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नव पदार्थ
११५ ४०-४१. अच्छे-बरे परिणाम, अच्छी-बुरी लेश्या, अच्छे-बुरे योग, अच्छे-बुरे अध्यवसाय और अच्छे-बुरे ध्यान ये सब जीव के परिणाम, भाव हैं। बुरे परिणाम पाप के द्वार हैं और भले परिणाम संवर और निर्जरा रूप हैं और उनसे सहज ही पुण्य आकर लगते हैं।
४२. निर्जरा की निरवद्य करनी करते हुए कर्मों का क्षय होता है, उस समय जीव के प्रदेश चलायमान होते हैं, उससे पुण्य आकर लगते हैं।
४३. निर्जरा की निरवद्य करनी करते समय जीव के सर्व प्रदेश चलायमान होते हैं, उस समय सहचर नामकर्म के उदय भाव से पुण्य का प्रवेश होता है।
४४. मन, वचन और काय ये तीनों योग प्रशस्त (शुभ) और अप्रशस्त (अशुभ) दो तरह के कहे गए हैं। अप्रशस्त योग पाप के द्वार हैं और प्रशस्त योगों को निर्जरा की करनी में समाविष्ट किया है।
४५. अप्रशस्त द्वार को रूंधने और प्रशस्त को उदीरने का कहा गया है। रूंधते और उदीरते हुए निर्जरा की क्रिया होती है, जिससे पुण्य लगता है, इसलिए शुभ योग को भी आश्रव में समाविष्ट किया गया है।
४६. तीनों ही योग प्रशस्त और अप्रशस्त हैं और इनके बासठ भेद ओवाइयं सूत्र में हैं। जीव के सावद्य या निरवद्य व्यापार योग हैं।
४७. जिनेश्वर ने असंयम के सत्रह भेद बतलाए हैं। असंयम अर्थात् अविरति । अविरति जीव की आशा-वांछा का नाम है, उसे अच्छी तरह पहचानें।
४८. बुरे-बुरे कार्य, बुरी-बुरी क्रिया और जिनेश्वर की आज्ञा के बाहर के सभी कार्य जीव के ही व्यापार हैं ये सभी आश्रव-द्वार हैं।