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नव पदार्थ
१२९ ३२. जैसे-जैसे मोहनीय कर्म पतला होता जाता है, वैसे-वैसे जीव उत्तरोत्तर निर्मल होता जाता है। इस प्रकार मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने पर यथाख्यात चारित्र प्रकट होता है।
३३. जघन्य सामायिक चारित्र के अनन्तगुण पर्यव जानें । उदय में आए हुए अनंत कर्म-प्रदेशों के मिट जाने से आत्मा के अनन्तगुण प्रकट हुए।
३४. जघन्य सामायिक चारित्र वाले के आत्म-प्रदेश अनन्तगुण उज्ज्वल होते हैं। उदय में आए हुए अनन्त कर्म-प्रदेशों के मिट जाने पर विशेष रूप से अनन्त गुण उज्ज्वल होते हैं।
३५. मोहकर्म का उदय इस प्रकार असंख्य बार घटता है। उससे सामायिक चारित्र के उत्तम असंख्यात स्थानक कहे जाते हैं।
३६. अनन्त कर्म-प्रदेशों का उदय मिट जाने से एक चारित्र स्थानक उत्पन्न होता है तथा अनन्त चारित्र गुण-पर्यव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार सामायिक चारित्र के अनेक
भेद हैं।
३७. जघन्य सामायिक चारित्र के अनन्त पर्यव जाने तथा उससे उत्कृष्ट सामायिक चारित्र के पर्यव उससे अनन्तगुण जानें।
३८. सामायिक चारित्र की उत्कृष्ट पर्यव-संख्या से भी सूक्ष्म संपराय चारित्र की पर्यव-संख्या अधिक होती है। जघन्य सूक्ष्म संपराय चारित्र की पर्यव संख्या सामायिक चारित्र की उत्कृष्ट पर्यव संख्या से अनन्तगुण है।
३९. छठे गुणस्थान से लेकर नौंवे तक सामायिक चारित्र जानें। इसके असंख्यात स्थानक और अनन्त पर्यव हैं। सूक्ष्मसंपराय चारित्र दसवें गुणस्थान में होता है।
४०. सूक्ष्मसंपराय चारित्र के भी असंख्यात स्थानक जाने तथा सामायिक चारित्र की तरह एक-एक स्थानक के अनन्त-अनन्त पर्यव समझें।