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नव पदार्थ
१६९ ८. कर्मों का प्रकृति बन्ध भिन्न-भिन्न है। वह कर्मों के स्वभाव की अपेक्षा से होता है। प्रकृति के बंधने पर बन्ध होता है। जैसी बांधी जाती है, वैसी ही उदय में आती है।
९. उस प्रकृति को काल से मापा गया है। वह अमुक काल तक रहेगी और बाद में विनष्ट हो जाएगी। स्थिति से प्रकृति बन्ध ऐसा है।
१०. अनुभाग बंध रस विपाक कहलाता है। कर्म जिस-जिस तरह का रस देगा वह उसकी अपेक्षा से होता है। यह रस बंध भी प्रत्येक प्रकृति का होता है। जैसा रस जीव बांधता है, वैसा ही उदय में आता है।
११-१२. प्रदेश बन्ध भी प्रकृति बन्ध का ही होता है। एक-एक प्रकृति के अनन्त-अनन्त प्रदेश होते हैं। वे जीव के प्रदेशों से लोलीभूत (एकाकार) हो रहे हैं। प्रकृति बन्ध की यही विशेष पहचान है। आठों कर्मों की प्रकृति भिन्न-भिन्न है। एक-एक प्रकृति के अनन्त-अनन्त प्रदेश जीव के एक-एक प्रदेश के विशेष रूप से लोलीभूत है।
१३. ज्ञानावरणीय कर्म, दर्शनावरणीय कर्म, वेदनीय कर्म और आठवें अन्तराय कर्म इन सब की स्थिति एक समान है। चित्त लगाकर सुनें।
१४. इन चारों कर्मों की जघन्य स्थिति अन्तरमुहूर्त प्रमाण और उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटि सागर जानें।
१५. दर्शनमोहनीय कर्म की जघन्य स्थिति अंतर मुहूर्त प्रमाण और उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोटाकोटि सागर जानें।
१६. जिनेश्वर ने चारित्रमोहनीय कर्म की जघन्य स्थिति अंतर मुहर्त की बतलाई है। उत्कृष्ट स्थिति चालीस कोटाकोटि सागर की होती है।
१७. आयुष्य कर्म की जघन्य स्थिति अन्तरमुहर्त और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की होती है। आयुष्य की इससे अधिक स्थिति नहीं होती।