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________________ १३२ भिक्षु वाङ्मय खण्ड - १ ५०. श्रावक जे जे पुदगल भोगवें, ते सावद्य जोग व्यापार हो । त्यांरो त्याग कीयां थी विरत संवर हुवें तप पिण नीपजें लार हो । । " ५१. साधु कल्पें ते पुदगल भोगवे, ते निरवद जोग व्यापार हो । त्यांनें त्याग्यां सूं तपसा नीपनी, जोग संध्यां रो संवर श्रीकार हो । । ५२. साधु रो हालवो चालवों बोलवों, ते तो निरवद जोग व्यापार हो । निरवद जोग रूंध्यां जितलों संवर हुवों, तपसा पिण नीपजें श्रीकार हो ।। ५३. श्रावक रें हालवो चालवों बोलवों, सावद्य निरवद व्यापार हो । सावरा त्याग सूं विरत संवर हुवें निरवद त्याग्या सूं संवर श्रीकार हो । । " ५४. चारित नें तों विरत संवर कह्यों, ते तो इविरत त्याग्यां होय हो । अजोग संवर सुभ जोग संध्यां हुवें, तिण माहे संक न कोय हो । । ५५. संवर निज गुण निश्चेंइ जीव रा, तिणनें भाव जीव कह्यों जगनाथ हो । जिण दरब नें भाव जीव नहीं ओळख्या, तिणरो घट सूं न गयो मिथ्यात हो । । ५६. संवर पदार्थ नें ओळखायवा, जोड़ कीधी नाथ दुवारा मझार हो । संवत अठारें वरसें छपनें, फागुण विद तेरस सुक्रवार हो ।।
SR No.032415
Book TitleAcharya Bhikshu Tattva Sahitya 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Ganadhipati, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Sukhlal Muni, Kirtikumar Muni, Shreechan
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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