________________
नव पदार्थ
१४३
३५. मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का क्षयोपशम होने से मिथ्यादृष्टि उज्ज्वल होती है । जिससे जीव कई पदार्थों में सम्यक् श्रद्धा करने लगता है। ऐसा गुण उत्पन्न होता है ।
३६. मिश्रमोहनीय कर्म का क्षयोपशम होने से सम्यक् - मिथ्यादृष्टि उज्वल होती है। उस समय जीव अधिक पदार्थों को शुद्ध श्रद्धता है। ऐसा विशिष्ट गुण उत्पन्न होता है।
३७. सम्यक्त्व - मोहनीय कर्म का क्षयोपशम होने से सम्यक्त्व रूपी प्रधान रत्न उत्पन्न होता है। इस क्षयोपशम से जीव नवों ही पदार्थों की शुद्ध श्रद्धा करने लगता है । क्षयोपशम भाव ऐसा ही गुणकारी निधान है।
३८. जब तक मिथ्यात्व - मोहनीय कर्म उदय में रहता है, तब तक सम्यक् - मिथ्यादृष्टि नहीं आती । मिश्र - मोहनीय कर्म के उदय से जीव सम्यक्त्व नहीं पाता ।
३९. जब तक सम्यक्त्व - मोहनीय कर्म उदय में रहता है तब तक क्षायिक सम्यक्त्व नहीं आता। दर्शनमोहनीय कर्म का ऐसा ही आवरण है कि यह जीव को भ्रम जाल में डाल देता है ।
४०.
तीनों ही दृष्टियां क्षयोपशम भाव हैं । वे सभी शुद्ध श्रद्धा रूप हैं। वे क्षायिक सम्यक्त्व की बानगी नमूने रूप गुण निधि मात्र हैं ।
४१. अंतराय कर्म का क्षयोपशम होने से आठ उत्तम गुण उत्पन्न होते हैं पांच लब्धि और तीन वीर्य । अब उनका विस्तार सुनें ।
४२. अन्तराय कर्म की पांचों ही प्रकृतियां सदा प्रत्यक्षतः क्षयोपशम रूप में रहती हैं। उससे पांच लब्धि ओर बाल वीर्य अल्प प्रमाण में उज्ज्वल रहते हैं ।
४३. दानांतराय कर्म का क्षयोपशम होने से दान देने की लब्धि उत्पन्न होती है । लाभांतराय कर्म का क्षयोपशम होने से लाभ की लब्धि प्रकट होती है ।