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अनुकम्पा री चौपई
२१५ १३. तूं ने सारे संसार को सुख प्रदान किया पर अपने पुत्ररत्नों को बिलखते हुए देख रहा है। यदि तू दया पालने के लिए ही उद्यत हुआ है तो इनकी संभाल कर।
१४. नमिराजर्षि ने कहा- मैं सुख में रहता हूं। सुख में जीता हूं। मेरा पल-पल सफल जा रहा है। मिथिला नगरी के जलने पर मेरा उसमें कुछ भी नहीं जल रहा हैं।
१५. मुझे मिथिला के रहने पर कोई हर्ष नहीं है और उसके जलने पर किंचित भी शोक नहीं है। जिसको सावध समझ कर छोड़ दिया, वह रहे या जले अनगार कुछ नहीं चाहता।
१६. नमिराजर्षि ने मोह अनुकंपा नहीं की। समभाव रखकर वे आठों कर्मों का नाश करके मुक्त हो गए।
१७-१८. श्री कृष्ण के भाई ने जिसका नाम था गजसुकुमाल, दीक्षा लेकर कायोत्सर्ग किया। उस समय सोमिल ब्राह्मण वहां आया। उसने मुनि के सिर पर मिट्टी की पाल बांधी और उसमें लाल-जलते अंगारे रख दिए। मुनि को कष्ट उत्पन्न हुआ। अत्यन्त वेदना हुई। किन्तु नेमिनाथ भगवान ने तनिक भी करुणा नहीं की।
१९. नेमिनाथ भगवान जानते थे कि गजसुकुमाल मुनि की मृत्यु होगी तथापि भगवान ने अनुकंपा नहीं की और अन्य साधुओं को साथ नहीं भेजा।
२०. चौबीसवें जिनेश्वर वीर भगवान कल्पातीत, महान अनगार थे। उन्हें देवता मनुष्य और तिर्यंच संबंधी अनेक उपसर्ग उत्पन्न हुए।
२१. संगम देवता ने भगवान को अनेक कष्ट दिए। अनार्य लोगों ने भी भगवान के पीछे कुत्ते लगा दिए।
२२. भगवान के दीक्षा महोत्सव पर चौसठ इन्द्र सम्मिलित हुए। पर भगवान को जब कष्ट हुआ तब बचाने के लिए कोई नहीं आया।