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नव पदार्थ
१०९ १२-१३. श्रोत्रेन्द्रिय शब्द को सुनती है। चक्षु इन्द्रिय रूप को देखती है। घ्राणेन्द्रिय गंध का भोग करती है। रसनेन्द्रिय रसास्वादन करती है। स्पर्शनेन्द्रिय स्पर्श का भोग करती है। पांचों इन्द्रियों के ये स्वभाव हैं। इन इन्द्रियों के विषयों में राग-द्वेष करना आश्रव है। (राग-द्वेष करना जीव के भाव हैं) इस न्याय से उसे जीव कहा जाता है।
१४. तीन योगों को खुला छोड़ना आश्रव है। खुला छोड़ने वाला जीव है। उनको अजीव कहते हैं, वे मूढ़ मिथ्यात्वी हैं। उनके घट में ज्ञान का दीपक नहीं है।
१५. तीनों योगों का व्यापार जीव का है। वे योग जीव-परिणाम हैं। अशुभ-योग अशुभ-लेश्या के लक्षण हैं। उनको योग आत्मा कहा गया है।
१६. भंड-उपकरण से कोई अयतना करता है, वही आश्रव है। यह अच्छी तरह समझ लें कि आश्रव जीव का स्वभाव है।
१७. शुचि-कुशाग्र का सेवन करना आश्रव है। जो शुचि-कुशाग्र का सेवन करता है, वह जीव है। शुचि-कुशाग्र सेवन को जो अजीव कहते हैं, उनके मिथ्यात्व की नींव गहरी है।
१८. द्रव्य योगों को रूपी कहा गया है। वे भाव योगों के पीछे हैं। द्रव्य योगों से कर्मों का आश्रव नहीं होता, भाव योग आश्रव-द्वार हैं।
१९. अज्ञानी आश्रव को कर्म कहते हैं। उस अपेक्षा से भी वे मिथ्यादृष्टि हैं। आठ कर्मों को तो चतुःस्पर्शी कहते हैं, पर द्रव्य काय योग तो अष्टस्पर्शी हैं। (अतः आश्रव और कर्म एक नहीं)।
२०. आश्रव को जो कर्म कहते हैं, उनकी श्रद्धा उत्स से ही मिथ्या है। वे अपनी ही भाषा के अनजान हैं। उनके बाह्य और आभ्यन्तर दोनों नेत्रं फूट चुके हैं।
२१. बीस आश्रवों में से सोलह एकान्त सावध हैं और पाप आने के द्वार हैं। ये जीव के अशुभ और बुरे कर्तव्य हैं, जो पाप के कर्ता हैं।