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नव पदार्थ
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३. पुण्य, पाप और बंध ये तीनों कर्म हैं । कर्मों को निश्चय ही पुद्गल जानें। जो पुद्गल हैं, वे निश्चय ही अजीव हैं । उसमें जरा भी शंका न लाएं। मिथ्यात्वी पुण्य-पाप को अजीव नहीं श्रद्धता ।
४. जिनेश्वर ने आठ कर्मों को रूपी कहा है। उनमें पांचों वर्ण, दो गंध, पांचों रस और चार स्पर्श हैं। ये सोलह बोल पुद्गल - अजीव हैं । मिथ्यात्वी पुण्य-पाप को अजीव नहीं श्रद्धता ।
५. पुण्य-पाप दोनों को आश्रव ग्रहण करता है । जो पुण्य और पाप को ग्रहण करता है, उसे निश्चय ही जीव जानें। जीव निरवद्य योगों से पुण्य को ग्रहण करता है और सावद्य योगों से उसके पाप लगते हैं । मिथ्यात्वी आश्रव को जीव नहीं श्रद्धता ।
६. आश्रव कर्मों के द्वार हैं। वे जीव के भाव हैं । उस आश्रव के बीसों बोलों की पहचान करें। वे बीसों ही बोल कर्मों के कर्त्ता हैं । कर्मों के कर्त्ता को निश्चय ही जीव जानें। मिथ्यात्वी आश्रव को जीव नहीं श्रद्धता ।
७.
जो आत्मा को वश में करता है, वह संवर है । जो आत्मा को वश में करता है, वह निश्चय ही जीव है। वह तो उपशम, क्षायक व क्षयोपशम भाव है। ये जीव के अत्यन्त निर्मल भाव हैं। मिथ्यात्वी संवर को जीव नहीं श्रद्धता ।
८. आते हुए कर्मों को रोकता है, वह संवर है । आते हुए कर्मों को रोकता है, वह निश्चय ही जीव है । संवर को अज्ञानी जीव नहीं श्रद्धता, उसके नरक - 1 - निगोद की नींव लगी है । मिथ्यात्वी उस संवर को जीव नहीं श्रद्धता ।
९. देशतः कर्मों को तोड़ने से जीव देशतः उज्ज्वल होता है । जीव उज्ज्वल हुआ, वही निर्जरा है । निर्जरा जीव है, उसमें कोई शंका नहीं । मिथ्यात्वी इस निर्जरा को जीव नहीं श्रद्धता ।
१०. जो कर्मों को तोड़ता है, वह निश्चय ही जीव है । कर्मों के टूटने से जीव उज्ज्वल होता है । जिनेश्वर ने उज्ज्वल जीव को निर्जरा कहा है। निर्जरा जीव का अति उज्वल गुण है। मिथ्यात्वी इस निर्जरा को जीव नहीं श्रद्धता ।