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अनुकम्पा री चौपई
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२४. कोई गृहस्थ आकर कहे, आप बड़े मुनिराज हैं । आपने इसे उठाया नहीं । यह गर्दन दब जाने से मर रहा है।
२५. तब कहते हैं, हम तो साधु हैं। श्रावक को कैसे उठा सकते हैं? वे साफ यों कहते हैं, गृहस्थ से हमारा क्या काम है ? ।
२६. श्रावक को तो उठाते नहीं । पक्षी को उठाकर घोंसले में रख देते हैं । देखिए, इनके हृदय में कैसा अंधेरा है । ये स्पष्टतः भटक गए हैं।
२७. पक्षी को घोंसले में रखते समय मन में संकोच नहीं होता फिर श्रावक को उठा लेने में धर्म है, यह श्रद्धा क्यों नहीं करते ? |
२८. जिन्हें इतनी भी समझ नहीं पड़ती, उनको सम्यक्त्व कैसे आएगा ? जो मोह और मिथ्यात्व में छके हुए हैं, वे मतवाले लोगों की तरह बोलते हैं।
२९. कहते हैं, साधुओं को बिल्ली के पीछे जाकर चूहे को छुड़ा देना चाहिए । वे ही लोग श्रावक को नहीं उठाते, यह न्याय कैसे मिलेगा ? |
३०. चूहे आदि को बचाने से तो बिल्ली को दुःख होता है। श्रावक को उठा लेने से किसी के अन्तराय नहीं होती ।
३१. चूहे आदि के लिए बिल्ली को डराकर भगा देते हैं। श्रावक मुंह के सामने मर रहा है, उसे हाथ लगा कर नहीं उठाते ।
३२. धूप और छाया की तरह यह बात प्रत्यक्ष नहीं मिलती। जिन्होंने जिनेश्वर देव के मार्ग को पहचान लिया, उनके हृदय में यह बात कैसे समा सकती है।
३३. आग लगे तो साधु द्वार खोल कर पशुओं को निकाल देते हैं। श्रावक को नहीं उठाते। यह श्रद्धा (मान्यता) नाश करने वाली है।
३४. पशुओं (गाय, भैंस) को खोलने में तो बहुत परिश्रम करना पड़ता है। सौ श्रावक यदि हाथ फेरने से बच जाते हैं, उनके लिए कुछ भी मन में नहीं लाते ।