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अनुकम्पा री चौपई
२८९ २४. छहकाय के जीवों को मारकर अपने सगे सम्बन्धी एवं बिरादरी (जातिवाले) के लोगों को खिलाते हैं। यह प्रत्यक्ष ही पाप सहित सांसारिक कार्य है। इसमें धर्म बताते हैं।
२५. जीवों को मार कर जीवों का पोषण करें, यह तो संसार का मार्ग है। इसमें जो साधु धर्म बताते हैं, वे पूरे मूर्ख, अज्ञानी हैं।
२६. मूला, गाजर, सकरकंद, प्याज इत्यादि अनेक प्रकार की वनस्पतियों का दान करने में पुण्य की प्ररूपणा करते हैं। वे अविवेकी डूब रहे हैं।
२७. कुछ लोग जीवों को खिलाने में पुण्य की प्ररूपणा करते हैं और कुछ मूढ़ लोग मिश्रधर्म की प्ररूपणा करते हैं। वे दोनों ही प्रकार के लोग हिंसाधर्मी अनार्य हैं। ये रूढ़ियों को पकड़-पकड़ करके डूब रहे हैं।
२८. जीव हिंसा में पुण्य की प्ररूपणा करने वालों की जीभ तलवार की तरह चलती है। वे साधु का स्वांग (वेश) रखते हैं। धिक्कार है उनके जीवन को।
२९. कुछ लोग साधु होने का गौरव रखते हैं। लोगों में भगवान के भक्त कहलाते हैं। पर वे हिंसा में धर्म की प्ररूपणा करते हैं। उनके प्रथम तीन महाव्रत टूट जाते हैं।
३०. जो छहकाय की हिंसा में धर्म की प्ररूपणा करते हैं, उन्हें छहकाय की हिंसा का दोष लगता है। तीन काल की हिंसा की अनुमोदना होती हैं, इससे पहला महाव्रत टूट जाता है।
३१. जिनेश्वर देव ने हिंसा में धर्म नहीं कहा है। हिंसा में धर्म कहने से झूठ का दोष लगता है। ऐसा झूठ यदि निरन्तर बालते रहें तो उनका दूसरा महाव्रत टूट जाता
३२. जिन जीवों को मारने में धर्म की प्ररूपणा करते हैं, उन जीवों का अदत्त लगता है और अरिहन्त भगवान की आज्ञा का भंग होता है। इससे तीसरा महाव्रत भी भंग हो जाता है।