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अनुकम्पा री चौपई
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२५. जीव मार कर जीवों को बचाना ऐसा सूत्र में कहीं भी भगवान का वचन नहीं है। यह उल्टा मार्ग कुगुरूओं ने चलाया है । अन्तरदृष्टि नष्ट हो जाने के कारण उन्हें शुद्ध मार्ग दिखाई नहीं देता ।
२६. कोई युद्ध में विजय पाने के लिए जीवित मनुष्य और तिर्यञ्च का होम करते हैं। एक तो युद्ध स्वयं बड़ा पाप है, फिर जीवों का होम करने से दूसरा पापकार्य और हो जाता है।
२७. किसी ने व्याघ्र और कसाई को मार कर अनेक जीवों को मरने से बचा लिया। यदि दोनों को एक जैसा ही माने तो उनकी श्रद्धा और बात का विवेक विकृत हो जाता है।
२८. पहले कहते थे, जीवों को बचाना चाहिए। अब उस बात पर स्थिर क्यों नहीं रहते ? जीव के बचने में धर्म नहीं मानते। एक क्षण में धर्म की स्थापना करते हैं, और दूसरे क्षण में बदल जाते हैं।
२९. मन्दिर की ध्वजा की तरह बदलते हुए बोलते हैं। एक जगह स्थिर नहीं रहते। उन्हें जिनेश्वरदेव ने पाखंडी कहा है। उनका काम झगड़ा करना है, चर्चा करना नहीं ।
३०. यदि एक कार्य (पद्य २६) को अधर्म कहे तो दूसरे (पद्य २७) को धर्म और पाप (मिश्र) कहना चाहिए। इसका न्याय मिलाने पर तो वे लड़ पड़ते हैं । क्योंकि उनके हृदय में विपरीत श्रद्धा की स्थापना है।
३१. श्रेणिक राजा का आश्रय लेकर सावद्य बात बोलते हैं, इसकी उन्हें कोई जानकारी नहीं है। बलपूर्वक किसी को पाप करने से रोक देने में जिन धर्म बताते हैं।
३२. कहते हैं कि श्रेणिक राजा ने नगरी में पड़ह बजवाया - किसी को मत मारो । यह नगरी में उद्घोषणा करा दी । यह सब मोक्ष धर्म के लिए किया था, ऐसा मिथ्यादृष्टि अज्ञानी कहते हैं ।