________________
नव पदार्थ
१३१ ४१. सूक्ष्मसंपराय चारित्र वालों के मोहकर्म के अनन्त प्रदेश अन्त तक उदय में रहते हैं। उनके झड़ जाने से निर्जरा होती है। फिर मोहकर्म का लेशमात्र भी उदय नहीं रहता।
४२. जब यथाख्यात चारित्र प्रकट होता है, उसके अनन्त पर्यव होते हैं। भगवान ने इस चारित्र के पर्यव सूक्ष्मसंपराय चारित्र के उत्कृष्ट पर्यव संख्या से अनन्तगुणा कहे
हैं
४३. यथाख्यात चारित्र अर्थात् जीव का सर्वथा उज्ज्वल होना। उस चारित्र का एक ही स्थानक होता है। उस स्थानक के अनन्त पर्यव हैं। वह स्थानक विशेष उत्कृष्ट
४४. मोहकर्म के जो अनन्त प्रदेश उदय में आते हैं, वे पुद्गल के पर्याय हैं। इन अनन्त कर्मप्रदेशों के अलग होने से अनन्त गुण प्रकट होते हैं। ये जीव के स्वाभाविक गुण हैं। .
४५. जीव के इस प्रकार प्रकट हुए स्वाभाविक गुण भाव-जीव हैं और वन्दनीय हैं। वे गुण कर्म-क्षय से उत्पन्न हुए हैं और उन्हें भाव जीव ठीक ही कहा गया है।
४६. सावध योग का प्रत्याख्यान पूर्वक निरोध करने से विरति संवर होता है और निरवद्य योग के निरोध से संवर होता है। उसकी पहचान करें।
४७. मन-वचन-काय के निरवद्य योगों के घटने से संवर होता है और उनके सर्वथा मिट जाने से अयोग संवर होता है। उसकी विधि ध्यान पूर्वक सुनें।
४८. साधु जब कर्म क्षय के हेतु उपवास, बेला आदि तप करता है तो निरवद्य योग के निरोध से उसके सहचर संवर होता है।
४९. श्रावक जब कर्म-क्षय के हेतु उपवास, बेला आदि तप करता है तो सावध योग का निरोध करने से सहचर विरति संवर भी होता है।