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नव पदार्थ
७३ २. ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन कर्मों ने जीव के जैसे-जैसे गुणों को विकृत किया है, वैसे-वैसे इनका नाम है।
३. ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञान को आने नहीं देता। दर्शनावरणीय कर्म दर्शन को आने से रोकता है। मोहनीय कर्म जीव को मतवाला कर देता है। अन्तराय कर्म अच्छी वस्तु की प्राप्ति में अवरोध पैदा करता है।
४. ये कर्म चतुःस्पर्शी रूपी पुद्गल हैं। जीव ने बुरी करनी कर उनको लगाया है। उनके उदय से जीव के (अज्ञानी आदि) बुरे-बुरे नाम हैं। जो कर्म जैसी बुराई उत्पन्न करता है, उसका नाम भी उसी के अनुसार है।
५. इन चारों कर्मों की अलग-अलग प्रकृति है और उनके अलग-अलग नाम हैं। उनसे जीव के अलग-अलग गुण अवरुद्ध हुए हैं। उनका थोड़ा-सा विस्तार बता रहा हूं।
६-७. ज्ञानावरणीय कर्म की पांच प्रकृतियां हैं। उनसे जीव पांच ज्ञानों को नहीं पाता। मतिज्ञानावरणीय कर्म मतिज्ञान का अवरोधक होता है। श्रुतज्ञानावरणीय कर्म श्रुतज्ञान को नहीं आने देता। अवधिज्ञानावरणीय कर्म अवधिज्ञान को रोकता है। मनःपर्यवावरणीय कर्म मनःपर्यवज्ञान को नहीं होने देता और केवलज्ञानावरणीय कर्म केवलज्ञान को रोकता है। इन पांचों में पांचवीं प्रकृति सबसे अधिक सघन होती है।
८. ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयापेशम होने से जीव चार ज्ञान प्राप्त करता है। केवलज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता, उसका क्षय होने से केवलज्ञान प्राप्त होता है।
९. दर्शनावरणीय कर्म की नौ प्रकृतियां हैं, जो नाना रूप से देखने और सुनने आदि में बाधा पहुंचाती हैं। ये जीव को बिल्कुल अंधा कर देती हैं। इनमें केवलदर्शनावरणीय कर्म प्रकृति सबसे अधिक सघन होती है।
१०. चक्षुदर्शनावरणीय कर्म के उदय से जीव चक्षुहीन-बिलकुल अंधा और अजानकार हो जाता है। अचक्षुदर्शनावरणीय कर्म के योग से (अवशेष) चार इन्द्रियों की हानि होती है। .