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अनुकम्पा री चौपई
३०३ ९. कहते हैं, भगवान ने दीक्षा लेने के बाद ज्ञात एवं अज्ञात किसी भी अवस्था में प्रमाद एवं पाप का आचरण नहीं किया और न किसी अन्य दोष का जिनेश्वर देव ने सेवन किया।
१०. इस प्रकार कहकर अज्ञानी लोगों को मायाजाल में डाल रहे हैं। उस विषय का यथार्थ न्याय एवं निर्णय मैं कहता हूं, उसे ध्यान से सुनें।
ढाल - १०
१. गोशालक को भगवान ने सराग भाव से बचाया। उसमें किंचित भी धर्म नहीं है। यह तो निश्चित होनहार थी जिसे टाला नहीं जा सकता था, किन्तु अज्ञानी इस मौलिक विचार को नहीं समझते।
२. भगवान ने कुपात्र को सरागभाव से बचाया, इसमें जरा भी असत्य मत समझो। यदि किसी को शंका हो तो भगवती सूत्र का अर्थ देखकर गलत श्रद्धा को दूर कर दें।
३. भारीकर्मा जीवों को सही समझ नहीं होती। वे तो कुगुरू के बदले-पक्ष में असत्य बोलते हैं। खींचातान करने वाले बहती नदी के अथाह बहाव में खींचे जाएंगे।
४. गोशालक तो अधर्मी, अविनीत, बहुकर्मी और कुपात्र जीव था। जैन धर्म के लिए दावानल तुल्य और दुष्टों में अतिदुष्ट स्वभाव वाला था।
५. भगवान महावीर को असत्य प्रमाणित करने के लिए पापात्मा गोशालक ने तिल के पौधे को उखाड़ा। भगवान के प्रति मिथ्यात्व का आचरण किया। उनका जरा भी सम्मान नहीं रखा।