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नव पदार्थ
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२३. मोहकर्म के सर्वथा उपशम होने से उपशम चारित्र होता है, जिससे जीव शीतल और निर्मल हो जाता है और उसके पाप कर्म नहीं लगते ।
२४. मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय होने से क्षायक यथाख्यात चारित्र होता है । जिससे जीव शीतल और निर्मल होता है, उसके जरा भी पाप नहीं लगता ।
२५. सामायिक चारित्र उदीर कर इच्छापूर्वक ग्रहण किया जाता है और इसमें मनुष्य सर्व सावद्य योगों का प्रत्याख्यान करता है । उपशम चारित्र मोहकर्म के उपशम से ग्यारहवें गुणस्थान में स्वयं प्राप्त होता है ।
२६. क्षायिक चारित्र मोहकर्म को क्षय करने से प्राप्त होता है, प्रत्याख्यान से नहीं । वह चारित्र शुक्ल ध्यान के ध्याने से अंतिम तीन गुणस्थानों में होता है ।
२७. चारित्रावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने से क्षयोपशम चारित्र निधि प्राप्त होती है । उसके उपशम से उपशम चारित्र और क्षय से प्रधान क्षायिक चारित्र होता है ।
२८. जिनेश्वर ने चारित्र को जीव के स्वाभाविक गुण कहे हैं। वे जीव से अलग नहीं होते। वे मोहकर्म के अलग होने से प्रकट होते हैं । उन गुणों से जीव मुनि बनता है ।
२९. चारित्रावरणीय मोहनीयकर्म ( का एक भेद) है। उसके अनन्त प्रदेश होते हैं । उसके उदय से जीव के स्वाभाविक गुण विकृत होते हैं, उससे जीव को अत्यन्त क्लेश होता है ।
३०. उस कर्म के अनन्त प्रदेशों के अलग होने पर जीव अनन्तगुण उज्ज्वल होता है । फिर सावद्य योगों का सर्वथा प्रत्याख्यान करने से सर्व विरति संवर होता है।
३१. जीव उज्ज्वल हुआ, वह निर्जरा हुई और विरति संवर से पाप कर्मों का आना रूका। विरति संवर से नए कर्म नहीं लगते । चारित्र धर्म इस प्रकार है ।