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नव पदार्थ
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१९-२०. दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से शुद्ध श्रद्धान-सम्यक्त्व नहीं आता। इसका उपशम होने पर जीव निर्मल उपशम सम्यक्त्व पाता है। इस कर्म के बिलकुल क्षय होने पर शाश्वत क्षायक सम्यक्त्व और क्षयोपशम होने पर क्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त होता है।
२१-२२. चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से सर्वविरति रूप चारित्र नहीं आता। इस कर्म का उपशम होने से जीव निर्मल उपशम चारित्र पाता है और इसका सम्पूर्ण क्षय होने से उत्कृष्ट क्षायक चारित्र की प्राप्ति होती है। इसके क्षयोपशम से जीव चार क्षयोपशम चारित्र प्राप्त करता है।
२३-२५. जीव के जो औदयिक भाव निष्पन्न होते हैं वे कर्म के उदय से होते हैं, ऐसा पहचानें। जीव के जो औपशमिक भाव निष्पन्न होते हैं। वे कर्म के उपशम से होते हैं, ऐसा जानें । जीव के जो क्षायिक भाव निष्पन्न होते हैं, वे कर्म के क्षय से होते हैं तथा क्षयोपशम भाव कर्म के क्षयोपशम से। जीव के जो-जो भाव (औदयिक आदि) निष्पन्न होते हैं, उन्हीं के अनुसार जीवों के नाम हैं। कर्मों के संयोग व वियोग से जैसेजैसे नाम जीवों के पड़ते हैं, वैसे-वैसे उन कर्मों के भी पड़ जाते हैं।
२६. चारित्रमोहनीय कर्म की पच्चीस प्रकृतियां हैं। उन प्रकृतियों के भिन्न-भिन्न नाम हैं। जिस प्रकृति का उदय होता है, उसी के अनुसार जीव का नाम पड़ जाता है। ये कर्म और जीव के भिन्न-भिन्न परिणाम हैं।
२७. जब जीव अत्यन्त उत्कृष्ट क्रोध करता है तो उसके परिणाम भी अत्यन्त दुष्ट होते हैं, ऐसे क्रोध को जिन भगवान ने अनन्तानुबंधी क्रोध कहा है। ऐसे क्रोध वाले जीव का नाम कषाय आत्मा है।