि मोटो मछ छोटा नें भखें, उणसूं मोटो उणनेंइ खाय जी । जी ॥ १५. जो उदम करें एक देवता, तो एक दिन में वचावें अनेक जी । धर्म हुवें तो आघों काढें नही, ओ तो छें देवता में ववेक जी ॥ १६. जीव वचायां अभयदांन हुवें, तो अभयदांन घणां नें देत जी । धर्म जांणें जीव वचावीयां, देव भव में पिण लाहो लेत जी ॥ १७. मछला वचावें एक दिन मझे, लाखा कोडाइ गिणिया न जाय जी । इमें धर्म हुवें जिण भाखीयों, तो देवता देवें मछला छुडाय जी ॥ १८. मछ आगा सूं मछ छुडावीया, उणरे परती जांणें अंतराय जी । तो अचित मछ उपजाय नें, उणनें पिण देवें खवाय जी ॥ १९. जो धर्म हुवें मछलां नें वचावीयां, माछलां नें पोख्यां हुवें धर्म जी । एहवों धर्म तों हुवें देवतां थकी, यूं कर कर काटें कर्म जी ॥ २०. जो धर्म हुवें तों देवता असंख्याता मछलां नें वचाय जी । असंख्याताइ पोखें माछला, आलस पिण न करें ताहि जी ॥ २१. प्रथवी पांणी तेउ वाउ मझे, जीव कह्या छें असंख्यात जी । वनस्पती में अनंत छें, यांनें पिण देव वचात जी ॥

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