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नव पदार्थ
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२२. मन, वचन और काया के योगों का व्यापार और समुच्चय योग का व्यापार ये चारों आश्रव सावद्य, निरवद्य दोनों हैं एवं पुण्य-पाप के द्वार हैं।
२३. मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग व्यापार ये पांचों ही जीव के कर्मों के कर्त्ता हैं, अतः पांचों ही आश्रव - द्वार हैं
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२४. इनमें पहले चार आश्रव स्वभाव से ही उदय भाव हैं और योगाश्रव में अवशेष पन्द्रह आश्रव समाए हुए हैं। योग आश्रव कर्त्तव्य रूप और स्वभाविक भी है। इसलिए उसमें पंद्रह आश्रवों का समावेश होता है ।
२५. हिंसा करना योग आश्रव है। झूठ बोलना भी योग आश्रव है । इसी तरह चोरी करने से लेकर शुचि- कुशाग्र सेवन तक पंद्रह ही आश्रव योग आश्रव के अन्तर्गत हैं ।
२६. कर्मों का कर्त्ता तो जीव द्रव्य है और किए जाते हैं, वे कर्म हैं। जो कर्म और कर्त्ता को एक समझते हैं, वे अज्ञानी भ्रम में भूले हुए हैं ।
२७. अठारह पाप-स्थानक चतुःस्पर्शी अजीव हैं। उनके उदय में आने पर जीव भिन्न-भिन्न अठारह प्रकार के कर्त्तव्य करता है । वे अठारहों ही कर्त्तव्य आश्रवद्वार हैं ।
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२८. जो उदय में आते हैं, वे तो मोहकर्म अर्थात् अठारह पाप-स्थानक हैं और उनके उदय में आने से जो अठारह कर्त्तव्य जीव करता है, वे जीव के व्यापार हैं ।
२९. पाप-स्थानकों के उदय को और उनके उदय में आने से होने वाले कर्त्तव्यों को जो भिन्न-भिन्न समझता है, उसकी श्रद्धा सम्यक् है । और जो इस उदय और कर्त्तव्य को एक समझते हैं, उनकी श्रद्धा विपरीत है ।
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३०. प्राणी हिंसा को प्राणातिपात आश्रव जानें। जिसके उदय से प्राणातिपात आश्रव होता है, वह प्राणातिपात स्थान है, उसे अच्छी तरह पहचानें ।