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अनुकम्पा री चौपई
૨૮૬ ६. त्याग किए बिना यदि हिंसा टाली जाती है, तो भी कर्मों की निर्जरा होती है। हिंसा टालने से शुभयोगों की प्रवृत्ति होती है। पुण्य समूह का बंध होता है।
७. इस दया से आने वाले पाप कर्म रूक जाते हैं और पूर्व संचित पाप कर्म चूर-चूर (नष्ट) हो जाते हैं। इन दो गुणों में अनंत गुण समा जाते हैं। विरल शूरवीर व्यक्ति ही इसका पालन करते हैं।
८. यही दया प्रथम महाव्रत है। जिसमें सभी प्रकार की दया का समावेश होता है। उस पूर्ण दया का पालन तो साधु ही करते हैं। उससे अवशिष्ट कोई दया नहीं रह जाती।
९. छहकाय के जीवों को मारे नहीं, मरवाए नहीं और मारने वालों की प्रशंसा करे नहीं, ऐसी दया का जो निरन्तर पालन करते हैं, उनकी तुलना में दूसरा कौन आ सकता है?
१०. इसी दया का जो अच्छे मन से पालन करता है, वह केवलियों की परम्परा है। इसी दया का जो सभा में निरूपण करता है उसे भगवान महावीर ने न्यायवादी कहा है।
११. इसी दया का पालन केवलियों ने किया है और मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, मतिज्ञांनी एवं श्रुतज्ञानी सभी ने इसी दया का मन से पालन किया है।
१२. इसी दया का पालन लब्धिधारी साधुओं ने किया है और इसी दया का पालन पूर्वधरों ने किया है। शंका हो तो नि:संकोचरूप से सूत्रों को देखलो। कोई भी बात छुपी हुई नहीं है।
१३. श्रावक दया का आंशिक पालन करता है। साधु उसकी भी प्रशंसा करते हैं, किन्तु जो श्रावक घर बैठा हिंसा करता है, उसे धर्म नहीं मानते।
१४. आचारांग सूत्र के चतुर्थ अध्ययन (उ. १ सूत्र १) में कहा गया है- प्राण, भूत, जीव और सत्व की हिंसा तनिक भी नहीं करनी चाहिए। यह तीनों ही काल के तीर्थंकरों की वाणी है।