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दोहा
१. इस लोक की (लौकिक) अनुकम्पा से कर्म बंध होता है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र के सिवाय किसी को भी धर्म मत जानो।
२. जो अनुकम्पा साधु करते हैं, उससे नए कर्म का बंध नहीं होता। यदि वही अनुकम्पा श्रावक करता है, उसमें भी धर्म है।
३. साधु और श्रावक दोनों के द्वारा की गई अनुकम्पा एक समान होती है। अमृत सबके लिए एक समान होता है। झूठी खींचतान मत करो।
४. जिस अनुकम्पा को तीर्थंकर महावीर ने साधुओं के लिए वर्जित किया है। उसे सूत्र की साक्षी से बता रहा हूं। ध्यान लगाकर सुनें।
ढाल : २
१. डाभ और मूंज आदि की रस्सी से बंधे हुए जीव शोर मचा रहे हैं, बिलबिलाहट कर रहे हैं। शीत, ताप आदि से दु:खी हैं। वे साता चाहते हैं। सोचते हैं हम सुखी हों।
२. उन जीवों की अनुकम्पा करके बन्धन से मुक्त करता है, दूसरों से करवाता है अथवा बन्धनमुक्त करने वालों की अनुमोदना करता है तो उस साधु को चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। यदि ऐसे अनुकम्पा कार्य को धर्म माने तो सम्यक्त्व चली जाती है।