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नव पदार्थ विपरीतता से अशुभ नामकर्म का बंध होता है। यह करनी सावद्य-पाप सहित है। इनसे निर्जरा धर्म नहीं है।
२९-३०. जाति, कुल, बल, रूप, तप, लाभ, सूत्र और ठकुराई (ऐश्वर्य) इन आठों मदों (अभिमानों) के न करने से जीव के उच्च गोत्र का बंध होता है और इन्हीं आठों मदों के करने से नीच गोत्र का बंध होता है। मद करना सावद्य-पाप क्रिया है। इसमें धर्म (निर्जरा) और पुण्य नहीं है।
३१. ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चारों एकान्त पाप कर्म हैं। इनकी करनी आज्ञा में नहीं है।
३२. वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र ये चारों कर्म पुण्य और पाप दोनों रूप हैं। उसमें पुण्य की करनी निरवद्य है। उसकी आज्ञा भगवान स्वयं देते हैं।
३३. पुण्य-पाप की करनी का अधिकार (वर्णन) भगवती सूत्र के आठवें शतक के नवें उद्देशक में आया है। उसका न्याय सम्यक्-दृष्टि समझते हैं।
३४-३७. करनी कर निदान (फल की इच्छा) न करने से, शुभ परिणाम युक्त सम्यक्त्व से, समाधि योग में प्रवर्तन से, क्षमापूर्वक परिषह सहन करने से, पांचों इन्द्रियों को वश में करने से, माया और कपट से रहित होने से, ज्ञान आदि की आराधना में शिथिलता न रखने से, श्रमणत्व से, हितकर आठ प्रवचन माताओं से संयुक्त होने से, विस्तार से धर्म-कथा कहने से इन दस बोलों से जीव के उत्तम कल्याणकारी कर्मों का बंध होता है। वे कल्याणकारी कर्म पुण्य हैं और उनकी करनी भी निरवद्य जानें। ये दस बोल ठाणं सूत्र के दसवें स्थान (सू. १३३) में कहे हैं। वहां देखकर पुण्य-करनी की पहचान करें।