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नव पदार्थ
१७७ २. देवों के सुख अति अधिक और अथाह होते हैं। परन्तु तीनों काल के देवसुख एक सिद्ध के सुख के अनन्तवें भाग की भी बराबरी नहीं कर सकते।
३. सांसारिक सुख पौद्गलिक है। उन सुखों को निश्चय ही रुग्ण जानें । वे कर्मों के कारण जीव को सुहावने लगते हैं। उन सुखों की बुद्धिमान् पहचान करें।
४. जो पाम का रोगी होता है, उसे खाज अत्यन्त मीठी लगती है। पुण्य के सुख इसी तरह रोगीले होते हैं। उनसे कभी भी आत्मा का कार्य सिद्ध नहीं होता।
५. जो जीव ऐसे सुखों से हर्षित होता है, उसके अतीव पाप कर्म लगते हैं। बाद में वह नरक और निगोद के दुख भोगता है और वह मुक्ति सुखों से दूर पड़ जाता है।
६. जन्म-मरण रूपी दावानल से छूट जाते हैं, इसलिए वे मोक्ष, सिद्ध भगवान हैं। उन्होंने आठों ही कर्मों को पृथक् कर दिया, तब आठ अनंत गुण निष्पन्न हुए।
७. वे मोक्ष (मुक्त) सिद्ध भगवान तो यहीं (मनुष्य लोक में) हो गए, बाद में एक समय में ऊपर लोकान्त तक पहुंच गए। वे सिद्धों के रहने के क्षेत्र में जाकर रह रहें हैं, अलोक से सटे हुए हैं।
८-९. निर्वाण में वीतराग सिद्ध के अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आत्मिक सुख, क्षायिक सम्यक्त्व और अटल अवगाहना है। उनका अमूर्त्तित्व प्रकट हुआ है, तथा उन्हें तनिक भी हल्का और भारीपन नहीं लगता। इससे उनमें अगुरुलघु तथा अमूर्त ये उत्तम गुण भी कहे गए हैं।
१०. वे अंतराय कर्म से रहित हैं। उनके पौदगलिक सुख की चाह नहीं रहती। वे आत्म गुण सुखों में रम रहे हैं। उनके कोई भी कमी नहीं दिखाई देती।
११. वे आठों ही कर्मों का क्षय कर कलकलीभूत संसार से मुक्त हो जाते हैं। वे शिव-रमणी के अनंत सुख को प्राप्त करते हैं। उन्हें अविचल मोक्ष कहते हैं।