________________
आमुख
अहिंसा सब धर्मों का मौलिक मन्तव्य है। पर इस विषय पर बहुत सूक्ष्मता से जैन दर्शन में चिन्तन हुआ है। भगवान महावीर ने कहा प्राण, भूत, जीव, सत्त्वों की हिंसा मत करो, उन पर शासन मत करो, उनको पीड़ित मत करो, उन पर प्रहार मत करो, यही धर्म शुद्ध है, नित्य है और शाश्वत है। आचार्य भिक्षु ने अहिंसा की नई व्याख्या नहीं की अपितु कालक्रम से भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित अहिंसा में जो विसंगतियां पैदा हो गई थी, उनका निराकरण करने का सार्थक प्रयास किया।
अहिंसा की परिक्रमा करने वाले शब्दों में एक शब्द है अनुकम्पा अर्थात् दया। आचार्य भिक्षु ने अनुकम्पा री चौपई में इसी विषय पर विचार किया है। उन्होंने कहा है
भोलेंई मत भूलजो, अनुकम्पा रे नाम। कीजों अंतर पारखा, ज्यूं सीझें आतम कांम॥
अनुकम्पा के नाम से भ्रम में मत रह जाना। उसके अंतरंग की परीक्षा करना जिससे आत्मा के काम सिद्ध हों।
एक रूपक द्वारा उन्होंने बताया दूध चार प्रकार का होता है गाय का दूध, भैस का दूध, आक का दूध और थोहर का दूध । चारों दूध देखने में एक जैसे होते हैं। पर उनके गुणधर्म अलग-अलग होते हैं। इसी प्रकार अनुकम्पा भी दो तरह की होती है लौकिक अनुकम्पा और लोकोत्तर अनुकम्पा। ये दोनों एक जैसी नहीं होती।
लौकिक अनुकम्पा का संबंध शरीर से है। लोकोत्तर अनुकम्पा का संबंध आत्मा से है। अहिंसा का संबंध आत्मा से है। शरीर का संबंध हिंसा से भी हो सकता है। महावीर ने आत्मा की अनुकम्पा पर ही बदल दिया है।