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भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१ ३. लोक धड-धड लागा धूजवा, ओर देव रह्या मन ध्याय रे।
अरणक श्रावक डरीयों नही, तिण काउसग दीधो ठाय रे।।
४. सागारी अणसण कीयों, धर्म ध्यान रह्यों चित्त ध्याय रे।
सगलां ने जांण्या डूबता, अणुकंपा न आंणी काय रे॥
५. अरणक श्रावक नें डिगायवा, देव वदि वदि बोलें वाय रे।
जो अरणक धर्म न छोडसी, तो ज्याज डबोव सूं जल माहि रे॥
६. उंची उपाड में उंधी नांख में, कर सूं सगलां री घात रे।
काळी बोळी अमावस रा जिणों, मान रे तूं अरणक वात रे॥
७. ग्यान दर्शन म्हारा वरत नें, इणरों कीधों विघन न थाय रे।
हूं सेवग छू भगवान रो, मोंनें कोई न सकें चलाय रे॥
८. लोक बिल-बिल करता देख नें, अरणक रो न विगड्यों नूर रे।
मोह कुरणा न आंणी केहनी, देव उपशर्ग कीधो दूर रे॥
९.
देव धिन धिन अरणक में कहें, तूं तो जीवादिक नो जांण रे। थांरा सुधर्मी सभा मझे, इंद्र कीया घणा वखांण रे॥
१०. अरणक श्रावक ना गुण देख नें, आया देव री दाय रे।
दोय कुंडल री जोडी आप ने, देव आयो जिण दिस जाय रे॥
११. नमीराय रषि चारित लीयों, ते तों उभो वाग में आय रे।
इंद्र आयों तिणनें परखवा, ते किण विध बोलें वाय रे॥
१२. थारी अगन करी मिथला बलें, एकर सूं स्हांमो जोय रे।
अंतेवर बलतो मेलसी, ए वात सिरें नहीं तोय रे॥