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नव पदार्थ
११७ ४९. मोहकर्म के उदय से जीव के चार संज्ञाएं होती हैं। ये पाप कर्मों को खींचखींच कर ग्रहण करती हैं। पाप कर्मों को ग्रहण करने वाला आश्रव है। उसे जीव का लक्षण जानें।
५०. उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम इन सबके सावध योग-व्यापार से जीव के पाप कर्म लगते हैं। वह आश्रव-द्वार जीव है।
५१. उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम इनके निरवद्य योग-व्यापार से जीव के पुण्य कर्म लगते हैं। वह आश्रव-द्वार भी जीव है।
और संवर
५२. संयम, असंयम और संयमासंयम ये क्रमशः संवर, आश्रव आश्रव दोनों हैं। इसमें जरा भी शंका नहीं है।
५३. इसी तरह व्रती, अव्रती और व्रताव्रती तथा प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी को जानें। इसी तरह पण्डित, बाल और बाल-पंडित तथा सुप्त, जाग्रत और सुप्त-जाग्रत को पहचानें।
५४. इसी तरह संवृत, असंवृत और संवृतासंवृत तथा धर्मी, धर्मार्थी, धर्मव्यवसायी के तीन-तीन बोलों को समझें।
५५. ये सभी बोल संवर और आश्रव हैं, उनको अच्छी तरह पहचानें जो आश्रव को अजीव मानते हैं, वे पूरे मूढ़ और अज्ञानी हैं।
५६. आश्रव घटने से संवर बढ़ता है। संवर घटने से आश्रव बढ़ता है। कौन द्रव्य घटता और कौन द्रव्य बढ़ता है इसे अच्छी तरह पहचानें।
५७. जीव के औदयिक भाव अव्रत के घटने से क्षयोपशम भाव (व्रत) की वृद्धि होती है। इस तरह जीव के ही भाव घटते और बढ़ते हैं, इस न्याय से आश्रव को जीव कहा है।