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भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१ कभी-कभी संयत प्रवृत्ति करते हुए कोई जीव मर जाता है, पर वह हिंसा नहीं है। कभी-कभी असंयत प्रवृत्ति करते हुए कोई जीव नहीं भी मरता पर वह हिंसा है। क्योंकि हिंसा-अहिंसा का संबंध किसी जीव के जीने-मरने से नहीं है अपितु अपनी सत्प्रवृत्ति और असत्प्रवृत्ति से है।
आचार्य भिक्षु के समय जैन धर्म में भी कुछ लोग शरीर की अनुकम्पा को भी महत्त्व देने लगे थे। वे कहते थे किसी मरते हुए जीव को बचाना अहिंसा है। आचार्य भिक्षु ने उसका खंडन करते हुए कहा
जीव जीवे ते दया नही मरे ते हो हंसा मत जांण। मारण वाला ने हंसा कही, नहीं मारें हों ते तों दया गुणखांण।
जीव का जीना दया-अहिंसा नहीं है। उसका मरना हिंसा नहीं है। जीव को मारने वाले को हिंसा लगती है। उसे नहीं मारना ही शुद्ध अहिंसा है।
वास्तव में जीवन और मृत्यु एक सहज क्रिया है। कोई जीव जीता है तो अपने आयुष्य बल से जीता है। आयुष्य बल क्षीण हो जाता है तो प्राणी की मृत्यु हो जाती है। मरते हुए जीव को दूसरा कोई नहीं बचा सकता है। हां, अहिंसक उसके मरने में निमित्त नहीं बने, यही साधना का रहस्य है।
आचार्य भिक्षु लौकिक अनुकम्पा का निषेध नहीं करते। गृहस्थ को लौकिक अनुकम्पा भी करनी पड़ सकती है। पर उसे लौकिक और लोकोत्तर अनुकम्पा के भेद को समझना आवश्यक है। वास्तव में लोकोत्तर अनुकम्पा ही शाश्वत धर्म है। __ उस समय अनुकम्पा के संबंध में तीन धारणाएं प्रमुख रूप से प्रचलित हो गई थी। पहली शरीर की रक्षा धर्म, दूसरी शरीर रक्षा में अल्प पाप बह निर्जरा तथा तीसरी शरीर रक्षा में पुण्य।
शरीर की रक्षा में धर्म मानने वाले लोग भगवान् महावीर द्वारा गौशालक की रक्षा का उदाहरण देते हैं। वे कहते हैं भगवान् महावीर ने उष्ण तेजोलेश्या से जलते हए गौशालक को शीत तेजोलेश्या से बचाया वह अहिंसा थी। यदि हिंसा होती तो वे उसे क्यों बचाते? आचार्य भिक्षु इस बात का जोरदार खण्डन करते हैं। वे कहते हैं