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नव पदार्थ
शतक के छटे उद्देशक में है।
२३. और भी बहुत से सूत्रों में आश्रव-द्वार का वर्णन आया है। वह पूरा कैसे कहा जाए। सबका एक ही न्याय है।
२४. आश्रव द्वार का वर्णन जगह-जगह आया है। आश्रव जीव के परिणाम हैं। उनको जो अजीव कहते हैं, वे मिथ्यात्वी हैं और खोटी श्रद्धा के पक्षपाती हैं।
२५. जो कर्मों को ग्रहण करता है, वह जीव द्रव्य है। कर्म आश्रव के द्वारा ग्रहण होते हैं। ये आश्रव जीव के परिणाम हैं। उनसे कर्म लगते हैं।
२६. जीव और पुद्गल का संयोग होता है। और किसी तीसरे द्रव्य का संयोग नहीं होता। जीव जब जानबूझकर पुद्गल लगाता है तब ही वे आकर लगते हैं।
२७. इस तरह जो ग्रहण किए हुए पुद्गल हैं, वे ही पुण्य या पाप रूप हैं। इन पुण्य और पाप कर्मों का कर्ता खुद जीव ही है और जो कर्ता है, उसी को आश्रव समझो। इसमें जरा भी शंका मत लाओ।
२८. जीव कर्मों का कर्ता है। इस सम्बन्ध में सूत्र में अनेक पाठ मिलते हैं। पहले अंग (आचारांग) में जीव को कर्मों का कर्ता कहा है।
२९. पहले अंग के पहले उद्देशक में जीव-स्वरूप का वर्णन आया है। वहां पर जीव को तीनों कालों में कर्ता बताया गया है। वहां जीव को त्रिकरण से कर्ता कहा
है।
३०. आश्रवरूप जीव के भले-बुरे परिणाम ही कर्मों के कर्ता हैं। ये परिणाम ही आश्रव-द्वार हैं। वह जीव का व्यापार है।
३१. कर्ता, करनी, हेतु और उपाय ये चारों ही कर्मों के कर्ता कहलाते हैं। इनसे कर्म आकर लगते हैं। भगवान ने इन्हें आश्रव कहा है।