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भिक्षु वाङ्मय खण्ड - १
१२. जो धर्म हुवें सावद्य दांन में, असंजती नें वचायां हुवें धर्म जी । तो निश्चें समदिष्टी देवता, ओ धर्म करे काटें कर्म जी ॥
१३. कर्म कटे इण सावद्य धर्म सूं, एहवा सावद्य कांमा अनेक जी । ते तो थोड़ा सा परगट करूं, ते सुणजों आंण ववेक जी ॥
१४. मछ गलागल लग रही, सारा दीप समद्रां माहि मोटो मछ छोटा नें भखें, उणसूं मोटो उणनेंइ खाय
जी ।
जी ॥
१५. जो उदम करें एक देवता, तो एक दिन में वचावें अनेक जी । धर्म हुवें तो आघों काढें नही, ओ तो छें देवता में ववेक जी ॥
१६. जीव वचायां अभयदांन हुवें, तो अभयदांन घणां नें देत जी । धर्म जांणें जीव वचावीयां, देव भव में पिण लाहो लेत जी ॥
१७. मछला वचावें एक दिन मझे, लाखा कोडाइ गिणिया न जाय जी । इमें धर्म हुवें जिण भाखीयों, तो देवता देवें मछला छुडाय जी ॥
१८. मछ आगा सूं मछ छुडावीया, उणरे परती जांणें अंतराय जी । तो अचित मछ उपजाय नें, उणनें पिण देवें खवाय जी ॥
१९. जो धर्म हुवें मछलां नें वचावीयां, माछलां नें पोख्यां हुवें धर्म जी । एहवों धर्म तों हुवें देवतां थकी, यूं कर कर काटें कर्म जी ॥
२०. जो धर्म हुवें तों देवता असंख्याता मछलां नें वचाय जी । असंख्याताइ पोखें माछला, आलस पिण न करें ताहि जी ॥
२१. प्रथवी पांणी तेउ वाउ मझे, जीव कह्या छें असंख्यात जी । वनस्पती में अनंत छें, यांनें पिण देव वचात जी ॥