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नव पदार्थ
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संभोगी (समान धार्मिक), मतिज्ञान आदि पांचों ही ज्ञान ये पन्द्रह बोल पहचानें ।
३०.
उपर्युक्त पन्द्रह बोलों में पांच ज्ञान का जो पुनरुल्लेख हुआ है । वे चारित्रसहित ज्ञान मालूम देते हैं। यहां जो पांच ज्ञान पुनः कहे हैं, उनके विनय की रीति भिन्न है ।
३१. इनकी आशातना न कर विनय करना, भक्ति कर बहु-सम्मान देना तथा गुणगान कर उनकी महिमा बढ़ाना यह शुद्ध श्रद्धान रूप दर्शन विनय है ।
३२. सामायिक आदि पांचों चारित्र शीलों का यथायोग्य विनय करना, उनकी हर्षपूर्वक सेवा - भक्ति करना और उनसे निर्दोष संभोग करना चारित्रविनय है ।
३३. बारह प्रकार के सावद्य मन का निवारण करना और बारह ही प्रकार का जो निरवद्य मन है उसकी प्रवृत्ति करना मन - विनय है। उससे उत्तम निर्जरा होती है ।
३४. इसी तरह बारह प्रकार के सावद्य वचन का निवारण करना और निर्दोष निरवद्य बारह वचन बोलना वचन - विनय है ।
३५. अयतनापूर्वक काय-प्र - प्रवृत्ति नहीं करना । उसके सात प्रकार कहे गए हैं। वैसे ही यतनापूर्वक कायप्रवृत्ति के भी सात भेद हैं, उससे कर्मों का क्षय होता है यह कायविनय तप है
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३६-३७. लोक व्यवहार विनय के सात प्रकार कहे गए हैं (१) गुरु के समीप रहना (२) गुरु की आज्ञा अनुसार चलना (३) ज्ञान आदि के लिए उनका कार्य करना (४) ज्ञान दिया हो उनका विनय व वैयावृत्त्य करना (५) आर्त - गवेषणा करना ( ६ ) प्रस्ताव-अवसर का जानकार होना (७) गुरु के सब कार्य अच्छी तरह करना ।
३८. वैयावृत्त्य तप दस प्रकार का है। वह वैयावृत्त्य साधुओं की जाननी चाहिए । उससे कर्म - कोटि का क्षय होता है और निर्वाण नजदीक होता है ।