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भिक्षु वाङ्मय खण्ड - १
५०. श्रावक जे जे पुदगल भोगवें, ते सावद्य जोग व्यापार हो । त्यांरो त्याग कीयां थी विरत संवर हुवें तप पिण नीपजें लार हो । ।
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५१. साधु कल्पें ते पुदगल भोगवे, ते निरवद जोग व्यापार हो । त्यांनें त्याग्यां सूं तपसा नीपनी, जोग संध्यां रो संवर श्रीकार हो । ।
५२. साधु रो हालवो चालवों बोलवों, ते तो निरवद जोग व्यापार हो । निरवद जोग रूंध्यां जितलों संवर हुवों, तपसा पिण नीपजें श्रीकार हो ।।
५३. श्रावक रें हालवो चालवों बोलवों, सावद्य निरवद व्यापार हो । सावरा त्याग सूं विरत संवर हुवें निरवद त्याग्या सूं संवर श्रीकार हो । ।
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५४. चारित नें तों विरत संवर कह्यों, ते तो इविरत त्याग्यां होय हो । अजोग संवर सुभ जोग संध्यां हुवें, तिण माहे संक न कोय हो । ।
५५. संवर निज गुण निश्चेंइ जीव रा, तिणनें भाव जीव कह्यों जगनाथ हो । जिण दरब नें भाव जीव नहीं ओळख्या, तिणरो घट सूं न गयो मिथ्यात हो । ।
५६. संवर पदार्थ नें ओळखायवा, जोड़ कीधी नाथ दुवारा मझार हो । संवत अठारें वरसें छपनें, फागुण विद तेरस सुक्रवार हो ।।