________________
१३०
भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१
४१. सुखम संपराय चारितीया रे सेष उदें रह्या, मोह कर्म रा अनंत प्रदेस हो।
ते अनंत प्रदेस खस्यां निरजरा हुइ, बाकी उदे नही रह्यों लवलेस हो।
४२. जब जथाख्यात चारित परगट हुवों, तिण चारित रा पजवा अनंत हो।
सुखम संपराय रा उतकष्टा पजवां थकी, अनंत गुणां कह्या भगवंत हो।।
४३. जथाख्यात चारित उजल हूओ सर्वथा, तिण चारित रो थानक एक हो।
अनंता पजवा तिण थांनक तणा, ते थांनक , उतकष्टों विशेख हो।।
४४. मोह कर्म प्रदेस अनंता उदें हुवें, ते तों पुदगल री परज्याय हो।
अनंता अलगा हूआं अनंत गुण परगटे, ते निज गुण जीव रा छे ताहि हो।
४५. ते निज गुण जीव रा ते तों भाव जीव छे, ते निज गुण , वंदणीक हो।
ते तो कर्म खय हूआं सूं नीपना, भाव जीव कह्या त्यांने ठीक हो।
४६. सावध जोगां रा त्याग करे ने रूंधीया, तिणसूं विरत संवर हुवों जांण हो।
निरवद जोग रूंध्यां संवर हुवें, तिणरी करजों पिछांण हो।।
४७. निरवद्य जोग मन वचन काया तणा, ते घटीयां संवर थाय हो।
सर्वथा घटीयां अजोग संवर हुवें, तिणरी विध सुणों चित्त ल्याय हो।
४८. साधु तो उपवास बेलादिक तप करें, कर्म काटण रे काम हो।
जब संवर सहचर साधु रे नीपजें, निरवद जोग रूंध्यां सूं तांम हो।।
४९. श्रावक उवास बेलादिक तक करें, कर्म काटण रें काम हो।
जब विरत संवर पिण सहचर नीपनों, सावध जोग रूंध्यां सूं तांम हो।।
आवक उवास खेलादिक तक