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नव पदार्थ
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५. आठ कर्मों में चार घनघाती कर्म हैं। उनसे चेतन के स्वाभाविक गुणों की घात होती है । परन्तु उनका अंशमात्र क्षयोपशम सब समय रहता है। उससे जीव कुछ अंश में उज्ज्वल रहता है।
६. घनघाती कर्मों का कुछ क्षयोपशम होने से कुछ उदय बाकी रहता है। क्षयोपशम से जीव उज्ज्वल होता है । पर उदय से जरा भी उज्ज्वल नहीं होता ।
७. कर्मों के कुछ क्षय और कुछ उपशम से क्षयोपशम भाव होता है। यह क्षयोपशम भाव उज्ज्वल है और चेतन जीव का गुण पर्याय है ।
८. जैसे-जैसे कर्मों का क्षयोपशम होता है, वैसे-वैसे जीव उज्ज्वल होता जाता है। जीव का उज्ज्वल होना ही निर्जरा है । यह भाव जीव है ।
९. जीव के देशरूप उज्ज्वल होने को ही भगवान ने निर्जरा कहा है । सर्वरूप उज्ज्वल होना मोक्ष है और वह मोक्ष परम निधि है ।
१०. ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयापेशम होने से चार ज्ञान और तीन अज्ञान उत्पन्न होते हैं । तथा आचारांग आदि का पठन तथा चौदह पूर्व का ज्ञान होता है ।
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११. ज्ञानावरणीय कर्म की पांच प्रकृतियों में से दो का सदा क्षयोपशम रहता है, उससे दो अज्ञान सदा रहते हैं और जीव अंशमात्र उज्ज्वल रहता है ।
१२. मिथ्यात्वी के जघन्य दो और उत्कृष्ट तीन अज्ञान होते हैं । उत्कृष्ट में देशन्यून दस पूर्व पढ़ ले, इतना उत्कृष्ट क्षयोपशम अज्ञान होता है ।
१३. सम्यक्दृष्टि के जघन्य दो और उत्कृष्ट चार ज्ञान होते हैं । उत्कृष्ट चौदह पूर्व तक पढ़ ले, ऐसी क्षयोपशम भाव की निधि होती है।
१४. मतिज्ञानावरणीय का क्षयोपशम होने से मतिज्ञान और मति - अज्ञान उत्पन्न होते हैं, और श्रुतज्ञानावरणीय का क्षयोपशम होने से श्रुतज्ञान और श्रुत - अज्ञान उत्पन्न होते हैं।