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अनुकम्पा री चौपई
२९७ ५९. कुछ लोग जोवों को मारकर खिलाते हैं और कुछ लोग ज्यों का त्यों कच्चा धान खिला देते हैं। उसमें एकान्त धर्म की प्ररूपणा करना अनार्य-वचन है।
६०. कुछ लोग जीव मारने में धर्म कहते हैं। वे पूर्णतया अज्ञानी एवं विपरीत हैं। उन्हें जब कोई जिन-मार्ग का जानकार पुरुष मिलता है तो वे उनसे सीधी बात कैसे करेंगे?।
६१. कोई पुरुष लोहे के गोले को तपाकर अग्नि-वर्ण जैसा लाल बनाकर उसे संडासे से पकड़ कर उन लोगों के पास आकर बोला-यह जाज्वल्यमान तप्त गोला, आप अपने हाथ में लीजिए।
६२. जब उन पाखंडियों ने अपना हाथ वापिस खींच लिया। तब उस ज्ञानीपुरुष ने उनसे कहा-तुमने अपना हाथ पीछे क्यों खींचा? अपनी श्रद्धा को छुपाकर मत रखो।
६३. तब वे कहते हैं यदि गोला हाथ में लें तो हमारा हाथ जलता है, ताप लगता है। बताओ जो तुम्हारा हाथ जलाता है उसे पाप होता है या धर्म? तब कहते हैं पाप लगता है।
६४. जो तुम्हारा हाथ जलाता है, उसे पाप लगता है तो दूसरों को मारने में धर्म नहीं हो सकता। तुम्हें सब जीवों को समान समझना चाहिए। मन में विचार करके देख।
६५. जो व्यक्ति जीव मारने में धर्म बताता है, वह अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है। सूत्रकृतांग सूत्र के अठारहवें अध्ययन (सूत्र ७८) में भगवान महावीर ने ऐसा कहा है।
६६. षट्कायिक अनन्त जीवों की हिंसा करके स्थानक बनवाते हैं। यह निश्चित ही अहित का कारण है। उसे धर्म समझे तो मिथ्यात्व आती है।
६७. तब वे कहते हैं-हम स्थानक बनवाते हैं, उसमें एकान्त पाप समझते हैं। यह तो केवल कहने के लिए कहा जाता है, परन्तु झूठ बोलकर मान्यता को छुपाकर अपने अस्तित्व को खोया है।