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अनुकम्पा री चौपई
छह लेस्या हंती जद वीर में जी, हंता आठोई कर्म। छदमस्थ चूका तिण समें जी, मूर्ख थापें धर्म ॥
भगवान् महावीर ने गौशालक को शीतल तेजोलेश्या द्वारा बचाया था। उस समय वे छद्मस्थ थे। जब वे वीतराग हो गए तो उन्होंने अपने सामने मरते हुए शिष्यों को भी नहीं बचाया। पूर्ण अहिंसक अपने पर प्रहार करने वाले पर भी हिंसा नहीं करता, तब वह दूसरे को बचाने के लिए हिंसा का आश्रय कैसे ले सकता है? अहिंसा का अर्थ है संयम की रक्षा । शरीर रक्षा अहिंसा नहीं है। हां जब कोई व्यक्ति अहिंसक बन जाता है तो उसके द्वारा दूसरे की शरीर रक्षा तो अपने आप हो जाती हैं। वह दूसरे की हिंसा में निमित्त होने से भी बच जाता है। यही शुद्ध अहिंसा है। उन्होंने कहा हिंसा री करणी में दया नही छे, दया री करणी में हिंसा नांहि जी। दया ने हंसा री करणी छे न्यारी, ज्यूं तावड़ो में छांही जी॥
उन्होंने फिर कहा जिण मारग री नींव दया पर, खोजी हुवे ते पावे जी। जो हिंसा मांहें धर्म हुवे तो जल मथियां घी आवे जी॥
इस दृष्टि से आचार्य भिक्षु ने साध्य और साधन की शुद्धि पर भी विचार किया है। उन्होंने शुद्ध साध्य के लिए साधन शुद्धि पर भी गहरा बल दिया
उस समय कुछ साधु ऐसा कहते थे कि हम स्वयं तो हिंसा की प्रवृत्ति द्वारा किसी जीव की रक्षा नहीं करते पर गृहस्थ यदि ऐसा करता है तो उसे धर्म मानते हैं। आचार्य भिक्षु ने हिंसा करने, करवाने और उसके अनुमोदन के द्वैध पर तीव्र प्रहार किया है। उन्होंने तीन करण और तीन योग से निष्पन्न अहिंसा को ही अहिंसा माना है। करण और योग की समायोजना को समझे बिना अहिंसा की पहचान अधूरी है।
अहिंसा के क्षेत्र में जीने और मरने के विषय में पर्याप्त मीमांसा अपेक्षित है। असंयम की अवस्था में जीना और असंयम की अवस्था में मरना ये दोनों धर्म की सीमा में नहीं आते।
कोई व्यक्ति असंयमी के जीने की इच्छा करता है वह असंयम की