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अनुकम्पा री चौपई
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५०. संवर के बीस भेदों से आते हुए कर्म रूकते हैं और निर्जरा के बारह भेदों से संचित कर्म टूटते हैं। ये दोनों सीधे मोक्ष के मार्ग हैं। दूसरी सारी खटपट पाखण्ड धर्म है।
५१. दो वेश्याएं कसाईखाने में गई । जीवों का संहार होते हुए देखा। दोनों वेश्याओं ने परस्पर विचार करके एक-एक हजार प्राणियों को मरते हुए बचाया ।
५२. एक ने अपने आभूषण देकर हजार प्राणियों को बचाया। दूसरी ने एक या दो पुरूषों के साथ चतुर्थ आश्रव - अब्रह्मचर्य का सेवन करके हजार प्राणियों को
बचाया ।
५३. पाखण्डी लोग एक को मिश्र धर्म कहते हैं तो दूसरी को केवल पाप कैसे हुआ? जीव तो दोनों ने बराबर बचाए हैं । अन्तर केवल पाप के प्रकार में रहा है।
५४. एक ने पांचवें आश्रव - परिग्रह का सेवन कराया और दूसरी ने चौथे आश्रव अब्रह्मचर्य का सेवन कराया । अन्तर केवल पाप की संख्या चोथे और पांचवें में पड़ा। धर्म यदि होगा तो दोनों को समान ही होगा ।
५५. एक को धर्म कहने में उन्हें संकोच नहीं होता। दूसरी को धर्म कहने में संकोच करते हैं । जब लोगों को बहकाते हैं, तब ऐसा समझो, यह कुगुरूजनों के द्वारा साक्षात् सांप की तरह दंश लगाता है।
५६. एक वेश्या पापकारी कार्य करके हजार रूपये लेकर अपने घर में आई, दूसरी ने वेश्यावृत्ति से प्राप्त धन से मरते हुए हजार प्राणियों को बचाया।
५७. जिसने पापात्मक कार्य करके हजार रूपये कमाए, उसके दोनों तरफ से कर्मबंध हुआ। दूसरी ने पापात्मक कार्य कर जीव छुड़वाए – उनके मतानुसार उसमें पाप और धर्म दोनों हुए ।
५८. अब्रह्मचर्य के सेवन में पाप मानते हैं, परन्तु उससे जो जीव बचे उसमें धर्म नहीं मानते। स्वयं की श्रद्धा का पता स्वयं को नहीं है । व्यर्थ की खींचतान से सघन कर्मों का बंध कर रहे हैं ।
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