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नव पदार्थ
१३९ १५. सम्यक्दृष्टि के उत्कर्षतः आचारांग आदि का पठन तथा चौदह पूर्व का ज्ञान होता है। और मिथ्यात्वी उत्कर्षतः देश-न्यून दस पूर्व तक का ज्ञानाभ्यास कर सकता है।
१६. अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयापेशम होने से सम्यक्दृष्टि अवधि-ज्ञान प्राप्त करता है और मिथ्यादृष्टि को क्षयोपशम के परिणामानुसार विभंग अज्ञान उत्पन्न होता है।
१७. मनःपर्यवज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होने से मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न होता है। यह प्रधान क्षयोपशम भाव सम्यक् दृष्टि साधु को उत्पन्न होता है।
१८. ज्ञान, अज्ञान दोनों साकार उपयोग हैं और इन दोनों का स्वभाव एक-सा है। ये कर्मों के दूर होने से उत्पन्न होते हैं और ये क्षयोपशम उज्ज्वल भाव हैं।
१९. दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम होने से आठ उत्तम बोल उत्पन्न होते हैं पांच इन्द्रियां और तीन दर्शन । वे निर्जरा-जन्य उज्ज्वल सार तत्त्व हैं।
२०. दर्शनावरणीय कर्म की नौ प्रकृतियों में से एक प्रकृति सदा क्षयोपशम रूप रहती है। उससे अचक्षु दर्शन और स्पर्श इन्द्रिय सदा रहती है। क्षयोपशम भाव-जीव है।
२१. चक्षुदर्शनावरणीय का क्षयोपशम होने से चक्षु दर्शन और चक्षु इन्द्रिय प्राप्त होती है। कर्म दूर होने से जीव उज्ज्वल होता है, जिससे वह देखने लगता है।
२२. अचक्षुदर्शनावरणीय का विशेष क्षयोपशम होता है तब चक्षु को छोड़कर बाकी चार क्षयोपशम इन्द्रियां प्राप्त होती हैं।
२३. अवधिदर्शनावरणीय का क्षयोपशम होने से विशेष अवधि दर्शन उत्पन्न होता है। उससे जीव उत्कृष्टतः सर्व रूपी पुद्गलों को देखने लगता है।
२४. पांच इन्द्रियां और तीनों दर्शन वे क्षयोपशम अनाकार उपयोग हैं। वे केवलदर्शन के नमूने हैं। उसमें जरा भी शंका न रखें।