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नव पदार्थ
१४१ २५. मोहनीय कर्म का क्षयोपशम होने से ये आठ बोल उत्पन्न होते हैं चार चारित्र, देश-विरति और तीन उज्ज्वल दृष्टि।
२६. चारित्र मोहनीय कर्म की पच्चीस प्रकृतियों में से कई सदा क्षयोपशम रूप में रहती हैं। उससे जीव अंशमात्र उज्ज्वल रहता है और शुभ अध्यवसाय का वर्तन होता है।
२७. कभी क्षयोपशम अधिक होता है तब जीव में अधिक गुण उत्पन्न होते हैं। क्षमा, दया, संतोष आदि गुणों की वृद्धि होती है और शुभ लेश्याएं वर्तती हैं।
२८. जीव के शुभ परिणाम तथा शुभ योगों का वर्तन होता है, कभी-कभी धर्मध्यान भी करता है। ध्यान की स्थिति कषाय के मिटने से आती है।
२९. शुभ ध्यान, शुभ परिणाम, शुभ योग, शुभ लेश्या और शुभ अध्यवसाय ये सभी अन्तराय कर्म का क्षयोपशम होने पर तथा मोहकर्म के दूर होने पर होते हैं।
३०. अनन्तानुबंधी आदि कषाय की चौकड़ी तथा अन्य बहुत सी प्रकृतियों का क्षयोपशम होने से जीव के देश-विरति उत्पन्न होती है और इसी तरह चारों चारित्र प्राप्त होते हैं।
३१. मोहनीय कर्म का क्षयोपशम होने से देश-विरति और चार चारित्र तथा क्षमा, दया आदि सभी उत्तम गुण उत्पन्न होते हैं।
३२. देश-विरति और चारों चारित्र शुभ हैं। वे गुणरूपी रत्नों की खान हैं। ऐसा प्रधान क्षयोपशम भाव क्षायिक चारित्र की बानगी (नमूने) है।
३३. चारित्र को विरति संवर इसलिए कहा जाता है कि उससे पापों का निरोध होता है। पाप-क्षय होने पर जीव उज्ज्वल हुआ, इस न्याय से उसे निर्जरा कहा है।
३४. दर्शनमोहनीय कर्म का क्षयोपशम होने से सच्ची एवं शुद्ध श्रद्धा उत्पन्न होती है। तीनों दृष्टियों में जो शुद्ध श्रद्धान है, वह क्षयोपशम भाव निधि है।