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अनुकम्पा री चौपई
२६७ २. कोई इस अग्नि में जलन से बचाता है, कोई कूए में पड़ने से बचाता है। ये सब तो लौकिक उपकार हैं। जो विवेक शून्य लोग हैं, उनको इसका कुछ भी ज्ञान नही है।
३. किसी के हृदय में ज्ञान पैदाकर पाप का प्रत्याख्यान करा दिया तो उसने भव-कूप में पड़ते हुए को बचाया। साधु जन्म-मरण की अग्नि में जलते लोगों को बाहर निकालते हैं। मूढ लोगों ने इसका भी रहस्य नहीं समझा है।
४. मिथ्यादृष्टि शून्यचित्त सूने मन से सूत्रों को पढ़ते हैं। उन्हें द्रव्य (लौकिक) और भाव (लोकोत्तर) के भेदों का निर्णय-ज्ञान नहीं होता। वे सपरिवार कुपथ में पड़ गए और नरक के सम्मुख अपना डेरा डाल लिया है।
५. गृहस्थ को औषध-भैषज देकर तथा अन्य अनेक उपाय करके जीवों को बचाते हैं। इस सांसारिक उपकार के करने में मुग्ध लोग उसे मुक्ति का मार्ग बताते हैं।
६. यंत्र, मंत्र और झाड़ा-झपटा करके सर्प आदि का जहर उतार देते हैं। डाकिन, शाकिन, भूत, यक्ष आदि को निकाल देते हैं। वेशधारी साधु इन कामों में भी धर्म कहते हैं।
७. ऐसे कार्यों को साधुओं ने सावध समझकर तीन करण तीन योग से छोड़ा है, किन्तु वेशधारी अज्ञानी साधुओं ने लोगों से मिलकर जीव बचाने की शरण ली है।
८. वे जीव बचाने की बात मुख से कहते हैं, परन्तु काम पड़ने पर बात बदल देते हैं। भोले लोगों को भ्रम में पटक कर डुबो दिया और स्वयं भी आग्रह कर-करके डूबते हैं।
९. कीड़ियां, मकोड़े, लट और गजाईयां पशुओं के पैरों के नीचे कुचले जाते हैं। वेशधारी साधु कहते हैं, हम जीव बचाते हैं, तो चुग-चुग कर (उठाकर) उन जीवों को क्यों नहीं बचाते?।
१०. कोई पूरे चतुर्मास में उपदेश देकर दस-पांच व्यक्तियों को बड़ी कठिनाई से समझा सकता है। यदि चार महिनों तक जीव बचाने के कार्य में उद्यम करें तो लाखों जीव वे बचा सकते हैं।