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भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१
इच्छा करता है, इसलिए वह राग है। असंयमी के मरने की इच्छा करना द्वेष है । अहिंसा राग और द्वेष से ऊपर है। उसकी कसौटी जीना मरना नहीं अपितु संयम और वीतरागता है ।
उस समय की दूसरी प्रमुख धारणा यह थी कि किसी जीव को बचाने में थोड़ी हिंसा हो सकती है पर निर्जरा अधिक होती है, इसलिए वह करणीय है। उनके मत को उद्धृत करते हुए आचार्य भिक्षु लिखते हैं
के कहे म्हें हणां एकिंद्री, पंचेंद्री जीवां रे ताइ जी । एकंद्री मार पंचिंद्री पोख्यां, धर्म घणों तिण मांही जी ।। अर्थात् हम पंचेन्द्रिय जीवों की रक्षा के लिए एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा करते हैं । एकेंद्रिय को मारकर पंचेन्द्रिय का पोषण करते हैं, उसमें धर्म अधिक है। एकेन्द्रिय की अपेक्षा पंचेन्द्रिय अधिक पुण्यवान् है, अतः पंचेन्द्रिय के लिए एकेन्द्रिय का वध करना धर्म अधिक है, पाप कम है।
आचार्य भिक्षु ने इस मान्यता का खण्डन करते हुए कहा छह काय हणें हणावें नही, हाणियां भलो न जांणें ताहि ।
मन वचन काया करी, आ दया कही जिनराय ।।
यदि कोई व्यक्ति उपदेश द्वारा हृदय परिवर्तन कर किसी प्राणी की रक्षा करता है, वह अवश्य अनुकम्पा है । पर इसमें कोई प्राणी बचा यह अहिंसा नहीं है । वह उसका प्रासंगिक फल है। अपितु किसी की आत्मा हिंसा से बची वह अहिंसा है। भय और प्रलोभन के द्वारा की जाने वाली अनुकम्पा वास्तव में अनुकम्पा -अहिंसा नहीं हो सकती। पापाचरण से आत्म रक्षा ही सच्ची अहिंसा है ।
उस समय अनुकम्पा की तीसरी धारणा थी कि हिंसा करने में पाप तो लगता है, पर किसी को बचाने में शुभ भाव आते हैं । अतः उससे पुण्य बंध होता है। आचार्य भिक्षु ने उसका खंडन करते हुए कहा आगमों में पुण्य बंध केवल निर्जरा के साथ ही बताया गया। जहां निर्जरा नहीं होती वहां पुण्य बंध भी नहीं होता। उन्होंने कहा