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नव पदार्थ
१२३ ३. पापोदय से जीव प्रमादी होता है। जिन पापों के उदय से प्रमाद आश्रव होता है उन्हीं पाप कर्मों के क्षयोपशम होने से 'अप्रमाद संवर' होता है।
४. कषाय कर्मों के उदय से जीव के कषाय आश्रव होता है। उन कषाय-कर्मों के अलग होने पर जीव के 'अकषाय संवर' होता है।
५. किंचित्-किंचित् योगों के निरोध से अयोग संवर नहीं होता। मन, वचन तथा काय के सर्वथा निरोध से अयोग संवर होता है।
६. सावद्य अशुभ योगों का सर्वथा निरोध करने पर 'सर्व विरति संवर' होता है। पर जीव के निरवद्य योग अवशेष रहते हैं। उससे अयोग संवर नहीं होता है।
७. प्रमाद आश्रव, कषाय आश्रव और योग आश्रव ये प्रत्याख्यान (त्याग) करने से नहीं मिटते। ये कर्मों के दूर होने पर सहज ही मिटते हैं। इस बात की अंतरंग पहचान करें।
८. शुभ ध्यान और शुभ लेश्या द्वारा कर्म कटने पर ही अप्रमाद संवर होता है। इसी प्रकार अकषाय और अयोग संवर भी कर्म-क्षय से होते हैं।
९. सम्यक्त्व संवर और सर्व विरति संवर ये प्रत्याख्यान करने से होते हैं और अप्रमाद, अकषाय और अयोग संवर ये कर्म-क्षय से होते हैं।
१०. हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह इनका समावेश योग आश्रव में होता है। इन पांचों आश्रवों के त्याग से विरति-संवर होता है।
११. पांच इन्द्रियों को खुली रखते हैं, उसे भी योग आश्रव जानें। इन्द्रियों को खुली रखने का त्याग है। उसे विरति-संवर पहचानें।
१२. तीनों योगों की शुभ-अशुभ प्रवृत्ति योग आश्रव है। इन तीनों योगों के सर्वथा निरोध से अयोग संवर होता है।