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नव पदार्थ
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३७. चौथा घनघात्य कर्म अन्तराय कर्म है। जिन भगवान ने इसकी पांच प्रकृतियां कही हैं। वे पांचों प्रकृतियां चतुःस्पर्शी पुद्गल हैं। उन प्रकृतियों के भिन्न-भिन्न नाम हैं।
३८. दानान्तराय प्रकृति दान में विघ्नकारी होती है। लाभान्तराय कर्म के कारण वस्तु का लाभ नहीं हो सकता। मनोज्ञ शब्दादिरूप पौद्गलिक सुखों का लाभ नहीं हो
सकता।
___३९. भोगान्तराय कर्म के उदय से भोग्य वस्तुओं के मिलने पर भी उनका सेवन नहीं हो सकता तथा उपभोगांतराय कर्म के उदय से मिली हुई उपभोग्य वस्तुओं का भी सेवन नहीं हो सकता।
४०. वीर्यान्तराय कर्म के उदय से तीनों ही वीर्य-गुण हीन पड़ जाते हैं। उत्थान आदि पांचों ही हीन हो जाते हैं। जीव की शक्ति बिलकुल घट जाती है।
४१. जीव का बल-पराक्रम अनन्त है। एक अन्तराय कर्म के उदय से जीव ने उसको घटाया है। वह कर्म जीव के लगाने से लगा है। खुद का किया हुआ खुद के ही उदय में आया है।
४२. अंतराय कर्म की पांचों प्रकृतियों ने जीव के गुणों को आच्छादित कर रखा है। आच्छादित गुणों के अनुसार ही कर्मों के नाम हैं। कर्मों के ये नाम जीव के प्रसंग से हैं। परन्तु जीव और कर्म दोनों के स्वभाव अलग-अलग हैं।
४३. जिन भगवान ने ये चार घनघात्य कर्म कहे हैं। अघात्य कर्म भी चार हैं। जिन भगवान ने उनको पुण्य व पाप दोनों प्रकार का कहा है। अब मैं अघात्य पाप कर्मों का विस्तार कर रहा हूं।
४४. जिस पाप कर्म के उदय से जीव असाता-दुःख पाता है, उस पापकर्म का नाम असातावेदनीय कर्म है। जीव के स्वयं के संचित कर्म ही उसे दुःख देते हैं। वह असातावेदनीय कर्म पुद्गलों का परिणाम है।