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अनुकम्पा री चौपई
२९५ ५०. कुछ पापी-अनार्य श्रमण-ब्राह्मण हिंसा-धर्म की स्थापना करते हैं। वे कहते हैं-धर्म के लिए प्राण, भूत, जीव, सत्व की हिंसा करने में पाप नहीं है।
५१. इस प्रकार की विपरीत प्ररूपणा अनार्य लोग करते हैं। उन्हें आर्यलोग प्रेम से कहते हैं-यह तुमने बुरा देखा है। बुरा सुना है। बुरा माना है और बुरा जाना है।
____ ५२. जीव मारने में धर्म कहना-यह अनार्य की वाणी है। वे मूढ़ मिथ्यात्वी भारीकर्मा जीव हैं। उनकी समझ ठिकाने-मूल पर केन्द्रित नहीं है।
५३. उन हिंसाधर्मियों से आर्य ने पूछा-तुम्हें कोई मारे तो वह धर्म है या पाप? तब तो वे कहते हैं-हमें मारने में एकान्त पाप है। यों पूछने पर तो सत्य बोलते हैं। शुद्ध श्रद्धा की स्थापना करते हैं।
५४. तब आर्य कहते हैं-तुम्हें मारने में यदि पाप होता है तो सब जीवों के विषय में यही जानना चाहिए। दूसरों को मारने में धर्म की प्ररूपणा कर तुम खींचातान करके क्यों डूब रहे हो?।
५५. इस प्रकार हिंसाधर्मी अनार्य लोगों को जिनमार्ग से अलग किया है। आचारांग सूत्र के चतुर्थ अध्ययन के दूसरे उद्देशक में इसका विस्तृत वर्णन है, उसे देखें।
५६. अन्य जीवों को मारने में धर्म कहते हैं और स्वयं को मारने में पाप कहते हैं। मूर्ख और विवेकहीन लोगों की यह श्रद्धा विपरीत तथा प्रलाप मात्र है।
५७. जो प्रयोजन से अथवा बिना प्रयोजन से छहकाय के जीवों की हिंसा करता है, उसे दशवें अंग प्रश्न व्याकरण सूत्र के प्रथम अध्ययन (सूत्र १८) में मंद बुद्धि वाला कहा गया है।
५८. जो छहकाय के जीवों की हिंसा करके श्रावकों को भोजन कराता है। भगवान ने जब उसे मंद बुद्धि कहा है तो फिर श्रावकों को खिलाने में धर्म कैसे होगा?।