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भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१ ५९. ए प्रश्नां रो जाब न उपजें, चरचा में हो अटके ठांम ठांम।
तो पिण निरणों करें नही, बक उठे हो जीवां रो ले नाम॥
६०. जीव जीवें काल अनाद रो, मरें तेहनी हो परजा पलटी जांण।
संवर निरजरा तो न्यारा कह्या, ते ले जावें हो जीव ने निरवांण॥
६१. प्रथवी पाणी अग्न वाय नें, वनसपती हो छठी तसकाय।
मोल ले ले छुडावें तेहनें, धर्म होसी हों ते तों सगलां में थाय॥
६२. तसकाय छुडायां धर्म कहें, पांच काय में हो नही बोले निसंक।
भर्म में पाड्या लोक नें, त्यां लगाया हो मिथ्यात रा डंक॥
६३. त्रिविधे त्रिविधे छकाय हणवी नही, एहवा छे हो भगवंत रा वाय।
मोल लीयां कर्म कहें मोख रो, ए फंद मांड्यो हो कुगुरां कुबद चलाय॥
६४. देव गुर धर्म रतन तीन, सुतर में हो जिण भाख्या अमोल।
ए मोल लीयां नही नीपजें, साची सरधो हो आख हीया री खोल।।
६५. ग्यांन दरसण चारित में तप, मोक्ष जावा हो मारग छे च्यार।
त्यांने भिन-भिन ओळखे आदरें, सुध पालें हो ते पांमें भव पार॥