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नव पदार्थ
१६३ ४८. इन बारह प्रकार के तपों में से कोई तप करते हुए जब श्रावक के अशुभ योगों का निरोध होता है, तब तपस्या के साथ-साथ विरति संवर होता है। उससे पाप का बंध रुक जाता है।
४९. इन तपों में से यदि अविरती भी कोई तप करता है तो उसके भी कर्मक्षय होता है। कोई इस तपस्या से संसार को परित कर शीघ्र ही मुक्ति में चला जाता है।
५०. साधु, श्रावक और सम्यक् दृष्टि के तपस्या करते-करते उत्कृष्ट कर्म-प्रभाव टल जाते हैं। और कदाचित् उसके उत्कृष्ट रसायन आने से तीर्थंकर गोत्र का बंध होता है।
५१. तपस्या से जीव संसार का छोर प्राप्त करता है तथा कर्मों का अन्त प्राप्त करता है और इस तपस्या के प्रताप से संसारी जीव सिद्ध होता है।
५२. तप करोड़ों भवों के संचित कर्मों को एक क्षण में खपा देता है। तप रत्न ऐसा अमूल्य है। उसके गुणों का पार नहीं आता।
५३. जीव के उज्ज्वल होने से निर्जरा निरवद्य है। उससे कर्म निवृत्त होकर अलग होते हैं। इस अपेक्षा से निर्जरा को निरवद्य कहा गया है। अन्य किसी भी अपेक्षा से नहीं।
५४. निर्जरा की करनी निरवद्य है उससे कर्मों की निर्जरा होती है। निर्जरा और निर्जरा की करनी दोनों भिन्न-भिन्न हैं।
५५. निर्जरा निश्चय ही मोक्ष का अंश है। जीव का देशतः उज्ज्वल होना निर्जरा है। जिसके निर्जरा करने की चाह लगी है, उसने मुक्ति की नींव डाल दी है।
५६. वैसे तो निर्जरा सहज ही अनादि काल से हो रही है, पर वह हो-हो कर मिट जाती है। जो जीव कर्म-बंध से निवृत्त नहीं होता, वह संसार में ही गोता खाता रहता है।
५७. निर्जरा की करनी की पहचान कराने के लिए श्रीनाथद्वारा में संवत् १८५६, चैत्र कृष्णा २, गुरुवार को यह जोड़ की गई है।