________________
नव पदार्थ
८९
३. तत्त्व की अयथार्थ प्रतीति करना मिथ्यात्व आश्रव है । अयथार्थ प्रतीति साक्षात् जीव के ही होती है। मिथ्यात्व आश्रव का अवरोध करने वाला सम्यक्त्व संवर - द्वार है ।
४. अत्याग-भाव अविरति आश्रव है । अत्याग-भाव जीव के अशुभ परिणाम हैं 1 इस अविरति को निवारण करने वाली विरति संवर-द्वार है ।
५. जिन द्रव्यों का त्याग नहीं किया जाता है, उनकी आशा-वांछा बनी रहती है। यह अविरति जीव का परिणाम है। इसके त्याग से संवर होता है ।
६. प्रमाद आश्रव भी जीव का अशुभ परिणाम है । प्रमाद आश्रव के निरोध से अप्रमाद संवर होता है ।
७. कषाय आश्रव जीव का कषाय रूप परिणाम है । कषाय आश्रव से पाप लगते हैं। अकषाय से मिट जाते हैं ।
८. सावद्य - निरवद्य योगों (व्यापारों) को योग - आश्रव कहते हैं। अच्छे-बुरे परिणामों का अवरोध करना अयोग संवर है । इस प्रकार पांच आश्रव - द्वार हैं ।
1
९. उपर्युक्त पांचों आश्रव उन्मुक्त द्वार हैं, जिनसे कर्मों का आगमन होता है । ये पांचों आश्रव-द्वार जीव के परिणाम हैं और इन परिणामों के कारण कर्म लगते हैं ।
१०. आश्रव - रूपी उन्मुक्त द्वार को अवरुद्ध करने (बंद करने) वाले संवर - द्वार हैं। आश्रव-द्वार को रूंधने वाले और नए कर्मों के प्रवेश को रोकनेवाले उत्तम गुण जीव ही हैं।
११. इसी प्रकार चौथे अंग (समवायांग) में पांच आश्रव द्वार और पांच संवरद्वार कहे हैं। आश्रव कर्मों का कर्त्ता, उपाय है। कर्म आश्रव के द्वारा ही आकर लगते हैं ।
१२. उत्तराध्ययन सूत्र के उनतीसवें अध्ययन (सूत्र १२) में प्रतिक्रमण करने का फल व्रतों के छिद्र का रूंधन और आश्रव द्वार का अवरोध होना बतलाया है ।