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नव पदार्थ
५२. इंद्रियों को कौन प्रवृत्त करता है, शब्दादिक को कौन ग्रहण करता है? इन्द्रियों की प्रवृत्ति आश्रव है और जो आश्रव है, वह जीव द्रव्य है।
५३. मुख से कौन बुरा बोलता है? शरीर से कौन बुरी क्रियाएं करता है? ये सब कार्य जीव द्रव्य के व्यापार हैं और पुद्गल इनके अनुगामी हैं।
५४. जीव के प्रदेश चलाचल (चंचल) होते हैं। उनको दृढ़तापूर्वक स्थिर करने से आश्रव द्रव्य का निरोध होता है। और तभी संवर द्रव्य कायम होता है।
५५. जीव के प्रदेश चलाचल (चंचल) होते हैं। सर्व प्रदेशों से कर्मों का नाश होता है। सर्व प्रदेश कर्म ग्रहण करते हैं। सर्व प्रदेश कर्मों के कर्ता हैं।
५६. इन प्रदेशों को स्थिर करने वाला ही संवर-द्वार है। अस्थिर प्रदेश आश्रव हैं और वे निश्चय ही जीव द्रव्य हैं।
५७. योग पारिणामिक और उदयभाव है इसीलिए योग को जीव कहा है। अजीव तो उदयभाव नहीं होता, इसे सूत्र में देखें।
५८. पुण्य का आगमन निरवद्य योग से होता है। निरवद्य करनी निर्जरा की हेतु है। पुण्य तो सहज ही आकर लगते हैं। इसलिए योग को आश्रव में डाला है।
५९. संसार के जो-जो काम हैं, वे सब आश्रव हैं जीव के परिणाम हैं। उनकी क्या गिनती कराऊं?
६०. कर्मों को लगाने वाला पदार्थ आश्रव है और आश्रव जीव द्रव्य है। जो आकर लगते हैं, वे अजीव कर्म-पुद्गल हैं। और जो कर्म लगाता है, वह निश्चय ही जीव
६१. कर्मों का कर्ता जीव द्रव्य है। यह कर्म-कर्तृत्व ही आश्रव है। जो किए जाते हैं, वे कर्म कहलाते हैं। वे पुद्गल हैं, जो आ-आ कर लगते हैं।