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नव पदार्थ
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२. जिन सावध कामों का त्याग नहीं होता उनकी आशा-वांछा लगी र हती है। आशा-वांछा जीव के मलिन परिणाम हैं। यह अत्याग भाव ही अविरति आश्रव है।
३. प्रमाद-आश्रव जीव के मलिन परिणाम हैं। उससे निरन्तर पाप लगता रहता है। मूढ़ मिथ्यात्वी उसको अजीव कहते हैं। उसके मिथ्याश्रद्धा की स्थापना है।
४. जिनेश्वर ने कषाय आश्रव को जीव बतलाया है। उसे कषाय आत्मा कहा है। कषाय करने का स्वभाव जीव का ही है। कषाय जीव-परिणाम है।
५. जिनेश्वर ने योग आश्रव को जीव कहा है। इसलिए योग आत्मा कही गई है। तीनों योगों के व्यापार जीव के हैं। योग जीव के परिणाम हैं।
६. जीव की हिंसा करना प्राणातिपात आश्रव है। हिंसा साक्षात् जीव ही करता है। हिंसा करना जीव-परिणाम है। इसमें तिलमात्र भी शंका नहीं।
७. जिनेश्वर ने झूठ बोलने को (मृषावाद) आश्रव कहा है। झूठ साक्षात् जीव ही बोलता है। झूठ बोलना जीव-परिणाम है। इसमें जरा भी शंका नहीं।
८. जिनेश्वर ने चोरी करने को आश्रव कहा है। चोरी करने वाला साक्षात् जीव होता है। चोरी करना जीव-परिणाम है। इसमें जरा भी शंका नहीं।
९. मैथुन-सेवन चौथा आश्रव है। मैथुन-सेवन जीव ही करता है। मैथुन जीवपरिणाम है। उससे अत्यन्त पाप लगता है।
१०. परिग्रह रखना पांचवां आश्रव है। जो परिग्रह रखता है, वह जीव है। मूर्छा परिग्रह है और वह जीव-परिणाम है। इससे अतीव पाप लगता है।
११. पांचों इन्द्रियों को खुला छोड़ना आश्रव है। इन्द्रियों को जीव ही प्रवृत्त करता है। शब्दादिक विषयों पर जो राग-द्वेष आता है, उसे जीव का भाव पहचानें।