Book Title: Mahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Author(s): Udaybhanu Sinh
Publisher: Lakhnou Vishva Vidyalaya
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह मेठ भोलाराम सेकसरिया - स्मारक ग्रन्थमाला - ३ महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनका युग लेखक डॉ० उदयभानु सिंह एम० ए०, पीएच० डी० ". UNIVERSIN OF SUCK NOW प्रकाशक - लखनऊ विश्वविद्यालय Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक लखनऊ विश्वविद्यालय लखनऊ मूल्य-दस .पया ? Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतज्ञता प्रकाश श्रीमान् सेठ शुभकरन जी सेकमरिया ने लम्बनऊ विश्वविद्यालय की रजत-जयन्ती के अवसर पर विसवॉ-शुगर-फोक्टी की ओर मे बीस सहस्र रुपये का दान देकर हिन्दी-विभाग की महायता की है । सेठ जी का यह दान उनके विशेष हिन्दी-अनुगग का द्योतक है। इस धन का उपयोग हिन्दी मे उच्चकोटि के मौलिक एवं गवेषणात्मक ग्रन्या के प्रकाशन के लिए किया जा रहा है जो श्री सेठ शुभकरन सेकसरिया जी के पिता के नाम पर मठ भोलाराम सेकमरिया स्मारक ग्रन्थमाला' मे संग्रथित हो रहे है । हमें आशा है कि यह ग्रन्थमाला हिन्दी-साहित्य के भण्डार को समद्ध करके ज्ञानवृद्धि में महायक होगी। श्री सेठ शुभकरन जी की इस अनुकरणीय उदारता के लिए हम अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हैं। दीनदयालु गुप्त श्रत्यक्ष, हिन्दी-विभाग लम्बन ऊ विश्वविद्यालय Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { 一 # ****** .. # ## " # * # # स्वर्गीय संठ भोलाराम सेकसरिया # ## # # *并光**************共治共兴共 # # # # . / . . - 二 # 共43 “ 十 年 ” 生 , # = = = 得单单单半决书* ***事书来来来来来来为书书法**市弗劳* ****不 **本***成本********* ****6出品** Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घात आधुनिक हिन्दी भाषा के निर्माण में सबसे प्रथम महत्वशाली कार्य भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने किया था। उनके समय तक खडी बोली हिन्दी गद्य की भाषा बन चुकी थी परन्तु पद्य मे उसका प्रयोग बहुत अल्प था । भारतेन्दु ने अपनी अधिकाश पद्य-रचनाएँ ब्रजमाषा में ही की थीं। उनकी कुछ रचनाएँ नागरी लिपि में लिग्दी हुई सरल रेग्वता अथवा उर्दू-शैली मे भी हैं । गद्य में उन्होंने खड़ी बोली हिन्दी का ही प्रयोग किया है। भारतेन्दु काल में, भारतेन्दु के प्रोत्साहन से और भी अनेक लेखक हुए जिन्होने आधुनिक हिन्दी भाषा का निर्माण किया, जैसे पं० प्रताप नारायण मिश्र, पं० बदरी नारायण प्रेमवन', पं० बालकृष्ण भट्ट, बा० बालमुकुन्दगुप्त, ला० श्रीनिवास दास, ठा. जगमोहन मिह, वा० तोताराम श्रादि । इन साहित्यनिर्माताओं ने भी पद्य में ब्रजभाषा का तथा गद्य में खड़ी बोली का प्रयोग किया । इनकी भाषा मे पृथक पृथक रूप से निजी गुण थे ।। पं० प्रताप नारायण मिश्र की भाषा मे मनोरंजक्ता, जनबोलियों की सरलता , और व्यंग्यात्मकता थी । 'प्रेमघन' जी, श्रालंकारिकता, अर्थगाम्भीर्य और समाम-पदावली के साथ लिखते थे । पं० बालकृष्ण भट्ट की भाषा सरल घरेलू शब्दा और व्यंग्यात्मक चुटकियों से युक्त होती थी। उस समय गद्य की अनेक प्रयोगात्मक शैलियाँ थीं। उस समय के साहित्यिक जीवन की प्रेरक और मार्गविधायिनी शक्ति भारतेन्दु के रूप में प्रकट हुई थी । भारतेन्दु का जीवनकाल बहुत अल्प रहा और उनका काम अधूरा ही रह __गया। गद्यका प्रसार तो भारतेन्दु के प्रयास मे हुआ परन्तु भाषा की उस समय, निश्चित, माकरण-मम्मत, और पुष्टशैली न बन पाई थी। अंग्रेजी भाषा का प्रभाव हिन्दी-शैली पर अव्यवस्थित रूप में ही पड़ रहा था। हिन्दी भाषा और माहित्य की उक्त पृष्ठभूमि में पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ( सन् १६०३ मे ) साहित्य-क्षेत्र में आए और उन्होंने इंडियन प्रेस में सरस्वती का सम्पादन अपने हाथ मे लिया। उनका साहित्य-क्षेत्र मे श्राना, हिन्दी खडोबाती के इतिहास में एक युगान्तर उपस्थित करनेवाली घटनाहुई थी। उनका आगमन मानो हिन्दी साहिन्य-कानन में बसन्त का आगमन था। उस ममय साहित्यिक जीवन में एक नवीन स्फूर्ति आ गई। उन्होंने लेखक और भाषा-शिक्षक दोनों रूपों में महित्य की मेधा की। दनना ही नहीं मम्पादक हिन्दी भाषा-प्रचारक. गद्य Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और पद्य भाषा के परिष्कारक, निबन्धकार, आलोचक कवि शिक्षक अनेक रूपों में उनकी प्रतिभा का प्रसार हुअा। द्विवेदी जी ने खड़ी बोली को पद्य-क्षेत्र में भी आगे बढ़ाया। वे स्वयं बडे कवि न थे और न बडे उपन्यासकार और न नाटककार हो । अनुभूति की व्यापक्ता और गह्नता, कल्पना की सूझ तथा विचारों की गम्भीरता की भी द्योतक उनकी रचनाएँ नहीं हैं । । फिर भी द्विवेदी जी की कृतियो में प्रेरक शक्ति है, जीवन का सम्पर्क है और सुधारक तथा प्रचारक की सच्ची लगन है। ये ही विशेषताएँ उनकी रचनाओं को गौरव और महत्व देती हैं। हिन्दी साहित्य-क्षेत्र में द्विवेदी जी का इतना प्रभाव पड़ा कि उनकी साहित्य-सेवा का काल ( १६०१ ई० से १६२० ई० तक ) द्विवेदीयुग' के नाम से प्रख्यात हो गया। यह समय उस हिन्दी भाषा के विकास और उत्कर्षोन्मुखता का समय था जो अाज भारत की राष्ट्रभाषा है । भापा और काव्य को एक नये पथ की ओर प्रगति के साथ चलाने वाले सारथीरूप में द्विवेदी जी का कार्य महान है । वे वस्तुतः युगान्तरकारी सूत्रधार हैं । राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, ठा० गोपालशरण सिह,पं० अयोध्या सिंह उपाध्याय, श्रीधर पाठक, सनेही', पूर्ण, शकर, सत्यनारायण कविरल अादि कवि और अनेक गद्यकार, सभी ने द्विवेदी जी से विषय, छ-द-प्रयोग और भाषागत प्रेरणा तथा शिक्षा ली थी। सरस्वती की फाइलों को देखने मे पता चलता है कि इम महारथी ने विवेचनात्मक, अालोचनात्मक, परिचयात्मक, श्रावेशात्मक, विनोद, व्यंग, अनेक प्रकार की गद्यशैलियों का अपने गद्य में प्रयोग किया। अपने लेखों द्वारा विविध गद्यशैलियो के उदाहरण उपस्थित किये और शब्द और मुहाविरों के प्रयोग द्वारा भाषा के दोषों का परिहार किया । इस प्रकार उन्होंने एक प्रांजल भाषा का श्रादर्श रूप लेखको के सम्मुख उपस्थित किया। वास्तव में, द्विवेदी जी की कृतियों और उनके 'रेनेंसौं' युग के अध्ययन के बिना अाधुनिक हिन्दी साहित्य के विकास का ज्ञान अधूरा ही रहता है। जिस समय मैने 'महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनका युग' नामक विषय प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक डा० उदयभानु सिह को दिया, उस समय तक उक्त विषय का किसी लेखक ने गम्भीर अध्ययन नहीं किया था। डा० उदयभानु सिंह ने इस विषयकी बिखरी हुई सामग्री को बड़े परिश्रम के साथ इकट्ठा किया और उसे एक व्यवस्थित और मौलिक निबन्ध रूप मे प्रस्तुत किया, जो इस विश्व. विद्यालय में, पीएच. डी० की उपाधि के लिये स्वीकृत हुआ । यह ग्रन्थ लेखक के अथक परि श्रम और विस्तृत अध्ययन का प्रतिफल है डा. सिंह मेरी बधाई और शुभेच्छा के पात्र Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं इनकी सबल लेखनी स और भी मह वपूण था का सृजन होगा एसा मरो मगल कामना है। दीनदयालु गुप्त, डॉ. दीनदयालु गुप्त एम्. ए., एलएल. बी., डी. लिटर प्रांक सर तथा अध्यक्ष, हिन्दी विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथन आधुनिक हिन्दी-साहित्य की चार मुख्य विशेषताएँ हैं - १. काव्यभाषा के रूप में खड़ीबोली की प्रतिष्ठा और कविता के विषय, छन्द, विधान तथा अभिव्यंजनाशैली मे परिवर्तन, २. गद्यभाषा के व्याकरणसंगत, संस्कृत और परिष्कृत रूप का निश्चित निर्माण, ३. पत्रपत्रिकाओं और उनके साथ ही सामयिक साहित्य का विकास, ४. हिन्दी-साहित्य के विविध अंगो-कविता, कहानी, उपन्यास, निबन्ध, नाटक, अालो चना, गद्यकाव्य श्रादि-की वृद्धि और पुष्टि । इन सबका प्रधान श्रेय पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी को ही है और इसीलिए उनकी साहित्य-सेवा का मूल्याकन हिन्दी के लिए गौरव का विषय है । द्विवेदी जी की जीवनी और साहित्य-सेवा के विषय में 'हस' के 'अभिनन्दनाक', 'बालक' के 'द्विवेदी-स्मति-अंक', 'द्विवेदी- अभिनन्दन-ग्रन्थ', 'साहित्य-संदेश' के 'द्विवेदीअंक', 'सरस्वती' के 'द्विवेदी-स्मति-अंक' और 'द्विवेदी-मीमासा' तथा पत्रपत्रिकाओं में बिखरे लेखों में बहुत कुछ लिखा जा चुका है । परन्तु, उनमे प्रकाशित प्रायः सभी लेख प्रशंसात्मक और श्रद्धाजलि के रूप में लिखे गए हैं। समालोचना की दृष्टि से उनका विशेष मूल्य नहीं है । अतएव द्विवेदी जी की जीवनी, हिन्दी-साहित्य को उनकी देन और उनके निर्मित युग की वास्तविक अालोचना की आवश्यक्ता प्रतीत हुई। द्विवेदी जी से सम्बन्धित प्रायः समस्त सामग्री काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा और दौलतपुर में रक्षित है । नागरी-प्रचारिणी सभा के कार्यालय में द्विवेदी-सम्बन्धी २८०१ पत्र और सभा को भेजा गया उनका हस्तलिखित 'वक्तव्य' है। सभा के 'आर्यभाषा-पुस्तकालय मे उनकी दस पाल्मारी पुस्तकें और हिन्दी, संस्कृत, बंगला, मराठी, गुजराती, उर्दू तथा अंगरेजी की सैकड़ों पत्रिकाओं की फुटकर प्रतियाँ हैं । सभा के कलाभवन में 'सरस्वती' की प्रकाशित और अप्रकाशित हस्तलिखित प्रतियाँ, उनसे सम्बन्धित पत्र, अनेक पत्रपत्रिकाओं की कतरनें, द्विवेदी जी का अप्रकाशित 'कौटिल्यकुठार' और उनके प्रकाशित ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियाँ हैं । दौलतपुर में 'सरस्वती' की कुछ प्रकाशित और अप्रकाशित प्रतियाँ द्विवेदी जी से सम्बन्धित कागदपत्र पत्र और उनके अप्रकाशित 'तस्योपदेश' और 'सोहागरात' हैं Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७ ] प्रस्तुत ग्रन्थ में ६ अध्याय है -- १. भूमिका २. चरित और चरित्र ३. साहित्यिक संस्मरण और रचनाएँ ४. कविता ५. अालोचना ६. निबन्ध ७. 'सरस्वती'-सम्पादन ८. भापा और भाषासुधार ६. बुग और व्यक्तित्व पहले अध्याय मे ग्रथित वस्तु का अधिकाश पराजित है । वस्तुतः अभिव्यंजना-शैली ही अपनी है। दूसरे अध्याय मे प्रकाशित लेखों और पुस्तकों के अतिरिक्त द्विवेदी जी को हस्तलिखित संक्षिप्त जीवनी ( काशी-नागरी- प्रचारिणी सभा के कार्यालय में रक्षित) और उनसे संबंधित पत्रों तथा पत्रपत्रिकाओ के गवेषणात्मक अध्ययन के आधार पर उनके चरित और चरित्र की व्यापक, मौलिक तथा निष्पक्ष समीक्षा की चेष्टा की गई है । इन्हीं के आधार पर तीसरे अध्याय में साहित्यिक संस्मरण का विवेचन भी अपना है । 'तरुणोपदेशक', 'सोहागरात' और 'कौटिल्यकुठार' को छोडकर द्विवेदी जी की अन्य रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं । हिन्दी-संसार उनसे परिचित है। उक्त तीनों रचनाओं की खोज अपनी है। यह अधिकार के साथ कहा जा सकता है कि इनके अतिरिक्त द्विवेदी जी ने कोई अन्य पुस्तक नहीं लिखी। चौथा अध्याय कविता का है। द्विवेदी जी की कविता ऊँची कोटि की नहीं है । इसीलिए इस अध्याय में अपेक्षाकृत कम गवेषणा, ठोसपन और मौलिकता है । छन्द, विषय, शब्द और अर्थ की विविधि दृष्टियों से तथा द्विवेदी जी को ही काव्य-कसौटी पर उनकी कविता की समीक्षा इस अध्याय की मौलिकता या विशेषता है। पाचवें अध्याय मे समालोचना की विभिन्न पद्धतियों की दृष्टि से आलोचक द्विवेदी की आलोचना सर्वथा स्वतंत्र गवेषणा और चिन्तन का फल है। निबन्धकार द्विवेदी पर भी पूर्वोक्त रचनाओं तथा पत्रपत्रिकाओं में फुटकर लेख लिखे गए थे किन्तु वे प्रायः वर्णनात्मक थे । प्रस्तुत ग्रन्थ के छठे अध्याय में सौन्दर्य, इतिहास और म्यक्तित्व के आधार पर विधेदी जी के निब घों की छानबीन की गई है यह भी अपनी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गवेषणा है । 'सरस्वती-सम्पादन' नामक सातवें अध्याय मे द्विवेदी-सम्पादित 'सरस्वती' के आन्तरिक सौन्दर्य और उसकी उत्तमर्ण तथा ऋणी मराठी,बंगला, अंग्रेजी एवं हिन्दी-पत्रिकाओं की तुलनात्मक समीक्षा के आधार पर द्विवेदी जी की सम्पादनकला का मौलिक विवेचन है । 'भाषा और भाषासुधार' -अध्याय अपेक्षाकृत अधिक खोज का परिणाम है। अभी तक हिन्दी के आलोचक सामान्यरूप से कह दिया करते थे कि हिन्दी-गद्यभाषा के संस्कार और परिष्कार का प्रधान श्रेय द्विवेदी जी को ही है। 'द्विवेदी-मीमासा' में एक संशोधित लेख भी उद्धत किया गया था। परन्तु, स्वयं द्विवेदी जी की भाषा प्रारम्भ में कितनी दूपित थी, उन्होंने अपनी भाषा का भी परिमार्जन किया, दूसरो की भाषा की ईदृक्ता क्या थी, उनकी भ्रष्ट भाषा का सुधार द्विवेदी जी ने किन किन विभिन्न उपायों और कितनी कष्टसाधना से क्रिया, उनके द्वारा परिमार्जित भापा का विकास किन विभिन्न रीतियो और शैलियों मे फलित हुश्रा, आदि बातों पर व्याकरणरचनासंगत वैज्ञानिक गवेषणा और सूक्ष्म विवेचन की आवश्यकता थी । पाठवें अध्याय में इसी कमी की पूर्ति का मौलिक प्रयास है। ___ नवाँ तथा अन्तिम अध्याय 'युग और व्यक्तित्व' का है। हिन्दी के इतिहासकारों ने हिन्दी-साहित्य के एक युग को द्विवेदीयुग स्वीकार कर लिया था। किन्तु उसके निश्चित सीमानिर्धारण पर कोई प्रामाणिक समालोचना नहीं लिखी गई । डा० श्रीकृष्ण लाल का ग्रन्थ 'अाधुनिक हिन्दी साहित्य का विकास' प्रायः द्विवेदीयुगीन साहित्य की ही समीक्षा है । उसकी दृष्टि भिन्न है । प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्तिम अध्याय की अपनी मौलिक विशेषता है। इसमें द्विवेदीयुग का कालनिर्धारण करके ही सन्तोष नही कर लिया गया है, उसकी प्रामाणिक समीक्षा भी की गई है। द्विवेदी जो अपने युग के साहित्य के केन्द्र रहे हैं और उस युग के प्रायः सभी महान साहित्यकार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनसे अनिवार्य रूप से प्रभावित हुए हैं । उस युग के हिन्दी-साहित्य के सभी अंगों के भाव या अभावपक्ष पर द्विवेदी जी की छाप है । द्विवेदीयुगीन साहित्य के समालोचन की यह दृष्टि ही इस निबन्ध की प्रमुख विशिष्टता है । यहाँ पर एक बात स्पष्टीकार्य है । मनुष्य ईश्वर की भाँति सर्वत्रव्यापक नहीं हो सकता। अतएव द्विवेदी जी का व्यक्तित्व भी हिन्दी-साहित्यसंसार के प्रत्येक परमाणु में व्याप्त नहीं हो सका है । 'युग और व्यक्तित्व' अध्याय पढ़ते समय कहीं कहीं ऐसा प्रतीत होने लगता है कि जब हिन्दी-संसार में इस प्रकार की कलासृष्टि हो रही थी तब द्विवेदी जी क्या कर रहे थे ? उत्तर स्पष्ट है । द्विवेदी जी का प्रभाव सर्वत्र सामान नहीं है। कविता, आलोचना, भाषा श्रादि के क्षेत्र मे उन्होंने कायाकल्प किया है, उपन्यास-कहानी की कुछ व्यापक प्रवृत्तियों पर ही उनका प्रभाव पड़ा है और नाटक के अभाव पच में ही उनके व्यक्तित्व की मुख्ता है, उसके भावपद में नहीं जिस अंग में और जहाँ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर उनका प्रभाव विशिष्ट नहीं है वहा पर भी उस दिखाने का बरबस प्रयास इस ग्रन्थ म नहीं किया गया है उस युग क महान् साहित्यकारो म मा कुछ मौलिकता थी और उन्हे उसका श्रेय मिलना ही चाहिए । डा. श्रीकृष्ण लाल के उपयुक्त ग्रन्थ में उस काल के हिन्दी-प्रचार, सामयिक साहित्य और आलोचना की पद्धतियों आदि की भी कुछ विशेष विवेचना नही की गई थी। इस दृष्टि से भी स्वतंत्र गवेपणा और विवेचन की अपेक्षा थी। उमकी पूर्ति का प्रयास भी प्रस्तुत ग्रन्थ में किया गया है। सुना है कि राजपूताना विश्वविद्यालय में द्विवेदी जी की कविता पर कोई प्रबन्ध दाखिल हुआ है । वह बाद की कृति है । उसकी चर्चा आगामी श्रावृत्ति में ही हो सकेगी। __ग्रन्थ से संयुक्त शुद्धिपन्न संक्षिप्त है। टाइप की अपूर्णता के कारण मराठी के 'किरकोल' श्रादि शब्द अपने शुद्धरूप में नहीं छप सके । 'ब' और 'घ', 'ए' और 'ये', अनुस्वार और चन्द्रबिन्दु, विरामचिह्न, पंचमवर्ण, संयोजक चिह्न, शिरोरेखा आदि की अशुद्धियाँ बहुत हैं। वे भ्रामक नहीं हैं अतएव उनका समावेश अनावश्यक समझा गया । जिन महानुभावो ने इस ग्रन्थ के प्रणयन में अमूल्य सहायता देकर लेखक को कृतकृत्य किया है उन सब का वह हृदय से ग्राभारी है। उदयभानु सिंह Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सचा पहला. अध्याय : भूमिका (१-३३) १ राजनैतिक परिस्थिति-१, २ आर्थिक परिस्थिति-४, ३, धार्मिक परिस्थिति-५, ४. मामाजिक परिस्थिति प, साहित्यिक परिस्थिति के क. कविता 4. कथासाहित्य इ, अालोचना च पत्रपत्रिकाएं छ. विविधविषयक साहित्य ज. प्रचारकार्य झ. गद्यभापा ञ. हिन्दी-साहित्य की शोचनीय दशा ६. पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी का पदार्पण- ३३ दूसरा अध्याय चरित और चरित्र ( ३४-६१) १. द्विवेदी जी का जन्म-३४, २. उनके पितामह और पिता का संक्षिप्त परिचय-३४, ३. प्रारम्भिक शिक्षा--३५, ४. अंग्रेजी शिक्षा--३५ ५. स्कूल का त्याग और नौकरी-३६, ६. नौकरी से त्यागपत्र-३६, ७. 'सरस्वती'-सम्पादन-३७, ८. जीवन के अन्तिम अठारह वर्ष--३७, ६. महाप्रस्थान--३८, १०, दाम्पत्य जीवन--३८, ११. पारिवारिक जीवन४०, १२. वृद्धावस्था में ग्राम्य जीवन और ग्रामसुधार--४१, १३. प्राकृति, गम्भीरता-४२, १४. हास्य-विनोद-४२, १५. स्वाभिमान,वीरभाव--४३, १६. भगवद्भक्ति--४३, Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ उग्रता क्रोध ४४ १८ क्षमा दय ४५, १६ कर यपरायणता न्यायमिष्ठा और म यालन ४६, २०. व्यवस्था, नियमितता और कालपालन--४७, २१. हड़ता, अध्यवसाय और महिष्णुता--४६, २२. महत्वाकाक्षा और सम्मान की अनिच्छा--५०, २३. शिष्टाचार, व्यवहारकुशलता और सम्भाषणकला--५१, २४: नेम, कात्सल्य, सहृदयता, सहानुभूति और गुणग्राहकता--५२, २५, निष्पक्षता और पक्षपात---१३, २६. बदान्यता और मग्रहभावना---५४, २७. मितव्ययिता और सादगी-५५, ५.२८. देशप्रेम--५६, २६. मातृभाषाप्रेम--५७, ३०. सुधारक प्रवृत्ति----५६, ३१. श्राक्षेप और अपवाद-६० . तीसरा अध्याय साहित्यक संस्मरण और रचनाएं ( ६२-६०) ... १ द्विवेदी जी का साहित्यिक अध्ययन--६२, २. भारतीभक्त पर कमला का कोप-- ३, ३. 'शिक्षा' नामक पुस्तक के समर्पण की कथा-६३, ४ 'सरस्वती' के श्राश्रम में--६४ ५ अयोध्याप्रसाद खत्री का महत्वहीन बवंडर---६६, ६. 'अनस्थिरता' का विनंडावाद-६६ ७ विभक्तिविचारविवाद ६७, ८. बी० एन० शर्मा पर मानहानि का दावा ६८, ६. द्विवेदी जी और काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा ६६, १०, नागरी-प्रचारिणी सभा को द्विवेदी जी का दान-७३, ११. द्विवेदी जी की रसीली पुस्तके' और कृष्णकान्त मालवीय७३, १२. द्विवेदी जी और हिन्दी-साहित्य- सम्मेलन ७५, १३. द्विवेदी-मेला-७६, १४. द्विवेदी जी की रचनानी का संक्षिप्त विवरण (तीन अप्रकाशित रचनाएं ) ७८ चौथा अध्याय कविता' ११२६) १. कवि द्विवेदी की आत्मसमीक्षा, . ६१, २. .उनका.. अनभिमाननीय कवित्व ६२, ३. उनकी काव्यरचना का उद्देश ६२, ४. द्विवेदी जी की काव्यपरिभाषा ६३, ५. असे की दृष्टि मे द्विवेदी जी की कविता की समीक्षा--- भाव ग्राम्य-तोष Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारसौन्दर्य निरलकार सौन्दर्य गुण वर्णनात्मकता और इतिवृत्तात्मकता द्विवेदी जी की कविप्रतिभा ६. द्विवेदी जी का काव्यविधान प्रबन्ध मुक्तक प्रबन्धमुक्तक गीत गद्यकाव्य ७. छन्द १०७, ८. काव्यभाषा ६. द्विवेदी जी की कविता के विषय धर्म समाज देश और स्वदेशी हिन्दी भाषा र साहित्य चित्र व्यक्ति और सर विशेष प्रकृति १. आलोचना का अर्थ श्राचार्यपद्धति टीकापद्धति शास्त्रार्थपद्धति सूक्तिपद्धति वनपद्धति { १ } १०८ १०१ १०२ १०२ १०३ १०४ १०५ १०५ १८६ १०६ १०७ १०६ ११० १११ ११४ ११४ ११४ ११५ पांचवां अध्याय आहोचना ( ११७ – १४२ ) ११७, २. द्विवेदी जी की आलोचना की ६ पद्धतिया ११८ ११८ १२३ १२५. १२६ १२६ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाचनप द्वति ३ युग की दृष्टि म द्विवदीत अालोचना का मूल्याक्न १३४ ४ हिन्दी कालिदास की समालोचना १३५, ५. द्विवेदी जी की शालोचनाओं में दो प्रकार के द्वन्द्वों की परिणति १३७, ६. 'कालिदास की निरंकुशता' १३७, ७. 'नैपबचरितचर्चा' और 'चिक्रमाकदेवचरितचर्चा' १३८, ८ 'आलोचनाजलि' १३८, ६, कालिदास और उनकी कविता'१३६, १० संस्कृत-साहित्य पर द्विवेदीकृत अालोचना के मूल कारण १४०, ११. 'हिन्दीशिक्षावली ततीय भाग की समालोचना' १४०, १२ 'समालोचनासमुच्चय' १४१, १३, 'विचारविमर्श' और 'रसज्ञारंजन' १४२, १४. श्रालोचक द्विवेदी की देन १४२ छठा अध्याय निबन्ध (१४३-१५६) १. निबन्ध का अर्थ १४३, २. बालोचक द्विवेदी द्वारा निबन्धकार द्विवेदी का निर्माण १४४, ३. सम्पादक- द्विवेदी के निबन्धो का उद्देश १४५, ४. द्विवेदी जी के निबन्धों के मुल १४५, ५. द्विवेदी जी के निबन्धों के रूप १४६ ६. विषय साहित्य जीवनचरित विज्ञान इतिहास १४८ भूगोल उद्योगशिल्प १४६ भाषाव्याकरण १४६ अध्यात्म १४६ ७, उद्देश की दृष्टि से द्विवेदी जी के निबन्धो के प्रकार ८ द्विवेदी जी के निबन्धों की ३ शैलिया वर्णनात्मक भावात्मक १५२ चिन्तनात्मक १५३ ६ भाषा और रचनाशैली १५४ १. निबषों म द्विवेदी जी का स्थिर एवं गतिशील १५० Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा व्यक्त और श्रव्यक्त व्यक्तित्व 'सरस्वती' सम्पादन] ( १६० - १६१ ) १ 'सरस्वती' का जन्म और शैशव १६०, २. सम्पादक द्विवेदी आदर्श और सिद्धान्त १६२, ३. लेखकों की कमी, द्विवेदी जी का घोर परिश्रम और लेखक-निर्माण १६१, ४. लेखकों के प्रति व्यवहार १६६, ५. 'सरस्वती' के विविध विषय और वस्तुयोजना १७१, ६ सम्पादकीय टिप्पणियां १७३, ७. पुस्तकपरीक्षा १७४, ६. चित्रपरिचय १७७, १०. व्यंग्यचित्र ८. चित्र १७५ १७८, ११. मनोरंजक श्लोक, हॅसी दिल्लगी एवं विनोद और आख्यायिका १८०, १२. बालसाहित्य १८१, १३ स्त्रियोपयोगी रच१८२, १५. प्रूफर्मशोवन १८२, १६. 'सरस्वती' पर १८२, १७ अन्य पत्रिकाओ पर 'सरस्वती' का प्रभाव १८५, १८८६ आठवां अध्याय नाएं १८१, १४. विषयसूची अन्य पत्रिकाओं का ऋण १८. 'सरस्वती' का ऊंचा मान . [ च । १५६ ११ नित्रकार द्विवेदी की देन १५८ सातवां अध्याय १. द्विवेदी जी की प्रारम्भिक रचनाएं २. उनके भाषादोष - क. लेखन त्रुटियां- स्वरगत व्यंजनगत ख व्याकरण की अशुद्धिया संज्ञा सर्वनाम विशेषण - विशेष्य क्रिया श्रव्यय लिंग वचन भाषा और भाषासुधार (१६२-२६३ ) १६२ १६३ १६३ १६४ १६५ १६५ १६६ १६६ १९८ १६८५ १६६ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारक सधि समास उपसर्ग और प्रत्यय श्राकाक्षा योग्यता सन्निधि प्रत्यक्ष परोक्षकथन वाच्य ग रचनादोप- विरामादि चिन्ह श्रवच्छेदन मुहावरे पुनरुक्ति कटुता, जटिलता, शिथिलता पंडिताऊपन भाषासुधार क चार प्रकार से भाषा-सुधार • स्व ग्रन्थी का संशोधन २०८ २०८ २०८ २१२ ( संशोधित भाषा त्रुटियों की एक वर्गीकृत सूची - पृ० २१३ - २४४ स्वर, व्यंजन, मंज्ञा, सर्वनाम, विशेष्यविशेषण, क्रिया, अव्यय, लिंग वचन, कारक, सन्धि, समास, उपसर्गप्रत्यय, आकाक्षा, योग्यता, सन्निधि, वाच्य, प्रत्यक्षपरोक्षकथन, मुहावरों, कठिन संस्कृत शब्दां, अरबी फारसी शब्दों अंग्रेजी शब्दां, और अन्य शब्दों का संशोधन ) ड. पत्रो, भाषण आदि के द्वारा संशोधन २४५ ४ द्विवेदी जी की भाषा की श्रारम्भिक रीति और शैली-अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत, अवधी, पंडिताऊपन २४७ ५ उनकी प्रौढ रचनाओं की रीति २५३, ६ युगनिर्माता द्विवेदी की भाषा-शैली २५५ ग आलोचना द्वारा संशोधन + १६६ २०१ २०१ २०१ २०२ २०२ २०३ २०३ २०४ घ 'सरस्वती' की रचनाओं का शोधन २०५ २०६ २०६ २०७ २०७ २०८ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घणनामक २५५ व्पग्यामक २५६ २५८ २५६ मूर्तिमत्तात्मक वक्ततात्मक मंलापात्मक विवेचनात्मक २६० २६१ २६२ भावात्मक ७. द्विवेदी जी की शैली की विशिष्टता २६२ २६८ नवां अध्याय - युग और व्यक्तित्व ( २६४-३६५) १. श्राधुनिक हिन्दी-साहित्य का कालविभाग २६४ प्रस्तावना-युग २६४, भारतेन्दु-युग २६५, अराजकता-युग २६५, द्विवेदी-युग २६५, वाद-युग २६७, वर्तमान-युग २६७ २. श्राधुनिक हिन्दी-साहित्य की मुख्य विशिष्टताएं २६८ ३. द्विवेदी युग के पूर्वाद्ध का साधारण साहित्य ४. द्विवेदी-युग में हिन्दी-प्रचार-- २६६ काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा और अन्य संस्थाएं २६६, प्रेसो का कार्य २७१, शिक्षासस्थानों का कार्य २७२, विदेशो में हिन्दी-प्रचार २७२, पत्रपत्रिकाएं २७३ ५ द्विवेदी-युग की कविताक. युगनिर्माता द्विवेदी द्वारा युगपरिवर्तन की सूचना २७६ ख. काव्यविधान-- प्रबन्ध काव्य २८.. मुक्तक २८०, प्रबन्धमुक्तक २८१, गीत या गीति २८१, गद्यकाव्य २८१ ग छन्द घ. भाषा दु विषय चित्र २६४, धर्म २६४, समाज २६६, राजनीति २६६, प्रकृति ३०२, प्रेम ३०४, अन्य विषय ३.५ च दिवेदीयग के चार चरण २७६ २७६ २८५ २८८ २६४ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ छ. द्विवेदीयुग की कविता का इतिहास ज.रसभावव्यंजना झ.चमत्कार ञ. द्विवेदीयुग की कविता का रमणीय रूप ३०८ ६. नाटक क. महान् साहित्यकारों का असफल प्रयास ख. बहुसंख्यक नाटककारों की विविधविषयक रचनाएं ग. द्विवेदी-युग के नाटककारों की असफलता के कारण घ. नाटकरचना की ओर संस्थाश्रो का ध्यान ड नाटको के अनेक रूप च, साहित्यिक नाटकी के मुख्य प्रकार सामान्य नाटकों की कोटिया ३१२, गम्भीर एकाकी नाटक ३१४, प्रहसन ३१४, पद्यरूपक ३१५ ७ उपन्यास-कहानी क. द्विवेदी जी के आख्यायिकोपम अनुवाद ३१५ ख. द्विवेदी जी द्वारा कहानी को प्रोत्साहन ग. द्विवेदीयुग के उपन्यासों का उद्गम ३१६ घ उपन्यासो का मूल उद्देश इ. विषय ३१८ च पद्धतिया छ. संवेदना की दृष्टि से उपन्यासों के प्रकार ज. उपन्यास के क्षेत्र में द्विवेदी-युग की देन म. द्विवेदीयम की कहानी के मूल, उद्देश और विषय ३२२ ञ पद्धतिया ૨૨૨ ट, संवेदना की दृष्टि से द्विवेदीयुग की कहानियों का वर्गीकरण ठ. कहानी के क्षेत्र में द्विवेदीयुग कीदेन ३२७ ८ निबन्ध--- ३२८ क. द्विवेदी-युग के निबन्धो के रूप ३२८ स द्विवेदीयुग के निबन्धों के प्रकार ३२८ ग द्विवेदीयग के निबध की देन ३३० ३१६ ३१६ २२२ mr ३२६ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । है रीति शमी क. द्विवेदा जो द्वारा रीतिशैली-निमाण ख द्विवेदी-युग की गद्यभाया की मुख्य रीतिया ग. द्विवेदीयुग की भाषाशैली का वर्गीकरण १०. अालोचनाक. द्विवेदीयुग की आलोचना की ६ पद्धतिया-- श्राचार्यपद्धति ३३८, टीकापद्धति ३४३, सूक्तिपद्धति ३४५, खंडनपद्धति ३४६, शास्त्रार्थपद्धति ३४६, लोचनपद्धति ३५१ ख. द्विवेदीयुग की माहित्यिक अालोचना के विषय ग द्विवेदीयुग की आलोचनाशैली प. उपसंहार ३६४ परिशिष्ट ३६६ ३७७ १. काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा को द्विवेदी जी द्वारा दिए गए दान की सूची २. वर्णानुक्रम से द्विवेदी जी की रचनाओं की सूची ३ द्विवेदी जी द्वारा संशोधित एक लेग्ब ३७६ ४. कुछ पत्रिकाओं की विषय-सूची--- ३६६ केरल-कोकिल ३६६, महाराष्टकोकिल ३६८, प्रवासी ३६८, मर्यादा ३६६, प्रभा ४००, माधुरी ४०१, चोंद ४०२, मॉडर्न रिव्ह्यू ४०४ सहायक ग्रन्थ सूची-४०६ अंग्रेजी-पुस्तके, संस्कृत-पुस्तके, हिन्दी-पुस्तकें, सामयिक-पुस्तकें Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BE - पहला अध्याय भूमिका अगरेजों की दिन दिन बढ़ती हुई शक्ति भारतीय इतिहास का नूतन परिच्छेद लिखती जा रही थी । सन् १८३३ ई० और १८५६ ई. के बीच बरती जाने वाली राजनीति ने देश मे क्राति उपस्थित कर दी । सिध, पंजाब, अवध आदि की स्वाधीनता का अपहरण, झाँसी की रानी को गोद लेने की मनाही, नाना साहब की पैंशन की समाप्ति, सिविल सर्विस परीक्षाओं में भारतीयों के विरुद्ध अनुचित पक्षपात, भारतीय सैनिकों को बलात् बाहर भेजने की आज्ञा आदि आपत्तिजनक कार्यों ने जनता को असन्तुष्ट कर दिया । देश के अनेक स्थानों में प्रतिहिंसा की ज्वाला धधक उठी। १८५७ ई० का विद्रोह किसी प्रकार शान्त किया गया । हिन्दी के साहित्यकार अधिकतर मध्यम और उच्च वर्ग के थे। उन्हे शाभकों से काम था । मुसलमानों और अत्याचारी शासन, विद्रोह के भयानक परिणाम और शासको की विशेष कृपा मे प्रभावित होने के कारण उन्होंने सन् १८५७ ई० के सिपाही-विद्रोह की चर्चा अपनी रचनालों में नहीं की। परन्तु जन साधारण ने "खूब लटी मरदानी, अरे झासी बाली रानी"१ श्रादि लोक-गीतो के द्वारा अपनी विद्रोह भावना को अभिव्यक्ति की । महारानी विक्टोरिया के घोषणापत्र में सहृदयता, उदारता और धार्मिक सहिष्णुता थी। उससे देशी राजाश्री और प्रजा को आश्वासन मिला। उनका भय और असन्तोष दूर हुअा । कवियों ने गद्गद् कंठ से अगरेजी राज्य का गुणगान किया। परन मोक्षफल राजपद परसन जीवन मोहि । बृटनदेवता राजमुत पद परसहु चित माहि । जयति धर्म सब देश जय भारतभूमि नरेश । जयति राज राजेश्वरी जय जय जय परमेश ।३ १ बुन्देलखंड में प्रचलित लोक गीन जिसके आधार पर सुभद्राकुमारी चौहान ने लिखा है "बुन्देले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी।" २ भारतेन्दु-ग्रन्थावली, पृ० ७०२ ॥ __ ३ सक्किादरा व्यास मनकी उमग दव पुरुष दृश्य Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | २ ] इडिया को सल एक्ट (१८६१) ई ईकोर्ट और अदालत का स्थापना (१८६२) ३० जावता दीवानी ताजीरात ह द और जाबता फोजदारी का प्रयोग करता कर की माफी आदि कार्यों ने जनता को प्रसन्न कर दिया । सन् १८७७ ई० के राज दरबार मे देशी राजा-महाराजाओं ने अपनी राजमक्ति का विराट प्रदर्शन किया । १६ वी शती के अन्तिम चरण में और भी राजनैतिक सुधारों का प्रारम्भ हुआ । स्वायत शासन की स्थापना जिलों और तहसीलों में बोडों का निर्माण आदि नवीन विधानों ने भारतेन्दु, बालमुकुन्द गुप्त श्रीधर पाठक, बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन, राधाकृष्णदास आदि साहित्यकारों को शासकों की प्रशस्तियां लिखने के लिए प्रेरित किया । राजनैतिक परिस्थिति के उपर्युक्त पक्ष में तो प्रकाश था परन्तु दूसरा पक्ष ग्रन्थकारमय था | राजभक्ति और देशभक्ति की भिन्नता भारत के लिए अभिशाप है । राजभक्त होकर भी साहित्यकार " देशभक्ति को भूल न सके । देश-दशा का चित्र खीचने में भी उन्होंने पूरी क्षमता दिखलाई : भीतर भीतर सब रस चूमै, बाहर से तन मन धन मूमै । जाहिर बात में अतितेज, क्यों सखि साजन ? नहिं अंगरेज ॥ १ इस दिशा में पत्र-पत्रिकाओं की देन विशेष महत्व की है "सार सुधा निधि" और "भारत मित्र' ने साम्राज्यवादी रेजो की युद्ध नीति और सभ्यता पर आक्षेप किए। गदाधर सिंह ने "चीन में तेरह मास" पुस्तक मे साम्राज्यवाद का नग्न चित्र खीचा । "सार सुधा निधि" मे प्रकाशित 'यमलोक की यात्रा" मे राजनैतिक दमन और 'मार्जार मूत्रक' ने रूस का भय दिखा कर रक्षा के बहाने भारतवासियों पर प्रातंक जमाने वाली ब्रिटिश नीति की व्यजना की । राधाचरण गोस्वामी ने पत्र - सपादकों के प्रति किए जाने वाले अन्याय और टैक्स आदि की बातों पर आक्षेप किया । बाबू बालमुकुन्द गुप्त ने भी अपने 'तुम्हें क्या ' 'होली' आदि निबन्धों तथा 'शिवशम्भु के चिट्ठे' में विदेशी शासन पर खूब व्यंग्य प्रहार किया | यही नहीं, अगरेजी शासन के समर्थकरण जमींदारों पर भी साहित्यकारों की लेखनी चली । भारतेन्दु ने अपने 'अन्धेर नगरी' प्रहसन में ( १८८१ ई० ) मे एक देशी नरेश ( डुमरांव ) के अन्यायों पर व्यंग्य किया है । ૨ सन् १८५७ ई० के विद्रोह को राष्ट्रीय उन्मेष कहना मारी भूल है । उसमें राष्ट्रीय १ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, 'भारतेन्दु ग्रन्थावली, पृ० ८११ । २ समय समय पर 'भारत-मित्र' में प्रकाशित और 'गुप्त निभावली' में संकलित I Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मावना का लेश भी नहा था । नाना मादल, लक्ष्मीबाई, अवध की बेगम, दिल्ली क मुग़ल, फोजी सिपाहो अादि सभी अपने अपने स्वार्थ-साधन के लिए विद्रोही हुये । यह लहर सम्पूर्ण देश में न फैल सकी । दक्षिण भारत, बंगाल और पंजाब ने तो सरकार का ही साथ दिया । राष्ट्रीय भावना के अभाव के ही कारण विद्रोह कुचल दिया गया । २६ वीं शती का उत्तराद्धसभा-समाजो और सार्वजनिक संस्थानों का युग था । 'बृटिश इंडियन एशोमियेशन' ( १८५१ ई०) 'बाम्वे एसोसियेशन', 'ईस्ट इंडिया एसोसियेशन' ( १८७६ ई०) 'मद्रास महाजन सभा' (१८८१ ई०), 'वाम्बे प्रेसीडेन्सी एमोसिएशन' ( १८८५ ई०) आदि की स्थापना इसी काल में हुई । इनके अतिरिक्त तत्कालीन धार्मिक और सास्कृतिक सभानों ने देश मे अात्माभिमान की भावना जागृत की । सरकार के अशुभ और विरोधी कानून, पुलिस का दमन, लार्ड लिटन का प्रतिगामी शासन ( १८७६-८० ई०) खर्चीला दरबार, कपास के यातायात-कर का उठाया जाना (१८७७ ई०), वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट (१८७८ ई०), अफगान युद्ध (१८७८-१८८२ ई०) श्रादि बातों ने देशवासियों को पराधीनता के शाप का अनुभव कराया । विश्वविद्यालयों में शिक्षित नवयुवको ने जनता के साथ पाश्चात्य इतिहास और राजनीति के उदाहरण उपस्थित किए । जनता में उत्तेजना बढ़ती गई। यहाँ तक कि किसी क्रान्तिकारी विस्फोट की आशंका होने लगी । दूरदर्शी ह्यूम ने दादा भाई अादि के सहयोग से राजनैतिक उदासीनता दूर करने का प्रयास किया । इमी के पल ग्वरूप १८८५ ई० में इंडियन नेशनल कांग्रम की स्थापना हुई। __सामाजिक रूप में जन्म लेकर कापस ने अपने बल पर राजनीतिक रूप धारण कर लिया। प्रारम्भ में तो अनुनय-विनय की नी ते बरती गई किन्तु ज्यां ज्यो देशवासियों का सहयोग मिलता गया त्या त्या वह अात्मतेज और आत्मावलम्बन की नीति ग्रहण करती गई। उसने धन, धर्म, जाति, लिंग, पद आदि का कोई भेद नहीं किया । विकास की प्रारम्भिक भूमिका में मधुरवाणी से काम लिया, अगरेजों की प्रशसा और अपनी राजभक्ति की अभिव्यक्ति तक की । लोकमान्य तिलक ने विदेशी शामको के प्रति घृणा के विचारों का प्रचार किया। कॉग्रेस की राष्ट्रीयता उग्र रूप धारण करती गई । उसकी वृद्धि के माथ ही साथ सरकार भी उस पर संदेह करने लगी। मितन्वर सम् १८३७ ई. में तिनक को १८ मास की कडी सजा दी गई, मैक्समूलर, हंटर आदि के कठिन अावेदनपर एक वर्ष बाद छुटे । उपर्यत राष्ट्रीय अान्दोलनों ने हिन्दी माहित्यकारों को भी प्रभावित किया । संपादको और ने समान रूप से देश की तत्कालीन राष्ट्रीय जागृति के चित्र अक्ति Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] किर । प्रेमघन और अम्बिकादत्त व्यास ने अपने 'भारत सौभाग्य' नाटकों में देश की का दृश्य दिखाया। 'ब्राह्मण' ने 'कांग्रेस की जय' 'देशी कपड़ा' आदि निबन्ध छ राधाचरण गोस्वामी ने 'हमारा उत्तम भारत देश' और बाबू बालमुकुन्द गुप्त ने 'स्व अान्दोलन' पर रचनाएँ की श्राओ एक प्रतिज्ञा करें, एक साथ सब जीवें मरे । अपनी चीजें श्राप बनाओ, उनसे अपना अङ्ग सजाओ ।' पडित प्रतापनारायण मिश्न के "तृप्यन्ताम्" और श्रीधर पाटक के 'ब्रडला स्वागत देश की करुण दशा का हास्य-मिश्रित तथा श्रोअपूर्ण शैली में बहुत सुन्दर वर्णन पाटक जी की रचनाओं में राष्ट्रीयता का स्वर विशेष रूप से स्पष्ट है-- बन्दनीय वह देश जहाँ के देशी निज अभिमानी हों। बांधवता में बंधे परस्पर परता के अज्ञानी हो । निन्दनीय वह देश जहाँ के देशी निज अज्ञानी हो। सब प्रकार परतंत्र, पराई प्रभुता के अभिमानी हो । इसी स्वतन्त्रता-भाव को एक पग और आगे बढ़ाते हुये द्विवेदी जी ने कहा था-- जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है। वह नर नहीं नर पशु निरा है और मृतक समान है ॥ उन्नीसवीं शताब्दी के वैज्ञानिक प्राविष्कारों ने भारत ही नहीं सारे विश्व उद्योग-धन्धों में क्रान्ति उपस्थित करदी । पुतलीघरों तथा अन्य कल-कारखाना निर्माण ने श्रमिक वर्ग के कारीगरों की जीविका छीन ली। सड़को, नहरो, रेल, डाक अादि ने विदेशो की दूरी कम करदी। सन् १८६६ ई० में स्वेज नहर के जाने से योरप का भारत मे व्यापारिक सम्बन्ध और सुगम हो गया । योरपीय विदेशी वस्तुओं ने भारतीय बाजार पर अधिकार कर लिया, यन्त्रों से स्पर्धा न सकने के कारण देशी कारीगर कृषि की ओर झुके । खेती की दशा भी शोच थी । जन-संख्या में वृद्धि, उर्वराशक्ति के क्रमशः हासे, ईतियों और भीतियों कारण उनकी आर्थिक दशा बिगड़ती जा रही थी । शिक्षितों को अनुक्न नौक १ स्फुट-कविता'-१६१६ ई० में संकलन-रूप में प्रकाशित । २ कानपुर के टैनिक पत्र प्रताप के शीर्ष पर छपने वाला सिद्धान्त-वाक्य Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं मिलती थी . वे शारीरिक परिश्रम के मी अयोग्य थे । एक तो शिक्षित और अशिक्षित दोनो बेकार हो रहे थे और दूसरे देश का धन विदेश जा रहा था। देश अार्थिक संकट में पड़ गया । भारतेन्दु श्रादि साहित्यकार अगरेजी, राज्य के प्रति भक्ति प्रकट करते हुए भी उसकी आर्थिक नीति के विरुद्ध लिखने पर वाध्य हुये । असुविधा __ जनक खचीली अदालतों, उत्कोचनाही पुलिस के अत्याचार, ऊँचा लगान और उसके सग्रह के कठोर नियम, शस्त्र और जंगल-कानून आदि ने किसानों के दुख को दूना कर दियो । जनता की एतद्विषयक प्रार्थनाओं को सरकार ने उपेक्षा की दृष्टि से देखा । सन् १८६८-६९ मे घोर अकाल पड़ा, लगभग बीस लाख व्यक्ति मरे । सन् १८७७ ई० में दक्षिण में भयकर दुर्भिक्ष पड़ा। लार्ड लिटन ( १८७६-८० ई० ) अकालपीड़ितों की सहायता का उचित प्रबन्ध न कर सके । लाई एलिान के समय में ( १८६४-६६ ई. ) पश्चिमोत्तर प्रान्त, मध्य प्रदेश, बिहार और पंजाब में अकाल पड़े । १६०० ई० में गुजरात में भी अकाल पड़ा । इस प्रकार अकाल पर अकाल और उसके ऊपर महामारी, टैक्स, बेकारी अादि ने जनता के हृदय को छलनी बना डाला । साहित्यकारों ने देशवासियों के इन कष्टो का अनुभव किया और उन अनुभूतियों की अपनी रचनाओं में अभिव्यक्ति की। १ । अङ्गरेजो के श्राधिपत्य-स्थापन के समय हिन्दू धर्म शिथिल हो चुका था । अशिक्षित भारतीय जनता अज्ञान अन्धविश्वास में संवेष्ठित थी। दुर्बल और प्राणशून्य हिन्दू जाति की धार्मिक और सामाजिक अवस्था शोचनीय थी। सारा देश तन्द्रा में था। ईसाइयों ने निर्विरोध धर्म-प्रचार प्रारम्भ किया । शिक्षा, धन, विवाह, पदाधिकार आदि के लोभी जनों द्वारा उनके इस कार्य का स्वागत हुआ। वो तो पन्द्रहवीं शती के प्रारम्भ से ही ईसाई-धर्म-प्रचारकों ने भारत में अाना आरम्भ कर दिया था किन्तु प्रथम तीन सौ वर्षों में उनके प्रचार का हिन्दी-साहित्य पर कोई प्रभाव न पड़ा । जब मन् १८१३ ई० में उन्हें 'विल्यफोस ऐक्ट' के अनुसार भारत में धर्मप्रचार की आज्ञा मिल गई, तब उन्होंने इस कार्य में तीव्र दक्षता दिग्बलाई । धर्म१ अायो विकराल काल भारी है अकाल पर्यो, पूरे नाहिं खर्च घर भर की कमाई में । कौन भांति देवें टैक्स इनकम लैसन और, पानी की पियाई, लैटरन की सफाई में । कैसे हेल्थ साहब की बात कछू कान करें, परे न सुसीत भूमि पौर्ने धारपाई में Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रचार के उद्दश्य से पादरियों ने जन साधारण की भाषा म व्याख्यान और शिक्षा की आयोजना की। सन् १८०२ ई० में "दी न्यू टेस्टामेंट" का हिन्दी अनुवाद हो चुका था । सन् १८०६ और १८२६ ई० के बीच पश्चिनी हिन्दी, ब्रजभाषा, अवधी, मागधी, उज्जैनी और बघेली में भी धर्म-ग्रन्थ प्रकाशित किए गए । सन् १८५० ई० तक बाइविल के ही अनेक हिन्दी अनुवाद हो गये और श्रागे भी अनुवादों की शृखला जारी रही । 'अमेरिकन मिशन', 'क्रिश्चयन एज्यूकेशन सोसाइटी', 'नार्थ इडिया क्रिश्चयन टेक्ट एंड बुक सोसाईटो', 'क्रिश्चयन वर्नाक्यूलर लिटरेचर सोसाइटी', 'नार्थ इडिया अविजलियरी बाइविल सोसाइटी' आदि ईसाई संस्थानो ने हिन्दो को धर्म-प्रचार का मान्यम बनाकर उसका प्रचार किया। अपने धर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन और, अन्य धर्मों की अालोचना करने के लिये पादरियों ने अागरा, इलाहाबाद, सिकन्दरा, बनारस फर्म खावाद आदि नगरों में प्रेस स्थापित किये और उनसे सैंकड़ा पुस्तके प्रकाशित की। १६ वी शती के प्रारम्भ में हो पश्चिमी सभ्यता और धर्म का आघात पाकर देश में उत्तेजना की लहर दौड़ गई । हिन्दुओ को अपने धर्म की ओर आकृष्ट करने के लिये ईसाइयो ने हिन्दू धर्म की सती-सरीखी क र और भयकर प्रथानों पर बुरी तरह आक्षेप किया था। राजा राममोहन राय आदि नव-शिक्षित हिन्दुओं ने म्वयं इन कुप्रथाओं का विरोध किया । इसी समाज सुधार के उद्देश्य से उन्होंने सन् १८५८ ई० 'ब्राह्म समाज' की ग्थापना की। तत्पश्चात् 'आर्य समाज' (१८७५ ई०), "थियोमाफिकल सोसायटी' (सन् १८७५ ई० मे न्यूयार्क नथा १८७६ ई० में भारत में) गमक्कु गा |मशन' श्रादि धार्मिक सम्याया को स्थापना हुई। . दयानन्द सरस्वती ने ( १८२४-८३ ई० ) वैदिक धर्म का प्रचार किया, आर्य समाज किमि के बवावै श्वांस और कौन अोर घसे, सोवै साथ चार चार एक ही रजाई में। बाबू पुत्तनलाल 'समस्यापूर्ति', भा०५ पृ० ६ । संपादक --राम कृष्ण वर्मा, १८६६ ई० पै दुख अति भारी इक यह जो बढ़त दीनता, भारत में संपति की दिन दिन होत छीनता । प्रेमधन, 'हार्दिक हथीदर्श' जिनके कारण सब सुख पात्रे, जिनका बाप सब जा खोय, हाय हाय उनके बालक नित भूखों के मारे चिनाय ।। गप्त स्फुट कविता जातीय गीत' ६२ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की शाखाना, गुरुकुलों और गोक्षिणी समाना की स्थापना की, विधवा-विवाह निषेध, बाल-विवाह, ब्राह्मण धर्मान्तर्गत कर्मकाण्ड, अन्धविश्वास आदि का घोर विरोध किया। उन्हों ने पाश्चात्य विचार-धारा की भित्ति पर स्थापित ब्राह्म-समाज ने बहु देववाद, मूर्तिपूजा, बहुविवाह आदि के विरुद्ध संग्राम किया। श्रार्य-समाज के सिद्धान्त का अाधार विशुद्ध भारतीय था । इसने ब्राह्म-समाज के पाश्चात्य प्रभाव को रोकते हुए देश का ध्यान प्राचीन भारतीय सभ्यता की ओर खींचा । विवेकानन्द ने शिकागो मे भारत की आध्यात्मिकता का प्रचार किया। ‘थियोसोफिकल सोसायटी' ने 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का सन्देश सुनाते हुए भारतीय सभ्यता और संस्कृति की रक्षा की तथा उसका प्रचार किया। रामकृष्ण मिशन ने प्रारंभ में आध्यात्मिक और फिर आगे चलकर लोक-सेवा के अादर्श की प्रतिष्ठा करने का प्रयास किया । इस प्रकार देश के विभिन्न भागों में स्थापित धार्मिक संस्थानों ने पश्चिमी भाषा, साहित्य, संस्कृति, सभ्यता, धर्म और शिक्षा तथा अपनी निर्बलतायो से उत्पन्न बुराइयों को दबाने का उद्मोग किया । इन धार्मिक आन्दोलनों ने हिन्दी साहित्य को भी प्रभावित किया । दयानन्द सरस्वती, भीमसेन शर्मा आदि ने हिन्दी में अनेक धार्मिक पुस्तके लिस्त्री और अनेक के हिन्दीभाध्य प्रकाशित किये । श्रार्थ-समाजिया के विरोध में श्रद्धाराम फुल्लौरी अम्बिकादत्त व्यास आदि सनातन-धर्मियों ने भी बबण्डर उठाया । धार्मिक घात-प्रतिघात में खंडनमडन के लिए हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना हुई । दयानन्द लिखित 'सत्यार्थप्रकाश', 'वेदाग-प्रकाश', 'संस्कार-विधि', अादि, श्रद्धाराम फुल्लौरी लिखित 'सल्यामृतप्रवाह', 'भागवती' श्रादि, अम्बिकादत्त व्यास-लिखित 'अवतार-मीमासा' 'मूर्ति-पूजा', 'दयानन्द-पाडित्य-खंडन' आदि कृतियाँ इसी धार्मिक संघर्ष की उपज हैं । इन रचनात्रा की भाषा व्याकरण-विरुद्ध और पंडिताऊ होने पर भी तक और श्रोन से विशिष्ट है । माहित्यकार भी इस खंडन-मंडन से प्रभावित हुए । भारतेन्दु ने इस सब खंडन-मन के झगड़ों से दूर रह कर प्रेमोपासना का सदेश दिया खंडन जग में काको कीजे । पियारो पइये केवल प्रेम में" १ प्रतापनारायण मिश्र ने तो एक ग्थल पर इस झूठे धार्मिक वितंडावाद से ऊबकर अशरण शरण भगवान् की शरण ली है। "झूठे झगड़ों से मेरा पिंड छुड़ायो । मुझको प्रभु अपना सजा दास बनायो।" १ 'भारतेन्दु-ग्रन्थावली'. पृ० १३६ २ प्रेम पुष्पावनी' बसत' Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारेन हेस्टिग्ज ( १७७४-५ ई० ) और जानेया टकन ( १७१५ १८११ ई० ) द्वारा हिन्दुओं और मुसलमानों को संस्कृत और फ़ारसी मे सास्कृतिक शिक्षा देने की अायोजना की गई थी । विज्ञापन के युग मे प्राचीन ढंग की धार्मिक शिक्षा पान न थी । १८१३ ई० में पार्लियामेंट ने ज्ञान-विज्ञान की वृद्धि के लिये एक लाख रुपये की स्वीकृति दी, परन्तु इससे कोई उद्देश्य पूर्ति हुई नहीं 1 राजा राममोहन राय आदि भारतीयों की सहायता से डेविड हेअर ने १८१६ ई० में कलकत्ते मे एक अङ्गरेजी स्कूल खोला और १८३७ ई० में लार्ड मेकाले ने अगरेजी को ही शिक्षा का माध्यम बनाया । १८४४ ई० में हार्डिग्ज के चार्टर के अनुसार नौकरियाँ अगरेजी पढे-लिखे लोगों को दी जाने लगी । १८५४ ई० में लार्ड डलहौज़ी और चार्ल्सवुड ने नई शिक्षा-योजना बनाई जिसके फलस्वरूप गावों में प्रारंभिक और नगरी मे हाई स्कूल खोले गये । सिद्धान्त रूप में शिक्षा का माध्यम देशी भाषाएँ थीं परन्तु कार्य-क्रम से अगरेजी ही माध्यम रही । ईसाई-धर्म-प्रचारकों का शिक्षा का क्रम पहले ही से जारी था। १८५७ ई० मे कलकत्ता, बम्बई और मद्रास विश्व-विद्यालयों की स्थापना हुई। २८७५ ई० के विद्रोह-शमन के बाद अँगरेजी राज्य दृढ़ हो गया । किन्तु साधारण जनता के हृदय में शासकों के प्रति श्रद्धा कम और अातङ्क अधिक था । भारतीयों की इम मनोवृत्ति को बदलने के लिये सरकार उनकी सस्कृति में परिवर्तन करना चाहती थी। इसीलिये अंगरेजी माध्यम और पाश्चात्य साहित्य के पाठन पर अधिक जोर दिया गया था । यद्यपि पश्चिमी विज्ञान, साहित्य, इतिहास, आदि के अध्ययन से भारतीयो की दृष्टि में बहुत कुछ व्यापकता आई और सामाजिक अवस्था में बहुत कुछ सुधार हुअा, तथापि अगरेजी माव्यम ने भारतीय साहित्य और जीवन का बड़ा अहित किया । उसने देशी भाषाओं की उन्नति का मार्ग रूंध दिया । विदेशी साहित्य, शिक्षा, सभ्यता और संस्कृति से मोहित भारतीय नवयुवक उन्हीं के दास हो गये। वे अपनी भाषा साहित्य, सभ्यता, संस्कृति, जाति या धर्म की सभी बातो को गॅवारू समझने लगे। उन्हें "स्वदेश", 'भारतीय', 'हिन्दी' जैसे शब्दो से चिढ होने लगी। वे हृदयहीन शिक्षित अल्पज्ञ अशिक्षितों और धनहीनों के प्रति प्रेम और सहानुभूति करने के स्थान पर तिरस्कार और घृणा के भाव धारण करने लगे । शिक्षा के क्षेत्र में काशी के राजा शिवप्रसाद 'सितारे हिन्द' और पंजाब में नवीनचन्द्रराय ने हिन्दी के लिये महत्वपूर्ण कार्य किया। कुछ ही काल के उपरान्त हिंदी-साहित्यकारों को अपनी संस्कृति, सभ्यता और साहित्य के पुनरुद्धार की अावश्यकता का अनुमव हुअा मारतेदु र ण Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिश्र बालमुकुद गुप्त श्रादि ने जनता को इन विनाशकारी प्रभावों से बचने के लिये चेताव दी, समाज सुधार और स्वदेशी श्रादोलन सम्बधी विषयों पर ग्राम गीत लिसने और लिखा का प्रयास किया जिससे जागरण का नूतन स्वर अशिक्षित जनता के कानों तक भी पहुँच सके। भारतेन्दु ने जनपद-साहित्य के योग्य रचनाएँ की, अंगरेजी साहित्य और शिक्षा बेकारी, सरकारी कर्मचारियो, पुलिस कचहरी, कानून उपाधियों, विधवा-विवाह, मद्यपार मुन्दर मुकरियाँ लिखी-- सब गुरु जन को बुरो बतावे, अपनी खिचड़ी आप पकानी । भीतर तत्व न झूठी नेजी, क्यों सखि साजन? नहिं अगरेजी !! तीन बुलाए तेरह आवे, निज निज विपदा रोइ सुनावें। आँखी फूटे भरा न पेट, क्यों सखि साजन? नहिं मेजुएट । ' मतलब ही की बोले बात, राखे सदा काम की घात । डोले पहिने सुन्दर समला, क्यों सखि साजन ? नहिं सखि अमला ॥ रूप दिखावत सरबस लूटे, फन्दे में जो पड़े न छूटे। कपट कटारी हिय में हूलिस, क्यों सखि साजन ? नहिं सखि पूलिस ॥ २ 'बाल-विवाह से हानि', 'जन्मपत्रो मिलाने की अशान्त्रता' 'बालकों की शिक्षा अंगरेजी फैशन से शराब की श्रादत', 'भ्र णहत्या', 'फूट और बैर', बहु-जातित्व और बहुभक्तित्व', 'जन्मभूमि से स्नेह और इसके सुधारने की आवश्यकता', 'नशा', अदालत', 'हिन्दुस्तान की वस्तु हिंदुस्तानियों को व्यवहार करना चाहिये' अादि विषयों पर रचनाएँ की गई । 'हरिश्चन्द्र मेगजीन में प्रकाशित 'यूरोपीय के प्रति भारतवर्षीय के प्रश्न' और 'कलिराज की सभा' में सरकार के पिट्ठों पर श्राक्षेप है। उसी के सातवें अङ्क में नये अंगरेजी पढे-लिखे लोगों का अच्छा उपहास किया गया है। 3 भारतेन्दु ने साहित्य को समाज से संबद्ध करने का प्रयास किया। उनके नाटकों में तत्कालीन सामाजिक दशा की सुन्दर व्यंजना हुई है। 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' में उन्होंने धार्मिकता के नाम पर प्रचलित सामाजिक अनाचारों और स्वार्थ लोलुप जनों का चैत्रण किया है । "विषस्य वित्रमौषधम् में देशी नरेशों के बीभत्स दृश्य अङ्कित कर के दूषित बाताबरण और दयनीय दशा की झॉकी उपस्थित की गई है। १ भारतेन्दु-अन्थावली', पृ०८१० २ भारतेन्दु-ग्रन्थावली', पृ०८११ & When I go Sis, market ko, these chaprasis, trouble me much. How can I give daily Inam ever they ask me I way such omzine they me give gardadia and tell baba piklo tum Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I "भारत दुर्दशा" में हिन्दू धर्म के विभिन्न संप्रदायों का मत-मतांतर, जाति-पाति के भेदमात्र, विवाह और पूजा संबन्धी कुप्रथाश्री, विदेश गमन-निषेध, अरेजी शासन श्रादि पर आक्षेप किया गया है । ९० प्रतापनारायण मिश्र के 'कलिकौतुक - रूपक' मे पाखंडियों और दुराचारियों का तथा 'भारत दुर्दशा', 'गोसंकट नाटक' और 'कलि- प्रभाव नाटक' में श्रीसम्पन्न नागरिक जनों के गुप्त चरित्रों का चित्रण किया गया है । राधाचरण गोस्वामी के 'तन मन धन श्री गोसाई जी के अर्पण' में रूढ़िवादी तथा अन्धविश्वासी वृद्धजनों के विरुद्ध नवयुवक दल के संघर्ष और 'बूढे मुँह मुहाँसे' में किसान की जमींदार विरोधी भावना तथा हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य का निरूपण है। काशीनाथ खत्री के 'ग्राम-पाठशाला' 'निकृष्ट नौकरी' और 'बाल विधवा- संताप, राधा कृष्णदास के 'दुखिनीवाला' तथा अन्य नाट्यकारों के नाटकों में भी समाज की दीन-दशा के विविध चित्र अङ्कित किए गए है 1 निबन्धकारों ने भी 'राजा भोज का सपना' ( सितारे -हिन्द), 'एक अद्भुत अपूर्व स्वप्न' ( भारतेन्दु), 'यमलोक की यात्रा' ( राधाचरण गोम्वामी ), 'स्वर्ग में विचार-सभा का अधिवे शन' ( भारतेन्दु ) आदि निबन्धों में तत्कालीन धर्म, कर्म, दान, चन्दा, शिक्षा, पुलिस, कचहरी, आदि पर तीखा व्यय किया है । 'भारतेन्दु प्रतापनारायण मिश्र, बालमुकुन्द गुप्त, आदिकवियों ने सामाजिक दुरवस्था को श्रालम्बन मान कर रचनाएँ की हैं। पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान और सभ्यता-संस्कृति की शिक्षा दीक्षा ने भारतेन्दु-युग को इतिहास Dena na lena muft ke aye hain yaha Bare Darbari ki dum, इस संबंध में डा० रामबिलास शर्मा का 'भारतेंदु युग' ( पृ० १२ - ११२) अवलोकनीय है १ देखिये भारतेन्दु-युग -- (डा० रामविलास शर्मा ) पृ० ६५ - . १२२ २ सेल गई बरछी गई, गये तीर तरवार घड़ी छड़ी चसमा भये, क्षत्रिन के हथियार । बालमुकुन्द गुप्त 'स्फुट कविता' 'श्रीराम स्तोत्र' पृ છ बात वह अगली सब सटकी, बहू जब मैं थी घू ंघट की । घुटावें क्यों पिंजड़े में दम, नहीं कुछ यंधी चिड़िया हम ॥ बाबू बालमुकुन्द गुप्त कृत 'स्फुट कविता' - 'सभ्य बीबी को चिट्ठी' पृ० ११० farar बिलपै अरु धेनु करें, कोउ लागत हाय गोहार नहीं । कौन करेजो नहिं कसकत सुनि विपति बात बिधवन की है, ar are me कन्दना कान्यकुब्ज कन्यन की है । मिश्र 'मन की बहर' Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ११ । की भूमिका म एक पग और आगे बढा दिया इस युग की साहित्य सम्टि भान, एव कल्पना 7 गगन बिहारी रातिकालीन स हि य और जीवन तथा कम म विश्वास करने वाले यथाथ वादी आधुनिक साहित्य के बीच की कड़ी है । इस युग के कवियों ने भक्ति और शृङ्गार परम्परा का पालन करते हुए भी देश-भक्ति, लोक-कल्याण, समाज-सुधार, मातृभापोद्धार आदि का संदेश सुनाया । भारतेन्दु की कवितात्रा में शृङ्गार और स्वदेश-प्रेम, राधाकृष्ण की भक्ति और टीकाधारी मायावी भक्तों का उपहास, प्राचीनता और नवीनता एक साथ है । इस युग मे व्यक्तिगत प्रेम और सहानुभूति ने बहुत कुछ व्यापक रूप धारण किया । शृङ्गार के अालम्बन नायक-नायिकानों ने स्वदेश, स्वदेशी वस्तु, सामाजिक कुरीतियों, दार्शनिक और ऐतिहानिक अादि विषयों के लिये भी स्थान रिक्त किया । भारतेन्दु की विजयिनी विजय वैजयन्ती ( १८८२ ई.) और प्रतापनारायण मिश्र की "तृप्यन्ताम्" ( १८६१ ई० ) कवितानों मे परतन्त्र भारत की दीनावस्था पर क्षोभ, मिश्र जी की 'लोकोक्तिशतक' (१८८८ ई०), 'श्रावहुमाय' (१८९८ ई.) आदि में देश की विपन्न दशा पर सन्ताप, प्रेमघन की 'मगलाशा या हार्दिक धन्यवाद' मे सुधारक शासकों की कृपा-दृष्टि पर सन्तोष और प्रतापनारायण मिश्र के 'लोकोक्तिशतक' एव बालमुकुन्द गुप्त अादि की रफुट कविताओं में संगठनभावना का व्यक्तीकरण है। राधाकृष्णदास, प्रतापनारायण मिश्र ('मन की लहर-'सन्१८८५ ई०), नित्यानन्द चौबे ('कलिराज को कथा'-१८६१ ई० , आत्माराम सन्यासो 'नशाखंडन-चालीमा' (१८६६) बालमुकुन्द गुप्त ( स्फुट कविता'-प्रकाशित १६१६ ई०) आदि कवियों ने सामाजिक विषयों पर रचनाएँ की । श्रीधर पाठक का ( ' जगतसचाई-सार" १८८७), माधवदास का "निर्भय अद्वैत सिद्धम्" -( १८६६ ई० ), रामचन्द्र त्रिपाठी का, "विद्या के गुण और मूर्खता के दोष" श्रादि दार्शनिक विषयों पर की गई रचनाएँ हैं । 'दगाबाजी का उद्योग' ( भारतेन्दु ) 'ब्रसल्स की लड़ाई' ( श्री निवास दाम ) आदि की कथावस्तु का अाधार ऐतिहासिक है। 'दामिनी दूतिका' ( राधाचरण गोस्वामी), ‘म्यूनिसिपैलिटी ध्यानम्' ( श्रीधर पाठक-१८८४ ई०), 'लेग की भूतनी' (बालमुकुन्द गुम- १८६७ ई०), 'जनाने पुरुष' (बालमुकुन्द गुम१८६८ ई०) आदि मे कवियों ने नवीन विषयों की ओर ध्यान दिया है । हाग्यरस के आलम्बन, कृपण खाऊ ब्राह्मण आदि न होकर नव शिक्षित, फैशन के दास, रईस, लकीर के फ़कीर अादि हुए है तथा वीर रस के आलम्बन का गुरुतम पद देशप्रेमियों को दिया गया है । इम युग की राजनैतिक. गष्टीय. आर्थिक, धार्मिक. सामाजिक और सास्कृतिक कविताओं में अतीत के प्रति अमिमान के प्राते चोम और भविष्य के प्रति अाशा की Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १२ । पारद्ववेदी-युग को पद्य रचना म एक विशिष्ट स्थान ईसाई धम प्रचारकदेशी पाद रिया का भी है पद्य की म्वाभावक प्रभावा पादक्ता से जनता को आकृष्ट करने के लिय उन्होंने "मंगल समाचार का दूत" ( १८६१ ई०), 'बुह श्रेष्ट मूल कथा' (१८७१ ई०', 'खीष्ट-चरितामृत-पुस्तक' ( १८७१ ), 'गीत और भजन' ( १८७५), 'प्रेम-दोहावली' ( १८८० ई०), 'मसीही गीत की किताब ( १८८१ ), दाऊदमाला' ( १८८२ ), 'भजन सग्रह' ( १८८६ ), 'छन्द-संग्रह' १८८८ वि० सं० ), 'सुबोध-पत्रिका' ( १८८७ ई० ), _ 'गीत-संग्रह' ( १८८८ ई० पृष्ठ सं० ), 'गीतों की पुस्तक' ( १८८६ ई० ), 'धर्मसा' ( १८ ८६ ई०), 'गीत-सग्रह' ( १८६४), 'उपमामनोरंजिका' ( १८६६) ग्रादि छन्दोबद्ध पुस्तकें लिखी । इन मे अनेक राग-रागनियों के पद,गीत,भजन,गजल आदि है । दोहा, चौपाई, रोला अादि छन्दों की भी बहुलता है । शिथिल और खिचड़ी भाषा मे काव्यकला का सर्वथा अभाव है। उनका महत्व खड़ीबाली-पद्य-रचना के प्रारम्भिक प्रयास मे ही है। __विषय की दृष्टि से तो भारतन्दु-युग की कविता बहुत कुछ आगे बढ़ गई, परन्तु पूर्ववर्ती रीतिकालीन काव्य का कला-सौंदय न पा सका । भारतेन्दु की कविता में कहीं तो भक्तिकालीन कवियों की स्वाभाविक तल्लीनता, १ कहीं छायावाद की सी लाक्षणिक मूर्तिमता और कहीं चलचित्रों के से चलते गाने है । उस युग के नायिका-उपासक कवियों ने शृङ्गार-वर्णन में ही अपनी प्रतिभा का अधिक उपयोग किया है । कोलाहल के उस युग मे बहुधन्धी कवि अपनी रचनात्रों को विशेष सरस या रमणीय न बना सके । तत्कालीन राजनेतिक, सामाजिक, आर्थिक श्रादि परिस्थितियों से प्रभावित कवियो की शृङ्गारेतर कृतियाँ प्रचारात्मकता और सामयिकता से ऊपर न उठ सकी । श्रीधर पाठक, प्रमघन आदि ने अगरेजो काव्य के भाव और शैली को अपना कर उनी ढंग की रचनाएँ करने का प्रयास किया । पुराने ढर्रे के रूढ़िवादी कवि समग्या-पूर्तियो पर बुरी तरह लद्द थे । भारतेन्दु के 'कवि-समाज' की समस्या-पूर्तिया में निम्सदेह कवित्व है, उदाहरणार्थ भा-तेन्दु की पिय प्यारे तिहारे निहारे बिना अंखियॉ दुखियाँ नहिं मानति है,' प्रतापनारायण मिश्र को “पपिहा जब पूछि है पीव कहाँ”, प्रमघन की 'चरचा ५ क-नवनीत मेघवरन,दरसत भवताप हरन,परसत सुख करन, भक्तसरन जमुनवारी। अथवा धिक देह और गेह सबै सजनी ! जिहि के बस को छूटनो है। ख-ससि सूरज द्वै रैन दिना तुम हियनन करहु प्रकाश । ग-सोप्रो सुख निंदिया प्यारे ललन । अथवा प्यारी बिन करत न कारी रैन Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चलिवे की चलाइथना आ द १ पर तु ममस्या पूर्ति क दुव्यसन ने रचनाकारों की प्रतिमा को बहुत कुछ कुण्ठत कर दिया रासक वाटिका" रासक रहग्य श्राद पत्रिकायों में तो एकमात्र समन्या-पूर्ति ही के लिए स्थान था और उनके लेखक पद्यकतांत्रों की रचनाओं में तुकबन्दी से अधिक कुछ भी नहीं है। इस प्रकार की पूर्तियों में श्रार पत्रिकाओं ने हिन्दी काव्य का बडा अहित किया है ।। ___ उस युग में प्रबन्ध काव्यों का अभाव सा रहा । 'जीर्ण जनपद', 'कम वध' ( अपूर्ण ) 'कलिकाल-दर्पण', 'होलो की नकल', 'एकान्तवासी योगी', 'ऊजड ग्राम' आदि इनी गिनी रचनाएं प्रबन्ध-कविता की दृष्टि से निम्न श्रेणी की है। इनका मूल्य खड़ी-बोली-प्रबन्धकाव्य के इतिहास की पीठिका रूप में ही है । एक ओर तो रीतिकालीन पुरानी परिपाटी के प्रति कवियों का मोह था और दूसरी ओर अान्दोलन और सक्रान्ति की अवग्था । अतएव कवियों की प्रचारात्मकता और उपदेशात्ममता के कारण आधुनिक शैली के गीत-मुक्त का की रचना न हो सकी | काव्य-विधान के क्षेत्र में गीति-मुक्तकों और प्रबन्ध काव्यों के अभाव की न्यूनाधिक पूर्ति पद्य-निबन्धों ने को । 'बुढ़ापा', 'जगत-सचाई-सार' 'सपूत', 'गोरक्षा' श्रादि पद्यात्मक निबन्धी मे गीतिमुक्तकों की मार्मिक अनुभूति का अाभास है । कथासूत्र तथा विषय की एकतानता के कारण प्रबन्ध-व्यजकता भी है । १६ वीं शती के अन्तिम दशाब्द तक इन निवन्धों मे भावात्मकता के स्थान पर नीरसता आ गई। ये इतिवृत्तात्मकरूप मे पद्याबद्ध निबन्धमात्र रह गए। इस युग के कवियों ने सबैया, कविन, दोहा, चौपाई, सोरठा श्रादि की पूर्वकालिक पद्धति से आगे बढ़कर रोला, छप्पय, अष्टपदी, लावनी, गजल, रेग्खता, द्रुतविलम्बित, शिस्त्ररिणी आदि पर ध्यान तो अवश्य दिया, परन्तु इस दिशा में उनको प्रगति विशेष महत्वपूर्ण न हुई । छन्दों की वा तविक नवीनता और स्वछदता भारतेन्दु के उपरान्त पं० श्रीधर पाठक की रचनाओं मे चरितार्थ हुई । लावनी की लय पर लिखे गये, 'एकान्तवासी योगी', सुथड़े साइयों के ढग पर रचित 'जगत-सचाई-सार' आदि मे राग-रागनियों की अवहेलना करके कविता की लय और स्वरपात पर ही उन्होंने विशेष ध्यान दिया है : "जगत है सञ्चा, तनिक न कच्चा, समझो बच्चा इसका भेद । २ भारतेन्दु, प्रतापनारायण मिश्र, प्रेमघन, जगमोहननिंह, अम्बिकादत्त व्याम आदि कवि १ हिंदी साहित्य का इतिहास - रामचन्द्र शुक्ल, पृ. ७०१---२ २ जगतसचाई-सार Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रजभाषा की पुरानी धारा म ही बनते रहे आरम्भ म श्रीधर पाठक नाथूराम शमा शकर' अयोध्यासह उपाध्याय श्राद ने भी ब्रजभाषा को ही काय नापा के रूप म ग्रहण किया । सन् १८७६ ई० से खड़ी बोली का प्रभाव बढ़ने लगा । स्वयं भारतेन्दु ने खड़ी बोली में पद्य लिखे : खोल खोल छाता चले, लोग सड़क के बीच । कीचड़ में जूते फँसे, जैसे अघ मे नीच ॥' सन् १८७६ ई० मे ही बाबू लक्ष्मीप्रसाद ने गोल्डस्मिथ के 'हरमिट' (Hermit) का खड़ी बोली मे अनुवाद किया था । खड़ी बोली में काव्य-रचना के प्रति प्रोत्साहन न मिलने के कारण भारतेन्दु और उनके सहयोगियों ने ब्रजभाषा को कविता का माध्यम बनाए रक्खा । उम युग में कोई भी कवि खडो बोली का ही कवि नहीं हुआ। श्रीधर पाठक ने १८८६ ई. में बड़ी बोली की पहली कविता-पुस्तक एकान्तवासी योगी' लिखी । इस समय गद्य और पद्म की भाषा की भिन्नता लोगों को खटक रही थी । श्रीधर पाठक, अयोध्याप्रसाद खत्री आदि खड़ी बोली के पक्षपाती थे और प्रतापनारायण मिश्र, राधाचरण गोस्वामी आदि ब्रजभाषा के | राधाकृष्णदास का मत था कि विषयानुसार कवि किसी भी भाषा का प्रयोग करे । ब्रजभाषा की पुरातनता, विशाल साहित्य, माधुरी और सरसता के कारण खड़ी बोली को आगे श्राने में बड़ी कठिनाई हुई। परन्तु काल का श्राग्रह बोलचाल की भाषा खड़ी बोली के ही प्रति था । १८८८ ई० में अयोध्या प्रसाद खत्री ने 'ग्वड़ी बोली का पद्म' नामक सग्रह दो भागां मे प्रकाशित किया । बदरीनारायण चौधरी, श्रोधर पाठक देवीप्रसाद 'पूर्ण' नाथूराम शर्मा, श्रादि ने ब्रजभाषा के बदले खड़ी बोली को अपनाकर भारतेन्दु के प्रयागो को नापा के निश्चित रूप बी ओर आगे बढ़ाया । उन्नीसवीं शताब्दी समाप्त हो गई पर, लोगो के उद्योग करने पर भी इस नवीन काव्य-भाषा मे अपेक्षित माधुरी, प्राजलता और प्रौढ़ता नश्रा मकी । सामयिक साहित्य की उन्नति अङ्गरेजी श्रादि भाषाओं के वाङ मय का अध्ययन और । पहली सितम्बर सन् १८८१ के 'भारत-मित्र' में अपने छन्दों के साथ भारतेन्दु ने यह पत्र भी छपाया था "प्रचलित साधुभाषा में यह कविता भेजी है । देखियेगा कि इसमें क्या कसर है और किस उपाय के अवलम्बन करने से इसमें कात्यसौंदर्य बन सकता है । इस सम्बन्ध में सर्वसाधारण की सम्मति ज्ञात होने से आगे से वैसा परिश्रम किया जायगा। लोग विशेष इच्छा करेंगे तो और भी लिखने का यन्न करूँगा।" मारनेन्दु-युग बा० रामविलास शर्मा, पृ० १६८ ६६ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L १५. ] तत्कालीन राजनैतिक, राष्ट्रीय, धार्मिक, सास्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक एव साहित्यिक आन्दोलनों ने हि दी लेखका को निवन्ध रचना की ओर प्रेरित किया उस युग से पकड हास्य-प्रिय, मिलनसार और सजीव लेखकों ने पाठकों के प्रति श्रभिन्नरूप और मुक्तकंठ से अपनी भावाभिव्यक्ति करने के लिए कविता, नाटक या उपन्यास की अपेक्षा निबन्ध को ही अधिक श्रेयस्कर माध्यम समझा । इस नवीन रचना की कोई ईटका या इयत्ता निश्चित न होने के कारण, आदर्श के प्रभाव में, स्वच्छन्दता-प्रेमी लेखकों ने इसके आकार और प्रकार को इच्छानुसार घटाया बढ़ाया और विषय तथा व्यक्तित्व से अतिरंजित किया । इस विधान में कहानी को भी स्थान मिला और दार्शनिक तत्व के विवेचन को भी । शैली की दृष्टि से लेखकों की अपनी अपनी डफली और अपना अपना राग था । 'राजा भोज का सपना' ( राजा शिवप्रसाद ), 'एक अद्भुत पूर्व स्वप्न' ( भारतेन्दु ), एक अद्भुत पूर्व स्व'न' ( तोताराम ), 'थमपुर की यात्रा' (राधाचरण गोस्वामी ), 'आप' ( प्रतापनारायण मिश्र ) यदि निबन्ध इस बात के प्रमाण हैं । इस युग के निबन्धो में निबन्धता नहीं है, उद्देश्य या विषय की एकतानता नहीं है । 'राजा भोज वा सपना' में शिक्षा भी है, हास्य भी है। तोताराम के 'एक अद्भुत पूर्व स्वप्न' में हास्य, व्यंग्य और शिक्षा एक साथ है। कोई निश्चित लक्ष्य नहीं है । पाठशालाओं के चन्दा-संग्रही, पुलिस, कचहरी श्रादि जो कोई भी दाएँ-बाएँ मिला है उसी पर व्यंग्य बाण छोडा गया है। 'स्वर्ग में विचारसभा का अधिवेशन' में भारतेन्दु ने समाज की अनेक कुरीतियों पर आक्षेप किया है । हिन्दी गद्य के विकास के समानान्तर ही पत्र-पत्रिकाओं ने निबन्ध लेखन को प्रोत्साहन दिया । 'हरिश्चन्द्र-चन्द्रिका' में 'कलिराज की सभा' ( ज्वालाप्रसाद ), 'एक अद्भुत अपूर्वं स्वप्न' (तोताराम ), आदि निबन्ध मनोरंजक और गंभीर विषयों पर प्रकाशित हुए । 'सारसुधानिधि' में प्रकाशित 'यमपुर की यात्रा', 'मार्जार - मूषक', 'तुम्हें क्या', 'होली' 'शैतान का दरबार' आदि में तत्कालीन सामाजिक और राजनैतिक दशाओं की मार्मिक व्यंजना हुई है । 'आनन्द कादम्बिनी' में 'हमारी मसहरी', जैसे मनोरंजक और 'हमारी दिनचर्या सरीखे भावात्मक निबन्धों के दर्शन होते हैं । विनोद प्रिय 'ब्राह्मण' ने विविध विषयों पर 'घूरे के लत्ता बीने, कनातन के डौल बॉधे', 'समझदार की मौत है', 'बात', 'मनोयोग', 'बृद्ध 'भौ' आदि निबन्ध प्रकाशित किए। 'भारत-मित्र' ने 'शिव- शम्भु का चिट्ठा' में रमणीय और सक्षम भाषा मे विदेशी शासन पर खूब फबतियाँ कसीं । स्पष्टवादी और तर्कशास्त्री 'हिन्दी- प्रदीप ' की देन औरों की अपेक्षा श्राधक ३ उसमें प्रकाशित साहित्य जनसमूह के Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय का रिकभ है', शब्द आदि ममीक्षा मा तथा साहित्यिक, 'माधुर्य' 'पाशा' आदि मनावैज्ञानिक तमा विश्लेषणामक एव 'श्री शकराचाय' और 'गुरु नानक देव आदि विवे चनात्मक निबन्ध किमी अंश तक महत्वपूर्ण है । भारतेन्दु-युग ने गद्य-निबन्धो के साथ पद्य-निबन्धों का भी सूत्रपात किया। हरिश्चन्द् ने 'अगरेज राज सुख माज सजे अति भारी' जैसे इतिवृत्तात्मक पद्य तो लिखे परन्तु पद्य निबन्धों की अोर प्रवृत्त न हुए । उनके अनुयायी प्रतापनारायण मिश्र ने 'बुढ़ापा', 'गोरक्षा' 'क्रन्दन आदि की रचना-द्वारा इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया ! भारतेन्दु-युग के उपदेशक, मुधारक और प्रचारक निबन्धकारों की कृतियों में विषय को व्यापकता, शैली की स्वच्छन्दता, व्यक्तित्व की विशिष्टता, भावों की प्रवणता, लक्षणा तथा व्यंजना की मार्मिकता और भाषा की सजीवता होते हुए भी निबन्ध-कला का सर्वथा अभाव है। ये निबन्ध पत्रिकामों में सर्वसाधारण के लिये लिखित लेखमात्र हैं। उनकी एकमात्र महत्ता उनकी नवीनता में है । भावों और विचारों के ठोसपन और भाषा की सुगठन के अभाव के कारण ये निबन्ध की मान्यकोटि में नहीं आ सकत । ___ भारतेन्दु के हिंदी-नाटक-क्षेत्र मे पदार्पण करने के पूर्व गिरिधर दास ने १८५६ ई० में पहला वास्तविक नाटक 'नहुष' लिखा था । १८६८ ई० मे भारतेन्दु ने चीर कवि-कृत 'विद्या सुन्दर' के बंगला अनुवाद का हिंदी रूपान्तर प्रस्तुत किया। इस युग के निबंधकारों और कहानी लेखकों ने भी अपनी रचनाओं में नाटकीय कथोपकथन का प्रयोग किया था। हरिश्चन्द्र-मैगजीन, में प्रकाशित 'यूरोपीय के प्रति भारतीय के प्रश्न' 'वसत पूजा' आदि मे प्रयुक्त संवाद मनोहर हैं । 'कीर्ति केतु' ( तोताराम ) तातावरण' ( श्री निवासदाम ) आदि नाटक पहले पत्रिकाओं गे ही प्रकाशित हुए थे । हिंदी-साहित्य मे दृश्य काव्य का अभाव भारतेन्दु को बहुत स्खला । उन्होंने अपने अनूदित 'पाखड विडंबन' 'धनजय-विजय' 'कपूर-मंजरी' 'मुद्राराक्षम' 'सत्य हरिश्चन्द्र' और 'भारत-जननी' तथा मौलिक 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' 'चन्द्रावली' 'विघरय-विषमौषधम्' 'भारत-दुर्दशा' 'नील-देवी' 'अंधेर-नगरी' प्रेम-जोगिनी' (अपूर्ण) और 'सती-प्रताप' (अपूर्ण) की रचना-द्वारा इम रिक्त भांडार को भरने का प्रयास किया। इन नाटकों मे देश, जाति, समाज, संस्कृति, धर्म, भाषा और साहित्य की तत्कालीन अवस्था के यथार्थ दृश्य उपस्थित किये गये है। उनीसवीं शती के अन्तिम चरस में मारते को देखा देखी रों की एक असी Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा र म ग त नामवरण प्रह नाद चरित्र रणधीर प्रेम मोरिन पार मागिता-स्मययर + लेखक श्री निवास दास साताहरण' कारमणी रण' रामलीला' कसबध' नन्दोत्सव' 'लक्ष्मी सरस्वती-मिलन', 'प्रचंड-गोरक्षण'. 'बाल-विवाह', और 'गोषध-निषेध के रचयिता देवकी नन्दन त्रिपाठी, 'सिन्ध देश की राजकुमारियो', 'गन्नौर की रानी,' 'लव जी का स्वान' और 'बाल-विधवा-सन्ताप' नाटको के निर्माता काशीनाथ खत्री, 'उपाहरण के कर्ता कार्तिक प्रसाद खत्री, 'दुःखिनी-बाला', 'पद्मावती'. 'धर्मालाप' और 'महाराणा प्रताप' के विधायक राधाकृष्ण दास, 'बाल-विवाह' और 'चन्द्रमेन के रचनाकार बालकृष्ण भट्ट, 'ललितानाटिका, ' गोसंकट' और 'भारत सौभाग्य' के लेग्वक अम्बिकादत्त व्यास, 'सुदामा,' 'मती चन्द्रावली. 'अमरसिह राठौर,' 'तन मन धन श्री गोसाई जी के अर्पण और बृढे मुंह मुंहाने' के रचयिता गधाचरण गावामी, 'भारत-सौभाग्य, प्रयाग-राम-गमन' और चारागना रहस्य महानाटक' के निर्माता बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन', 'मंगीतशाकुन्तल'. 'भारत-दुर्दशा' और 'कलि-कौतुक के कर्ता प्रताप नारायण मिश्र, मीराबाई और नन्दविदा' के विधायक बल्देव प्रसाद मिश्र, विवाह-वेडंबन' के रननाकार तोताराम वर्मा अादि नाटककारी ने बह विषयक नाटको की सृष्टि की। ममाज गजनीति. इतिहास पुराण, मेमाख्यान आदि ममी में कथा वस्तु लेकर इन माहिन्यकारी ने मुक्तहस्त म लेग्वनी चलाई। नाट्य-कला की दृष्टि में श्रेष्ठ न होते हुए भी उन नाटको का ऐतिहासिक महन्व है । भारतेन्दु ने नाटक, नाटिका, प्रहसन, भाण आदि की रचना तो की परन्तु संस्कृत सपका का अन्धानुकरण नहीं किया। उनके नाटको में प्रान्य और पाश्चात्य नाटक-शेली का मम्मिश्रण हैं । बोलचाल की भाषा का प्रयोग नाटकीय कथोपकथन के सर्वथा अनुकूल है । शैली की दृष्टि मे श्री निवासदाम ने भारतेन्दु का बहुत कुछ अनुगमन किया। भारतेन्दुमइल ने नाटको के अभिनय की भी व्यवस्था की। काशी, प्रयाग कानपुर आदि नगरी में नाटक-मंडलियों की स्थापना हुई। भारतन्दु और श्रीनिवामदास के उपरात हिन्दी नाटक-पंसार में अंधकार छा गया । भारतेन्दु के पश्चादगामी नाटककार नाट्य-शास्त्र मे अनभिज्ञ थे । हिन्दी का अपना रंगमंच था ही नहीं । पारमी नाटक कम्पनियों का अाकर्पग दिन दिन बढ़ता जा रहा था । ज्ञान-विज्ञान की तीव्र प्रगति और बहुमुरची आन्दोलनों के कारण लेग्वको मे कलाकार की तन्मयता भी श्रमम्भव थी । उपदेश, सुधार, प्रचार और तक की भावना से अभिभूत सेग्बक नार के और भी अयोग्य मिद हुए उन्होंने रंग-47 पर पाटका २ कयोपमधन Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग क्षिप महानाटन कला की इति श्री समझती अशुद्ध चार भाग का दशा और भी शोचनीय थी भारतन्दु की भाषा की त्रुटियों ता किसी प्रकार सह्य छ, परंतु केशवराम भट्ट की घोर उर्दू' या 'प्रेमघन' -रचित 'भारत-सौभाग्य' में उर्दू, मारवाड़ी, भोजपुरी, पंजाबी, मराठी, बंगला यादि की विचित्र और स्वाभाविक खिचड़ी अत्यन्त हास्यास्पद है । श्राज के सिनेमाघरो की भोति तत्कालीन पारसी थिएटरों ने जनता को बरबस अपनी ओर खींच लिया था। अयोध्या सिह उपाध्याय ने प मन - विजय व्यायोग' और 'रुक्मिणी-परिणय' तथा रामकृष्ण वर्मा ने अपने अनुवादो द्वारा नाट्य कला का पुनरुत्थान करने का प्रयास किया, परन्तु सफलता न मिली | हिन्दी पाठकों और अभिनय - दर्शकों की रुचि इतनी भ्रष्ट हो चुकी थी कि उसका परिष्कार न हो सका ! हिन्दी - कथा - साहित्य का प्रारम्भिक क्रम १६ वी शती के प्रथम दशाब्द में इंशाअल्ला वाँकी 'रानी केतकी की कहानी' 'लल्लू लाल की 'सिहासन बत्तीसी', 'वैताल पचीसी', 'माधवानल-काम-कन्द-कला', 'शकुन्तला' और 'प्रेमसागर' तथा सदल मिश्र के नासिकेतोपख्यान' से ही चल चुका था । फोर्ट विलियम कॉलेज मे गिल- क्राइस्ट की अध्यक्षता में प्रारब्ध अनुवाद कार्य संस्कृत और फारसी के ग्राख्यानी तक ही सीमित रहा। पौराणिक धार्मिक कथाएँ ‘शुक्ल्बहत्तरी', 'सारंगासदावृक्ष', 'किस्सा-तोता-मैना', 'किस्सा साढ़े तीन यार तथा फ़ारसी-उद से गृहोत' चहार-दर्वेश' वामोवहार' 'किस्सा हातिमताई' आदि रचनाएँ कहानी-प्रेमियों के हृदय पर अधिक काल तक शासन न कर सकीं । इन रचनाओं में न साहित्यिक सौंदर्य था न जीवन की व्यापकता । कथा-साहित्य के प्रसार और प्रचार मे पत्रिकाओं ने भी योग दिया । 'हरिश्चन्द्र- चन्द्रिका' में 'मालती', 'हिन्दी- प्रदीप' में 'पढे-लिखे 'कार की नकल', 'भारसुधा - निधि' में 'तपस्वी', 'भारतेन्दु' में 'अकलमंद' आदि कथाएं प्रकाशित हुई । भारतेन्दु-युग आधुनिक लघु कहानिय की कल्पना न कर सका और न तो उसम उपन्यास- कला का विकास करने की ही शक्ति थी । कलिराज की सभा' 'एक अद्भुत पूर्व स्वप्न', 'राजा भोज का सपना', 'स्वर्ग में विचार-सभा का अधिवेशन', 'यमलोक की यात्रा' आदि रचनाओं मे कहानी और उपन्यास के मूल तत्व अवश्य विद्यमान थे। निवन्धा और नाटक की लोकप्रियता ने हिन्दी साहित्यकारो को उसी ओर आकृष्ट किया । कथासाहित्य के अनुकूल वातावरण ने उसकी रचना ग्रागामी युग के लिये स्थगित कर दी । अन्य श्री सुन्दर कथावस्तु मनोहर संभाषण, भावनाओं की Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ε J सवप्रथम भारतन्छु मामिकता और आषक शैला न हिन्दा लेखक वा प्रभावित किया का मराठीस अनूदित पूर्ण प्रकाश और चमना' प्रकाशित हुन्न तदन्तर बगला भारतेन्दु ने 'राजसिंह', राधाकृष्णदास ने 'स्वर्णलता', 'पतिप्राणा चचता', 'मरता न क्या करता ?', और 'राधारानी', गदाधर सिंह ने 'दुर्गेशनन्दिनी' और बंग विजेता', किशोरीलाल गोस्वामी ने ‘दीप-निर्वाण' और 'विरजा' बालमुकुन्द ने मडेलभगिनी', प्रतापनरायण मिश्र ने ‘राजसिह’. ‘इ ंदिरा’, ‘राधारानी', 'युगुलागुलीय' और 'कपाल-कुडला', कार्तिकप्रसाद खत्री 'ने 'इला', 'प्रमीला', 'जया', 'कुलटा', 'मधुमालती' और 'दलित कुसुम' तथा अन्य ग्वा ने और भी अनेक अनुवाद किये । अँगरेजी की 'सम्बूसटेल्स फ्राम शैक्सपियर' का काशीनाथ स्त्री और 'श्रोत' का गदाधरसिह ने अनुवाद किया । गरेजी में किए गए, अन्य अनुवादों मे रामचन्द्र वर्मा के अमला वृतात-माला'. 'असार-दर्पण', 'ठग-वृत्तात-माला' और 'पुलिम त्रृत्तातमाला' एव सस्कृत में अनूदित उपन्यासों में गदाधर सिंह का ' कादबरी और काशीनाथ का 'चतुरसखी' उल्लेखनीय है। स्वरूपचन्द जेन ने मराठी और गमचन्द्र वर्मा ने उर्दू उपन्यासों के हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किए । हिन्दी साहित्य मे उपन्यासों की आधी मारतेन्दु के उपरान्त आई। देश के राजनेति सामाजिक, धार्मिक आदि ग्रान्दोलनों ने उपन्यास-वकी को भी प्रभावित किया । वालकृष्ण भट्ट के "नूतन ब्रह्मचारी' (८६) तथा 'भौ अज्ञान और एक सुजान' में किशोरीलाल गोस्वामी के 'त्रिवेणी' (८८) 'स्वर्गीय कुसुम' (८६) 'हृदयहारिणी' (६०), 'लवंगलता' ( ६० ) और 'मुखशर्वरी' ( ४१ ). राधाचरण गोस्वामी के 'विधवा विपत्ति' (द), राधाकृष्ण दाम के 'निम्सहान हिन्दू' (६०), गोपालराम गहमरी के नये बाबू' ( ६४ ), 'बडा भाई' (६८) और 'सास पतोहू' ( ६८ ), कात्तिकप्रसाद खत्री के 'दीनानाथ' तथा मेहता ज्वालाराम शर्मा के 'स्वतंत्र रमा' और 'परतंत्र लक्ष्मी' (६६) एवं 'धूर्त' रसिकलाल' (६६) आदि उपन्यासों में नीति, शिक्षा, समाज-सुधार, राष्ट्रीयता, रति, पराक्रम आदि के विविध चित्र अंकित किए गए । 'त्रिवेणी' में सनातन धर्म की श्रेष्ठता और अन्य धर्मावलंबियों के 'स्वर्गीयमार्मिक, साहित्यक एवं सांस्कृतिक आक्रमणां में आत्मरक्षा करने का आदेश, कुसुम' में देवदासी प्रथा की निन्दा, 'लवंगलता' और 'कुसुम कुमारी' में वीरागनाओं की बोना, 'निस्सहाय- हिन्दू' में मुसलमानों के धामिक अत्याचार, हिन्दु की दुर्दशा और रेजी शासन के गुणगान तथा गहमरी के उपन्यासों में भारतीय जीवन और उस पर हुए विदेशी संस्कृति के मात्र का निर्देशन है । A पडते भारतीय जीवन की शुद्ध और मरल मिका मरचित बन # आव Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिकता, धार्मिकता, सुधार, उपदेश श्रादि लोक कल्यागा-कारण बहुत कुछ ह; परन्न उपन्यास-कला का अभाव है। घटनायो के संग्रह और त्याग, कथा की वस्तुयोजना, पात्रा का चरित्र-चित्रण ऋथोपकथन और संख्या, भावनाओं के विश्लेषण, भापा के प्रयोग और शैली, रम-परिपाक आदि में वही भी सौदर्य नहीं है। निस्महाय हिन्दू' जैम उपन्यामा मे ढोल ढाले कथानक के बीच पात्रों का अतिशय बाहुल्य अथवा 'सो अजान और एक सुजान' म नाटको का सा स्वागत एवं प्रकर. भाषण, पत्रानुसार विभिन्न भाषाओं के शब्दो का प्रयोग, 'काद बरो' की सी जा रहकारिक शैली छादि बातें अाज उपन्यास-कला को दृष्टि से हेय समझी जाती हैं । रति की एकागी परिधि के अन्तर्गत घिरे हुए, प्रेम-प्रधान उपन्यामा की सजीवता. उनमें व्यापक जीवन की ममस्याओं का निरूपण न होने के कारण नाट सी हो गयी है। किशोरीलाल गोस्वामी और देवकीनन्दन खत्री ने तिलस्मा और जासूसी उपन्यास का जो बीज बोया उसे अंकुरित और पल्लवित होते देर न लगी। 'स्वर्गीय कुसुम', 'लबंगलता', 'प्रणयिनी-परिणय', 'कटे मुंड की दो बातें', 'चतुरसस्त्री'. 'सच्चा सपना', 'कमलिनी', 'दृष्टांतप्रदीपिनी'. 'चन्द्रकाता' और 'चन्द्रकान्ता--मंतति', 'नरेन्द्र-मोहिनी', 'कुसुम-कुमारी', 'वीरेन्द्र. वीर', सुन्दर-सरोजिनी', 'वसन्त-मालती', 'भयानक भेटिया', 'प्रवीगा पथिक', 'प्रमीला' अादि रचनायो ने एक जाल मा बुन दिया। कही घोडी को सरपट दौडाने वाले अवगुंठित अश्वारोही, कहो तात्रिक देवी और जादू के चमत्कार, कही नायक नायिकाओं के अद्भुत शौर्य और प्रेम का सम्मिश्रण, कहीं प्रेमियों के विचित्र पद्यन्त्र और कही जासूसी के भयानक हथकंडे पाठको के मन को अभिभूत कर देते हैं । जीवन में दूर, कल्पना की उपज और घटना-वैचित्र्य-प्रधान इन उपन्यासो में मानवसहज भावों और चरित्रों का चित्रण नहीं है। लेखक के क्थन की धकधकाहट के बीच यत्र-तत्र प्रेमालाप और षड्यन्त्र-रचना म प्रयुक्त पात्रों के ऋथोपकथन अस्वाभाविक और प्रागाहीन हैं । पात्रो के चरित्र का विश्लेपण या उनके मानसिक पन्न की समीक्षा नहीं है। ये शूत्य-स्थित उपन्यास वैज्ञानिक-युग के साहित्यिको की तुष्टि न कर सके । ८८ ई० में किशोरीलाल गोस्वामी ने 'उपन्यास' पत्र निकाल कर उपन्यामी को दीनावस्था को मुधारने का उद्योग किया परन्त उनके भगीरथ-प्रयत्न करने पर भी गंगा धरती पर न आई । हिन्दी साहित्यकारों ने बहुत ममय तक अालोचना की ओर ध्यान नहीं दिया । रचनात्मक माहित्य की कमी और पथ के अनुपयुक्त माध्यम के कारण समालोचना को तनिक मी Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामाहा नहीं मिला नि दी साहित्य कसल करितामय था क्शव श्रार उन अनवता कविया न सस्कृत काव्यालोचन के आधार पर साव्यशास्त्रीय ग्र था की रचना की ऋविया और उनकी कृतियो की आलोचना के नाम पर लोक-प्रचलित कतिपय सूक्तियों की ही मृष्टि हुई---- सूर सूर तुलसी मसी उड्डगन केशव दाम । कलि के कवि खद्योत सम जंह सँह करहि प्रकाम।। मतमैवा के दोहरे ज्यो नावक के तीर । देखन में छोटे लगै बाव करै गम्भीर ॥ 'भक्तमाल ने एक प्रकार से परिचयात्मक ममालोचना का सूत्रपात किया था ! , बी शताब्दी में देश विभिन्न हलचलों और पत्र-पत्रिकाओं के विस्तार आदि के कारण लिखित ग्ग न-मण्इन का विशेष प्रचार हुश्रा । बह धार्मिक ग्रंथों में चलकर पत्र-पत्रिकाओं और माहित्यक लेखको तथा रचनायो' तक आई । १८३६ ई० में गार्सा द तामी ने 'हिन्दी और हिन्दुस्तानी माहित्य का इतिहास' और १८८३ ई० में शिवसिंह मंगर ने अपने 'शिवमिह. मरोज' में हिन्दी के पुराने कवियो का इतिवृत्त-संग्रह निरवा । भारतेन्द-युग के लेग्या में अालोचना का आरंम्भिक रूप अवश्य दिखाई पड़ता है परंतु उनमें वास्तविक अालोचना का कोई तन्त्र नहीं है । प्रथकारो के गुण-दोष-दर्शन में भी विवेचना का मर्वथा अभाव है। हिंदी साहित्य में अालोचना का वास्तविक प्रारम्भ बालकृष्ण भट्ट और बदरी नागयगा चौधरी 'प्रेमघन' ने किया ! १८८५ ई० मे गदाधर सिह ने 'श्रानन्द कादंबिनी' में बिगविजेता' के अनुवाद की प्रान्नोचना लिस्ली । १८८६ ई. में बालकृष्ण भट्ट ने श्री निवास दास के 'सयोगिता-स्वयंवर नाटक की सच्ची ममालोचना' प्रकाशित की। उसी वर्ष प्रेमघन ने अपने पत्र 'श्रानंद-कादंबिनी' में वकीस पृष्ठों में उसकी विस्तृत समालोचना की । मन् ८८६ ई० में डा० ग्रियर्सन का 'माइन वर्नाक्यूलर लिटरेचर श्राफ नार्दर्न हिदुस्तान' प्रकाशित हुआ । १८६३ ई० में नागरी-प्रचारिणी-सभा की स्थापना हुई और उमी वर्ष 'नागरी दाम का जीवन-चरित' लेख का पाठ हुआ { १८६६ ई० में गंगाप्रसाद अग्निहोत्री ने समालोचना' नामक पुस्तिका स्लिवी । १८६७ ई० में नागरी-प्रचारिणी-पत्रिका' का प्रकाशन प्रारम्भ हुना । उसी वर्ष उमम जगनाथदास 'रत्नाकर' का पद्यात्मक समालोचनादर्ग' और अम्बिकादत्त व्यास का गध मीमासा' लेख प्रकाशित ह याधुनिक की विशेषताएँ न होन डा भी इममें Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन और गवेषणा की गम्भीरता है। कवियों और लेखक) क माग-प्रदशन पार गुला-- दोप दर्शन की दृष्टि से इन बालोचनों का प्राग्द्विवेदी युग में विशेष महत्व है। हिन्दीअलोचना के प्रारम्भिक युग में पत्र-सम्पादकों ने उल्लेखनीय कार्य किया। उस काल की बहुत कुछ आलोचनात्मक सामग्री 'हिन्दी-प्रदीप', 'अानन्द-कादम्बिनी' और 'नागग-प्रचारिश पत्रिका' मे बिखरी पड़ी हैं । बालकृष्ण भट्ट ने समय समय पर अपने "हिन्दी-प्रदोप' में संस्कृत माहित्य और कवियो की परिचयात्मक अालोचना प्रकाशित की. आलोच्य पुस्तकों का विस्तृत दोष विवेचन किया । तत्कालीन अालोचनायो में अनावश्यक विस्तार और ढीलापन है, भमालोचना' पुस्तक में विदित है कि प्रारमिक बाल वको ने कुछ ठोक दियान का कार्य किया पर श्रागे चलकर अालीचना बिलबाट वा व्यवमात्र के साधन को वस्तु ममी आन लगा। अालोचक लेखकों के राग या दंषयश गुणमलक या दोपमूलक अालोचना करने लगे। परस्पर प्रशंसा या निन्दा के लिए दलबन्दो टोने लगी । पुस्तक के स्थान पर लेखक ही बालोचना का लक्ष्य बन गया । आलोचनाओं का उद्देश्य होने लगा ग्रन्थकर्तात्रा का उपहास, बालोचक का विनोद अथवा सस्ता नाम कमाने के लिए, विद्वत्ता-प्रदर्शन । कभी कभी तो समालोचक महाशय पुस्तक कागद और छापे की प्रशमा करके मूल्य पर अपनी मम्मति मात्र दे देते थे। रचना के गुण-दोषों की विवेचना के विषय में या तो मौन धारण कर लेते थे या अत्यन्त प्रकट विषयो पर दो चार प्रशसा के शब्द कह कर मन्तोष कर लेते थ । वास्तव में उन्हें समालोचना के निश्चित अर्थ, उद्देश्य और आदर्श का ज्ञान ही नहीं था। १८५७ ई. के पहले देशी भाषा के पत्रों पर कोई मरकारी प्रतिबन्ध नहीं था। तथापि 'उदन्त-मार्तंड' (१८२६ में २८ ई०), 'बनारस अन्त्रवार' ( १८४५ ई०), 'सुधाकर ( १८५० ई० ), 'साम्यदन्त मार्तण्ड' ( १८५०-५१ ई०), 'समाचार सुधावर्षण' ( १८५४ ई०) श्रादि कुछ ही पत्रो का उल्लेख मिलता है । "बनारस-अखवार" की भाषा मुख्यतः उद थी। कहीं कही हिन्दी शब्दों का प्रयोग था | उसकी भाषा-नीति के प्रतिकार रूप में ही "सुधाकर' का प्रकाशन हुआ । सर्व प्रथम हिन्दी दैनिक-पत्र 'समाचार-सुधा-वर्पण' में मुख्य मुख्य विषय तो हिन्दी में थे परन्तु व्यापार-समाचार बंगला में ! निग द्वारा पत्रकारों की स्वाधीनता छिन जाने पर भी भारतेन्दु आदि ने पत्र-पत्रिकामा * समुचित निर्वाह किया । सन् १८६८ ई० में उन्होंने 'कवि-वचन-मुधा' निकाली। उम १ उसके मुख पृष्ठ पर मुद्रित सिमान्त वाफ्य था Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहि य, समाचार हास्य, यात्रा जान विज्ञान आदि अनक विपया घर लेख प्रकाशित हार थे सम्पादन क्ला र उस प्रारम्भिक युग म भारत दु की सम्पादकीय टिप्पणिया पार वस्तु योजना की मौलिकता एवं कुशलता सर्वथा श्लाघ्य है । अपनी लोकप्रियता के कारण वह पत्रिका मासिक से पाक्षिक और फिर साप्ताहिक हो गई। बारम में उसमें प्राचीन और नवीन कविताएँ छपती थी परन्तु कालान्तर में उमका रूप राजनैतिक हो गया । १८८० ई० में 'कवि-वचन-सुधा' में 'मर्सिया' नामक पंच छपा । झूठे निन्दको की बान में लाकर सर विलियम मुइर ने उसे अपना अपमान नमझा और पत्रिका की सरकारी सहायता बन्द कर दी। क्रमशः उसका पतन होता गया और १८८५ ई० मे १० चिन्तामणि के हाथो उसकी अन्त्येष्टि क्रिया हुई । १८७२ ई० म 'हिन्दी-दीप्ति-प्रकाश' और 'विहार-बन्धु' प्रकाशित हुए । १८८७३ ई० म भारतेन्दु ने 'हरिश्चन्द्र-मेगज़ीन' निकाली । वह पत्रिका भी मामिक से पाक्षिक और फिर माताहिक हुई । उसमें भाषा-सम्बन्धी आन्दोलन की विशेष चर्चा रहती थी। हिन्दी और अंगरेजी दोनों भाषाओं में लेख छपते थे । अधिकाश कविता ब्रजभाषा की होती थी और नस्कृत-रचनायो को भी स्थान मिलता था । हिन्दी गद्र का परिष्कृत रूप पहले पहल उसी पत्रिका में प्रकट हुअा | नवे अंक ने, १८७४ ई० में, उसने 'हरिश्चन्द्र-चन्द्रिका नाम धारण किया । एजकेशन डाइरेक्टर कैम्पसन ने उनमें प्रकाशित 'कवि-हृदय-सुधाकर शीर्षक उप. देशात्मक और उपयोगी यती-वेश्या-मवाद को अश्लील कहकर सरकारी सहायता बन्द करदी। ठीक समय पर प्रकाशित न होने के कारण उसकी अत्यन्त दुर्दशा हुई। १८८० ई० म 'मोहन-चन्द्रिका' के माथ मिला दी गई । १८८१ ई. में 'विद्यार्थी भी इसी में मम्मिलित हो गया । उसी वर्ष उनके अनुज ने उसका पुनः प्रकाशन प्रारम्भ किया परन्तु शीघ्र ही मोहनलाल पंड्या की कानूनी कार्यवाही के कारण वह ममाप्त हो गई । १८७४ ई० म भारतेन्दु ने नीसरी पत्रिका 'बालबोधिनी निकाली थी। 'हरिश्चन्द्र-चन्द्रिका' के साथ हो उसकी सहायता खल जनन सों मजन दुखी मत होंहि हरि पद मति रहे । उपधर्म छूटै मत्व निज भारत गहै कर दुग्ख कहे । बुध नहिं मन्सर नारि नर सम होइ जग आनन्द लहै । तजि माम कविता सुकवि जन की अमृत बानी सब कहै। , उसके मुग्व पृष्ठ पर ही अंगरेजी में उसकी रूप रेग्वा अंकित की गई.--- "A monthly journal published in connection with the Kaviyachan sudha containing articles on literary, scientific, political and Reli gious subjects antiquities revieri dramas husto y novels soet cal * ection, gossip humous and it Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J मो बन्द हो गई । तदनन्तर पत्रिका का मी अन्त हो गया । भारतेन्दु के पत्रिका प्रकाशन सम्बन्धी सद्योग में उन विषम परिस्थितियों में भी लेखका का एक अच्छा संघ स्थापित हो गया । उनकी हडता और स्वाभिमान ने हिन्दी लेखकों के हृदय में हिन्दी के प्रति प्रेम उत्पन्न कर दिया । जन साधारण मी हिन्दी-सेवा की ओर ध्यान देने लगे । अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ । खेद है कि संपादकों ने अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व मे अनभिज्ञ होने के कारण जनता की रुचि की अवहेलना करके tatafat erant दी और अपने ही सिद्धांत को पाठको पर बलात लादने का प्रयास किया । भारतेन्दु इस त्रुटि को पहिचानते थे । उन्होंने अपनी पत्रिकाओं में राजनैतिक सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक आदि विविश्व विषयक स्वनाओं को स्थान दिया । 'प्रेनविलानिनी', 'सदादर्श' ( १८३४ ई० ), काशी पत्रिक' (६३०), 'भारतआटि वन्धु' ( १८८७६ ई० ), 'मित्र विलाम' (८७) आर्यदर्पण' (१८७७०), पत्रों ने न्यूनाधिक प्रचार के अतिरिक्त कोई उल्लेख्य कार्य नहीं किया । 'हिन्दी' विशेष योग ( १८८७७ ई० ) ने अपने विविध विषयक लेखांद्वारा हिन्दी के उत्थान दिया | 'भारत मित्र' ( १८७७ ई० ), राजनीति प्रधान पत्र होकर निकला और अपनी जन प्रियता के कारण पाक्षिक में माताहिक हो गया । १८७७ ई० में तत्कालीन जनसाहित्य का प्रतीक 'सार सुधानिधि' प्रकाशित हुआ । वातावरण के अनुकूल भावपूर्ण कविता, राजनैतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक श्रादि विषयों के लेखा पुस्तकालोचन, नाटक, उपन्यामादि के प्रकाशन तथा रोचक और विचार सम्पादकीय टिप्पणियों ने उसके गोरव को बढा दिया । ג वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट द्वारा १८७८ ई० में लार्ड लिटन ने पत्रो की रही-सही स्वाधीनता का अपहरण करके उन्हें विवशता के बन्धन में बाँध दिया। फलस्वरूप चार वर्षो तक पत्र जगत् में कुछ विशेष उन्नति न हो सकी । 'उचितवक्ला' (१८७८ ई० ), 'भारतमुदशाप्रवर्तक', ( ई० ). 'सज्जनकीर्ति सुधाकर' ( १८७६ ई०), 'त्रियपत्रिका' (१८८१ ई० ) 'देशहितैषी' (१८८२ ई० ) आदि टिमटिमाते हुए मन्द प्रदीप की भाँति प्रकाश में आए। स्वदेशी प्रचार के ग्रान्दोलन एवं सभासमितियो और व्याख्यानों के कोलाहल में 'श्रानन्द्र कादम्बिनी' कविता प्रधान पत्रिका के रूप में आई । १ १८८७८ Wind 1 उसके एक अंक की विषय सूची इस प्रकार है-सम्पादकीय-सम्पति समीर ( मार ) साहित्य सौगमिना Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L बघू मदान र मात हिदा সम लाट रिपन न (१८८८४ ई० ) लाइ लिटन 'दिनकर प्रकाश', ब्राह्मण', शुभचिन्तक दिवाकर', 'प्रयाग समाचार', 'कविकुल कंज दिवाकर', 'पीयूष प्रवाह', 'भारत जीवन', 'भारतेन्दु' आदि अनेक पत्रिकाओं का जन्म हुआ । 'ब्राह्मण' की विशेषता थी उसका फकडपन, व्यंग्य और हास्य | 'भारतेन्दु' की सामग्री विविधविषयक और रोचक थी । उसका प्रतिज्ञ वाक्य था - ' - 'कार्य वा साधयेय शरीर वा पातयेयम् । ་ राय का तर वचा ८८२ भारतेन्दु के उपरान्त 'भारतादय' (१८८५ ई० ), 'धर्म प्रचारक' (१८८५ ई०), 'श्रार्य मिद्धान्त' ( १८८६ ई०), 'श्रत्रवान्तोपकारक' ( '८६ ई०), 'कृपिकारक' (१८६० ई॰ ), 'हिन्दीपंच', 'उपन्यास ' ( १८६८ ई० ) आदि प्रकाशित हुए । उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में उपर्युक्त पत्रों के अतिरिक्त 'हिन्दी-बंगवासी', 'सुदर्शन', 'हितवार्ता, कट श्वर समाचार', 'छत्तीसगढ़ मित्र, कान्यकुब्जप्रकाश', 'रमिकपंच', 'काव्यामृतवपिणी', 'भारतभानु', 'बुद्धिप्रकाश', 'सुगृहिणी', 'भारतभगिनी', 'साहित्यसुवानिधि' श्रादि ने उत्तर भारत में पत्रों का एक जाल मा बिछा दिया । c भारतेन्दु, बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र, बदरी नारायण चौधरी, किशोरी लाल गोस्वामी आदि अधिकाश हिन्दीलेखक सम्पादक थे। हिन्दी-प्रचारकों, राजनीतिशां, समाज सुधारकों, वट्टरपंथियों आदि ने अपने अपने मतों के प्रतिपादन और प्रचार के लिए ही पत्रपत्रिकाओं का सम्पादन किया । 'हिन्दोस्थान', 'हिन्दीपंच' यादि राजनैतिक; 'मित्रविलाम', 'श्रार्यदर्पण', 'भारतमुदशाप्रवर्तक', 'धर्मंदिवाकर', 'धर्मप्रचारक', 'अर्थसिद्धान्त' आदि धार्मिक; 'वोपकारक', 'क्षत्रियपत्रिका', आदि सामाजिक और 'कविवचनसुधा', 'हिन्दी प्रदीप', 'ब्राह्मण', नन्दकादम्बिनी' आदि साहित्यिक पत्र थे । साहित्यिक पत्रों में भी साहित्य का कुछ न कुछ अंश अवश्य रहता था । भगोल, विज्ञान यादि विशिष्ट विषयों की पत्रिका का प्रभाव था । सभी पत्रिकाओं की दशा शोचनीय थी । श्रार्थिक कठिनाइयों के कारण अधिकाश पत्रो प्रेरितकलापि कलरव terren af ertefiniकुर (मार ) प्राप्ति स्वीकार वा समालोचना सीकर ( मार ) नुवानाम्यवाद 'कादम्बिनी' वली (मार ) मिर्ज़ापुर चैत्र स० १३६१ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की इतिश्री हो जाती थी , "ब्राह्मण' का नृत्य कवल हो पाना धा तथापि ग्राहका स चन्दा माँगते माँगते थककर ही प्रताप नारायण मिश्र को लिखना पड़ा था आठ माम बीते जजमान, अब तो करो दच्छिना दान । जनसाधारण में पत्रपत्रिकाधो के पढ़ने की रुचि नहीं थी। श्रीसम्पन्न जन भी इस ओर में उदासीन थे । सरकार की तलवार भी तनी रहती थी। सम्पादको के लाख प्रयत्न करने पर भी ग्राहकसंख्या न सुधरती थी। कार्तिक प्रसाद खत्री तो लोगों के घर जाकर पत्र पढ़कर सुना तक पाते थे । इतने पर भी उनका पत्र कुछ ही दिन बाद बन्द हो गया। मूल्य अत्यन्त कम और प्रचार का उद्योग अत्यधिक होते हुए भी पत्रों की तीन सौ प्रतियाँ विकना कठिन हो जाता था। अधिकाश पत्रिकाओं के लिए चार पाँच वर्ष तक की जीवनावधि बहुत बड़ी बात थी। १६वीं शती के हिन्दी-पत्रो का श्राकार बहुत मीमित था । 'ब्राह्मा के पहले अंक में केवल १२ पृष्ठ थे। उसकी लेखमूची इस प्रकार थी--- प्रस्तावना प्रेरित पत्र---काशीनाथ ग्वत्र होली-प्रताप नारायण मिश्र स्थानीय समाचार विज्ञापन हिन्दी प्रदीप का प्राकार श्रपक्षाकृत बड़ा था। उसके सितम्बर, १८७८ ई० के द्वितीय वर्ष के प्रथम अंक की विषय सूची निम्नाकित है-- एक बधाई का मलार मुन्द पृष्ट पेम एक्ट के विरोध में हम चुप न रहे पगने और नए अवध के हाकिम पश्मिोत्तर के विद्याविभाग में अन्धाधुन्ध मलान बंगाल और यहाँ के मुशिक्षित मच मत बोला पेट फूलन और अफरने की बीमार्ग हम लोगों के दान का क्रम सभ्यता का एक नमूना , मार्च १८८३ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुभ अव प्रथम गर्भा संक्षिप्त- समाचार ( स्थानिक ) साधारण समाचार २५ १४ 從 ६६ 'हिन्दी प्रदीप' को छोड कर अधिक्तर पत्र 'ब्राह्मण' जैसे ही थे जिनकी ईक्ता ओर इयत्ता प्रतिनिम्न काटि की थी। पत्रिका की लेग्व-पति बहुधा सम्पादक द्वारा ही अपने या अन्य नामो से हुआ। करती थी । सामान्य लेखक भी विभिन्न नामों मे लेख लिखते थे । प्रचारप्रदान भावना के कारण लेग्यों में सार न था । विविध विषयों और लोकप्रवृत्ति की ओर ध्यान देने वाले 'ब्राह्मण' और 'हिन्दी प्रदाप' में भी इतिहास, पुरातत्व, विज्ञान जोवनचरित श्रादि पर सुन्दर रचनाओं के दर्शन नहीं हए । L इन पत्रों की मात्रा की तो और मा दुर्दशा थी । एक ही पत्र अलग अलग मात्रा में कई कालमों में छपता था, उदाहरणार्थ 'धर्म प्रचारक' हिन्दी और बंगला में तथा 'भारती - पदेशक' हिन्दी और संस्कृत मे । 'समाचार सुधाकर्षण' हिन्दी और बँगला में तथा 'कृषिकर हिन्दी और मराठी में अलग अलग प्रकाशित होते थे । उनके भाषा प्रयोग मनमाने हाते थ । व्याकरण की शुद्धि की ओर कोई ध्यान ही नहीं देता था । 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' का नाम और सुख पृष्ठ पर उसका विवरण तक गॅरेजी में थे । ब्राह्मण में स्थान स्थान पर कोठक मे ( education national vigour and strength, character ) ऋदि गरेजी शब्दों का प्रयोग मिलता है। फ़ारसी अरवी के किकरी के साथ ही साथ यावत मिश्या' और 'दरोग की विगाह' जैसे विचित्र प्रयोगों का भी दर्शन होता है । 'श्रानन्दकादम्बिनी' सम्पादक प्रसघन अपने ही उमडते हुए विचारो और भावों को व्यक्त करने क लिए समाचार तक अलकृत भाषा में छापते थे । 'नागरीनीरद' और 'श्रानन्द कादम्बिनी' के शीर्षक तक सानुप्रास रूपक के रूप में होते थे, यथा सम्पादकीय मम्मतिसमीर, हास्य- १. किसी नाटक का जिसका नाम नहीं दिया । २ उनके सम्पादकीय सम्मतिसमीर का एक झोंका इस प्रकार है- '' आनन्दकन्दनन्दनन्दन और श्री वृषभानुनन्दिनी की कृपा से नन्दकादम्बिनी के द्वितीय प्रादुर्भाव का प्रथम वर्षं किसी प्रकार समाप्त हो गया और आज द्वितीय वर्ष के आरम्भ के शुभ अवसर पर हम उस जुगुल जोड़ी के चरणकमलो में अनेकानेक प्रणाम कर पुनः आगामि वर्ष को मकुशल पूर्ण साफल्य प्राप्ति पूर्वक परिसमाप्ति की प्रार्थना करने में प्रवृत्त हुए है ।" 'श्रानन्दकादम्बिनी' मिर्ज़ापुर चैत्र २० १३*१ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हारताकुर विज्ञापन बार-बहरिया आदि उपयुक्त पत्रिकाया क आकार प्रकार म सर कमी यी रचनाआ म गम्भारता या ठासपन न था गम्तयोजना और सम्पादकीय टियाणय मुपमा ओर मुन्दरता मे शून्य थी। इनमे मनोरंजन का माधन तो था परन्तु जानवर्धन के मामग्री बहुत कम थी। ५८६७ ई० में 'नागरी-प्रचारिणी-पत्रिका' ने हिन्दी-संसार में एक स्वर्णयुग का प्रारम्भ किया । उमने माहित्य, ममालोचना, इतिहास आदि पर गम्भीर, गवापरणात्मक और पाडित्य. पूर्ण लेख प्रकाशित हुए तथापि हिन्दी मे ऐमी पत्रिकाओं का भाव बना रहा जिनमें साहित्य, इतिहास, भूगोल. पुरातल्य, विज्ञान आदि विषयो पर उपयोगी एवं ज्ञानवर्धक लेग्य तथा कविता, कहानी, अालोचना, विनोद आदि सब कुछ हो और जो हिन्दी के प्रभावों की सागोपाग यथायथ पूर्ति के साथ ही साथ पाठको और लखका को समानरूप से लाभान्वित कर सके। ऐम योग्य सम्पादकों की आवश्यकता बनी रहो जो निःस्वार्थ भाव में अपनी समस्त माधना द्वारा उपयुक्त उद्देश्य को सिद्ध करके विपन्न हिन्दी को सम्पन्न बना मके। इसी उद्देश्य-पूर्ति की प्रतिज्ञा लेकर सरस्वती ( १६७० ई.) नई सज-धज में हिन्दाजगत में आई, परन्तु प्रथम तीन वर्षों तक अपना कर्तव्यपालन न कर सकी। काव्य और तत्सम्बन्धी विषयोंके अतिरिक्त इतिहास, विज्ञान, ममाजनीति, धर्म, राजनीति पुरातत्व आदि को भारतन्दुयुग के साहित्यकारों ने माहित्य की सीमा में बाहर की वस्तु मान कर उम और कोई ध्यान नहीं दिया । भारतेन्दु ने 'काश्मीर कुसम'.१ बादशाह दर्पण' लिस्न कर इतिहास की और और 'जयदव की जीवनी' लिग्नकर जीवन चरित की ओर हिन्दीलेवका का यान आकृष्ट करना चाहा था। काशीनाथ म्वत्री ने भारतवर्ष की विख्यात स्त्रियों के चरित्र', 'यूरोपियन धर्मशीला स्त्रियों के चरित्र'. 'भात-भाषा की उन्नति किम विधि करना योग्य है',अादि अनेक पुस्तिकाएँ तथा लेख लिखे । वास्तव में द्विवेदी जी के पूर्व का विविवविषयक माहिन्य पत्रपत्रिकाओं में लेखा के रूप में ही प्रस्तुत किया गया । राजनीति. समाज, दश, ऋतुछटा, जीवन-चरित, इतिहास, भूगोल. जगत और जीवन में मम्बन्ध सबने वाले 'अात्मनिर्भरता', 'कल्पना' अादि विषय. नागरी हिन्दी प्रचार, हास्यविनोद आदि पर बहुविषयक रचनाएँ इन्हीं पत्रिकामों में ही समय समय पर प्रकाशित हुई । एकाध अपवादों को छोडकर वे उन्ही के साथ विलीन भी होती जा रही हैं। इन रचनाओ में ठोमपन और सार, अतएव स्थायित्व नहीं है । इनकी महत्ता बीमा पानी के विविधविषयक हिन्दी--माहित्य की भूमिकाम्प में ही है। का मभश Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मसार के इतिहास म उनीसवीं शती का उत्तराद्ध अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। पश्चिम म कालमाम्म डारविन, टाल्स्याय नादि, भारत म घरचन्द्र विद्यामागर दयानद भरस्वती, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आदि महान् वैज्ञानिक, ममाज सुधारक और साहित्यिक इमी युग में हुए। यह युग वैज्ञानिक, राजनैतिक, सामाजिक, मास्कृतिक, धार्मिक, माहित्यिक अादि सभी प्रकार के आन्दोलनो का था। चारो ओर ममा समाजों और व्याख्याना की धूम मची हुई थी। असाहित्यिक अान्दोलनी की चर्चा ऊपर हो चुकी है। हिन्दी साहित्य भी मनासमाजा की स्थापना में अपेक्षाकृत पीछे नहीं रहा । भारतेन्दु ने १८७० ई० मे 'कविता-- वर्धिनीसमा' और १८७३ ई० में 'तीय समाज' का स्थापना की। तत्पश्चात 'कविकुल-- कामदी-सभा, हिन्दीउद्धारिणी-प्रतिनिधिमध्य-सभा २, विज्ञान प्रचारिणी--ममा, "तुलसी स्मारक-ममा ४ मित्र समाज'", 'भाषा संवर्धिनी-मभा', 'कवि समाज', 'मातृभाषा प्रचारिगी-मभा'८, 'नागरी प्रचारिणी-मभाई अादि की स्थापना हुई । . भारतेन्दु, के समय में ही हिन्दीप्रचार का उद्योग हो रहा था । कवियों ने भी भाषा और भाहित्य की ममस्याओं पर कविताएँ लिखा । उन्होंने हिन्दी का अहित करने वाली उर्दू और अँगरजी का विरोध किया । १८७४ ई० में भारतेन्दु ने 'उर्दू का स्यापा' कविता लिग्बी---- भाषा भई उपद जग की अब तो इन अन्यन नीर डुबाइए। १८७७ ई. में उन्होंने हिन्दीवधिनी-मभा ( प्रयाग ) के तत्वावधान में 'पद्य में हिन्दी की उन्नति' पर व्याख्यान दिया। तदुपरान्त प्रतापनारायण मिश्र ने 'तृप्यन्ताम्' (१८६१ ई.) राधाकृष्णदास ने मैकडानेल पुष्पांजलि' (६ ई. ) बालमुकुन्द गुप्त ने 'उर्दू का उत्तर' ( Eor ई० ) मिश्रबन्धु ने 'हिन्दी अपील' ( १६०० ई० ) श्रादि कविताएँ लिम्वी । ५० रविदत्त शुक्ल ने 'देवाक्षर चरित्र-प्रहमन लिया जिसमे उर्ट की गडबडी के विनोदपूर्ण दृश्य अकित किए गए । नागरी-प्रचारिणी-मभा के संस्थापक श्यामसुन्दरदास रामनारायण १. राधाचरण गोस्वामी द्वारा सं० १९३२ में स्थापिन । • प्रयाग में १८८४ ई० में स्थापित । ३ सुधाकर द्विवेदी द्वारा काशी में स्थापित । ४. सुधाकर द्विवेदी द्वारा स्थापित । ५. कार्तिक प्रसाद ग्वत्री द्वारा शिलांग में स्थापित । ६. अलीगढ, स्थापक तोताराम । ७. पटना ८ रांची । काशी १९७० Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिश्र और शिनकुमारसि तथा प० गार्गदत्त, लक्ष्मीशंकर मिश्र, रामदीनमिह, रामकृष्ण त्रमा गदाधरसिंह आदि ने नागरीप्रन्वार की धूम पार्थ स० १६५५ में गजा प्रतापनारायण सिन राजा रामप्रतापसिंह, राजा बलवन्त सिंह. डा० सुन्दरलाल और ५० मदनमोहन मालवीय का प्रभावशाली प्रतिनिधिमंडल नाट साहब से मिला और नायरी का मेमोरियल अर्पित किया । मालवीय जी ने 'अदालती लिपि' और 'प्राइमरी शिक्षा' नामक अँगरेजी पुस्तक में नागरी का दूर रखने के दुष्परिणामों की बड़ी हा विस्तृत और अनुसन्धान पूर्ण मीमामा की ! मं १६५६ में नागरी प्रचारिणी सभा ने प्राचीन ग्रन्थों की खोज और कवियों के वृत्तों के प्रकाशन का कार्य आरम्भ किया। सं० १८५७ मे कचहरियो में नागरीप्रचार की घोषणा हो गई, परन्तु बहुत दिनों तक कार्य का रूप न धारण कर सकी। हिन्दीप्रचार का इतना उद्योग होने पर भी लोगों में मातृ-भाषा का का प्रेम न उमड सका । पढे लिखे लोग बोल चाल, चिहापत्री आदि में भी उडू या अँगरेजी का प्रयोग करते थे । हिन्दी गँवारू भाषा समझी जाती थी। सरकारी कार्यालयों में भी उसके लिये स्थान न था। घर में और बाहर सर्वत्र हो वह तिरस्कृत थी ।" परिपक्व हिन्दी गद्य की दशा शोचनीय थी। १८३७ ई० में सरकारी कार्यालयों क भाषा फारमी के स्थान पर अप्रत्यक्ष रूप मे उर्दू हो गई । जीविका के लिए लोग देवनागरी लिपि और हिन्दी भाषा का विस्मरण करके अरबी लिपि और उर्दू मापा सोखते य भारतेन्दु के पूर्व एक प्रभावशाली अनुसरणीय नेता के अभाव में हिन्दी के किसी सर्वसम्मत रूप की प्रतिष्ठा न हो सकी। वह हिन्दी का संकटकाल था । उच्च शिक्षा का माध्यम अगरेजी और प्रारम्भिक का उर्दू था । अपने घर में भी हिन्दी की पूछ न थी । मभ्य कहलाने के लिये उद्या अँगरेजी जानना अनिवार्य था केवल हिन्दी जानने वाले गँवार समझे जाते थ । मर मैयद जैन प्रभविष्णु व्यक्ति उर्दू के समर्थक थे । राजा शिवप्रसाद के सतत उद्योग मे हिन्दी प्रारम्भिक शिक्षा का माध्यम हुई । समस्या श्री पुस्तको की । सदासुखलाल क 'मुखसागर' की भाषा साधु होते हुए भी पंडिताऊ, इशाला की 'रानी केतकी की कहानी ' ५, “उस समय हिन्दी हर तरफ दीन हीन थी । उसके पास न अपना कोई इतिहास था, न कोष, न व्याकरण | साहित्य का खजाना खाली पड़ा हुआ था। बाहर की कौन कह वाम अपने घर में भी उसकी पूछ और आदर न था । कचहरियों में वह न थी । कालेज में घुसने न पाती थी, स्कूलों में भी एक कोने में दबी रहती थी । हिन्दू विद्याथी भी उससे दूर रहते थे । अँगरेजी और उर्दू में शुद्ध लिखने बोलने में असमर्थ हिन्दी भाषी भी उसे अपनाने में अपनी छुटाई समझते थे । समा समाजों में भी माय उसका हिम्कार का था आज ६ नवम्बर ११२५ ई० Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (शुरु का नर [ . मी नि दी लखन और लल्लूलाल क प्रभसागर की जनमिश्रित थी सदल मिश्र की भाषा र पुतिन और भुगना पन था। ईसाइ बम प्रचारका की रचनाएँ साहित्यिक मौन्दर न हान थी। उनका टूटाफूटा गद्य ग्राम्यप्रयोगा, गलत मुहावरी, व्याकरण की अशुद्धियो; निरर्थक शब्दो, शिथिल और असम्बद्ध वाक्यविन्याम से भरा हुअा था। राजा शिवप्रमाद ने इम अभावपूर्ति के लिए स्वयं और मित्रों द्वारा पाठ्य पुस्तक लिखी लिम्वाई । 'मानव धर्म मार' भूगोल हस्तामलक, आदि कुछ रचनाओं को छोडकर उन्होंने देवनागरी लिपि में उर्दू का ही प्रयोग किया । हिन्दी का 'गवॉरपन दूर करने तथा उसको 'फैशनेबुल' बनाने के लिए अरची फारसी के शब्द भरे । अपने अफसरों के प्रसन्न करने से लिये हिन्दी का गला घोटा । नापा के इस विदेशी रूप को ग्रहण करने के लिए समाज तैयार न था । मु० देवीप्रमाद और देवकीनन्दन स्वत्री ने सच्ची हिन्दुस्तानी लिखी। भाषा का यह रू मी साहित्यिको को न म्चा । प्रतिक्रिया के रूप मे गजा लक्ष्मणसिह विशुद्ध हिन्दी को लेकर आगे बढ़े। उनकी मम्झतगर्भिन भाषा भी कृत्रिम और त्रुटिपूर्ण थी । भाषा की इस भूमिका में भारतन्दु ने पदार्पण किया। जनता सरल, मुन्दर और सहज भाना चाहती थी। गद्य में व्यापक प्रयोग न होने के कारण ब्रजभाषा में गद्योपयुक्त शक्ति, मामग्री और साहित्य का अभाव था । रबडी बोला व्यवहार और ग्रन्थों में प्रयुक्त हो चुकी थी। परन्तु उसका म्वन्प अनिश्चित था। भारतेन्दु ने चलते शब्दों या छोटे छोट वाक्या के प्रयाग द्वारा बोल चाल और संवाद के अनुरूप मरल एवं प्रवाहपूर्ण गद्य का बहुत ही शिष्ट और साधु रूप प्रस्तुत किया । भाषा के लिए उन्हें बडा ही घोर संग्राम करना पडा { १८८० र्ट में म्हंटर कमीशन' के सामने हिन्दीभाषी जनता द्वारा अनेक मेमोरियल अर्पित किए गए । सरकारी अफसरों के मौरखने की भाषा उर्दू थी। अत, उनके अधीनस्थ भी उर्दू भक्त 4 | गद्य की भाषा पर भी अवधी और ब्रजभाषा का प्रभाव था। परंपरागत भाषा का भंडार बहत ही क्षीण था। वह विकृत, अप्रचलित और प्राचीन शब्दों में पूर्ण तथा कला और विचारप्रदर्शन के योग्य शब्दो में नर्वथा हीन था। भारतेन्दु ने वाड्मय के विविध अगो का पूर्ति के लिए चलते, अर्थबोधक अोर माथ ही सरल गद्य के परिष्कृत रूप की प्रतिष्ठा की। यहा नहीं, उन्होंने जनभाषा और जनसाहित्य की श्रावश्यकता को ममझा, उपभाषाओ और ग्रामीण वोलियो मे भी लोकहितकारी माहित्यरचमा का निर्दश किया । आवश्यकतानुसार 'उन्हाने दा प्रकार की गद्यशैलिया में ग्चना की। एक मग्न और बोलचाल की पदावली यटाक्दा अरबी-फारी के शब्दों में जित है और वाक्य प्रायः छोटे हैं। 'चिन्तनीय विषयों के विषयानुकूल अाज या माधु से पृण प्राय मगस्त और है उन्होंने अयबहन शब्दों Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का भरसक बहिष्कार किया। शब्दों के अगभग और तोड़ मरोड़ का दूर किया। मुहावर क प्रयोग द्वारा भाषा में मरमता और प्रभावोत्पादकता लाए, परन्तु अँगरेजी वा उर्दू में प्रभावित नहीं हुए । भाषानिर्माण के पथ पर भारतेन्दु अकेले नहीं थे । धर्मप्रचारक दयानन्द सरस्वती ने हिन्दी को भावाभिव्यंजन और कटाक्ष की शक्ति दी । प्रतापनारायण मिश्र ने स्वच्छन्द गति, बोलचाल की चपलता, वक्ता और मनोरंजकता दी । प्रेमघन ने गद्य काव्य की झलक, आलंकारिकता की ग्रामा, सम्भाषण का अनूठापन और अर्थव्यञ्जकता दी । बालकृष्ण भट्ट ने अपनी चलती, चरपरी, तीखी और चमत्कारपूर्ण भाषा में, श्रीनिवासदास ने बडी बोली के शब्दों और मुहावरों से, जगमोहनसिह ने दृश्याकन और मावव्यंजना में समर्थ, स्निग्ध, संयत, सरल और सोह े श्य शैली में तथा तत्कालीन अन्यलेग्वको स्वभावतः श्रानन्दी जीवों, ने अपनी सजीव और मनोरंजक शैलियों द्वारा विपन्न हिन्दी को सम्पन्न बनाने का प्रयास किया | १६ वी शती के गद्य का उपर्युक्त मूल्याकन उस युग और इतिहास की दृष्टि से है । वस्तुतः इन बातों के होते हुए भी भारतेन्दु-युग ने खडी बोली में पर्याप्त और उच्चकोटि की रचना नहीं की। उस युग की शुद्ध और संकर ग्वडी बोली प्राजल, परिष्कृत और परिमार्जित न हो सकी । पद्य में तो व्रजभाषा का एकच्छत्र राज्य था ही, गद्य को भी उसने और ने आक्रान्त कर रखा था । दयानन्द भारतेन्दु श्रादि लेखकों की कृतियों में भी प्रान्तीयता की प्रधानता थी । प्रताप नारायण मिश्र इसमे बुरी तरह प्रभावित थे । उन्होंने 'घूरे के लना बोनैं, कनातन के डौल बाधै', 'खरी बात शहिदुल्ला कहैं. मबके जी ते उतरे रहे', मुँह विचकाना' पत्र निकालना' श्रादि वैसवाड़ी कहावत तथा मुहावरों और 'टैव', ग्वाखियाना'. 'तत' आदि प्रान्तीय शब्दों का प्रयोग किया है। जैनेन्द्रकिशोरकृत 'कमलिनी' उपन्यास में रहा है' का प्रयोग हास्यास्पद नहीं तो 'नाक बह रही है' के स्थान पर 'नासिका रन्ध्र स्फीत हो और क्या है ? भीममेन शर्मा एक पग और आगे बढ़ गए है। उन्होंने उर्दू के दुश्मन', 'सिफारिस', 'चस्मा', 'शिकायत' श्रादि के स्थान पर क्रमशः 'दुःशमन', 'क्षिप्राशिप', 'चदमा', 'शिक्षायन्न' श्रादि प्रयोग करके संस्कृत का जननीत्व सिद्ध करने की चेष्टा की है। बालकृष्ण भट्ट आदि ने विदेशी शब्दों को मनमानी अपनाया है । 'अपव्यय या फिजूलखर्ची', 'मोहबत संगत' यदि मे मस्कृत और अरवी फारसी के शब्दों का प्रयोग भाषा की निर्बलता का सूचक है । प्रेमघन की भाषा कही ('भारत-सौभाग्य' नाटक आदि में ) उर्दू मिश्रित और कही ( 'आनन्द - कादम्बिनी' में ) संस्कृत - गर्भित, शब्दाडम्बरपूर्ण दीर्घवाक्यमयी और व्यर्थ के पात्रों की अपनी अपना भपा बड़ी ही निराली " Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्याप बगला , प्रभाव म हि दा म कामलता और अभिव्य नना शक्ति प्रा रा थी और अपरनी र प्रभाव म विगम ग्रादि चिहा का प्रयाग होन लगा था तथापि यह मत्र श यात् था। इन सबके अतिरिक्त तत्कालीन लेखकों ने व्याकरण-संबंधी टोपा के सुधार की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। उसके रूप में सर्वत्र अस्थिरता और असंयतता बनी रही। इनने', 'उनने', इन्है', 'उन्हें', 'मुझे', 'सक्ती'. 'जिस्म', 'परग', 'चिरौरी', 'मांख', 'स्त्रीम' (जेब) 'व्यारी' (रात्रि का भोजन) श्रादि प्रयोगो का बाहुल्य बना रहा। भारतेंदु और प्रतापनारायण मिश्र के बाद हिन्दी साहित्य प्रभंजनपीडित पतबारहीन नौका की भाँति ऊमचूम होने लगा। निकुश लैग्वक बगदुट घोडो की भांति मनमानी सरपट दौडने लगे | उन्हे न भापा की शुद्धता का ध्यान रहा न शैली की। सभी की अपनी अपनी तुंबडी थी और अपना अपना राग था। हिन्दी-भाषा और साहित्य में चारो ओर अगजकता फैल गई। हिन्दी को अनिवार्य अपेक्षा थी एक ऐसे प्रभविष्णु मनानी की जो उस अव्यवस्था में व्यवस्था स्थापित करके भ्रात और अनजान लेग्यको का पथप्रदर्शन कर सके। ____ माहित्य की इम ऊबहावाबड़ पीठिका में पंडित नहावीर प्रमाद द्विवेदी का आगमन हा। करिता के क्षेत्र में वे विषय, भाव, भाषा, शेली और छन्द की नवीनता लेकर आए । हिन्दी के उच्छखल निबन्ध को निबन्धता, एक्तानता दी, और पद्य निवन्धी की अभिनव परम्परा को आगे बढ़ाया। नाट्य साहित्य के उस पतनकाल में नाटककारो, पाठको और दर्शकों को नाट्यकला का ज्ञान कंगने के लिए 'नाट्यशास्त्र' की रचना की । तिलस्मी और जामूली उपन्यामा के कारण जनता की भ्रष्ट रुचि का परिष्कार करने तथा लेन्वको के समन्न भाषा और नाव का अादर्श उपस्थित करने के लिए श्राख्यायिकारूप में संस्कृत के अनेक काव्यग्रन्या का अनुवाद किया । हिन्दी कालिदास और रीडरो की यालाचना के साथ ही हिन्दी मसालोचना-प्रणाली का कायाकल्प किया। हिन्दी मे आधनिक अालोचनाशैली के सूत्रपात का श्रेय उन्ही को है । सत्रह वर्षों तक 'सरस्वती' का सम्पादन करके उन्होंने हिन्दी के मामयिक साहित्य के अभावो की सुन्दर पूर्ति की। सम्पत्ति शास्त्र', 'शिक्षा', 'स्वाधीनता' श्रादि विविव-विषयक मौलिक और अनूदित पुस्तकों की रचना करके हिन्दी के रिक कोप को भरने की चेष्टा की । ऐतिहासिक और पुरातत्वविषयक लेखों द्वारा विदेशी सभ्यता और संस्कृति मे अभिभूत भारतीयों की हीनतानुभूति दूर करने और उनके हृदय में श्रात्मगौरव की भावना भरने का प्रयास किया। विज पनवाज के नहीं सच्चे मात -भाषा-प्रेमी के रूप म हिन्दी भाषा एव साहित्य के प्रचार तथा प्रसार के लिये अपना जीवन अर्पित कर दिया ! असमर्थ तुतलाती हिन्दी को सक्षम और प्रौद्र रूप देकर उसके इतिहास को बदल दिया। उन्होंने साहित्य का ही नहीं एक नवीन युग का निर्माण किया । हिन्दी के अनन्य महारथी और एकान्त साधक की साहिन्य-मत्रा का मचित मूल्याक्न __ मना हिन्दी के लिए परम गौरव का विषय है । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अध्याय चरित और चरित्र पंडित महावीर प्रमाद द्विवेदी का जन्म वैशास्त्र शुक्ल ४, संवत् १६२१ को उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के दौलतपुर गावं में हुआ । वहाँ के राम सहाय नामक एक अकिचन ब्राह्मण को हमारे चरित-नायक का जनक कहलाने का गौरव प्राप्त हुआ । जन्म के अाध घंटे पश्चात् और जातकर्म के पूर्व शिशु की जिह्वा पर सरस्वती का बीजमंत्र अंकित — कर दिया गया। मंत्रविद्या अपने सुन्दरतम रूप में चरितार्थ हुई। द्विवेदी जी के पितामह पंडित हनुमन्न द्विवेदी बडे ही प्रकाड पंडित थे उनकी मृत्यु के उपरान्त उनकी विधवा पन्नी ने कल्याण-भावना से प्रेरित होकर कई छकड़े संस्कृत ग्रन्थ उनके एक मित्र को दे दिए। पंडित हनुमन्त द्विवेदी के तीन पुत्र थे दुर्गा प्रसाद, राम सहाय और रामजन । अमगय देहावसान के कारण वे अपने पुत्रों को सुशिक्षित न कर सके । रामजन का तो बाल्यावस्था में ही स्वर्गवास हो गया था। दुर्गा प्रसाद की जीविका के लिए बैसवाड़े में ही गौरा के तालुकदार के यहाँ कहानी सुनाने की नौकरी करनी पड़ी। राम महाय मेना में भर्ती हो गए ! १८५७ ई० में अपने गुल्म के विद्रोही हो जाने पर वे वहाँ से भागे। मार्ग में सतलज की धाग उन्हे __सैकड़ों मील तक वहा ले गई । २ मूच्छित शरीर किनारे पर लगा । सचेत होने पर उन्होने द्विवेदी जी की लिखी हुई औषधचरित-चर्चा से सिद्ध है कि इसी प्रकार चिन्तामणि मन्त्र उनकी वाणी पर लिखा गया था। २ द्विवेदी जी का प्रा निवेदन साहित्य मंदेश एप्रिल १९३६ ई० Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 早入 घास के बठला का रस चूसकर प्राणरक्षा की माधुवप में किसी प्रकार माँगन स्वाते पर पहुँचे । बम्बई जाकर पहले चिमन लाल और फिर नरसिंह लाल के यहाँ नौकरी करते रहे । ये बड़े ही भजनानन्द जीव थे। पल्टन में भी पूजा-पाठ किया करते थे । १८८० ई० तक घर चले आए और १६ मे महाप्रस्थान किया । राम सहाय के एक कन्या भी थी जो पुत्रीवती होकर स्वर्ग सिधारी । नतिनी की भी वही दशा हुई । पिता को महावीर का इष्ट होने के कारण पुत्र का नाम महावीर सहाय रखा गया । वाल्यकाल में चचा ने शीघ्रवोध', 'दुर्गासप्तशती', 'विष्णुसहस्रनाम', 'मुहूर्त' चिन्तामणि', और 'अमरकोश' के कंठ कराए। बालक द्विवेदी ने ग्राम पाठशाला में हिन्दी, उर्दू और गणित की प्रारंभिक शिक्षा पाई। दो तीन फारभी पुस्तकें भी पढ़ी | ग्राम-पाठशाला की शिक्षा समाप्त हो गई। प्रमाणपत्र में अध्यापक ने प्रमादवश महावीर सहाय के स्थान पर naras are लिख दिया । श्रागे चलकर यही नाम स्थायी हो गया । } अँगरेजी का माहात्म्य उनके पिता और चाचा को विदित न था । श्रतएव अंगरेजी शिक्षा प्राप्त करने के लिए महावीर प्रसाद राय बरेली के जिला स्कूल में भर्ती हुए । त वर्ष तक दस करोड हिन्दी - जनता का अविरल साहित्यिक अनुशासन करने वाले इस महान् नाहित्यिक सेनानी की तत्कालीन जीवन-गाथा वही हो हृदय विदारक है । तेरह वर्ष का कोमल किशोर आटा, दाल पीठ पर लादकर अठारह कोन पैदल जाता था । पाक कला में अनभिज्ञ होने के कारण दाल में आटे की टिकियाँ पकाकर ही पेटपूजा कर लिया करता था। एक बार तो जाड़े की ऋतु में सारी रात पैदल चलकर नॉच बजे सवेर घर पहुंचे। द्वान्द्र था. माँ नक्की पीस रही थी। वान्तक की पुकार सुनकर ससम्भ्रम दोss | free दिए | श्रान्त सन्तप्त बन्स को अपने स्निग्ध आँचल की शीतल छाया में नर समेट लिया । वात्सल्यमयी जननी का कोमल हृदय नयनो का हार तोडकर वह निकला । धन्य भगवान् की महिमा ! वह जिस पर कृपा करता है उसकी जीवन प्याली में वेदना, अशान्ति और कठिनाइयाँ उडेल देता है और जिस पर प्रसन्न होता है उसे कंचन, कामिनी और कास्की Faminभूमि का श बना देता है। उसके शाप और वरदान की इस रहस्यमयी प्रणाली वामनभा सकते है ? पिक विना न था विष हावर न्ह फारसा लेन पा Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहाँ किसी प्रकार एफ वप कटा दौलतपुर स रायपरली बहुत दूर था अत व उन्नाव जिल के रनजीतपुरखा स्कूल में लाए गए । विधि का विधान, कुछ दिन बाद वह स्कूल ही टूट गया । तदनन्तर वे फतहपुर भेजे गए ! वहाँ डबल प्रोमोशन न मिलने के कारण उन्नाव चले श्राए । यहाँ पर डबल प्रोमोशन मिल गया। फिर भी उनका जी न लगा । पाँच-छः महीने बाद वे पिता के पास बम्बई चले गए। इमन्क पूर्व ही उनका विवाह हो चुका था। बम्बई में उन्हाने संस्कृत, गुजराती, मराठी, और अँगरेजी का थोडा बहुत अभ्यास किया । वहाँ पर पडोस में ही रेलवे के अनेक सार्टर और बलर्क रहते थे। उनके फंदे में पड़ार द्विवेदी जी ने रेलवे में नौकरी कर ली । वहाँ से वे नागपुर गए । वहाँ भी उनका जी न लगा उनके गाउँ के कुछ लोग अजमेर में राजपूताना रेलवे के लोको सुपरिटेंडेंट के आफिस में क्लर्क थे। उन्हीं के श्रासर वे अजमेर चले गए। पन्द्रह रुपए मासिक की नौकरी मिल गई। उसमे से पाँच रुपया वे अपनी माता जी के लिए घर भेजते थे, पाँच मे अपना बर्च चलाते थं और अवशिष्ट पाँच रुपया मे एक गृह-शिक्षक रखकर विद्याध्ययन करते थे । हमारे विद्याव्यसनी तपः पृत साहित्यव्रती की साधना 'कितनी कठिन थी ! अजमेर में भी जी न लगने के कारण व पुनः बम्बई लौट अाए । प्रतिभाशील व्यक्तिया की जिज्ञासा भी बड़ी प्रबल हुआ करती है। मुम्बादेवी के तार-घर मे तार खटग्वदाते देख कर उन्हें तार सीखने की इच्छा हुई। तार सीख कर जी० अाइ० पी० रेलवे में सिग्नलर हो गए । उस समय उनकी श्रायु लगभग बीस वर्ष की थी। तार बाबू के पद पर रह कर द्विवेदी जी ने टिकटबाबू , मालबाबू , स्टेशन मास्टर, प्लेटियर- श्रादि के काम सीखे । फलस्वरूप उनकी क्रमश: पदोन्नति होती गई। इंडियन मिडलैंड रेलवे के खुलने पर उसके टफिक मैनेजर डब्ल्यू० बी० राइट ने उन्हे झाँसी बुला लिया और टेलीग्राफ इन्सपेक्टर नियुक्त किया। कालान्तर में वे हेड टेलीग्राफ इन्सपेक्टर हो गए । दौरे से ऊब कर उन्होंने टफिक मैनेजर के दफ्तर में बदली करा ली। कुछ काल बाद असिस्लेंट चीफ क्लर्क और फिर रेट्स के प्रधान निरीक्षक नियुक्त हुए। __ जब बाइ० एम० रलव जी० श्राइ० पी० रलवे में मिला दी गई तब व कुछ दिन फिर बम्बई में रहे। बड़ों का वातावरण उन्हें पसन्द न आया । ऊँचे पद का लोभ त्याग कर उहोंने फिर माँमी का गया वहाँ डिस्किट'फिक , " के प्रापिम म Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाच वष तक चीफ ग्लक रहे द्विवेदी जी क व दिन अच्छ नहा करे उनक गौराग प्रम अपनी रातें बॅगले या क्लब म पिता थे . वेचारे द्विवदा जी दिन भर दफ्तर म काम करत थे और रात भर अपनी कुटिया में बैठे बैठे माहब के तार लेते तथा उनका उत्तर देते थे। चाँदी के कुछ टुकडो के लिये बहुत दिनो तक उन्होंने इस अन्याचार का महन किया । कुछ काल-पश्चात् उनके प्रभु ने उनके द्वारा दूसरो पर भी वही अत्याचार कराना चाहा। सहनशीलता अपनी सीमा पर पहुंच गई थी । द्विवेदी जी ने स्वयं तो सब कुछ महना स्वीकार कर लिया परन्तु दूसरों पर अत्याचार करने मे नाहीं कर दी। बात बढ़ गई । उन्होंने निश्शक भाव से त्याग-पत्र दे दिया। इस समय उनका का वेतन डेढ सौ रुपय था । त्याग-पत्र वापस लेने के लिये लोगों ने बहुत उद्योग किया, परन्तु सब व्यर्थ हुआ। इस विषय पर द्विवेदी जी ने अपनी धर्म-पत्नी की राय माँगी। स्वाभिमानिनी पतिव्रता ने गम्भीरतापूर्वक उत्तर दियाक्या कोई थूक कर भी चाटता है । उन्होने सन्तोष की सॉस ली। हिन्दी का अहोभाग्य था कि हमारे चरित-नायक ने कमला का क्षीरसागर न्याग कर सरस्वती की हिम-शिला पर पुजारी का अामन ग्रहण किया । १६०३ ई० में उन्होने 'सरस्वती' का सम्पादन श्रारम्भ किया। १६०४ ई. तक कॉमी से कार्य-संचालन करने के अनन्तर वे कानपुर चले आए और जुही मे सम्पादन करते रहे। शक्ति मे अधिक परिश्रम करने के कारण वे अस्वस्थ हो गए । १६१० ई० में उनको परे वर्ष भर की छुट्टी लेनी पडी। सम्भवतः इमी वर्ष उनकी माता जी का मी देहान्त हुआ । सत्रह वर्ष तक 'सरस्वती' का सम्पादन करने के उपरान्त १६२० ई० मे उन्होंने इस कार्य में अाकाश ग्रहण किया । जीवन के अन्तिम अठारह वर्ष द्विवेदी जी ने अपने गाय में ही बिनाए । कुछ काल तक आनरेरी मुसिफ का कार्य किया। तदनन्तर ग्राम पंचायत के सरपंच रहे । उनके जीवन के अन्तिम दिन बडे दुख मे बीते । स्वास्थ्य दिन-दिन गिरता गया । पं० शालग्राम शास्त्री आदि अनेक वैद्यो और डाक्टरों की दवा की परन्तु सभी औपधियाँ निष्फल सिद्ध हुई । अन्न न्याग देना पड़ा । लौकी की तरकारी, दलिया और दूध ही उनका आहार था। अनेक रोगों में बार-बार आक्रान्त होने के कारण उनका शरीर शिथिल हो गया था। अन्तिम बीमारी के समय वे वरावर कहा करते थे कि अब मेरे महाप्रस्थान का समय था गया है। जिस किमा से जो कुछ कहना था कह-सुन लिया। अक्टूबर सन् ११३८ ई. के दूसरे सप्ताह में उनक भानजे कमलाकिशार त्रिपाठी के समधी गक्टर शकरच जी उन्द गयपनी ल गय द्विव Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी का तन्कानान मानासक और शारारिक पीड़ा का ज्ञान उनक निम्नाकित पत्र स बहुत कुछ हा जाता है शुभाशिषः मन्तु, में कोई दो महीने में नरक यातनाएँ भोग रहा हूँ। पडा रहता है। चल फिर कम मकता हूँ। दूर की चीज भी नहीं देख पडती। लिम्बना पढ़ना प्रायः बन्द है । जरा सी दलिया और शाक खा लेता था। अब वह कुछ हजम नहीं होता ! तीन पाव के करीब दूध पी कर रहता हूँ-तीन दफे में । मूग्बी खुजली अलग तंग कर रही है। बहुत दवायें की नहीं जाती। रापी म. प्र. द्विवेदी शंकरदर जी ने अनेक वैद्यों और डाक्टग की सहायता तथा परामर्श मे द्विवेदी जी की चिकित्सा की । मभी उपचार निष्फल हुये । २१ दिसम्बर को प्रातः काल पौने पाँच बजे उम अमर अात्मा ने नश्वर शरीर त्याग दिया। हिन्दी-साहित्य का प्राचार्यपीठ अनिश्चित काल के लिये सूना हो गया ।। द्विवेदी जी का विवाह बाल्यावस्था में ही हो गया था। उनकी धन-पन्नी इतनो रूपवती न थी कि उनकी पालौकिक शोभा को देख कर किसी का सहज पुनीत मन क्षब्ध हो जाता तथापि द्विवेदी जी ने अादर्श प्रेम किया। उनके पत्नी प्रेम का प्रामाणिक इतिहाम अतीव मनोरंजक है। द्विवदी जी की स्त्री की एक नम्खी ने कहा कि द्वार पर पूर्वजों द्वारा स्थापित महावीर जी की मूर्ति पडी है, उसके लिए पक्का चबूतरा बन जाता तो अच्छा होता । चबूतरा बनवा कर उनकी स्त्री ने महावीर शब्द की श्लिष्टता का उपयोग करते हुए कहा कि तुम्हारा चबतग मैने बनवा दिया। महृदय और प्रत्युत्पन्नमति हिवेदी ने नन्काल उत्तर दिया--- 1. किशोरीदास वाजपेयी को लिखित पन्न, 'सरस्वती',भाग ४०, सं० २, पृ. २२२, २३ २. विषय-वासनाओं की तृप्ति के लिये ही जिम प्रेम की उत्पत्ति होती है वह नीच प्रेम है। वह निंद्य और दूषित समझा जाता है। नियाज प्रेम ही रच प्रेम है। प्रेम अवान्तर बातों की कुछ भी परवा नहीं करता । प्रेम-पर से प्रयाण करते समय पाई हुई बाधाओं को बह कुछ नहीं समझना। विघ्नों को देख कर वह केवल मुस्करा देता है। क्योंकि इन सब को उसके सामने हार माननी परती है " सरस्वती भग २ पृ. ३६ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ J तुमने हमारा चबूतरा नवाया है, में तुम्हारा मानवका हास्य की इस गणी ने ग्रागे चलकर यथाय का रूप धारण किया। २ उनकी स्त्री को प्रारंभ से ही हिस्टीरिया का रोग था। इसी कारण द्विवेदी जी उन्हे गंगास्नान को अकेले नहीं जाने देते थे। संयोग की बात, एक दिन वे ग्राम की अन्य स्त्रियों के साथ चली गई। गंगा माता उन्हें अपने प्रवाह में बहा ले गई। लगभग एक कोम पर उनका शव मिला। द्विवेदी जी के कोई सन्तान न थी । पत्नी जीते जी तथा मरने पर लोगों ने उन्हें दूसरा विवाह करने के लिए लाख समझाया परन्तु उन्होंने स्वीकार नहीं किया । अपने पत्नीव्रत और तन्मम प्रेम को साकार रूप देने के लिए स्मृति-मन्दिर का निर्माण कराया । जयपुर से एक मरस्वती और एक लक्ष्मी की दो मूर्त्तियॉ मॅगाई । वही मे एक शिल्पी भी बुलाया। उसने उनकी स्त्री की एक मूर्ति बनाई । वह द्विवेदी जी को पसन्द न आई । फिर उसने दूसरी बनाई | सात-आठ महीने में मूर्ति तैयार हुई। लगभग एक सहस्त्र रुपया व्यय हुआ । स्मृति-मन्दिर मे तीनां मूर्तियाँ स्थापित की गई — मध्य में उनकी धर्म-पत्नी की, दाहिनी ओर लक्ष्मी और बाई और सरस्वती की । 3 १. 'सरस्वती', भाग ४० सं० २, पृ० १५३ | २. 'सरस्वती', भाग ४०, मं० २, पृ० २२१ । ३. धर्म पत्नी की मूर्ति के नीचे द्विवेदी जी के स्वरचित निम्नांकित श्लोक खचित हैं- नवषण्णव भूसंग्ये विक्रमादित्यवत्सरे । शुकृष्णत्रयोदश्यामधिकापामासि च ॥ मोहमुग्धा गतज्ञाना भ्रमरोगनिपीडिता । जन्हुजा याजले प्राप पंचत्व' या पतिव्रता ॥ निर्मापितमिदं तस्याः स्वपत्न्याः स्मृतिमन्दिरम् । व्यथितेन महावीरप्रसादेन द्विवेदिना ॥ पत्युगृ है यत. सासीत, साताच्छविरूपिणी । veronical वाणी द्वितीया मैव सुव्रता ॥ एवा तत्प्रतिमा तस्मान्मध्यभागे तयोर्द्वयोः । लक्ष्मी सरस्वतीदेव्याः स्थापिता परमादरात् ॥ और सरस्वती की मूर्ति के ऊपर क्रमशः अधोलिखित श्लोक अंकित हैंविष्णुप्रिया विशालाक्षी चीराम्भोनिधिसम्भवा । इयं विराजते लक्ष्मी लोकेशैरपि पूजिता ॥ इसोपरि समासीना वर विश्ववन्द्यय सब शुक्ला सरस्वती 1 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्री की मूर्ति स्थापित करने पर लोग ने द्विवदी जी की बड़ी हमी दाई । यह तक कद डाला ~ "दुवौना कलजुगी है कलजुगी। द्याखौना, मेहरिया के भूरति बनवाय के पधराई सि हइ ! यही कौनिउ वेद पुरान के मरजाढ श्राय १ यही नहीं, सामने भी ताने कसने,गालियाँ तक वक्रते परन्तु द्विवेदी जी पर कोई प्रभाव न पडता । अपनी पत्नी के वियोग में वे कितने दुःन्त्री थे, यह बात पं० पामिह शर्मा को लिग्वे गए निम्नाकित पत्र से स्पष्ट प्रमाणित होती है दौलतपुर १३. ७. १२ । प्रणाम, ___कार्ड मिला। क्या लिवू ? यहाँ भी बुग हाल है। पत्नी मेरी इम मभार से कुच कर गई । मैं चाहता हूँ कि मेरी भी जल्दो बारी बावे । भवदीय महावीर प्रमाद ।"२ इतने सच्च ग्रंमी होकर मला वे अनर्गल और मिथ्या लोकनिन्दा को ओर क्या ध्यान देत ? ३ अक्टूबर १६०७ ई० के अपने मृत्यु'लेन्त्र में भी उन्होने अपने पत्नी-प्रेम का परिचय दिया था। द्विवेदी जी को पारिवारिक मुम्ब नहीं मिला। उनके मन में यह बात खटकती भी रहती थी ! परन्तु उनका दुब सामान्यतः प्रकट नहीं होता था। अपनी दुःस्त्र कथा दूसरा को मुना कर उनके हृदय को कष्ट पहुँचाना उन्होने अन्याय समझा । बाबू चिन्तामणि घोप की मृत्यु पर द्विवेदी जी ने स्वयं लिग्वा था-- "अाज तक मेरे मभी कुटुम्बी एक एक करके मुझे छोड गए। मैं ही अकेला कलगुन बना हुअा अपने अन्तिम श्वासों की राह देख रहा हूँ। "कभी मैने 'मरस्वती' में अपना रोना 3. 'सरस्वती' भाग ४० मा २, पृ० २२१ । २. 'सरस्वती', नवम्बर, १६४० ई० । ३. उन्होंने अपनी आय का ५० प्रतिशत अपनी स्त्री और शेष अपनी माँ और सरहज के लिए निर्धारित किया था। पानी के मानसिक सुख और शान्ति के लिए यहाँ तक लिखा था कि Trustees will be good enough to leave her alone in the matter of her ornaments and will not injure her feelings in that respect by d manding an account of her ornim nts or of their disposa का ना० प्र० सभा के कार्यालय में रचित मल्यु-लेम्ब Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१ ] नहीं रोना श्रतएव उम मरी उस कष्ट नाम सरस्वता' का कुछ भी सम्बन्ध न था 'सरस्वती' क पाठका को सुना कर उनका समय नम करना मैंन अन्याय समझा १११ दैहिक ओर भौतिक वेदनाओं ने द्विवेदी जी के हृदय को इतना अभिभूत किया कि समय-समय पर वे अपनी पीडाओ को अभिव्यक्त किए बिना न रह सके । वे कभी कभी कुटुम्बियों के जंजाल में अधिक शोकाकुल हो जाया करते थे । १२. ८. ३३. ई० को उन्होने किशोरीदास वाजपेई को पत्र में लिखा था- " आपकी कौटुम्बिक व्यवस्था मे मिलता जुलता ही मेरा हाल है । अपना निज का कोई नही है । दूर दूर की चिडियाँ जमा हुई हैं। खूब चुगती हैं । पुरस्कार स्वरूप दिन रात पीडित किए रहती है । १२ यह द्विवेदी जी का स्थायी नाव न था । उन्होंने अपनी विधवा बहन, बहन की विधवा लडकी, भानजे, उसकी बधू और लडकी को असाधारण आत्मीयता और प्रेम से अपनाया । यद्यपि कमलकिशोर त्रिपाठी उनके सगे भानजे नहीं हैं तथापि द्विवेदी जी ने उनका और उनकी लडकियों का विवाह अपनी बेटे-बेटियों की ही भाँति किया । अपने १६०७ ई० के मृत्यु-लेख में उन्होंने अपनी माँ, सरहज और स्त्री के पालनार्थ अपनी आय का क्रमशः तीस, बीम और पचास प्रतिशत निर्धारित किया था । जीवन के पिछले प्रहर में इनका देहान्त हो जाने के पश्चात् उन्होंने उस मृत्यु- लेख को व्यर्थ समझ कर भंग कर दिया । चल सम्पत्ति का प्रायः सवाश दान कर के अपनी अचल सम्पत्ति का उत्तराधिकारी उपयुक्त कल्पित मानजे कमलकिशोर त्रिपाठी को बनाया । 'सरस्वती' के सम्पादन- कार्य में अवकाश ग्रहण करने पर द्विवेदी जी अपने गाँव दौलतपुर में ही रहने लगे। बहुत दिनों तक आनरेरी मुंसिफ और तदुपरान ग्राम पंचायत के सरपंच रहे | इन पदों पर रहने हुए उन्होंने न्याय का पूर्णतया निर्वाह किया। उनकी कठोर न्यायप्रियता से अनेक लोग असन्तुष्ट भी हुए, किन्तु द्विवेदी जी ने इसकी कुछ भी परवा न की । न्याय की रक्षा के लिये यदि किसी अकिंचन को अार्थिक दंड दिया तो कम्णा के वशीभृत होकर उसका जुर्माना अपने पास से चुकाया । आधुनिक ग्रामसुधार आन्दोलन के बहुत पहले ही उन्होंने इसकी ओर ध्यान दिया था । 9. द्विवेदी- लिखित 'बाबू चिन्तामणि घोष की स्मृति' सरस्वती, १९२८ ई० ख २ पृ० २८२ २ सरस्वती भाग ४० स०२, पृ० ३२१ " Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपन गावं की सफाई क लिए एक भगी का लार साया। गान म अस्पताल शक्खा मवशीवाना आदि बनवाए , आमा के कइ बाग भी लगवाए उन्हा ने इस बात का अनुभ किया कि अशिक्षित ग्रामवानियो को शिक्षित करने से ही भारत की उन्नति हो सकती है। ___उन्हाने वाणी की अपेक्षा कर्म-द्वारा ही उपदेश किया। मार्ग में गोबर, कॉटा, कॉचक टुकड़ा आदि पडा देव कर स्वयं उठाकर फेंक प्राते थे। इस आदर्श से प्रभावित होकर दूसरे व्यक्ति भी उनका अनुकरण करने थे रेलवे में नौकरी करने के कारण जनसाधारण द्विवेदी जी को बाबू जी कहा करते थे। मामले-मुकदमे में गय लेने के लिए लोग उनके पाम आते और वे समझा-बुझा कर श्रापम में हो फैसला करा देते थे । गरीब किसानों को माधारण 'सूद पर' विना सूद के या अन्यन्त अनहाय होने पर दान-रूप में भी धन दिया करते थे ! मुन्दर लम्बा डील-डौल, विशाल रोवदार चहा, प्रतिभा की रेखायो से अंकित उन्नत भव्य माल, उठी हुई असाधारण घनी भौहें, तेजभरी अभिभावक आँखें और सिंह की मी अस्तव्यस्त फैली हुई मूछे द्विवदी जो को एक महान् विचारक का ही नहीं. उम दिग्विजयी महाबलाधिकृत का ब्यक्तित्व प्रदान करती थी जो अपनी भयंकर गर्जना से ममस्त भूमंडल को थर्रा देता है। उनकी मुन्वाकृति में हो विदित होता था कि उनमें गम्भीरता है, मनचले छोकरो का छिछोरापन नहीं । व्यक्तिगत जीवन के पदन्यास में या साहित्य की भूमिका में कही भी उन्होने उच्छशलता का परिचय नहीं दिया। उन्होंने प्रत्येक कार्य को अपना कर्तव्य समझ कर गम्भीरतापूर्वक प्रारम्भ किया और अन्त तक मफलता-पूर्वक निबाहा । माहित्यिक वाद-विवादों में किलकिलाकर वाग्बाणवी होने पर भी उन्होने यथा-सम्भव अपने संयम और गमनीरता की रक्षा की । गम्भीर होते हुए भी उनके व्यवहार में नीरमता या शुष्कता नहीं थी। वे स्वभावतः हास्य-विनोद के प्रेमी थे । जब साहित्य-सम्मेलन ने मर्व प्रथम परीक्षाएँ चलाई तब द्विवेदी जी ने भी प्रशमा परीक्षा के लिए आवेदन-पत्र भर कर भेजा। ' उनकी रुचि शृंगारिक कविता की और कम थी। एक बार वे बालकृष्ण शर्मा 'नयोन' । उन्हीं की मंडली में पूछ बैठे -''काहे हो बालकृष्ण, ई तुम्हार सजनी, मखी, सलोनी, गण को आयें । तुम्हार कविता माँ इनका बडा जिकर रहत है । मब लोग हम पड़े और वीन जी मेंप गए। २ . सरस्वती, भाग ४०, सं० २, पृ० १७३ । विवेटी-मीमामा' प. २३४ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी अरसठवा व गॉट के समय किसी किसान सरसठ गाँठ मनाई इस पर द्विवेदी जी ने लिखा किसी किसी ने ६ मई १९३२ का सरसठवी ही वषगाँठ मनाई है । जान पडता है इन सज्जनो के हृदय में मेरे विषय के वात्सल्यभाव की मात्रा कुछ अधिक T है | इसी से उन्होंने मेरी उम्र एक वर्ष कम बता दी है। कौन माता, पिता या गुरुजन ऐसा होगा जो अपने प्रेमभाजन की उम्र कम बताकर उसकी जीवनावधि को और भी आगे वढा देने की ठान करेगा ? अतएव इन महानुभावी का में और भी कृतज्ञ हूँ । , उनके सम्भाषण की प्रत्येक बात में अनोखापन और आकर्षण था । एक बार केशव प्रसाद मिश्र द्विवेदी जी के अतिथि थे । द्विवेदी जी के श्रागमन पर वे उठ खड़े हुए। reat जी ने हँसमुख भाव में उत्तर दिया-- विरम्यता भूतवती सपर्या निविश्यतामासनमुनिं क्रिम २ द्विवेदी जी बड़े स्वाभिमानी थे । श्रात्मगौरव की रक्षा के लिए ही उन्होंने दनों रुपयो की आय को ठुकरा कर तेईस म्पए मासिक की वृत्ति स्वीकार की । नागरी प्रचारिणी सभा मतभेद होने पर ममाभवन में गैर नहीं रखा। यदि किमो से मिलना हुआ तो बाहर ही मिले । बी० एन० शर्मा पर अभियोग चलाने का कारण उनका स्वाभिमान ही था । कमलाकिशोर त्रिपाठी की विवाह यात्रा के समय द्वितीय श्रेणी के डिब्बे में एक विलायती साहब ने द्विवेदी जी से अपमानजनक शब्दों में स्थान खाली करने को कहा। उस अनाचार का उत्तर उन्होंने मिर्जापुरी उडे में दिया । हिन्दी कोविद - रत्नमाला के लिए २६१७-१८ ई० में श्यामसुन्दर दास के आदेशानुसार सूर्यनारायण दीक्षित ने द्विवेदी जी का एक सक्षिप्त जीवन-चरित तैयार किया और उसकी हस्तलिखित प्रति द्विवेदी जी को दिखाकर बाबू साहब के पास भेज दी । यत्र तत्र कुछ परिवर्तन करने के बाद अन्त में बाबूसाहब ने यह बहा दिया कि द्विवेदी जी का स्वभाव किंचित् उम्र है । जब द्विवेदी जी को यह ज्ञात हुआ तब वे आपे से बाहर हो गए। वस्तुतः इस उग्रता से उन्होंने बाबू साहब के कथन को चरितार्थ किया | स्वाभिमानी और उग्र होते हुए भी वे ईश्वर में अटल विश्वास रखते थे । यद्यपि उन्होंने अपने को किसी धार्मिक बन्धनमें नहीं जकडा, दिग्वाने के लिए मन्ध्यावन्दनादि का पालन नहीं किया तथापि उनकी भगवद्भक्तिप्रधान कविताओ, विशेषकर 'कथमहं नास्तिकः' से 1 द्विवेदी- लिखित 'कृतज्ञना-ज्ञापन' 'भारत' २२ ५ ३२ । २ सरस्वती, भाग ४० म०२ पृ० १-६ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किन प्रत्येक काय इश्वर का देश समझ कर किया उनकी तीव्र आलोचनाओ के आधार पर उन्हें उम्र और क्रोधी कहना मारी भूल है । साहित्य के ढीठ चोरी पर 'किन्तु परन्तु' और 'अगर मगर' वाली आलोचना का कोई प्रभाव न पडता | हिन्दी के वर्धमान कडा-करकट को रोकने के लिए उसी प्रकार की कटु आलोचना अपेक्षित थी । द्विवेदी जी ने अपनी माहित्यिक योग्यता का गर्व नहीं किया । तत्कालीन 'चाँद' सम्पादक मरसिह सहगल के एक पत्र से विदित होता है कि द्विवेदी जी ने उन्हें कोई अभिमान सूचक बात लिखी थी।' उनके कमरे से अनेक अस्त्र शस्त्रों के अतिरिक्त एक फरमा टॅगा रहता था. जो उनके उग्र स्वभाव का द्योतक था । कदाचित् उसी को देख कर ही पं० वेंकटेशनारायण तिवारी ने उन्हें वाक्यशूर परशुराम कहा था । वे निस्सन्देह उम्र थे परन्तु उनकी उग्रता में अनौचित्य या अन्यान्य के लिए अवकाश न था । जब अभ्युदय प्रेस के मैनेजर ने अपने 'निबन्ध नवनीत' में द्विवेदी- लिखित प्रतापनारायण मिश्र का जीवनचरित और बाबू भवानीप्रसाद ने १. १२ २३ ई० *****.. दोनों ही पत्र पड़ कर बहुत दुःख हुआ । यदि कोई जाहिल ऐसे पत्र लिखता नो कोई बात नहीं थी किन्तु मुझे दुःख इस बात का है कि आपके पत्र से सदा अनुचित अभिमान और तिरस्कार की बू आती है जो सर्वथा अक्षम्य है । यह सच है कि साहित्य में आपका स्थान बहुत ऊँचा है और बहुत काल से आप हिन्दी की सेवा कर रहे हैं, फिर भी आपको कोई अधिकार नहीं है, कि दूसरों को जो आपकी विद्वता के सामने कुछ भी नहीं है, उन्हे आप तुच्छ दृष्टि से देखें और इस प्रकार उनका निरादर करें। मैं ही क्या कोई भी श्रमाभिमानी इसे सह नहीं सकता। आप का लेख 'चाँद' में प्रकाशित होने से पत्र का मान बढ़ जायगा यदि आप का यह ख्याल है तो निश्चय ही आप का यह भ्रम है। आप जैसे सुयोग्य विद्वानों के लेख अन्य पत्रिकाओं की शोभा भले ही बा सके किन्तु मेरे पत्र के लेखक एक दूसरी ही श्रेणी के हैं और वे बहुत है । ...." द्विवेदी जी के पत्र संख्या ४६, नागरी प्रचारिणी सभा कार्यालय, काशी | २ सरस्वती भाग ४०. सं० २, १०२११ । काशी नागरी प्रचारिणी सभा फलाभवन मंडल १ श्रभ्युदय प्रेस क मॅनेजर का लिखित पत्र की रूप रवा । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । इनसी कुछ कविताए अपना शिक्षा सरान तथा 'श्राय भाषा पाठानली १ म पी ग्रामी क विना ही मकालन कर ला तब द्विवदा जो उनक वचक व्यवहार पर ऋतु हुए । अन्त म मित्रों की मित्रता के कारगा उन्हें जमा कर दिया । द्विवेदी जी कठोर थ कपटाचारी, कृत्रिम, दिखावटी और चाटुकार जनों के लिए। ब किसी भी अनुचित बात को मह नहीं सकते थे । मन्त्र तो यह है कि वे अपने ऊंचे आदर्श की ईक्ता में दूमगे का भी नापते थे। यह उनकी महत्ता थी जिसे हम सामारिक दृष्टि से निर्वलता कह सकत है। एक बार बनारसीदाम चतुर्वेदी ने विशाल भारत' में 'माकेत' की आलोचना की ! उनकी कुछ बातो म गुप्त जी महह्मन न हुए और १५ जनवरी, १६३२ ई० को उन्हे उत्तर दिया। उसी की प्रतिलिपि के साथ द्विवेदी जी को उन्होंने पत्र लिखा और उनकी मम्मति मॉगी । द्विवेदी जी ने अपनी राय देते हुए अपने अनन्य स्नेभाजन मैथिलीशरण गुप्त को लिग्ना--"तुलमी की कविता में आपको अपनी कविता की तुलना करना शोभा नहीं देता।" गृप्त जी तिलमिला उठे और २८ जनवरी को लिखा--"अाज पच्चीस वर्ष से ऊपर हुए, मैं श्राप की छत्रच्छाया में हूँ। यह बात नारी के कहने के लिए रहने दीजिये ।... मैंने अपनी ज्यान ममाधि में जैमा देखा वमा लिखा ।” पहली फरवरी को द्विवेदी जी ने उत्तर में लिखा 'श्रापने मुझम गय माँगी. मुझे जो कुछ उचित समझ पडा, लिग्य कर मैने श्राप की इच्छापूर्ति कर दी। इस पर आप अपनी २८ जनवरी की चिट्ठी में विवाद पर उतर श्राए-जो राय मेने दी उसका मवांश मे ग्लंडन कर डाला । इसकी क्या जरूरत थी ? अाप अपनी राय पर जमे रहने । ध्यान-ममाधि लगाकर पुस्तक लिवने वाला को मेरे और बनारमीदाम जैन मनुष्यों की राय की परवा ही क्या करनी चाहिए ? वे अपनी गद जाय, अाप अपनी । श्राप की राय ठीक, मेरी और बनारसीदाम की गन्नत मही–तुभ्यतु नवान् । '3 दयाशील द्विवेदी जी की उग्रता के मूल में किसी प्रकार की दुर्भावना नहीं होती थी। इमका अकाट्य प्रमाण यह है कि पवियों की क्षमायाचना नुनकर मच्च हृदय में, महर्ष और सन्न रहें नमामी कर देत धे । मैथिलीशरण गुप्तने -पर्यत पत्र का उत्तर दिया था निगाँव जामी Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसार श्रीमान पनित ना महराज प्रणाम कृपण कार्ड मिला। जिने कहीं से अनुकूलता की ग्राशा नहीं होती वह एकान्त में अपने देवता के चरणों में बैठकर, मले ही वह दोपी स्वयं हो, उसी को उपालम्भ देता है । ऐसे ही मैंने किया है— तस्मात्तवास्मि नितरामनुकम्पनीयः । मेरे सबसे छोटे भाई चारुशीलाशरण का वचा अशोक कभी-कभी खीझ कर मेरी टागो मे अपना शिर लगा देता है और मुझे ठेलता हुआ अपना अभिमान प्रकट करता है। समझ लीजिए, ऐसा ही मैने किया है और मेरा यह व्यवहार सहन कर लीजिए-गीता के शब्दों में पितेव पुत्रस्य । चरणानुन्चर मैथिली ११ गुप्त जी के श्रद्धावति पत्र ने द्विवेदी जी की पूर्ववत् प्रसन्न कर दिया। श्यामसुन्दर दाम, बालमुकुन्द गुप्त, लक्ष्मीधर बाजपेयी, बी० एन० शर्मा, कृष्णकान्त मालवीय आदि माहित्यकारों से द्विवेदी जी की ग्वटपट हुई। उनकी उग्रता या विवादों का कारण उनकी सत्यप्रियता, न्यायनिष्ठा, स्पष्टवादिता और इससे भी महत्तर हिन्दी - हितै पिता थी । यदि वे एक ओर उग्र और क्रोधी थे तो दूसरी ओर क्षमा और दया की राशि भी थे । वे परशुराम और तथागत गौतम के एक साथ अवतार थे। इसको पाप में कह कर पुण्य कहना ही अधिक युक्तियुक्त है। द्विवेदी जी के चिन्तन, वचन और कर्म में, विचार और आदर्श में, ग्रभिन्नता थी 1 दूसरी के प्रति वे वही व्यवहार रखते थे जिसकी दूसरो में आशा करते थे । उनकी वाणी में निम्नाकित श्लोक बहुधा मुखरित हुआ करता था - २ लज्जागुणजननी जननीमित्रस्यामत्यन्तशुक्लहृदयामनुवर्तमानाम् । तेजस्विन. मुखमपि सत्यजन्ति सत्यत्रतव्यमनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् || उनकी न्यायप्रियता इतनी ऊँची थी कि अपनी भी मची थालोचना सुनकर व प्रसन्न होते थे । २७५ १६१० ई० को पद्मसिंह शर्मा को लिखा था--- "इस हफ्ते का भारतोदय श्रवश्य मनोरंजक है । कुछ पढ़ लिया। बाकी की भी पहूंगा। 'शिक्षा' की ममालोचना के लिए धन्यवाद । खूब है। पढ़ कर चित्त प्रसन्न हुआ। पर आप १ दौलतपुर में रचित गप्त जी का पत्र ५ द्विवेदी मीर्मानां पृ० २३२ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का माफी मांगना अनचित छुपा । जब वैयाकरण कामताप्रसाद गुरु ने द्विवेदी जी के 'राजे', 'योद्ध', 'जुदा जुदा नियम', 'हजारहा' श्रादि चिन्त्य प्रयोगो की चर्चा की तब उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक उत्तर दिया--प्राप मेरे जिन प्रयोगो को अशुद्ध समझते हैं उनकी स्वन्त्रता से समालोचना कर सकते हैं। ये रिश्वत, झठ आदि से डरने वाले धर्मभीरू थे । इस कथन की पुष्टि अधोलिखित पत्र मे हो जाती है-- "श्रीमन् में रिश्वत देना नहीं चाहता । मै झठ बोलने से डरता है। यह मुझे न करना पड़े तो अन्छा हो ।...13 मम्पादक, भानररी मुंसिफ और ग्राम पंचायत के सरपंच के जीवन-काल में उन्हें न जाने कितने प्रलोभन दिए गए। द्विवेदी जी ने उन सबको ठुकरा कर कर्तव्य और न्याय की रक्षा की, उन पर तनिक भी आँच न आने दी। सम्पादनकाल मे अपने हानिलाभ का ध्यान न रखकर सदा ही 'सरस्वती' के स्वामी और पाठको का ध्यान रखा । न्यायाधीश के पद से, न्यायाधिकरण मे व्यवहार चाहने वालो के पाप और पुण्य को निष्पक्ष भाव में न्याय की तुला पर तोला । सामारिक शिष्टाचार और कृत्रिमता से दूर रह कर उन्होंने जीवन की सच्चाई को ही अपना ध्येय माना । दब कर किमी मे बात नहीं की, क्योंकि उनमें स्वार्थ की भावना न थी। द्विवेदी जी की अालोचनाएँ उनकी निर्भीकता, सष्टता और मत्यवादिता प्रमाणित करती है । अपनी कर्तव्यपरायणता और न्यायनिष्ठा के कारण ही व अनेक मायिक महानुभावो के शत्रु बन गये । यहाँ तक कि अध्ययनागार में भी उन्हें श्रात्मरक्षा के लिए तलवार, बन्दूक आदि शस्त्रास्त्र परखने पड़े। द्विवेदी जी सिद्धान्त और शुद्धता के पक्षपाती थे। वे प्रत्येक कार्य में व्यवस्था, निय १ 'मरम्वती', नवम्बर, १६४०ई० । २ 'सरस्वती', भाग ४०, पं० २, पृ० १३४. ३५ । ३ 'सरस्वती', जुलाई १९४०ई०, पृ०७४ । ४ मेटन प्रेस, लन्दन के एक Indian Empire number प्रकाशित हो रहा था । कविता. विभाग के उप सम्पादक ने द्विवेदी जी से उनकी रचना माँगी । उक महोदय ने पत्र में द्विवेदी जी का नाम लिखा था Mahabur Prasad Deveda कविता भेजते हुए द्विवेदी जी ने उनसे निवेदन किया"If you accept it, please see that it is correctly printed, and sead me a copy of the puh icat on contin og it 1 no see that my name Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मितता, अनशासन और काल का पालन करत न यावश्यक तथा सा पना का उत्तर लौटती डाक स देत और निरथक एर अनावश्या पत्रा के विपय म मौनधारण कर लेत थ उनके हस्तगत सभी पत्रो पर नोट और तारीख सहित हस्ताक्षर है। जिस पत्र का उत्तर नही देना होता था उस पर No Reply लिख दिया करते थे । अनुशासन के इतने भक्त थे कि एक बार जूते का नाप भेजना था तो पत्र का लिफाफा अलग भेजा और नाप का धागा अलग ।' अव्यवस्था और अशुद्धता उन्हें बिलकुल पसन्द नहीं थी। वस्तुत्रो से ठसाठस भरा हुश्रा कमरा भी सदैव साफ सुथरा रहता था। वे अपने कमरे, सामान और पुस्तको श्रादि की सफाई अपने हाथ से करते थे । प्रत्यक बस्तु अपने निश्चित स्थान पर रखी जाती थी। कलम से कुछ लिखने के बाद उसकी स्याही पोछ कर रखते थे। वस्तुयो का तनिक भी हेर फेर उन्हें खल जाता था। एक बार उनकी धर्मपत्नी ने थाली में रखे गए पदार्थों का नियमित क्रम भंग कर दिया तो उन्हे भर्त्सना सुननी पड़ी। रवीन्द्रनाथ की गल्पो का एक संग्रह विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक को देते हुए कहा था---'इतना ध्यान रखिए गा कि न तो पुस्तक मे कहीं कलम या पेसिल का निशान लगाइयेगा, न स्याही के धब्वे पडने दीजिएगा और न पाठ मोडिएगा द्विवेदी जी की दिनचर्या बंधी हुई थी। झाँसी में वे बहुत सवेरे उठकर संस्कृत-ग्रन्था का अवलोकन करते थे। फिर चाय पीकर ७ मे ८ तक एक महाराष्ट पंडित मे कुछ अन्याके बारे में पूछताछ करते थे। तदनन्तर बॅगला, संस्कृत, गुजराती आदि की पत्रिकाओं का अवलोकन करते और स्वयं भी थोडा बहुत लिखते थे । लगभग १० बजे भोजन करके दफ्तर जाते थे। करीब दो बजे जलपान कर के अँगरेजी अखबार पढ़ते रहते और जो काम अाता जाता था उसे समाप्त करते थे। लगभग चार पाँच बजे घर आते, हाथ मुंह धोते, कपडे बदलते, द्वार पर बैठ जाते और आगत जनो से वार्तालाप करते थे । घंटे डेढ घंटे मनोरंजन करके पुस्तकावलोकन करते और फिर नव दस बजे सोने चले जाते थे। उनके अफसरा ने उनकी पदोन्नति करके उन्हें अन्य स्थानो पर भेजना चाहा परन्तु इस भय से कि दिनचर्या और नियमितता में कही विघ्न न हो जाय, उन्होने बराबर अस्वीकार किया। is correctly spelt as shown below. 16, 6, 25," द्विवेदी जी के पन की रूप रेखा, का० ना० प्र० सभा कार्यालय । १. 'सरस्वती', भाग ४० सं० २, पृ० १४४. ४५ । २. , , , , १४५ । im. १६१ १७१ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ४ दौलतपुर म प्रतिदिन प्रात काल उठ कर शौचादि स निवृत्त होकर कुछ दूर खेतो की ओर टहलत थ लौट कर सफा परत थ फिर बारह बज तक आवश्यक चिट्ठी पत्रिया का उत्तर देने, मम्मत्यर्थ श्राई हुई पुस्तको और दो चार समाचार पत्रों का अवलोकन करते थे। दोपहर के समय पुनः शौच को जाते और तब स्नान करते थे । भोजनोपरान्त पत्रपत्रिकाएं पढते थे। प्रायः दो बजे के बाद मुकदमे देवते थे। मुकदमो के अभाव में किचित् विश्राम करके अखबार भी पढ़ा करते थे । सन्ध्या समय चार बजे के बाद अपने बागो और खेतों की श्रोर धूमने जाते, लौट कर थोड़ी देर तक द्वार पर बैठते, कोई आ जाता तो उसने बातें करते, तदनन्तर सोने चले जाते थे। १ यदि कभी उनके मुँह से यह निकल गया कि श्राप के घर अमुक दिन अमुक समय पर अाऊँगा तो विघ्नसमूहों के होते हुए भी वचन का पालन करते थे । ज्येष्ठ माम के अपराह्न में भयंकर लू की अवहेलना करके कानो में डुपट्टा लपेटे,छाता लिए हुए ढाई कोम पैदल चल कर देवीदन शुक्ल के घर पहुँच जाया करते थे। ३ ।। एक बार एक बाई सी. एन. महोदय उनमे मिलने गए। द्विवेदी जी का मिलने का समय नहीं हुआ था। उन महाशय को याचे बटे प्रतीक्षा करनी पडी। एक साधारण व्यक्ति के अमाधारण कार्यक्रम पर वे अत्यंत अग्रसन्न हुए । द्विवेदी जी ने इसकी तनिक भी परवाह न की। कदाचित् इसी के परिणामस्वरूप जिलाधीश महाशय ने द्विवेदी जी को, 'सरस्वती' के विज्ञापनो के बहाने, दड देने का अमफल प्रयास किया था। 3 बाबू चिन्तामणि घोष ने द्विवेदी जी की प्रशंसा करते हुए एक बार कहा था---'हिन्दुस्तानी सम्पादकों में मैने वक्त के पाबन्द और कर्नव्यपालन के विषय में दृढप्रतिज दो ही श्रादी दखे हैं, एक तो रामानन्द बाबु और दूमरे ग्राप ।' ४ द्विवेदी जी की असामान्य सफलता का एक मात्र रहस्य है उनका दृढ़ संकल्प और अध्यवसाय । एक अकिचन ब्राह्मण की सन्तान ने, जिमके घर में पेट भरने के लिए भोजन और तन ढकने के लिये बन नहीं था, चौथाई शताब्दी तक दम करोड जनता का एकातपत्र १. 'द्विवेदी-मीमांसा', पृ० २१८ । २ 'सरस्वती', भाग ४०, सं० २, पृ० २०५ । ३. इसकी चर्चा आगे चल कर 'साहित्यिक संस्मरण' अध्याय में की गई है। ४ द्विवेदी-लिग्वित 'बाबू चिन्तामणि घोप की स्मति' सरस्वती ५१०ई० बर २ प० २८२ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यिक शासन किया---यह उसके अदभ्य उत्साह का ही परिणाम था । वे प्रकृति के नियमो की भाँति अटल थे। शैशव से लेकर स्वर्गवाम तक उनका सम्पूर्ण जीवन प्रतिकल परिस्थितियों के विरुद्ध एक घोर संग्राम था। मतभेदों, विरोधी, प्रतिद्वंद्वियों और आपत्तियों की श्रॉधी, बवंडर और तूफान उन्हें उनके प्रशस्त पथ से तनिक मी डिगा न सके । तन के अस्वस्थ रहने पर भी उनका मन सदा स्वस्थ रहा । दीनतारहित स्वावलम्बन,श्राजीवन हिंदी मेवा के व्रत का निर्वाह, 'अनस्थिरता' श्रादि वादों में अपनी बात को अकाट्य सिद्ध करने, का सफल प्रयास, न्याय,सत्य और लोककल्याण के लिये निजी हानि और कष्टों की चिन्ता न करना आदि बाते उनके संकल्पपालन और अप्रतिम प्रतिभा की द्योतक हैं ! वे अकर्मण्यता के कट्टर शत्रु थे । ढीले ढाले व्यक्तियों को तो बहुधा अप्रसन्न द्विवेदी की फ्टकार सहनी पडती थी । माता, पिता, पत्नी आदि अनेक सम्बन्धियों की मृत्यु का वज्रपात हुअा, परन्तु द्विवेदी जी ने संसार के सामने अपना रोना नही रोया । कितनी ही आधि-व्याधियों ने उन्हें निपीडित किया तथापि उन्होंने साहित्य-सेवा को क्षति नहीं पहुंचने दी । सारी वंदनायो को धैर्य और उत्साह से सहा । उनके व्यक्तिगत और सार्वजनिक कार्यो, साहित्यिक और धार्मिक वादो को लेकर लोगों में उन्हें न जाने क्या-क्या कहा, गालियाँ तक बी । द्विवेदी जी हिमालय की भॉति अप्रभावित और अचल रहे । जहाँ आवश्यक समझा,सत्य और न्याय की रक्षा के लिये प्रतिवाद किया, अन्यथा मौन रहे । 'कालिदास की निरंकुशता'-विषयक विवाद के सम्बन्ध में द्विवेदी जी ने राय कृष्णदास को लिखा था---'मैं तो प्रतिवादों का उत्तर देने से रहा । आप उचित समझे तो किमी पत्र में दे सकते है । बदरीनाथ गीता-वाचस्पति को लिखा गया पत्र उनकी सहिष्णुता की विशेष व्यंजना करता है .."मेरी लोग निन्दा करते हैं या स्तुति, इस पर मैं कभी हर्ष, विषाद नहीं करता। आप भी न किया कीजिए । मार्गभ्रष्ट कभी न कभी मार्ग पर आ ही जाते हैं । मेरा किसी से द्वेप नहीं, न लखनऊ के ही किसी सन्नन से, न और ही किसी से । उम्र थोड़ी है । वह द्वेष और शत्रुभाव प्रदर्शन के लिए नहीं। मैं सिर्फ इतना करता हूँ कि जो मेरे हृद्त भावा को नहीं समझते, उनमे दूर रहता हूँ।” २ द्विवेदी जी सस्ती ख्याति के भूखे न थे । इसी कारण हिन्दी-साहित्य-सम्मलन,अभिनन्दन, १. २६, ६. ११ को लिखित, 'सरस्वती', नवम्बर, १६४४ ई० । २२११११४ को सिसित सरस्वती मई सन् १९१०ई० Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ५६ । मले आदि स दूर रहना चाहत थ उन्ह रायबहादुर' सरीखा उपाधिया की तनिक भी कामन न थी उहे सच्चा मुस और सन्ताप दूसरा र सुप और शान्ति म मिलता था उन्होन स्वय लिखा था-"जब बदल चमार की जड़ी उतर जाती है तब मै समझता हूँ कि मुझे कैसरे हिन्द का तमगा मिल गया ।"" उन पर कुछ लिखने के लिए लोग द्विवेदी जी से उनकी अप-डेट कृतियों के उल्लेखमहित उनकी संक्षिप्त जीवनी माँगते, परन्तु द्विवेदी जी उनके इन पत्रो का उत्तर तक न देने थे । ___मूर्यनारायण ने जब उनकी जीवनी लिखकर संशोधन के लिए उनके पास भेजी तब द्विवेदी जी ने उसमे काटछाट की, कुछ घटाया बढाया भी। कई बातें अपनी प्रशंसा में भी जोडी, यथा “विद्याविषयक वादविवाद में भी द्विवेदी जी की बराबरी शायद ही कोई और हिन्दी लेखक कर सके। हिन्दी पत्रो के पाठक इस बात को भी भली भॉति जानते हैं।" या "द्विवेदी जी हिन्दी संस्कृत दोनो भापात्रो के उत्तम कवि है ।''3 इन बातो को लेकर उन्हें अात्मश्लाघी कहना उचित नहीं । संशोधनरूप मे कलित इन पंक्तियों का कारण प्रात्मप्रशंसा न होकर सच्चे शिक्षक की सुधारक-मनोवृत्ति ही है। द्विवेदी जी शिष्टाचार के पूरे पालक थे । जब कोई उनके पास जाता तो अपनी डिबिया मे दो पान उसे देते और बात चीत समाप्त होने पर फिर दो पान देते जो इस बात का संकेत होता कि अब श्राप जाइये ।४ अपने प्रत्येक अतिथि की शुश्रया वे आत्मविस्मृत होकर करते थे। जुही में जब केशवप्रमाद मिश्र मोकर उठे तो देखा कि द्विवेदी जी स्वयं लोटे का पानी लिए हुए ग्वड़े है । मिश्र जी लजित हो गए। द्विवेदी जी ने उत्तर दिया - वाह ! तुम तो मेरे अतिथि हो।" उनके शिष्टाचार में किसी प्रकार की माथिकता या आडम्बर नहीं था । वे वास्तविक अर्थ में शिष्ट श्राचार के समर्थक थे। किसी की थोडी भी अशिष्टता उन्हें खल जाती थी। एक बार वे कामताप्रसाद गुरु से बातें कर रहे थे। गुरु जी बीच ही में बोल उठे। द्विवेदी जी ने चेतावनी दी---आप से बातचीत करना कठिन है। गुरु जी नतमस्तक हो गए। , 'द्विवेदी-मीमांसा', पृ० २७५ पर उद्ध त । २. दौलतपुर में रक्षित वैद्यनाथ मिश्र विह्वल का पत्र, २५. ४. २६ । ३. द्विवेदी जी के पत्र, बंडल ३ च, काशी नागरी प्रचारिणी सभा का कार्यालय । ४. 'द्विवेदी-मीमांसा', पृ० २३ । ५. 'सरस्वती'. भाग १०, सं० २, पृ० १८६ । , १३३ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दवीदत्त शुक्ल, हरिभाऊ उपाध्याय, माथलीशरण गुप्त, कदारनाथ पाठक, विश्वम्भरनाथ शमा कौशिक, लक्ष्मीधर वाजपेयी आदि ने उनके शिष्टाचार की भूरि-भूरि प्रशंसा की है ।" द्विवेदी जी सम्भाषणकला में भी पद थे। वार्तालाप के समय बीच बीच मे हिन्दी, संस्कृत, उर्दू आदि के सुभाषितों का बडा ही चुनता हुना माविका प्रयोग करते थे ! उनके भावपूर्ण उद्गारो— 'अनुमोदन का अन्त', 'कौटिल्य कुठार', 'सम्पादक की विदाई', द्विवेदी- मेले के समय ग्रात्मनिवेदन आदि में यह शैली सौन्दर्य की सीमा पर पहुँच गई है । उनकी रचनाओं में सर्वत्र ही प्रभावशाली वक्ता का मनोहर स्वर सुनाई पड़ता है । द्विवेदी जी बड़े ही बत्सल और प्रेमी थे। बच्चों के प्रति उनका स्नेह अगाध था | अपना माता जी में इतनी श्रद्धा और उनके दुख सुख का इतना ध्यान रखते थे कि जब पन्द्रह रुपए की नौकरी करते थे तब भी पाँच रुपया मासिक उन्हें भेजा करते थे । उनके पत्नी प्रेम का पवन प्रतीक स्मृति-मन्दिर तो आज भी विद्यमान है । अपनी विधवा सरहज के प्रति उनका स्नेह कम न था । अपने १९०७ ई० के मृत्यु- लेख में उन्हे भी विशिष्ट स्थान दिया था ! वृद्धावस्था में उनके परिवार में भानजा मानजे की वधू, और एक लडकी थी । ये दूर के सम्बन्धी थे परन्तु द्विवेदी जी उन्हें आदर्श पिता की भौति प्यार करते थे । वे पर- दुख-कातर और प्रेमी थे । सम्बन्धियों और मित्रों के बाल-बच्ची, आश्रित जनो और दास-दासियां तक की सहायता और पालना उन्होंने जिस स्नेह और उदारता से की यह सर्वथा 1 राध्य है मित्र या भक्त के लिए उनके मन में संकोच का लेश भी नहीं था । ३ सम्बन्धियों के हम्मरगा मात्र मे ही उनकी श्रग् सजल हो जाती थी। उनके विरोधी भी उनके प्रेमभाव के कायल थे। अपने समीप आने वालो को वे प्रेम से मोह लेते थे । केदारनाथ पाठक की चर्चा ऊपर हो चुकी है। पंडित हरिभाऊ उपाध्याय आदि ने भी द्विवेदी जी के वात्सल्य का मुक्तकंठ से गुग्गान किया है. "सम्पादक, विद्वान्, चाचार्य द्विवेदी को सारा हिन्दीसंसार जानता है । परन्तु महृदय, वत्सल पिता द्विवेदी को कितने लोग जानते होगे ? निश्चय ही सम्पादक द्विवेदी से यह पिता द्विवेदी अधिक महान् था । १४ 1 " १. इस सम्बन्ध में 'हंस' का 'अनि नन्दनांक', 'बालक', का द्विवेदी स्मृतियंक', 'द्विव ेदी अभिनन्दन ग्रन्थ' 'साहित्य-सन्देश' का 'द्विवेदी-शंक' और 'सरस्वती' का 'द्विवेदी 7 स्मृति-अंक' विशेष द्रष्टव्य हैं ! २. काशी नागरी प्रचारिणी सभा के कार्यालय में रचित । ३. राय कृष्णदास को लिखित पत्र, 'सरस्वती', भा० ४५, स० ४, पृ० ४६७ । ● 'सरस्वती' भा० ४० मं- २ पृ० १२८ 1 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ व पद उद्धृत करते हुए उत्थान नाव साहब की तीखी प्रत्यालोचना की।' प्रवक्त वक्तव्य के परिवर्तित रूप में द्विवेदी जी ने एक ग्रन्थ हो लिख डाला – 'कौटिल्य कुठार | १२ विवाद के उपरान्त भी बहुत तद्विवेदी जी ने मना के घेरे में, लोगो के श्राग्रह करने पर भी, पदार्पण नहीं किया । बहुतदिन बीत जाने पर श्यामसुन्दरदास ने पत्र लिखकर क्षमाप्रार्थना की और अपने अपराध का मार्जन कराया । ४ बलवान् समय ने लोगों का मनोमालिन्य दूर कर दिया । जब द्विवेदी जी १९६३१ ई० की जनवरी मे काशी पधारत नागरी प्रचारिणी सभा ने उन्हें अभिनन्दन पत्र दिया। कुछ दिन बाद शिवपूजन सहाय ने प्रस्ताव किया कि द्विवेदी जो की सत्तरी वर्षगाठ के शुभ अवसर पर उनके अभिनन्दनार्थ एक पन्थ प्रकाशित किया जाय। " १. यह प्रत्यालोचना काशी नागरी प्रचारिणी सभा के कलाभवन में रक्षित कतग्नों में देखी जा सकती है । २. काशी नागरी प्रचारिणी सभा के कलाभवन में रक्षित 'कौटिल्यकुठार', का अन्तिम वच्छेद इस प्रकार हैं M "आपने अपने ही मुह मे पने त्रियत्य की घोषणा की है। यह बड़ी खुशी की बात है । इस वर्णाश्रमधर्म-द्दीन युग मे कौन ऐसा अधम होगा, जिसे यह सुनकर श्रानन्द न हो कि आप अपना धर्म समझते हैं । हम ग्राप को क्षत्रियकुलावतंस मानकर रघु, दिलीप, दशरथ, विष्ठिर, हरिश्चन्द्र और कर्ण की याद दिलाते हैं, और बडे ही नम्रभाव से प्रार्थना करते हैं, कि हमारे लेखो में कही गई मूल बातो का रघु की तरह उदारतापूर्वक युधिष्ठिर की तरह धर्ममता पूर्वक और हरिश्चन्द्र की तरह मत्यतापूर्वक विचार करे, और देखें कि ब्राह्मणों के साथ आपने कोई काम ऐसा तो नहीं किया, जो इन क्षत्रिय शिरोमणियों को स्वर्ग में लटके । जिन ब्राह्मणो के लिए क्षत्रियों का यह सिद्धान्त था कि "भारत हू पा परिय तिहारे " उन्हीं ब्राह्मणों को सभा से निकालने की तजवीज़ में ग्राप ने सहायता दी या नहीं ? उन्ही ब्राह्मणो की किताव का मुकाबला करने में आपने दूने मे कुछ ज़ियादह शब्दो को प्रायः तिगुना बताया या नहीं ? ब्राह्मणो की लिखी हुई पुस्तक उन्हीं को न दिखाना थापने न्याय्य समझा या नहीं ? उन्हीं ब्राह्मणों के द्वारा की हुई सभा की मेवापर खाक डालकर आपने उनसे चिट्ठियों तक का महसूल वसूल करके सभा की आम दनी बढ़ाई या नही १. यदि चाप को सचमुच ही पश्चात्ताप हो तो कहिए -- पुनन्तु मा ब्राह्मणपादरेणवः | उस समय यदि श्राप के सारे अपराध सदा के लिए भुला कर क्षमापूर्वक आपका ढालिगन न करें तो आप उस दिन से हमें ब्राह्मण न समझिए । २. राय कृष्णदाम को द्विवेकी जी का पत्र २.१२ १६१०, 'सरस्वती', भाग ४५, सं० ४, पृ० ४६६ ४ द्विवेदी जो के पत्र सं १६३ कशी नागरी प्रचारिणी सभा कार्यावय अथ भूमिका पृ म Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गुन म० १६४८ म समा ने द्विवेदी-अभिनदा मध का प्रकाशन निश्चित करने अपनी गुणग्राहकता और हृदय की विशालता दिखलाई | मामग्री एकत्र की गई इंडियन प्रेम ने ग्रन्थ को निःशुल्क छापकर अपनी मैत्री और उदारता का परिचय दिया । वैशाम्ब, शुक्ल ४, मं० १६६० को अभिनन्दनोत्सव सम्पन्न हुआ । अभिनन्दन के समय कुछ लोगों ने इम बात का भी प्रयत्न क्यिा कि द्विवेदी जी काशी न जाॉ और उत्सव असफल रहे । प्रत्येक विघ्न व्यर्थ सिद्ध हुआ । यही पर यह भी कह देना ममीचीन होगा कि श्यामसुन्दर दाम चाहते थे कि काशी विश्वविद्यालय द्विवेदी जी को डाक्टर की उपाधि दे । उत्सव के समय उन्होंने द्विवेदी जी से कहा कि श्राप अपना भाषण मालवीय जी की वक्तृता के पश्चात पढ़िए । अनुशासन-पालक द्विवेदी जी ने बिगड कर कहा कि यह कार्यक्रम में नहीं है। रामनारायण मिश्र से ज्ञात हुआ कि द्विवेदी जी के वक्तव्य का प्रभाव मालवीय जी पर अच्छा नहीं पड़ा ।' कदाचित् इसीलिए द्विवेदी जी को डाक्टर की उपाधि नहीं मिली। अभिनन्दनोत्सव के समय द्विवेदी जी ने एक बन्द लिफाफा मभा को दिया था और श्रादेश किया था कि यह लिफाफा और पत्रों के कुछ बडल मेरे देहावसान के उपरान्त खोले जायें। सभा ने उनकी प्राजा का पालन किया । द्विवेदी जी का स्वर्गवास होने पर लिफाफा और बंडल खोले गए। लिफाफे में दो सौ रूपाए थे जो हि बेदी जी के निर्देशानुसार मभा के छोटे नौकरो वो पुरस्कार और वेतन के रूप में वितरित कर दिए गए २ द्विवेदी जी के पत्र सभा के कार्यालय मे अाज मी सुरक्षित है । जिस सभा ने द्विवेदी-कृत अालोचनात्रा की निन्दा की थी, मस्ता' का जनना हाकार भी जिसने उमसे अपना सम्बन्ध तोड देने का कठोर अादेश किया था और अपनी पत्रिका में सरस्वती' की कविता की 'मह' कहकर उसकी प्रतिकूल अालोचना की श्री. उमी ममा ने अपने बालोचक. दोपदर्शक महावीर प्रसाद द्विवेदी के अभिनन्दन की प्रायोजना की और उसे सफलतापूर्वक सम्पन्न किया । माहित्य-देवता के एकान्त उपासक की यथोचित अर्चना करके उसने अपने को, द्विवेदी जी और हिन्दी-संसार को धन्य प्रमारित किया । जिम द्विवेदी जी ने एक दिन नागरी प्रचारिणी सभा की खोज रिपोर्ट की भयंकर अालाचना की थी अपनी टेक निभाने के लिये अनुमोदन का अन्त' बर के मभा और 'सरस्वती' का मम्बन्ध विच्छिन्न कर दिया था, सभा द्वारा दी गई चेतावनी, उसके पत्र और कोर मिद्धान्त ५ श्यामसुन्दरदास की 'मेरी कहानी', सरस्वती'. अगरत, १६४१ ई०. पृ० १४६ । २. जैकरों के लिए दातव्य पुरस्कार पर ही द्विवेदी जी ने इतना प्रतिबन्ध लगाया थायह बात नही म चनी Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की छीछालेदर की थी, उसी द्विवदी जी ने नागरी प्रचारिणी सभा को अपनी समस्त साहित्यिक सम्पत्ति का मन्त्रा उत्तराधिकारी समझा, अपना गृहपुस्तकालय, 'सरस्वती' की स्वीकृत अस्वीकृत रचनाओ की हस्तलिखित मूल प्रतिया, समाचारपत्रों की साहित्यिक वादविवाद-सम्बन्धी कतरनें, पत्र यादि बहुत कुछ सामग्री सभा को दान करके अपना और सभा का गौरव बढाया । द्विवेदी जी और समा के सम्बन्ध का इतिहास वस्तुतः द्विवेदी जी और श्यामसुन्दरदास - दो साहित्यिक महारथियां-- के सम्बन्ध की कहानी है जिनके पारस्परिक प्रेमप्रदेश में ही नहीं संग्रामक्षेत्र में भी रस की धारा दृष्टिगत होती है। उनके संघर्ष की धारा सुन्दर प्रतीत होती हुई भी वास्तव में सुन्दर, पावन और कल्याणकारिणी है । उनके विवाद सामयिक थे, उनमे किसी भी प्रकार की नीचता या दुर्भाव नहीं था । इसके अकाट्य प्रमाण है--सभा द्वारा द्विवेदी जी का अभिनन्दन, सभा को दिया गया दिववेदी जी का दान और उससे भी महत्वपूर्ण है इन दोनों का पत्र व्यवहार | अभिनन्दनोत्सव में पठित आत्मनिवेदन को दिववेदी जी ने कई ग्वडी. मं विभाजित किया था । एक खंड का शीर्षक था 'मेरी रसीली पुस्तके' | उसमें उन्होंने अपनी दा प्रकाशित पुस्तकां - 'तम्मणोपदेश' और 'सोहागरात की चर्चा की थी । 'सोहागरात' के विषय में उन्होंने निवेदन किया था- 'ऐसी पुस्तक जिसके प्रत्येक पद मे रस की नदी नही तो बरसाती नाला ज़रूर बह रहा था । नाम भी मैने ऐसा चुना जैसा कि उस समय उस रस के अधिष्ठाता की मी न सूझा था । ... आजकल तो वह नाम वाजारू हो रहा है और अपने अलौकिक आकर्षण के कारण निर्धनों को धनी और धनियों को धनाधीश बना रहा है । अपने बूडे मुँह के भीतर धंसी हुई ज़बान से श्राप के सामने उस नाम का उल्लेख करने हुए मुझे बड़ी लज्जा मालूम होगी, पर पापों का प्रायश्चित्त करने के लिए आप पंचममाजरूपी परमेश्वर के सामने शुद्ध हृदय में उसका निर्देश करना ही पड़ेगा । अच्छा तो उसका नाम था या है -- 'सोहागगत' । १५ द्विवेदी जी की धर्मपत्नी ने उन पुस्तकों को अश्लील समझ कर छपने नहीं दिया । उनकी मृत्यु के उपरान्त भी उन्हें प्रकाशित करने में द्विवेदी जी ने अपना और साहित्य का कलंक समझा---'"मेरी पत्नी ने तो मुझे साहित्य के उस पंकपयोधि में डूबने से बचा लिया आप भी मेरे उस दुष्कृत्य को क्षमा कर दें, तो बडी कृपा हो ।” १ द्विवेदी जी के दान की पूर्ण सूची परिशिष्ट संख्या १ में दी गई है २ काशी नागरी प्रचारिणी सभा क कायालय में रचित पत्र स० ०१६ से १२४ तक Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोहागरात या बहूरानी को मीख क रचयिता कृभाकान्त मालवीय र मित्रा न उन्हे सुझाया कि अपने निवेदन में द्विवेदी जी ने श्राप पर आप किया है । अभिनन्दनोत्सव के ममय द्विवेदी जी ने पं. मदनमोहन मालवीय को बोलने का समय नहीं दिया था। सम्भवतः इस कारण भी कृष्णकान्त मालवीय द्विवेदी जी में असन्तुष्ट थे । उन्होंने ४५ जन १६३३ ई० के 'भारत' में 'मेरी रसीली पुस्तकें लेख लिखा जिसमें द्विवेदी जी की उक्रिया का ग्वंइन किया--... द्विवेदी जी की इन बातों को पढ़कर विद्वानों की दृष्टि में हिन्दी के विद्वानों का मान कम होगा, वे कहेंगे कि ये कहा पड़े हुये हैं । संक्म के माहित्य को ये पाप और पंकपयोधि समझते हैं । द्विवेदी जी इस अवसर पर यह सब वहकर जब कि चारो अोर से विद्वानो की दृष्टि उनकी और फिरी हुई थी, हिन्दी-साहित्यसवियों की हंसी न कराते, उन्हें कपमट्टक न सिद्ध करते तो अच्छा था। हिन्दी वाले जिन्हे प्राचार्य कहकर पूजते हैं, उसके विचार ये है. यह जानकर मंमार व्या कहेगा ?" ___ मालवीयजी का यह आक्षेप अतिरंजित और असंगत था। अपनी 'मोहागरात' के प्रति द्विवेदी जी को किसी भी प्रकार की दृढ़ीभूत धारणा रखने का अधिकार था । और उनकी पुस्तक को देखे या उसके विषय में ज्ञान प्राप्त किए बिना उसको आलोचना करना मालवीय जी की अनधिकार चेष्टा थी । इममे तनिक भी मन्देह नहीं कि यदि उनकी 'माहागरात' प्रकाशित हो जाती तो वे साहित्य के पंकपयोधि मे डूब जाते । यदि मालवीय जी उनकी पुस्तक देख लिए होते तो इस प्रकार की लोचनहीन अालोचना कदापि न करते। द्विवेदीजी ने ईट का जवाब पत्थर मे दिया । २४ २५ जून, ३३ ई० के 'भारत' में उन्हाने 'क्षमाप्रार्थना प्रकाशित की जो श्रायोपान्त व्यंग्योक्तियो और व्यक्तिगत आक्षेपों में व्याप्त थी। 'मोहागरात या बहूरानी की सीख' के नामकरण, उसके लेखक के उद्देश्य आदि की अालोचना तीखी अतएव अप्रिय, किन्तु सत्य थी। बारम्बार क्षमाप्रार्थना करके अपने को मूर्ख और मालवीय जी को विद्वान्, अपने को टकापंथीं और उनको त्यागशील आदि कहकर उन्हे लजित करने का अमोघ प्रयास किया । २.७.३३ई० के 'भारत' में मालगोय जी ने 'क्षमाप्रा. थना का वितंडाबाद, प्रकाशित किया। उस प्रत्युतर में उन्होंने द्विवेदी जी के क्षमाप्रार्थना ढग की उचित आलोचना करके अन्त में निवेदन किया--" मैने जो कुछ लिग्वा उसके लिए मे श्राप से विनीतभाव से क्षमा मागता हूँ। ..'अाशा है आप उदारता से विचार करेंगे और यह भव लिम्वन के लिए मुके क्षमा कर देंगे अब इस सम्बन्ध में मैं कुछ लिखंगा भो नहीं।" द्विवटी जी ने उनकी प्रार्थना मौनमा म स्वाकार कर ली Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ । द्विपदी जी क साहित्य सम्मलन सम्बन्धी पत्र व्यवहार स सिद्व है कि लागा क वारम्बार अाग्रह करने पर भी उहीन सम्मलन का सभापति व स्वीब्त नहा किया १ उनके निवदन को अस्वीकृत करते हुए द्विवेदी जी तारो के पेटेन्ट उत्तर दिया करते थे- अस्वस्थता के कारण म्वीकार करने में असमर्थ है। क्या सम्मेलन के लिए द्विवेदी जी सर्वदा ही अस्वस्थ रहे ? जो व्यक्ति अस्वस्थ रहकर भी असाधारण और घोर परिश्रम द्वारा 'सरस्वती' का इतना सुन्दर सम्पादन कर सकता था, क्या वह सम्मेलन के मभापतित्व के लिए अपना कुछ समय और शक्ति नहीं दे सकता था ? उनका सवास्थ्य ठीक नहीं था, 'सरस्वती' का कार्य ही उनकी पति से अधिक था, आदि कारण यदि निगधार नहीं तो गौण अवश्य धे। उनके पत्र की निम्नाकित रूपरेवा ज्यान देने योग्य है--- ०.."मेरे सिवा किसी अन्य व्यक्ति के अासीन होने में सभापति के श्रासन का यथेष्ट गौरव न होगा-इत्यादि अापकी उक्तियां भ्रमजात नही तो कौतूहलवर्द्धक अवश्य है । यदि मै भूलता नहीं तो कलकत्ते में पहले भी सम्मेलन हो चुका है और उस सम्मेलनका अधिपति कोई और ही था पर न तो कलकत्ते में हिन्दीप्रेमी निराश ही हुए, न हिन्दी साहित्य की लाज ही गई और न बगला के विद्वानो की दृष्टि मे मम्मेलन के सभापति के पद का गौरव त्रम हुश्रा। अपनी इस धारणा के प्रतिकूल मुझे तो किसी का कोई लेख या किसी का कोई वक्तव्य पढ़ने या सुनने को नहीं मिला। मुझे तो सब तरफ से सफलता ही सफलता के समाचार मिले । अतएव श्राप का भय निर्मुल जान पड़ता है । स्वागतकारिणी ममा खुशी सं किमी अन्य व्यक्ति को सभापति वरण करे।। सम्मेलन के सभापति का पद प्राप्त करने के लिए अपने मनोनीत सजना के पक्षपातियों मे, गत वर्ष तक, परस्पर व्यंग्यवचनों की बौछार, अशिष्टाचार, आक्षेप-प्रक्षेप और यदाकदा गाली गलौज तक होता आया है । ईश्वर ने बड़ी कृपा की जो मेरा नैरोग्य नाश करके मुझे ऐमे पद की प्राप्ति के योग्य ही न राना । विनय महावीर प्रसाद द्विवेदी "२ इम पत्र के अन्तिम दो बाक्य विशेष महत्व के है । उनसे स्पष्ट प्रमाणित है कि सम्मेलन १. क. नागरी प्रचारिणी सभा के कलाभवन में रक्षित पत्र-व्यवहार का बंडल ।। ख. द्विवेदी जी के पत्र और अनेक पत्रों की रूप-रेखाएं, , . , संख्या.३४. ३५. ४७, श्रादि, ना० ० सभा कार्यालय काशी। २ द्विमेदी जी के पत्र की रूप रेखा १० २ २१ ई० काशी नागरी प्रचारिसी समा Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * उपयुक्त दूापत वात परण प्रात द्विवद जी 7 मन म अगन्त घृणा थी 7 तम प्रकार र विडम्बना गृण बाजाम जीग्न ग्रार उनकी थुक्क फजीत स दूर रन्पर । एकान्त भाव स माहिन्यसंवा करना चाहते थे । हिन्दी साहित्य-सम्मेलन का तेरहवा अधिवेशन कानपुर में होने वाला था। द्विवेदी जी सार्वजनिक भीड़भक्कड़ और सभा-ममाजी से विरत जीव थे । उन्हें साहित्य-सम्मेलन के जनमम्मट मे रवीच लाना महज न था । स्वागतकारिणी समिति का अध्यक्ष बनाने के विचार से लक्ष्मीधर बाजपेयी आदि उन्हें मनाने गए । यद्यपि 'पार्यमित्र' के सम्पादक बाजपेयीजी ने आर्यसमाज की ओर से द्विवेदी जी के विरुद्ध बहुत कुछ लिया और छापा था तथापि उदारहृदय द्विवेदी जी ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। उन लोगों के विशेष अाग्रह पर किसी प्रकार अनुमति दे दी। ३० मार्च, १६३३ ई. को उन्होंने स्वागताध्यक्ष-पद मे अपना भाषण पढा । शैली की दृष्टि ने उनका यह भाषण उनकी समस्त रचनाओं में अपना निजी स्थान रखता है जिसके समकक्ष उनका कोई अन्य लेग्य या भाषण नहीं या मका है । उनकी भाषा और शेली का श्रादर्श इसी में है। श्रारम्भ में उपचार और कानपुर की स्थिति के सम्बन्ध मे कुछ शब्द कहने के अनन्तर उन्होन हिन्दी भाषा और साहित्य की मी प्रधान यावश्यक्ताश्रो और उनकी पूर्ति के उपायो की अोर हिन्दी-जान वा व्यान आकृष्ट किया । माहित्य-सम्मेलन के सदस्या में बहुत दिनों में द्विवेदी जी का अभिन्दन करने की चर्चा चल रही थी । श्रीनाथ मिह ने प्रस्ताव किया कि प्रयाग में एक माहित्यिक मेले का आयोजन करके उसमे द्विवदीजी का अभिनन्दन किया जाय । श्री चन्द्र शम्बर और कन्हैयालाल जी ऐडबोट ने उनका समर्थन किया। मन् १९३२ ई० की ४ मितम्बर की बैठक में गोपाल शरण सिंह, कन्हैयालाल धीरेन्द्र वर्मा, रामप्रसाद त्रिपाठी आदि ने मेले का निश्चय किया। द्विवेदी जो ने अपनी गाय मेले के विरुद्ध टी।' इसका समाचार मुनकर उन्हे कष्ट भी हुआ । इस मले को उन्होंने अपना उपहाम समझा और रोकने की श्राजा दी १७ बहुत वादविवाद और १. 'सरस्वती', भाग ४०, संख्या २, पृष्ट १५० । २. "भारत', ११८.३२ ई० । ३. साताहिक 'प्रताप', २८. ८. ३२ ई. और 'लीडर', ८, ६. ३० ई.. । ४. 'प्रताप', ६ ६. ३२ ई० । ५ दौलतपुर में रक्षित देवीदन शुक्र का पत्र, २०. १०. ३२ ई० । ६, दौलतपुर में रक्षित श्रीनाथ सिंह का पत्र, २८. १०. ३२ ई० । • दौलतपुर में रचित क यालाल का पत्र ३०१० ३२ इ. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिग्बा-पढी के पश्चात उन्हाने अपनी मम्मति दे दी। ४.५.६. मई, १६३३ ई० को मेले का उत्सव मनाया गया १५० मदनमोहन मालवीय ने उदघाटन और डा. गगानाथ झा ने सभापतिन्व किया । सी० वाइ० चिन्तामणि, जस्टिस उमाशकर बाजपेयी श्रादि महान व्यक्ति भी मंच पर विराजमान थे । अपने भाषण में डा. झा ने द्विवेदी जी को अवरुद्व कंठ में अपना गुरु स्वीकार किया और उनका चरण-स्पर्श करने के लिए मुक पडे । द्विवेदी जी झट कुर्मी छोडकर अलग जा बड़े हुए। समस्त जनता इस दृश्य को मत्रमुग्ध की भाँति देग्वती रही । आवेग शान्त होने पर द्विवेदी जी ने कहा"भाइयो, जिस ममय डाक्टर गंगानाथ झा मेरी अोर बढे, मैने मोचा, यदि पृथ्वी फट जाती और मै उसमें ममा जाता तो अच्छा होता !"२ पश्चिमीय देशो के लिए यह मेला कोई नूतन वस्तु भले ही न हो परन्तु हिन्दी-संसार के लिए तो यह निराला दृश्य था । हिन्दी-प्रेमियो ने तो इस मेले का आयोजन किया था अपने माहित्य के अनन्य पुजारी द्विवेदी जी की पूजा करने के लिए परन्तु अपने वक्तव्य में द्विवेदी जी ने इसका कुछ और ही कारण बतलाया--- "अाप ने कहा होगा-बूढ़ा है, कुलद्रुम हे, अाधि-व्याधियों में व्यथित है, नि.नहाय है, सुतदार और बन्धु-बान्धवा मे रहित होने के कारण निगश्रय है ! लायो, इन अपना आश्रित बना ले । अपने प्रेम, अपनी दया और अपनी सहानुभूति के सूचक इस मेले के माथ इसके नाम का योग करके इस कुछ मान्त्वना दने का प्रयत्न करे, जिसमें इसे मालूम होने लगे कि मेरी भी हितचिन्तना करने वाले और शान्तिदान का सन्देश सुनाने वाले सजन मौजूद है'। द्विवेदी जी अपनी शालीनता और मृजुता की रक्षा के लिए चाहे जो कुछ कडे, द्विवेदी-मले के प्रबन्धको ने इस अभूतपूर्व याजना द्वारा अपने माहिल-प्रेम का परिचय देकर हिन्दी का मस्तक ऊंचा किया। कवि- सम्मेलन के अवमर पर 'कुछ छिछोरे छोकरी'४ के विश्न करने पर भी मेले की मफलता में कोई अन्तर नहीं पडा । द्विवेदी जी के आदेशानुमार मातृभाषा की महत्ता' विषय पर एक निबन्ध प्रतियोगिता की गई और उनका प्रदत्त ना कपए का पुरस्कार : मई, ३४ इ० को सैयद अमीर अली मीर को प्रदान किया गया ।" १. क. दौलतपुर में रक्षित कन्हैयालाल का पत्र ६.११. ३२ ई० । ___ ख मेले के समय द्विवेदी जी का भाषण, पृष्ट । २ 'सरस्वती'. भाग ४०, मंग्या २, पृष्ट १६४ ।। ३. मेले के अवसर पर द्विवेदी जी का भाषण, पृ. ६ । ४ भारत ५ ६ ३३ ई. ५ भारत १६ १ ३४० Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने शिमला अधिवशन म हिन्दी साहित्य ने द्विग्दी जी का साहित्य बाचस्पति' की उपाधि दी।' पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी की माहित्यिक कृतिया अधोलिखत है--- पछः अनूदित १. विनय-विनोद-रचनाकाल १८८८ ई०, भतृहरि के वैराग्यशतक' का दोहा में अनुवाद । २. विहार-वाटिका-१८६० ई०, संस्कृत वृत्ती मे जयदेव के 'गीतगोविन्द का मंक्षिप्त भावानुवाद । ३. स्नेहमाला-१८६० ई०, भतृहरि के शृंगारशतक' का दोहो में अनुवाद । ४. श्रीमहिम्नस्तोत्र-१८८५ ई० मे अनूदित किन्तु १८६५ ई० मे प्रकाशित, संस्कृत के महिम्नस्तोत्रम् का संस्कृत वृत्ती में मटीक हिन्दी अनुवाद । ५ गंगालहरी-१८६१ ई०, पंडितराज जगन्नाथ की 'गंगालहरी' का सबैयो में अनुवाद । ६. ऋतुतरंगिणी-२८६ ई०, कालिदास के 'ऋतुमहार' की छाया लेकर 'देवनागरी छन्दो मे पडऋतु वर्णन' । उपयुक्त कृतियों की द्विवेदी-लिखित भूमिकाओं से सिद्ध है कि उन्होंने मूल संस्कृत रचनाओ की काव्यमाधुरी का श्रास्वाद कराने और हिन्दी मे सस्कृत वृत्तों का प्रचार वराने के लिए ही ये अनुवाद प्रस्तुत किए। ७. सोहागरात--(अप्रकाशित) १६०० ई०, अंग्रेज कवि बाइरन के "ब्राइडल नाइट' का छायानुवाद । ८ कुमारसम्भवसार--- ६.०२ ई०, कालिदाम के 'कुमारसम्भवम्' के प्रथम पाच सगर्गों का पद्यात्मक साराश । ग्वडीबोली पद्य में कालिदाम के भावों की व्यंजना का अादर्श उपस्थित करने के लिए ही द्विवेदी जी ने इस अनुवाद पुस्तक की रचना की थी। मौलिक १ देवी-स्तुति-शतक-१८६२ ई०, गणात्मक छन्दो मे चंडी की स्तुति । २. कान्यकुब्जलीव्रतम् - १८६८ ई०, कान्यकुञ्ज-समाज पर तीखा व्यंग्य । ३ समाचारपत्रसम्पादकस्तवः-- १८६८ ई०, सम्पादकों पर आक्षेप । ४ नागरी-१६०० ई०, नागरी-विषयक चार कविताओं का संग्रह । १ साहित्य सम्मेलन का पत्र मिती सौर १ ५ १९१५ दौलतपुर में रक्षित Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ का यमनूषा १०३ ई० १८६७ ४० मे १६०२ इ. तक रचित मस्कत और हिन्दी की मौलिक फुटकल कविताश्रा का सम्रह । ६. कान्यकुब्ज-अबला-विलाप-१६०७ ई०, कान्यकुन्ज-ममाज की विवाह-मम्बन्धी कुप्रथाओं पर आक्षेप । ७. सुमन-~-१६२३ ई०, 'काव्यमंजूपा' का भंशोधित मंस्करण । ८. द्विवेदी-काव्यमाला--१६४० ई०, द्विवेदी जी को उपयुक्त रचनाओं और प्रायः अन्य ममस्त कविताओं का संग्रह । ____ कविता-कलाप-~~६०६ ई०, द्विवेदी जी द्वारा मम्पादित, महावीर प्रसाद द्विवेदी, राय देवी प्रसाद पूर्ण नाथुराम 'शंकर', कामता प्रसाद गुरु और मैथिली शरण गुप्त की कविताओं का प्रायः मचित्र मंग्रह । गद्य अनूदित १ भामिनी-बिलाम--- १८६१ ई०. संस्कृत-कवि पंडितराज जगन्नाथ की संस्कृत पुस्तक 'भामिनी-विलास' का समूल अनुवाद । यह द्विवेदी जी की प्रारंभिक गद्यभाषा का एक सुन्दर उदाहरण हैं | २ अमृत-लहरी--- १८६६ ई०, उक्त पंडितगज के 'यमुनास्तोत्र' का समूल भावानुवाद । 'भामिनी-बिलाम 'और' अमृत-लहरी' की भूमिकाओं में स्पष्ट है कि द्विवेदी जी ने केवल हिन्दी जानने वालो को मूल संस्कृत रचनाओ की सरम वाणी की अानन्दानुभूति कगने के लिए ही ये अनुवाद किए। सौन्दर्य की दृष्टि में इन कृतियों का क्राई महत्त्व नहीं है किनु द्विवेदी जी की भाषा के विकास का अध्ययन करने में ये विशप उपयोगी है । आज व्याकरण की दृष्टि मे अमंगत कही जाने वाली तत्कालीन अनेक व्यापक प्रवृत्तियों का इन रचनाश्री में दर्शन होता है। ३- बेकन-विचार-रत्नावली-१८६ ई. में लिखित श्रार १६०१ ई० में प्रकाशित, अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेग्वक बेकन के निबन्धो का अनुवाद । बेकन के ५६ न्बिन्धों में से २३ को द्विवी जी ने यह कह कर छोड़ दिया है कि उनका विषय वस्तुतः ऐसा है जो एतद्देशीय जनो को तादृश रोचक नहीं है। उनका यह कथन युक्तियुक्त नहा है | OF Ambition, Of Fame' आदि निबन्ध पर्याप्त मुंदर तथा उपयोगी हैं । और अनूदित हाने चाहिएँ ५ । पाटटिप्पणी में दिए गए ऐतिहासिक नामों के संक्षिप्त विवरण और एस्तकान्त म व्यक्तिवाचक नामा की सूची ने अनवाद की उपयोगिता का और मी बता Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिया है वकन के नियधा और सम्कृत के सुभाषित श्लोका का एकवाक्यता दिखलान लिए प्रत्येक निबन्ध के शीर्ष पर एक या दो श्लोक भी उद्धत किए गए है । इन श्लोको निबन्धो की भाति विचारात्मक मामग्री नहीं है, ये विचारों के निष्कर्ष मात्र हैं | ४ शिक्षा---१६०६ ई०, प्रसिद्ध तत्ववेत्ता हर्बर्ट स्पेसर की 'एज्यूकंशन' नामक पुस्तक क अनुबाद । उस समय ममूचे देश में शिक्षा की दुर्दशा यी । मगठी, बंगला श्रानि में तो इस विषय पर ग्रन्थरचना हो रही थी किन्तु हिन्दी इससे वंचित थी । मौलिक रचनात्र की प्रतीक्षा न करके द्विवेदी जी ने अनुवाद के द्वारा ही इत अभाव की पृतिका प्रथाम किया। इस ग्रन्थ में बुद्धि, शरीर और चरित्र की ममंजम शिक्षा की विस्तृत विवेचना की गई है । ठीक ठीक अर्थग्रहण कराने के लिए, अनुवादक द्विवेदी ने व्याख्या के बीच मे ही व्यक्तिवाचक नामो का कुछ परिचय भी दे दिया है । उन्होंने जिन नामो को परिवर्तनीय ममझा हैं उनके स्थान पर हिन्दी-भापियों के परिचित भारतीय नामों का प्रयोग किया है। अपने विचारों को पुष्टि और प्रामाविक अभिन्यक्ति करने के लिए आवश्यकतानुसार अपने यहा के प्राचीन तथा अर्वाचीन उदाहरणों की योजना की है । मूल लेख के गृढ भाचा को उन्होने 'अर्थात' श्रादि के प्रयोगो द्वारा सविस्तार ममझाने की चेष्टा की है। पारिभापिक कठिन शब्दों को या तो निकाल दिया है या अावश्यकतानुसार उम अबनछेद के अाशय को मनमानी शब्दो द्वारा व्यक्त किया है। ५ स्वाधीनता-~-१६०७ ई० जॉन स्टुअर्ट मिल के 'ग्रॉन लिबटी' निबन्ध का अनुवाद ___ इस ग्रन्थ में प्रस्तावना और मूल लेन्वक्र की जोवनी के पश्चात् विचार और विवेचना की स्वाधीनता. व्यक्तिविशेषता, व्यक्ति पर समाज के अधिकार की मीमा और इनके प्रयोग की समीक्षा है । मिल के दीर्घ जटिल और क्लिष्ट वाक्यों के स्थान पर द्विवेदी जी के वाक्य छोटे, सरल और सुबोध हैं । इस भावानुवाद की भाषा उर्दू मिश्रित - हिन्दी और शैली वक्तृतात्मक तथा 'अर्थात' श्रादि प्रयोगों में व्याप्त है। ६ जल चिकित्मा-~-१६०७ ई०, जर्मन लेखक लुई कोने . की जर्मन पुस्तक के अंगरेजो अनुवाद का अनुवाद । ७ हिन्दो-महाभारत----१६०८ ई., संस्कृत-'महाभारत' की कथा का हिन्दी रूपान्तर । ८. रघुवंश-१९१२ ई०, कालिदास के रघुवंश' महाकाव्य का हिन्दी गद्य में भावार्थबोधक अनुवाद , वेणी-संहार----१६१३ ई०, संस्कृत-कवि भट्टनारायण के 'वेणीसंहार' नाटक का श्राख्या यिका के रूप में अनुवाद । ० कुमार-सम्भव J१९५० कालिंदाम के मार-मम्म' का अनवाद Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L - १ ] ११ मेघदूत १११७ ई० कालिदाम में मेघतम् का गया मक अनुवाद १२. किरातार्जुनीय --- १६१७ ई०, भारवि के 'किरातार्जुनीयम' का गद्यानुवाद | उपर्युक्त उत्तम और लोकप्रिय काव्यों के गद्यानुवाद का उद्देश या तिलिस्मी, जासूमी और ऐयारी ग्रादि उपन्यासों के कुप्रभाव को रोकना और आख्यायिका-रूप मे सुन्दर पठनीय सामग्री देकर हिन्दी पाठकों की पतनोन्मुख रुचि का परिष्कार करना । ये अनुवाद ग्रसंस्कृतज हिन्दी पाठको को कान्निदास भारवि भट्टनारायण आदि महाकवियों की रचना, विचारपरम्परा और वर्णनवैचित्र्य के साथ ही साथ भारत की प्राचीन सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक व्यवस्था में भी परिचित करते हैं । ये मनोरंजक भी हैं और ज्ञानप्रद भी । इनकी ऐतिहासिक एव साहित्यिक विशिष्टता तथा महत्ता का ज्ञान तुलनात्मक समीक्षा द्वारा ही हो सकता है । जिम समय द्विवेदी जी ने 'रघुवंश' का अनुवाद किया था उस समय हिन्दी में उसके चार अनुवाद विद्यमान थे । लाला सीता राम तथा पडित सरयू प्रसाद मिश्र के पद्यबद्ध और राजा लक्ष्मण सिंह एवं पंडित ज्वाला प्रसाद मिश्र के गद्यात्मक | ये अनुवाद भाषा और भाव सभी दृष्टियों में होन थे ।' किरातार्जुनीय का भाषान्तर करते समय द्विवेदी जी ने श्रीनारायण चितले एण्ड कम्पनी के मराठी, बाबू नवीन चन्द्र दास के बंगला, मेहरा हरिलाल नरमिह राम व्यास के गुजराती और श्री गुरुनाथ विद्यानिधि भट्टाचार्य के बंगला१ उदाहरणार्थ कालिदास का मूल श्लोक था- - तौ स्नातकर्बन्धुमताच राजा पुरन्त्रिभिश्च क्रमश: प्रयुक्तम | कन्याकुमारौ कनकासनस्थावार्द्राक्षतारोपणमन्वभूताम् 'घुवंश', ७, २८ । राजा लक्ष्मणमिह ने अनुवाद किया- सोने के आसन पर बैठे हुए इन दूल्हा-दुलहिन ने स्नातकों का और बान्धवां सहित राजा का और पतिपुत्रालियों का बारी बारी से थाले धान बोना देखा । ज्वालाप्रसाद ने अनुवाद किया सोने के सिहासन पर बैठे हुए, वह बर और बधू स्नातकों और कुटुम्बियों सहित राजा का तथा पति और पुत्र वालियों का क्रम क्रम से गीले धान बोना देखते हुए । द्विवेदी जी का अनुवाद - इसके अनन्तर मोने के सिहासन पर बैठे हुए वर और वधू के सिर पर रोचनारंजित र्गले अक्षत ले गए पहले स्नातक गृहस्थ नेताले फिर बन्धुबान्धव सहित रात्र ने फिर पतिपुत्रवती परासिनी स्त्रिया न Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी का लाकन किया था इस हिदी अनुनाद की भी दशा अत्यन्त शोपनीय १ द्विवेदी जी के इन अनुवादा की मापा प्राजल और वोधगम्य, शब्दस्थापना गौण तथा भाव ही प्रधान है। भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए शब्दों के छोड़ने और जोड़ने मे उन्होने स्वच्छन्दता में काम लिया है। ग्रावालवृद्धवनिता सबके पठनयोग्य बनाने के लिए विशेष शृंगारिक स्थलों का या तो परित्याग कर दिया है या परिवर्तित रूप में प्रकारान्तर में उल्लेख किया है । विशिष्ट संस्कृत- पदावली के कारण चमत्कारपूर्ण श्लोकों के अनुवाद में मूल की सरसता की रक्षा नहीं हो सकी है। भावान्तर के इस असम्भव कार्य के लिए अनुवादक तनिक भी दोपी नहीं है। एकाध स्थलों पर द्विवेदी जी द्वारा किया गया ग्रर्थ सुन्दर नहीं जचता । फिर भी, इसके कारण, उनके अनुवादों की महत्ता और उपयोगिता में १. यथा- गांगण शेपराधि के विवरण स्थान में प्रत्यावर्तन करने वेग से भूपथ दौड नहीं सकती थीं २. यथा - 'प्रियानितम्वोचितसन्निवेशे:' (वंश, ६, ७), दुर्योधन और मानुमती का विलास (बेणीमहार, अंक २) आदि छोड़ दिए गए है । ३ यथा - ननोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना ननु । तुन्नो नुन्नो ननुन्नेनो नान्नो सुन्नमुन्नत ॥ daaifafa araढे वाहिकान्ववकाहि वा । काकारे समरे काका निस्वभव्यव्यमस्वनि ॥ विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा विकाशमीयुर्जगतीशमार्जयाः । विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणाः || ***** ४. यथा -- कालिदास की मूल पंक्ति थी- हरिचक्रेण तेनास्य कंठे निष्कमिवार्पितम् । १५, १८ । ३५. २५ । १५, ५२ । कु० म०, मर्ग २ | द्विवेदी जी ने अर्थ किया- "कंठ काट देना तो दूर रहा वह चक्र वहाँ पर वैसे ही कुछ देर चिपका रहा और तारक के कंठ का श्राप बन गया ।" सुर्दशन का तारक के कंठ में चिपक कर निष्क (कंठहार) की भाँति श्रभूप बनना सर्वथा असंभव और असंगत जंचता है । इसमें कोई मौदर्य नहीं है। उपयुक्त पक्ति का अर्थ इस प्रकार होना चाहिए तारक के कंठ को काटने में श्रममर्थ चक्रसुर्दशन उसके कंठ के चारों और टकराता रहा। इस टक्कर से उत्पन्न चिनगारियों ने तारक के कंठ से चमकता हुआ हर सा पहना दिया | कालिदास के मीम व कसे करते हुए माघ ने लिखा Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई अतर नही पडता १३ प्राचीन पडित और कपि १६१८ इ०, अन्य भाषानो के लेखा र आधार पर भवभूति अादि प्राचीन कवियों और पंडितो का परिचय । १४. आख्यायिका-मातक.--.-१६२७ ई०, अन्य भाषाओं की आख्यायिकानों की छाया लेकर - लिग्नित मात अाख्यायिकानों का संग्रह । मौलिक १. तरुणोपदेश-१८६४ ई० अप्रकाशित और दौलतपुर में रक्षित कामशास्त्र पर उपदेशात्मक . ग्रन्य। २. हिन्दी शिक्षावली तृतीय भाग की ममालोचना--१८६६ ई० । ३ नैपधचरित चर्चा--१६०० ई०, श्रीपलिग्वित 'नेषधीयचरितम्' नामक मंस्कृत-काव्य की परिचयात्मक अालोचना। ४ हिन्दी कालिदास की समालोचना-१६०१ ई०, लाला सीतारामकृत 'कुमारसम्भव भाषा, 'मेघदूत भापा' और 'रघुवश भाषा' की तीन्दी समालोचना। ५ वैज्ञानिक कोप--१६०१ ई० । - ६. नाट्यशास्त्र--१६०३ ई. में लिखित किन्तु १६१० ई० में प्रकाशित पुस्तिका । ७. विक्रमाकदेवचरितचर्चा--१६०७ ई०, संस्कृत-कवि बिल्हण के 'विक्रमाकदेवचरितम्' की परिचयात्मक आलोचना । ८. हिन्दी भाषा की उत्पत्ति--१६०७ ई० । ६. सम्पत्तिशास्त्र----१६०७ ई० । इस ग्रन्थ में द्विवेदी जी ने सम्पत्ति के स्वरूप, वृद्धि, विनिमय, वितरण और उपयोग एवं व्यावमायिक बातो, सास्त्र, बेंकिग, बीमा, व्यापार, कर तथा देशान्तरगमन की विस्तृत व्याख्या और समीक्षा की है । अंग्रेजी, मराठी, बंगला, गुजराती और उर्दू के अनेक ग्रन्थो से सहायता लेने पर भी उन्होंने मौलिक ढंग से विषयविवेचन किया है। अतिविस्तार, क्लिष्टता और जटिलता के भय से उन्होने सम्पत्तिशास्त्र-जातायो के वादविवाद की ममीक्षा नहीं की है और पश्चिमीय सिद्धान्तो को वहीं तक माना है जहाँ तक उन्हें भारतकेलिए लामदायक समझा है। अाज भी, हिन्दी-माहित्य के इतना आगे बढ़ जाने पर भी, द्विवेदी जी का 'सम्पत्तिशास्त्र' पूर्ववत् उपादेय और पठनीय है.। पदच्छिलानिष्ठुर, विकीम्लोलाग्निकणं सुरद्विष । जगत्पमोरप न चक्र शिशुपालवध' मग १ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ८४ । १०. कौटिल्य-कुठार--१६०७ ई०, अप्रकाशित और काशी नागरी प्रचारिणी सभा के कलाभवन मे रक्षित ।। ११. कालिदास की निरंकुशता--१६११ ई० मे पुस्तकाकार प्रकाशित । १२. हिन्दी की पहली किताब-- १६११ ई० ] १३. लोअर प्राइमरी रीडर बालोपयोगी नथा १४. अपर प्राइमरी रीडर स्कूली रीडरें १५. शिक्षा-सरोज १६ बालबोध या वर्णबोध १७ जिला कानपुर का भूगोल १८, अवध के किसानो की बरबादी। २६ वनिता-विलास--१६१८ ई०. सरस्वती' में मभय ममय पर प्रकाशित विदेशी और ___भारतीय नारियो के जीवन-चरितों का संग्रह । २०. प्रौद्योगिकी- १६२० ई०, 'सरस्वती' में प्रकाशित लेखो का मंग्रह । २१, रसज्ञरंजन-१६२० ई०, 'सरस्वती' में प्रकाशित साहित्यिक लेग्वा का संग्रह । इम संग्रह का दूसरा लेख श्रीयुत विद्यानाथ (कामता प्रमाद गुरु) का है । २२. कालिदास और उनकी कविता--१६२० ई०, सरस्वती' में प्रकाशित लेखों का अंग्रह । २३ सुकवि-संकीर्तन--१६२२ ई०, 'मरस्वती' में प्रकाशित करियो और विद्वानों के जीवन चरित। २४. तेरहव हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन (कानपुर अधिवेशन) के स्वागताध्यक्ष पद से भाषण, १६२३ ई.। २५ अतीत-स्मृति-१६२३.२४ ई०, 'सरस्वती' में प्रकाशित लेखों का संग्रह । २६ साहित्य-सन्दर्भ- १६२४ ई०, 'सरस्वती' में प्रकाशित लेखा का मंग्रह । २५. अद्भुत-बालाप- ,, ,, २८ महिला-मोद--१६२५ ई०, स्त्रियोपयोगी लेखो का संग्रह । २६. श्राव्यात्मिकी-- १६२६ ई०, 'सरस्वती' में प्रकाशित लेखो का संग्रह । ३०. वैचित्र्य-चित्रण-- " " ३१. साहित्यालाप-- " " " ३२ विज्ञ-विनोद--- ३३ कोविद-कीर्तन---१६२७ ई०, 'सरस्वती' में प्रकाशित विद्वानो के संक्षिप्त जीवन-चरितों का संग्रह। - . ३४ विदेशी विद्वान् १९२७ई सरस्वती' में प्रकाशित विद्वानों के संक्षिप्त जीवन चरिता Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का सग्रह ३५. प्राचीन-चिन्ह---'सरस्वती' म प्रकाशित लेखा का मग्रह । ३६. चरित-चर्या--१६२७ ई० 'सरस्वती' में प्रकाशित जीवनचरिता का मंग्रह । ३७. पुरावृत्त- ,, , . , लेम्वा लेग्वा " 3८ दृश्य-दर्शन-१६२८ ई० ., ३६. अालोचनाजलि-- , , , , ४०. ममालोचनासमुच्चय-. . लेग्वाजलि- ., ४२. चरित-चित्रण-१६२६ ई. जीवनचरिता ४३. पुगतन्त्र प्रमंग- लेम्बो , ४४. माहित्य-मीकर- ,, १५. विज्ञानबार्ता-१६३० ई० , , , ४६. वाग्विलाम-१६.३० ई०, 'मरस्वती' में प्रकाशित लेखो का संग्रह। ४७. सकलन-१९३१ ई., 'सरस्वती' में प्रकाशित लेग्वा का संग्रह । ४८ विचार-विमर्श-१६३१ ई०, 'सरस्वती' में प्रकाशित लेखो और टिप्पणियों का संग्रह । ४६ आत्म-निवेदन-१६३३ ई०, काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा किए गए अभिनन्दन के अवसर पर। ५. भाषण-१६३३ ई०, प्रयाग में आयोजित द्विवेदी मेले के अवसर पर । कुल रचनाएँ-८११ १ द्विवेदी जी की रचनायो की सूची प्रस्तुत करने में निम्नाकित सूचियों का विशेष ध्यान रखा गया है-- 'हंस' के 'द्विवेदी-अभिनन्दनाक' में शिव पूजन सहाय ने द्विवेदी जी की रचानानो की एक सूची प्रस्तुत की है। उसमे उन्होने लिखा है कि मैंने अपनी और यजदत्त शुक्ल बी० ए० की सूची मिलाकर द्विवेदी जी के पास भेजी थी और उसमें द्विवेदी जी ने यत्र तत्र संशोधन भी किया । शिव पूजन सहाय का एतत्सम्बन्धी पत्र (२७. ३. ३३ ई.) दौलत-पुर में रक्षित है वह संशोधित मूची 'हंस' के उपयुक्त अंक में इस प्रकार दी गई है-- १. देवी-स्तुति महिम्न-स्तोत्र ५ स्नेह-माला ७ कान्य मजूषा २. विनव-विनोद ४ गगा लहरी ६ विहार-बाटिका ८ कमार-मम्भर-मार Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ कविता-कलाप (संपादित) १०. मुमन (काव्य-मंजूषा का संशोधित संस्करण) ११ अमृत-लहरी----यमुना लहरी का अनुवाद । गद्य १ भामिनी-बिलाम २. बेकन-विचार रत्नावाली ३. हिन्दी कालिदास की नमालोचना ४. हिन्दी शिक्षावली तृतीय भाग की समालोचना ५. अतीत-स्मृति ६. स्वाधीनता ७. शिक्षा ८. सम्पत्तिशास्त्र ६. नाट्यशास्त्र १० हिन्दी भाषा की उत्पत्ति ११. हिन्दी-महाभारत १२. रघुवश '१३. मेघदूत १४. कुमारसंभव १५. किरातार्जुनीय १६. नैपधचरित चर्चा १७. विक्रमाकदेवचरितचर्चा १८. कालिदाम की निरंकुशता १६. अालोचनाजलि २०. आख्यायिका-मप्तक २६. कोविद-कीर्तन २२ विदेशी-विद्वान २३. जलचिकित्सा २४. प्राचीन-चिन्ह २५. चरित-चर्या २६. पुगवृत्त २७. लोअर प्राइमारी रीडर २८ अपर प्राइमरी रीडर • २६. शिक्षा-सरोज रीडर ५ भाग ३०. बालबोध.या वर्णबोध प्राइमर ३१. जिला कानपुर का भूगोल ३२ प्राध्यात्मिकी ३३. औद्योगिकी ३४. रसज्ञरजन ३५. कालिदास ३६. वैचित्र्य-चित्रण ३७. विज्ञान-वार्ता ३८. चरितचित्रण ३. विज्ञ-विनोद ४०. समालोचना-समुच्चय ४१ वाग्विलास ४२. माहित्य-सन्दर्भ ४३ वनिता-विलाम ४४ महिला-माद ४५ अद्भुत-बालाप ४६. सुकवि-संकीर्तन ४६. प्राचीन पंडित और कवि ४८. मंकलन ४६. विचार विमर्श ५०. पुरातव-प्रमंग ५१ साहित्यालाप ५. लेम्वाजलि Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.३ ए ५५. श्रवध के किसानों की बरबादी ५७ अभिनन्दन के समय आत्मनिवेदन इस सूची में द्विवेदी जी की सभी ५४ दृश्य-शन ५६. कानपुर के साहित्य सम्मेलन में स्वागताध्यक्षपद मे भाषण प्रकाशित तथा अनेक प्रकाशित रचनाएं छोड दी गई हैं । इसकी प्रामाणिकता इस बात में है कि इसमें परिगणित सभी कृतिया द्विवेदी जी की } ही L ८७ 1 दूसरी तोच सूचो प्रेम नारायण टडन - कृत 'द्विवेदी - मीमामा ' की है. १ विनय-विनोद २ विहार-वाटिका 6 ३ स्नेहमाला ५. गंगा-लहरी ७ महिम्नस्तोत्र ६ काव्य-मंत्र्या ११ सुमन १३ बेकन - विचार - रत्नावली १५ पधचरितचर्चा १७ हिन्दी शिक्षावन्नी तृतीय भाग की समालोचना १८ वैज्ञानिक कोप २० जलन्त्रिकित्सा २२ स्वाधीनता २४ हिन्दी भाषा की उत्पत्ति २६ सपतिशास्त्र २८ वंश ३० मेघदूत ३२ श्रालीचनाज लि २४ कोविद - कीर्तन ३६ प्राचीन - चिन्ह पुरावृत्त ८० अपर प्राइमरी - वो वो आयामिकी ४ ऋतु-तरंगिणी ६ देवी स्तुति - शतक कुमारसम्भव-मार १० कविता-कलाप १२ अमृत लहरी १४ मामिनी- विलाम १६ हिन्दी कालिदास की समालोचना १६ नाट्यशास्त्र २० शिक्षा २३ विक्रमांकदेवचरितचर्चा २५ हिन्दी महाभारत २७ कालिदास की निरंकुशता २६ कुमारसंभव ३१ किरातार्जुनीय ३३ व्याख्यायिका सातक ३५ विदेशी विद्वान् ३७ चग्नि-चर्या ३६ लोथर प्राइमरी रीडर ४१ शिक्षा-मगेज ४३ जिला कानपुर का भूगोल ८५ श्रयोगिनी Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ८८ } नीन अप्रकाशत पुस्तकें १. तन्णोपदेश. हिन्दी मे अभी तक कोई ऐसी पुस्तक नही लिखी गई थी जो तरुणों को स्वास्थ्य, संयम और ब्रह्मचर्यपालन का मार्ग दिखाकर उन्हें अनिष्ट कृत्यों से बचा सके । १८६४ ई० मे 'तरुणोपदेश' की रचना करके द्विवेदी जी ने इम अभाव की सुन्दर पृति की । परन्तु 'रसीली' और 'अश्लील' समझी जाने के कारण यह पुस्तक छपी नहीं । २१० पृष्ठो की हस्तलिग्वित पुस्तक ४ अधिकरणों में विभाजित है । सामान्याधिकरण के ७ परिच्छेदो में तारुण्य, पुरुषों में क्या क्या स्त्रियों को प्रिय होता है, विवाहकाल, दाम्पत्यसंगम, इच्छानुकुल पुत्र अथवा कन्योत्पादन, अपत्यप्रतिबन्ध और सन्तान न होने के कारण, वीर्याधिकरण के तीन परिच्छेदा में वीर्यवर्णन, ब्रह्मचर्य की हानियाँ और अतिप्रमंग की हानिया, अनिष्ट विदाधिकरण के चार परिच्छेदो म निषिद्ध मेंथुन, हस्तमेथुन, वेश्यागमन-निषेध तथा मद्यप्राशन ४६ रसज्ञरजन ४७ कालिदास ४८ वैचित्र्य-चित्रण ४६ विज्ञान-वार्ता ५० चरितचित्रण ५१ विज्ञ-विनोद ५२ ममालोचना-समुच्चय ५३ वाग्विालास ५४ माहित्य-सन्दर्भ ५५ वनिता-विलास ५६ सुकुवि-संकीर्तन ५७ प्राचीन पंडित और कवि ५८ सकला ५६ विचार-विमर्श ६० पुरातन्व-प्रमंग ६१ माहित्याला ६२ लेग्वाजलि ६३ साहित्य-सीकर ६४ दृश्य-दर्शन ६५ अवध के किसानों की बरबादी ६६ वक्तृत्व कला ६७ अात्म-निवेदन ६८ वेणीमहारनाटक ६६.७० स्पेन्सर की ज्ञेय और अज्ञेय मीमासायें ___ इस सूची के भी कुछ दोष समालोच्य हैं । लेखक ने द्विवेदी जी की किसी भी अप काशित रचना का उल्लेख नहीं किया है । द्विवेदी जी की अनेक रचनाए छोड दी गई हैं । कहीं कहो रचना का नाम भी गलत दिया गया है, यथा 'वक्त त्वकला' और 'कालिदाम' इन दोनों के मुखपृष्ठ पर क्रमशः 'भाषण' और 'कालिदास और उनकी कविता' नाम दिए, हुए हैं । स्पेंसर की ज्ञेय प्रौर अज्ञेय मीमासाओ के अनुवादक द्विवेदी जी नहीं है। उनके लेखक लाला कन्नोमल हैं। इन दो सूचियो के अतिरिक्त काशी नागरी प्रचारिणी मभा, 'रूपाम', 'साहित्यसन्देश' आदि में अनेक स्थलों पर द्विवेदी जी की रचनाओं की सूची दी गई है किन्तु वे सभी मर्वथा अपूर्ण और अनालंय हैं । इन अपुर्ण मूचियों ने भी पूर्ण सूची प्रस्तुत करने में चन । की है Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ८६ और रोगाधिकरण के चार परिच्छेदा म अनिच्छित वीर्यपात, मूत्राघात, उपदश एव नपस कत्व का विवचन किया गया है तरुणों के लिए जातव्य सभी बाता का बोधगम्य भाषा म प्रतिपादन हुआ है। संस्कृत ग्रन्था में स्त्रियों की वयःसन्धि पर तो बहुत कुछ है परन्तु पुरुषों पर अत्यल्प । प्रस्तुत ग्रन्थ मे द्विवेदी जी ने पुरुपो के वर्णन मे नैषधचरित', 'सहृदयानन्द', विक्रमाकदेवचरित' श्रादि काव्यों से भी पर्याप्त उदाहरण दिए है। वात्स्यायन, डा० गंगादीन, डा० धन्वतरि श्रादि भारतीय एवं डा० फाउलर, डा० मिक्स्ट, राबर्ट डेल प्रोयन अादि पश्चिमीय विद्वानो के मतों को भी यथास्थान उद्धृत किया है । पूरे ग्रन्थ में श्राद्योपान्त ही अश्लीलता का नाम नहीं है। इन ग्रन्थ की भाषा और शैली द्विवेदी नी की प्रारम्भिक रचनायो को-सी है। २.सोहागरात. अप्रकाशित 'सोहागरात' द्विवेदी जी की विशेष उल्लेखनीय अनूदित कृति है। यह अंगरेज कवि बाइरन की 'ब्राइडल नाइट' का छायानुवाद है। "पहले ही पहल पति के घर आई हुई एक बाला स्त्री का उसकी मैत्रिणी को पत्र है ।" इस पचास पदो के पत्र में नव-विवाहिता शशी ने अपनी अविवाहिता सम्वी कलावती के प्रति सोहागरात में की गई छः बार की गति का प्रस्तावनासहित आद्योपान्त सविस्तार वर्णन किया है। यह वही 'सोहागरात' है जिसकी चर्चा द्विवेदी जी ने अभिनन्दन के समय अात्मनिवेदन में की थी और जिसको लेकर कृष्णकान्त मालवीय ने निरर्थक और अनुचित विवाद उठाया था। यह रचना इतनी अश्लील है कि इसके उद्धरण देने में अत्यन्त संकोच हो रहा है। और ऐसा करना द्विवेदी जी के प्रति अन्याय होगा । यह तो सच्चरित्र, मंयमशील और श्रादर्श द्विवेदी जी की कृति ही नहीं प्रतीत होती । पुस्तकान्त मे द्विवेदी जी ने लिन्बा है-- देखो दो वेदो का पडनेवाला भी यह कहता है-- मुग्व भोगो, दुनिया में आकर कौन बहुत दिन रहता है ? ३ कौटिल्यकुठार, साहित्यिक संस्मरण के सन्दर्भ में प्रस्तुत ग्रन्थ की चर्चा भी हो चुकी है। इस ग्रंथ के प्रारम्भ में राय देवी प्रसाद द्वारा अंगरेजी में लिखी हुई एक संक्षिप्त भूमिका है । शेष पुस्तक तीन खंडो में विभक्त है क सभा की सभ्यता ख वतन्य Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग परिशिष्ट द्विवेदी जी क चरित्र पार उनकी शैली के अध्ययन की दृष्टि स यह रचना विशेष महत्त्वपूर्ण है । स्थान स्थान पर द्विवेदी जी ने अपने क्रोध और उग्रता की अभिव्यक्ति की है। इस पुस्तक में उनकी वक्ततात्मक और व्यंग्यात्मक शैलिया अपनी प्रोजस्विता की सीमा पर पहुंच गई हैं। 'मापा और भापासुधार' अध्याय में व्याख्यात इन शैलियों की सभी विशिष्टताएं इसमें व्याप्त हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ का अन्तिम अवच्छेद पृष्ठ ७१ पर उद्धृत किया जा चुका है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAR चौथा अध्याय कविता 'कविता करना आप लोग चाहे जैमा समझे हमें तो एक तरह दुस्साध्य ही जान पड़ता है। अज्ञता और अविवेक के कारण कुछ दिन हमने भी तुकबन्दी का अायास किया था। पर कुछ समझ पाते ही हमने अपने को इस काम का अनधिकारी समझा। अतएव उस मार्ग से जाना ही प्रायः बन्द कर दिया । द्विवेदी जी की उपर्युक्त उक्ति मे शालीनोचित कोरी नम्रता ही नहीं सत्यता भी है। श्रेष्ठ काव्य की स्थायी प्रदर्शिनी मे उनकी कविताओं का ऊंचा स्थान नहीं है। उनके निबन्यो को 'बाता के सग्रह' कहने वाले उनकी कविताओं को भी एक नज्ञ की तुकबन्दी कह सकते हे । द्विवेदी जी ने स्वयं भी उन्हे काव्य या कविता न कहकर तुकबन्दी या पद्य ही माना है। परन्तु आधुनिक हिन्दी काव्य के इतिहास में उनकी कविताग्री के लिए एक विशिष्ट पद १. द्विवेदी जी की उक्ति, रमजरंजन' पृ० २० । २. 'सुमन' की भूमिकामे उसके प्रकाशन की चर्चा करतेहुए मैथिलीशरणगुप्त ने लिखा है-- "परन्तु स्वयं द्विवेदी जी महाराज इस ओर से उदामीन थे । जब मैंने इसके लिए उनसे प्रार्थना की तब उन्होंने इसे व्यर्थ का परिश्रम कहकर मुझे इस काम मे विरत करना चाहा । गुरुजनो के साथ विवाद करना अनुचित समझ कर मैने उनकी बात का विरोध न करके अपनी बात का अनुब बारम्बार किया । झर क्या कह', मन ही मन विरोध भी किया। द्विवेदी जी महाराज को कुछ भी जानने का सौभाग्य जिन्हें प्राप्त है उन्हें ज्ञात है कि वे कितने कृपालु और वत्सल हैं । इच्छा न रहने पर भी बे बालहठ को न टाल सके । मुझे किसी तरह अाज्ञा मिल गई। परन्तु फिर भी एक प्रतिवन्ध लगा दिया गया । वह इस तरह--- मुझे अपने कोई पद्य पसंद नहीं ।""आप की सलाह है, इसमे चुनकर भेजता है । नाम पुस्तक का आप ही रख दीजिए । नाम में पद्य हो, काव्य या कविता नहीं । नाम विल्कुल ही महत्वहीनतासूचक होना चाहिए।" एक छोटी सी भूमिका श्राप ही लिख दीजिए । पद्यो की तारीफ मे कुछ न कहिए। ऐतिहासिक सत्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती। हिन्दी में बोलचाल की भाषा का जो स्रोत उमड रहा है और कवितागत भाव मे जो परिवर्तन दिनाई दे रहा है, उसका उद्गम और मार्गनिर्देश इन रचनाओं की उपेक्षा नहीं कर सकता। क्या यही एक कारण इनके प्रकाशित किए जाने के लिए पर्याप्त नहीं है १ । मैविलीशरण गुप्त" सुमन + भमिता Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ । सुरक्षित रहेगा सौंदयमला आलोचना के आधार पर नहीं किन्तु जीवनीमूल्क और ऐतिहासिक समीक्षा का दृष्टि न । निस्सन्देह द्विवेदी जी की कविता में वह काव्यमौन्दर्य नहीं हैं जिसके बल पर वे जयदेव पंडितराज जगन्नाथ या मेंथिली शरण गुप्त की भाति गर्व करते। उनकी कविता में वह विशेपता भी नहीं है जो उन्हें कालिदाम, तुलसी या हरिऔध की भाति विनम्र सिद्ध बर सके | उन्हें अपनी कविता के मफल होने की आशा भी नहीं थी, अन्यथा वे भी भवभूति आदि की भाति अपने स-देहसकुल चित्त को किसी न किसी प्रकार अवश्य समझा लेते। क्षेमेन्द्र ने काव्यशास्त्र का अध्ययन करने वाले शिष्यों के जो तीन प्रकार 'कविकंठाभरा मे बताए हैं उसके अनुसार द्विवेदी जी अल्पप्रयत्नसाध्य और कच्छप्रय साव्य की मिश्रकोटि मे रखे जा सकते है । उन्होने अपनी कविताओं की रचना कालिदास आदि की भॉति यशप्राप्ति की लालसा से नहीं की !४ उनमे धावक अादि प्राचीन एवं रेडियो और सिनेमा ६ यदि हरिस्मरणे सरसं मनो यदि विलासकथासु कुतूहलम् मधुरकोमलकान्तपदवलिं शणु तदा जयदेवसरस्वतीम् ।। जयदेव, 'गीनगोविन्द' । माधुर्यपरमसीमा सारस्वनजलधिमथनसम्भूता। पिवतामनल्पसुग्वदा वसुधायां मम सुधाकविता ॥ जगन्नाथ, 'भामिनीविलास' । ये प्रासाद रहे न रहें पर अमर तुम्हारा यह साकेत ! मैथिली शरण गुप्त, 'साकेत' । कर्म-विपाक कंस की मारी दीन देवकी सी चिरकाल । लो अबोध अन्त.पुरि मेरी अमर यही माई का लाल ॥ मैथिली शरण गुप्त, 'द्वापर । २. क क्व सूर्यप्रभवो वंशः क्व चाल्पविषया मतिः । तिनीषु दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम् ॥ रघुवंश'। कवि न होउ नहि चतुर कहाऊ । या-'कवित विवेक एक नहिं मोरे ।' 'रामचरितमानस'। ग. मेरी मतिबीन तो मधुर ध्वनि पैहै कहा, पुरी बीनवारी, जो न नेरी बीन बजिहै । - रसकलस' ये नाम केचिदिह न. प्रथयन्त्यवज्ञा, जानन्ति ते किमपि तान्प्रति नैष यन्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवधिविपुला च पृथिवी ॥ भवभूति, 'मालतीमाधव' । मन्द कवियश प्रार्थी गमिष्याम्यु रखुवश मानस भवन में ' जिसकी उतारे भारती Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ । भक्त अवाचीन कविया की धनकामना भी न थी और न उनकी काव्यनिब धना तुलसी आदि की भाति स्वान्त मुखाय ही हुई थी उनकी अधिमाश कवितामा का प्रयोजन है ‘कान्तासम्मिततथोपदेश' । अपने कवि-जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में हिन्दी-पाठको को संस्कृत की काव्यमाधुरी का श्रास्वाद कराने, संस्कृत के सुन्दर वर्णवृत्तों को हिन्दी में प्रचलित करने और अतिश्रृंगारिक काव्यो को सबके पढने योग्य बनाने के लिए उन्होंने संस्कृत के 'वैराग्यशतक', 'गीतगोविद', 'शृंगारशतक', 'महिम्नस्तोत्र', 'ऋतुसमर' और 'गंगास्तवन', के छन्दोबद्ध अनुवाद किए। बाद की रचनाओं में मुधारक का स्वर विशेष प्रधान है । उनमें उनका उद्देश गद्य और पद्य की भाषा एक करके साहित्यसामग्री को समाजव्यापी बनाना रहा है । ऋषि द्विवेदी पर संस्कृत और मराठी का प्रभाव एवं खडी बोली तथा हिन्दू-संस्कृति के प्रति पक्षपात की प्रवृत्ति सर्वत्र ही स्पष्ट है। ___द्विवेदी जी को काव्यकसौटी पर एकबार उनकी कविताश्नों को परख लेना सर्वथा सनीचीन होगा। उन्होंने कविता की कोई मौलिक परिभाषा न देकर संस्कृतसाहित्यशत्रियोंके काव्यलक्षणो का निष्कर्ष मात्र निकाला है-- मुरम्यरूपे ! रसराशिरजित ! विचित्रवर्णाभरणे ! कहा गई १ अलौकिकान दविधायिनी ! महार वीन्द्रकान्त | कविते ! अहो कहा ? सुरम्यता ही कमनीय कान्ति है अमूल्य प्रान्मा रस ह मनोहरे ? शरीर तेरा सब शब्दमात्र है, नितान्त निष्कर्ष यही यही, यही ॥२ उनके गद्यनिबन्ध-'कवि बनने के मापेक्ष माधन', कवि और कविता', 'कविता' श्रादिभी उपयुक्त लक्ष की पुष्टि करते हैं । कविता को कान्ता का उपमेय मानना संस्कृत के साहित्यकारो की परम्परागत माधारण बात है।४ संस्कृत के प्राचीन प्राचार्यों ने 'शरीर ताव भगवान, भारतवर्ष में गूजे हमारो भारती ॥ 'भारत-भारती' । १. धावक "धावकादीनामिव धनम्" _ 'काव्यप्रकाश', प्रथम उल्लास, दूसरी कारिका की वृत्ति । २. द्विवेदी-काव्यमाला, पृ० २६१ और २६५ । ३. 'रमजरंजन', पृ० २०, ३० और १० । ४. क. 'अनेन वागर्थविदामल कृता विभाति नारीव विदग्धमंडला'। भामह,३,५७ । ख. यामिनीवेन्दुना मुक्ता नारीव रमएं बिना । लक्ष्मीरिव ऋते त्यागासो वाणी भाति नीरसा ॥ स्दम श्र गारनिवर्क Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ । दष्टायच्याच्छिन्ना पदावलो' आदि उक्तिया के द्वारा काव्य क शरीर का उल्लेख किया है , अानन्दवर्धन, अभिनव गुप्त, विश्वनाथ आदि ने बहुत पहले ही रस को काव्य की श्रात्मा स्वीकार किया था ।२ अानन्दवर्धन, पंडितराज जगन्नाथ श्रादि ने काव्यगत रम्यता को उमकी काति माना है। 'विविक्तवर्णाभरणासुन्वश्रुतिः' श्रादि प्राचीन कथना के आधार पर ही द्विवेदी जी ने अलंकृत वर्णो को कविताकान्ता का ग्राभरण कहा है। अभिनव गुप्त, मम्मट, पंडितराज आदि ने अपने साहित्यप्रन्या में रम की अलौकिकता की विवेचना की है ।५ द्विवेदी __ जी ने पडितराज जगन्नाथ के काव्यन्त ज्ञण को ही सर्वमान्य घोपित किया है । ६ रस की दृष्टि से द्विवेदी जी की कविताओं में काव्यमौदर्य इंटने का प्रयास निष्फल होगा। उनके 'विनयविनोद' में शान्त तथा विहारवाटिका', 'स्नेहमाला'. 'कुमारसम्भवसार' और 'सोहागरात' में शृंगाररस की व्यंजना हुई है। इन अनुवादों की रसात्मकता का श्रेय मूल रचनाकारो को ही है। द्विवेदी जी की मौलिक रचनाओं में केवल 'बालविधवाविलाप' ही रसानुभूति कराने में समर्थ हैं। इसमें अंकित बालविधवा की कारुणिक दशा का चित्र निस्सन्देह मर्मस्पर्शी है-- उच्छिष्ट, रूक्ष अरु नीरस अन्न ग्वैहौं, चांडालिनीव मुख बाहर {दि जैहौं । गालिप्रदान निशिवासर नित्य पैहौ, हा हन्त ! दुःखमय जीवन यो विहौ ।। 'रंडे । तुही अवसि मत्सुन लीन खाई' त्वन्मातु नाथ | जब नर्जिह यो रिसाई । ग यत्लासिद्धावयवातिरिक्तं विभाति लावण्यमिवांगनासु । 'ध्वन्यालोक', प्रथम उद्योत, चतुर्भ कारिका ! १. दंडी'काव्यादर्श', १, ६ । २ क. 'ध्वन्यालोक', प्रथम उद्योत, कारिका ५ और उसी पर अभिनव गुप्त का लोचन | ख. 'साहित्यदर्पण', प्रथम परिच्छेद, तीसरी कारिका । ३. क. विन्यालोक', प्रथम उद्योत, चौथी कारिका । ख. 'रसगंगाधर', प्रथम प्रानन, पृ० ४ । ४. भारवि, 'किरातार्जुनीय' ५. 'काव्य-प्रकाश', पृ० ५१ और 'रसगंगाधर', पृ० ४ । ६. "साहित्यदर्पण' के मत में 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्' और सर्वमान्य रसगंगाधर' में । 'रमणीयार्यप्रतिपापक शब्द काव्यम्' इस प्रकार की की गई है। हिन्दी कालिसस की Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह वहै इहै जब मदीय मताधिकाई पृथ्वी फटे त्वरित आउ तहा समाई ।। कविता कवि की प्र-यक्ष अथवा स्मृतिजन्य अनुभूति का रमणीयार्थप्रतिपादक शब्दचित्र है। अपनी अनुभूति को पाठक की अनूभूति बना देने में ही कवि की सफलता है। काव्य का आनन्द लेने के लिए पाठक या श्रोता में सहृदयता और अध्ययन के विशेष भार तथा स्वगतत्व एवं परगतत्व के विशेष अभाव की नितान्त आवश्यकता है । सौन्दर्य की दृष्टि से द्विवेदी जी की कवितायो को इतिवृत्तात्मकमान कहना हृदयहीनता है । उनकी सभी रचनाएं प्रायोपान्त पढ जाइए, उनमें रति, करुणा, हास्य, निर्वेद, जुगुप्सा, क्रोध श्रादि भावो की विविधता है। इन विविध भावो के ऊपरी तल के नीचे एक अन्तःसलिला सरस्वती की धारा भी है.-हिन्दी के प्रति उनका श्रमाविक और साल्विक पूजानाव । यही उनकी कविताओं का स्थायी भाव है। किसी भी कारण से सही, कवि को जहा कहीं से जो कुछ भी मिला है उसे उसने मातृभाषा के मन्दिर मे श्रद्धा के साथ चढ़ा दिया है। - . ___'समाचारपत्रमम्पाद कस्तव', नागरी तेरी यह दशा' आदि रचनाएँ - हिन्दी को ही विपय मानकर लिखी गई है। अन्य विषयों पर लिखी गई 'पाशा', 'विधिविडम्बना आदि कवितायों में भी द्विवेदी जी का कवि हिन्दी को नहीं भूला है । 'याशा, का गौरवगान करमे के पश्चात् अन्त में उसने हिन्दी की राजाश्रयप्राप्ति की ही प्रार्थना की-- कडू प्रार्थना है हमारी सुनीजै. जगद्धात्रि आशे ! कृपाकोर कीजे । सबै देन की देवि ! सामर्थ्य तेरी, यही धारणा है सविस्वास मेरो ।। गुणग्राम की आगरी नागरी है, प्रजा की जु सन्मानसोजागरी है । मिले ताहि राजाश्रयनमकारी, __यही पूजियो एक आशा हमारी || 'विधिविडम्बना' में उसने विधाता की अन्य भूलों का निदर्शन करके अन्त में, अपनी हेन्दी-हितकामना के कारण ही, हिन्दी-साहित्य की दुर्दशा के प्रति विधाता की जघन्यतम ग्रपटुता का निर्देश किया--- १. 'द्विवेदी-काव्यमाला', पृ० २१३, २१४ । २ महा पर स्थायी' शब्द अपने शाब्दिक अर्थ में प्रयुक्त किया गया है ३. द्विवेदो प० २२२ - - Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ६६ । शुद्धाशुद्ध शब्द तक का है निनको नहीं विचार, लिखवाना है उनके करसे नए नए अखबार ।' और फिर मातृभापाद्रोहियों की सष्टि बन्द करने के लिए प्रार्थना की है ----- विधे ! मनोज्ञमातृभाषा के द्रोही पुरुष बनाना छोड़ २ मातृभाषाभक्त कवि हिन्दी-हितैषियों के प्रति भी अपने अाभार और प्रसन्नतासूचक मनोवेगों को व्यक्त किए बिना न रह मका--- तोसो कहाँ कछु कवे ! मम ओर जोवौ । हिन्दी दरिद्र हरि तासु कलंक धोवौ । इम प्रकार की रचनात्रों में काव्यकला का अभाव होने पर भी तत्कालीन संकटापन्न हिन्दी के पुजारी कवि के छलरहित हृदय की अमायिक और धार्मिक व्यञ्जना जीवनीमलक अालोचना की दृष्टि से अपना निजी सौदर्य रखती है। 'विनयविनोद', 'विहारबाटिका' आदि प्रारम्भिक अनुवादो मे उन्होने समर्थ साहित्यसेवी बनने की तैयारी की है । संस्कृत के महिम्नस्तोत्र' और 'गंगास्तवन' के अनुपम काव्य का आस्वाद केवल हिन्दी जानने वालो को कराने के लिए उनके हिन्दी-अनुवाद किए। 'ऋतुतरंगिणी' और 'देवीस्तुति-शतक' द्वारा संस्कृतयोग्य छन्दों में ही काव्यकथन करके देवनागरी भाषा के काव्यो की पुस्तकमालिका में 'गणात्मक वृत्ती के अभाव की पूर्ति करने का प्रयास किया। हिन्दी कविता मे कालिदास के भावो की अभिव्यक्ति का अादर्श उपस्थित करने के लिए 'कुमारसम्भव' का अंशानुवाद किया। मौलिक रचनाओं में उनके सहृदय कविहृदय की व्यंजना अनेक स्थलो पर बड़ी ही मनोहर हुई है। निम्नाकित पक्तिया में १. 'द्विवेदी-काव्यमाला', पृ० २६१ ॥ २. , , , " ३. 'द्विवेदी-काव्यमाला', पृष्ट २६२ । ४. 'महिम्नस्तोत्र' और 'गङ्गालहरी' की भूमिका के आधार पर । ५. 'ऋतु-तरंगिणी' और 'देवीस्तुतिशतक' की भूमिका के आधार पर । ६. " हिन्दी कालिदास की समालोचना' लिखने के अनन्तर जब किसी ने उनसे ये व्यंग्या त्मक शब्द कहे कि भला श्राप ही कुछ लिखकर बतलाइए कि हिन्दी कविता मे कालिदास के भाव कैसे प्रकट किए जाय तब नमूने के तौर पर द्विवेदी जी ने कुमारसंभव के प्रारम्भ के पाच सगों का अनुवाद कर 'कुमारसंभवसार' के नाम से प्रकाशित किया।" -पण्डित देवीप्रसाद शुक्ल , . सरस्वती', माग ४० प्रष्ठ २०३ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र भिन्न-पीड़ित नना का करुणाकारक चित्र विशेष ममस्पर्शी है लोचन चल गए भीतर कहँ, कंटक सम कच छाए । कर में ग्वापर लिए अनेकन जीरण पट लपटा । मांसविहीन हाड़ की ढेरो, भीषण भेष बनाए , मनह प्रबल दुर्भिक्ष रूप बहु धरि विचरत सख पाए ।। शक्ति नहीं जिनके बोलन की, तकि नकि मुँह फैलावै, मीक समान पैर लीन्हे बहु, रोवन गोबर खावै । गुठुली ग्वान हेत वेरन की, ढूँढन सोउ न पावै, पग पग चलै गिरै पग पग पर, आरन नाद सुनावै ।। 'कान्यकुब्ज-लीलामतम्' का पहला ही पद पावडी कान्यकुब्ज ब्राह्मण की हृदयसंवादी परेवा ग्वींच देता है--- मदैवशुक्लारुणपीतवर्णपाटीरपंकावृतसर्वभाल ! आभूतलालम्बिदुकूलधारिन ! हे कान्यकुब्जद्विज ! ते नमोस्तु ।। 'काककृजितम्' मे दुष्टों के हृदय में स्थित ईर्ष्या और निन्दाभाव की सुन्दर निबन्धना की गई है, यथा त्वं पंचमेन विमनं विजहोहि नूनं वक्तुं वर्मतसमयेपि न तेधिकारः । सम्प्रत्यहं दशसु दिनु मदा सहर्ष तारम्वरेण मघुरेण रवं करिष्ये ॥3 माहित्यमर्मजो ने निर्विवादरूप में वनि को श्रेष्ठकाव्य माना है। द्विवेदी जी की कविता मे व्यंग्यार्थ की सुन्दरता भी कम नहीं है । 'कान्यकुब्जलोलामृतम्', 'ग्रन्थकारलक्षण' आदि में काक्वाक्षिप्त व्यंग्य की मनोहता है, यथाइसी सम्बन्ध में 'सुदर्शन'-मम्पादक माधवप्रसाद मिश्र ने द्विवेदी जी को लिखा था "लाला मीतागम के अायुष्मान् का धन्य है जिसकी वात पर आपने अपनी प्रतिभा का निर्दशन तो दिखाया। पर इतने तर्जन गर्जन और ग्रास्फालन का यही फल न हो कि श्राप दम यों ही अधूग छोड दे।" -द्विवेदी जी के पत्र, संख्या ११८३, काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा का कार्यालय । 1. 'द्विवेदी-काव्यमाला', पृ० १७५ । १८१ २८६ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] अहो दयालुत्वमत पर ि यथेति यद्रविण गृहीत्वा । निन्द्यraft rवं विमलीकरोषि तदीयकन्याकरपीडनेन ॥ १ 2 'गर्द'काव्य', 'बलीवर्द', 'सरगी नरक ठेकाना नाहि', जम्बुकी न्याय', 'टेस्, की टाँग आदि में अन्योक्तियो या अप्रस्तुनविधानों के द्वारा प्रस्तुत विषय का दास्यमिश्रित व्यंग्यपूर वर्णन है, उदाहरणार्थ -- सदसद्विवेकहीनता के कारण सुन्दर रचनाओं का बहिष्कार और अमुन्दर का स्वागत करने वाले सम्पादक का उपर्युक्त व्यंग्यशब्दचित्र बडी सफलता से अंकित किया गया है । गर्दभ में सम्पादक का आरोप करके लक्षणा के सहारे प्रभीष्ट भाव की मार्मिक अभिव्यक्ति की गई है। (हरी घास=सरस और सुन्दर रचनाएं, भूसा = नीरस रचनाएं, दाना सारगर्भित लेख यादि, चीथडे "= रद्दी रचनाएं मोहनभोग ग्रहणीय प्रिय वस्तु) । श्रादरणीय और महान् अभ्यागत के मानापमान का ध्यान न करनेवाले अभिमानी पुरुष के उपमानरूप Tata का स्वीकार भी सुन्दर हुग्रा है- गज भी जो तुम उसकी ओर न आंख उठाते हो, लेटे कभी, कभी बैठे हो, कभी खड़े रह जाते हो | 3 निम्नाकित पंक्तियों में शब्द और अर्थ दोनो का चमत्कार लोकोत्तर है इन कोकिलकंठी कामिनियों ने जो मधुर गीत गाये, सुधासह कानों से पीकर वे मुझको अति ही भाये । इनका यह गाली गाना भी चित में जब यों चुभ जाता, यदि ये कहीं और कुछ गातीं विना मोल मैं विक जाता ||४ हरी घास खुरखुरी लगे अति, भूसा लगे करारा है, दाना भूलि पेट यदि पहुंचे काटे अस जस आरा है। लच्छेदार चीथड़े कूड़ा जिन्हें बुहारि निकारा है, सोई सुनो सुजान शिरोमणि, मोहनभोग हमारा है ॥ ૨ द्विवेदी काव्यमाला', पृ० १८२ । २१६ । २७५ । ४५१ । "3 " " " " J. "2 7 ← Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार लमठा कामनिया शी ग य सुधा सदृश आदि में अनमान का लालित्य * मानर सुकर + जना के लिए काना म पीकर म प्रयुक्त प्रयाजनवती लक्षणा सुन्दर है । 'मधुर गीत' को 'सुधासदृश' मानकर कवि ने ठीक समय पर उपमा अलंकार का ग्रहण किया था और 'कानो मे पीकर ने उचित समय पर उमका त्याग कर दिया । उसे दूर नक व्यर्थ ही ग्वीचा नहीं । यदि वे नारिया गाली के बदले कवि के प्रति प्रणयनिवेदन के गीत गाती ती बह ग्रात्मसमपंगा कर देता। गानी गाना', 'चुभ जाता' तथा 'और कुछ की ध्वनि न पद के मोन्दर्य को पार मो उत्कृष्ट बना दिया है। उनकी कविता में कहीं अलंकार-विधान के महारे काव्यमोदर्य की सष्टि की गई है, यथा-- अभी मिलेगा ब्रजमंडलान्त का सुभुक्त भाषामय वस्त्र एक ही। शरीरसंगी करके उसे मदा, विराग होगा तुझको अवश्य ही ।। इसीलिए ही भवभूतिभाविते । अभी यहां हे कविते । न श्रा, न आ॥ बता तुही कौन कुलीन कामिनी सदा चहेगी पट एक ही वही ।।' बह ग्वडीवोली का निकाल था। उसके पद्यों में कवित्व नहीं पा रहा था । ब्रजभाषा के समर्थक इस बात को लेकर अालोचना की धूम बाँधे हुए थे। इस भाव की भूमिका में कवि ने उत्प्रेनालंकार की योजना की है। मुन्दर वेपभूपा में सहजप्रवृत्ति रखने वाली कुलीन कामिनी एक ही सुभुक्त वत्र पर जीवननिर्वाह नहीं कर सक्ती ! कामिनी से कविता श्री उपमा परम्पगगत होते हुए भी नवीन विशेषणों के कारण अधिक ननोहर हो गई है। रही मानव-हृदय की मर्मन्पर्शी अभिव्यक्ति ने कवित्व की सृष्टि की है, उदाहरणार्थ हे भगवान ! कहाँ सोये हो ? विनती इतनी सुन लीजै, कामिनियों पर करुणा करकं कमले ? जरा जगा दी। कनवजियों में घोर अविद्या जो कुछ दिन से छाई है, दूर कीजिए उसे दयामय ! दो सौ दफे दुहाई है ।।२ नारी स्वभावत. कोमलता और करुणा की मृति होती है। सजातीय के प्रति सहानुभूति गग्वना भी स्वाभाविक ही है । इसी कारण कामिनियों के कल्याणार्थ भगवान् को जगाने के लिए कवि ने कमला ने प्रार्थना की है । कहीं हास्य का पुट देकर कवि-समय के सहारे रमणीय पंक्तियो की रचना की गई है, यथा१ द्विवेदी पृ. २३४ ०२७ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ५५० जरा देर के लिए समझिए, आप षोडपी कारी हैं, (क्षमा कीजिए असभ्यता को हम ग्रामीण अनारी है)। मान लीजिए नयन आपके कानो तक बढ़ आये है, पीन-पयोधर देख आपके कुञ्जर-कुभ लजाये है ।' द्विवेदी जी की भापा और भावव्यञ्जना के सात्विक और शिष्ट होने पर भी उनकी कविता में एकाध स्थलो पर ग्राम्यता और अश्लीलता का दोघ श्रा ही गया है। अधोलिखित पद में वे अभिमानी व्यक्ति के मुखदर्शन की अपेक्षा वृषभ के अंडकोष का अवलोकन करना अधिक श्रेयस्कर समझते हैं--- मैं कुबेर, मैं ही सुरगुरु हूँ, मेरा ही सब कहीं प्रमाण, यह घमण्ड रखने वालों का मुखदर्शन है पानिधान । तपेक्षा हे वृपभ ! तुम्हारा पीवर अंडकोप समुदाय, अवलोकन करना अच्छा है, सच कहते हैं भुजा उठाय ।। अपनी उन्नीसवीं शती की रचनायो, विशेषकर 'विहार-बाटिका', 'स्नेहमाला और 'ऋतुतरंगिणी' में ही द्विवेदी जी ने बरबस अलङ्कार-योजना की चेष्टा की है । 3 'ऋतुतरंगिणी मे तो प्रायोपान्त ही शब्दालङ्कार ठूस ठूस कर भरे गए हैं । कही कहीं अलङ्कारसौंदर्य लाने के लिए भाव की निर्दयतापूर्वक हत्या कर दी गई है । भावाभिव्यञ्जन में असमर्थ यमकच्छटामयी पदावली का एक उदाहरण निम्नाक्ति है सुविच कैरव कैरव राजहीं। रुत सना रसना रस लाजहीं | सुनत सारस सारस गान ही बधिक बान नवान न तानही ।।४ १. द्विवेदी-काव्यमाला', पृ० ४३८ । २. , , ,, २७६ । ३. उदाहरणार्थ---- सुधा वाहा थाहा सुधल अवगाहा हरि नबै । प्रिया भाई लाई हियहि सुख पाई छकि जबै ॥ कही बामा श्यामा मुदित अभिरामा रस भरे । गही बाँही नाहीं करि कि कर जाहीं कर करे ॥ 'द्विवेदी-काव्यमाला'. पृ० २२ । द्विवेदी ' पृ० १३ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि पुस्तक को पादरिप्पणी में शब्दार न दिया गया हाता तो उपर्युक्त पक्तियों में निहित कवि क अभिप्रा का अन्तयामी 7 अतिरिक्त पोर कोई न समझ पाता । यह अलङ्कारदोप उनकी प्रारंभिक हिन्दी-रचनायां तक ही सीमित है। इस अलङ्कारप्रेम का कारण मंस्कृत-कवियो, विशेष कर अश्वघाटीकार पंडितराज जगन्नाथ, और हिन्दी-कवि केशवदास का प्रभाव ही है । द्विवेदी जी की संस्कृत और खडीवोली की कविताओं में अनायास ही सन्निविष्ट उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास, श्लेप, अनुप्रास आदि अलंकार अपने नाम को वस्तुत: सार्थक करते हैं, यथा-- क मामनाहत्य निशान्धकार पलाय्य पापः किल याम्यतीति । ज्वलन्निवक्रोधभरेगा भानुरंगाररूपः सहसाविरासीत् ।।' अन्धकार ने सूर्य का कभी अपमान नहीं किया, वह कभी भागा नहीं और सूर्य उसके प्रति क्रोध मे कभी जला नहीं । फिर भी हेतु प्रेक्षा के सहारे कवि ने विलीन होते हुए अन्धकार और प्रभातकालीन रक्तिम सूर्य का रमणीयार्थप्रदिपादक चित्राकन किया है। ज्या ज्या चन्द्रमा को छाया बढ़ती जा रही थी त्या त्या सूर्य का तेज मन्द पडता जा रहा था। इस दृश्य को लेकर द्विवेदी जी ने निम्नाकित पद मे मुन्दर अर्थान्तरन्यास किया है-- छायां करोति वियति स्म यदा यदेन्दुः, श्यामप्रभां विननुते स्म नदा नढार्कः । श्रापत्सु देवविनियोगकृतारमासु, धीरोपि याति वदने किल कालिमानम् ॥ अयोनिग्वित पक्रियों में श्लेष और अनुप्राम का मनोहर चमत्कार है-- सुरम्यम्पे ! रमराशिरंजिने ! विचित्रवर्णाभरणे ! कहाँ गई ? अलौकिकानन्द्रविधायिनी ! महाकवीन्द्रकान्ते । कविते । अहो कहाँ ॥3 पहली पंक्ति में 'र', 'ण' और 'घ' की तथा दूसरी मे 'क' और 'न' की श्रावृत्ति के कारण पढ में अधिक लालिन्य पा गया है। कान्तारू पिणी कविता के लिए, श्लिष्ट विशेषणों का प्रयोग भी मनोहर है । जिस प्रकार कान्ता सुरम्यरूपा (ग्मणीय रूपवाली), रसराशिरंजिता (सुन्दर अनुराग के भावों से भरी हुई), विचित्रवर्णाभरणा (रंगविरंगे अाभूपणो से सजी हुई) अलौकिकानन्दविधायिनी (असाधारण अानन्द देनेवाली) और कवीन्द्रकान्ता (कवियों के काम १. द्विवेदी-काव्यमाला', पृ० १६६ । २०६ २११ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की वस्तु) इ, उमा प्रकार कविता भी सुरम्यकपा (रमणाय अ-, का प्रतिपादन करनेवाली शब्दस्वरूपा), रमगशिरजिता (श्रृंगार आदि.ग्मा में पूर्ण), विचित्रवर्णा भरणा (अनेक प्रकार के चित्रमय शब्दालंकारा ने ममन्त्रित), अलौकिकानन्दविधायिनी (लोकोत्तर चमत्कार की मष्टि करनेवाली) और कवीन्द्रकान्ता (महाकवियों की अभिप्रेत) वस्तु है । ___कविन्यमौन्दर्य का उपस्थापन करने के लिए कल्पना की ऊंची उडान अनिवार्य नहीं है। द्विवेदी जी के यथार्थवादी पदों में भा कहीं कहीं उत्तम काव्यचमत्कार है केचिद्वधूवदनचन्द्रविलोकनाय, कचिद्धनस्य हरणाय परस्थ केचित् कलेययुग्रहणदुष्परिणामदु खनाशाय सन्निकटवर्तिजलाशयस्य ॥१ ग्रहण अादि अवमरो पर मेला में जाने वाले मजन और अमजन लोगों का यह चित्र परम स्वाभाविक है । कुछ ही लोग ऐसे होते हैं जो अमायिक धर्मभावना मे प्रेरित होकर स्नानादि के निमित्त जान है । प्रायः दुष्टजनो की ही अधिकता रहती है जो पाप-भावना म प्रेरित होकर उस अवसर का दुरुपयोग करते है । द्विवेदी जी की 'विनय-विनोद', 'विहार-बाटिका', 'लहमाला' श्रादि प्रारंभिक कतिमा म अोज और प्रमाद गुणो की न्यूनता होते हुए भी माधुर्य की मनोहरता है। उनमें भी कही कहीं प्रसन्नता दिखाई पड़ जाती है। 3 ऋतुतरंगिणी में प्रामादिकता का सार्वत्रिक अभाव है। उनकी संस्कृत और खडीवोली की कविताएं व्यापक रूप से प्रसादगुण-मम्पन्न हैं, यथा कि विद्यया कि तब वर्णन व्यापारवृत्या किमु चापि भत्या जयत्यही स श्वशुरालयम्ने त्वं कल्पवृक्षीयसि यं सदैव ।। ४ थित्रा नित्य असत्य बोलने में जो तनिक नही सकुचाते है, सींग क्यों नहीं उनके सिर पर बड़े बड़े उग आते है ? १. द्विवेदी-काव्यमाला'. पृ० २०४ । २. उदाहरणार्थ वसन आसन प्रासनि दास के, विलग पी रस की हँसि हाँस के । हग लसै विलसै अलसै गही, सुमनहार विहार विहाय ही विषदी ३५ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घोर घमही पुरुषों की क्यों टेढी हुई न लंक १ चिन्ह देख जिसमें सब उनको पहचानते निशंक ॥ उपयुक्त पंक्तियों में व्यंग्य का बहुत कुछ चमत्कार है । संस्कृत-श्लोक में उन कान्यकुब्ज ब्राह्मणो पर आक्षेप किया गया है जो विद्याध्ययन, खेती, व्यापार या नौकरी न करके अपनी समुगल को कल्पवृक्ष समझते और उसी के धन से सानन्द जीवन-यापन करते हैं । हिन्दीपद मे मिथ्यावादियों के सिर पर सीग उगवाने और घमंडियो की कटि टेढी करा देने की कवि-कल्पना निस्मन्देह चमत्कारकारिणी है । परन्तु द्विवेदी जी की अधिकाश कवितात्रो मे अर्थ की अतिशय प्रकाशता होने के कारण प्रसन्नता का यह गुण दोष बन गया है। २ श्रागे चले बहुरि रधुराई-नीरस किन्तु स्पष्ट पद पद-पद पर मिल सकते है। पद्य-निवन्धा की वर्णनात्मकता और अतिप्रकाशता के कारण द्विवेदी जी की कविताएं प्रायः इतिवृत्तात्मक है। उनकी सभी पद्यकृतिया कविता नहीं है । इन इतिवृत्तात्मक रचनायो मे भी स्थान स्थान पर कवित्व है । यह उपयुक्त विवेचन और उद्धरणो से प्रमाणित है ! उनकी कवितायो की इतिवृत्तात्मकता और नीरसता के अनेक कारण हैं । द्विवेदी जी ने अपनी अधिकाश कविताओं की रचना अराजकता-काल में की थी, द्विवेदी-युग मे नहीं । उस समय हिन्दी-साहित्य के भीतर और बाहर सर्वत्र ही अराजकता थी । भूमिका में वर्णित राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक श्रादि अान्दोलन कवियों की एकान्त साधना में बहुत कुछ बाधक हुए। एक ओर तो यह दशा थी और दूसरी ओर द्विवेदी जी का ज्ञानसम्बल संस्कृत-साहित्य और पुरानी परिपाटी के पंडितो के अध्यापन पर ही अवलम्बित था। उनका ६ द्विवेदी-काव्यमाला', पृ० २६० । नान्ध्रीपयोधर इवातितरां प्रकाशो, नो गुजेरीस्तन इवातितगं निगूढः । अर्थों गिरामपिहितः पिहितश्च कश्चित्, सौभाग्यमेति मरहट्टवधूकुचाभः ॥ -राजशेखर । ३. यथा-- घर में सबको भाती है यह, पति का चित्त चुराती है यह । सखियों में जब आती है यह, मधु मीठा टपकाती है यह ॥ ___द्विवेदी-काव्यमाला', पृ० ३७८ ! शरीर ही से पुरुषार्थ चार, शरीर की है महिमा अपार । शरीररचा पर ध्यान दीजै शरीरसंचा सन छोर कीजे । द्विव दी प०४१४ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म एक सत्कृत पढ लिने दहाता र कुपमटक च स ऊपर नर्ग उठ सका था अनध्याय अनभ्यास और अस्गति र कारण व परम्परागत निदी का यभाषा ब्रज अोर अवधी पर अधिकार नहीं कर भके थे । इभी कारण उनके भावों मे मचाई और सुन्दरता के होते हुए भी उनकी रचनाश्री मे कविता बा लालित्य नहीं ग्रा पाया। आगे चलकर जिस प्रकार द्विवेदी जी ने मैथिलीशरण गुप्त श्रादि का गुरुत्व किया यदि उसी प्रकार उन्हे भी कोई गुरु मिल गया होता तो बहुत मम्भव था कि वे मी एक अच्छी कोटि के कवि हो गए होते। सम्पादक द्विवेदी की ज्ञानभूमिका का असाधारण रूप से विस्तार हुआ किन्तु उसके साथ ही उनके कर्तव्य की परिधि भी अनन्तरूप से विस्तृत हो गई । अर्धशिक्षित हिन्दी पाठकों को शिक्षित करना था। हिन्दी के प्रति उदासीनो को हिन्दी का प्रेमी बनाना था। पथभ्रष्ट समाज, लेखको और पाठको को प्रशस्त मार्ग पर लाना था। हिन्दी-साहित्य को दूषित करने वाले कृडाकरकट को साफ करना था । अभिव्यंजन में अममर्थ हिन्दी को प्रोड, संस्कृत और परिष्कृत रूप देना था। तिरकत देवनागरी लिपि और हिन्दी-भाषा की उचित प्रतिष्ठा करनी थी। विपन्न हिन्दी-साहित्य को सम्पन्न बनाने के लिए विविधविषयक माहित्यकारी के निर्माण की आवश्यकता थी। इस प्रकार की सर्वतोमुख आवश्यकताओं की पूति करने के लिए द्विवेदी जी के कवि को, अपना निजत्व ग्वोकर, शिक्षक, उपदेशक, अालोचक, मुधारक और निर्माता बन जाना पड़ा । वह काव्यभाषा ग्वडीबोली का शैशवकाल था। अभिव्यंजना का निर्बल माध्यम कलासौन्दर्य धारण ही नहीं कर सकता । इमीलिए स्वडीबोली की तत्कालीन रचनाओं में कविता की अभीष्ट रमणीयता न पा सकी। द्विवेदी-युग का प्रथम चरण योग्य माध्यम-निर्माण की साधना में ही व्यतीत हो गया । द्विवेदीसम्पादित 'सरस्वती' में प्रकाशित कविताश्री का काव्योचित संशोधन इस बात का साक्षी है कि द्विवेदी जी में भी कविप्रतिभा थी। गोपाल शरण सिह की मृल पंक्तिया थी -- मधुपपंक्ति नित पुष्पप्रेमधारा मे बहती या वह अति अनुरक्त बौर पर भी है रहती।' द्विबेटी जी ने उसका संशोधन किया-- मधुपपंक्ति जो पुष्पप्रेमरस मे नित बहती, अाम्रमंजरी पर क्या वह अनुरक्त न रहती ? रस', 'अाम्रमंजरी' और प्रश्नवाचक चिन्ह की योजना ने इस पद को निस्सन्देह सरस, मार्मिक । १. 'माता की महिमा', 'सरस्वती' की हस्तलिखित प्रतियां. १६१४ ई०. काशी-नागरी प्रचारिणी-सभा के में रचित Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | १०५ । और अधिक मावामिन्यजक बना दिया है 37 स म भी कहीं कहीं काव्य की रमणीयता मिलती है ।१ यत्र तत्र सरम, रमणीय और कविनमय होने पर भी ये ऋविताएं द्विवेदीजी को कवि के उच्च प्रासन पर प्रतिष्ठित नही कर सकती । इनका वास्तविक महत्व छन्द, भापा श्रार विषय की दृष्टि से है। विधान की दृष्टि न हि वेदी जी की कविता के पाच रूप है - प्रबन्ध, मुक्तक, प्रवन्धमुक्तक, गीत और रामकाव्य । उन्होंने खंडकाव्य या महाकाव्य के रूप में कोई काव्यरचना नहीं की। उनकी प्रबन्धात्मक कविताओं को पद्मप्रवन्ध कहना ही अधिक युक्ति-युक्त है। ये रचनाए भी दो प्रकार की है-कश्चात्मक और बस्तुबर्णनात्मक । कथात्मक पनाप्रबन्धी मे गद्य श्री लघु कहानी की भाति किसी नन्हे-मे यथार्थ या कल्पित कथानक का उपन्यापन किया गया है,यका 'सुतपंचाशिका' 'द्रौपदी-वचन-बाणावली, 'जंबुकीन्याय', टेसू की टॉग' आदि। ये पद्या खंडकाव्य के भी संक्षिप्त रूप है । वस्तुवर्णनात्मक पद्मप्रबन्धी मे बिना किमी कथानक के क्मिी उस्तु या विचार का प्रवन्धकाव्य की भॉति कुछ दूर तक निर्वाह किया गया है और फिर वित्ता समाप्त होगई है, यथा 'भारतदुर्मिक्ष' 'समाचारपत्रमपादकस्तव गर्दभकाव्य' 'कुमुदन्दरी' आदि । द्विवेदी जी की अधिकाश कविता इमी वर्ग की हैं। भाग्नेन्दुयुग और द्विवेदीयुग में पद्मप्रबन्धों की अपेक्षाकृत अधिकता का प्रधान कारण उन युगो की हलचल और खई बोली की अप्रौढता ही है । मुक्तकों की काव्यमाधुरी लाने के लिए अपरिपक्क रनडीबोली की गागर मे सागर भग्ना असम्भव था। खण्डकाव्य या महाकाव्य लिनने के लिए पांच अवकाश की प्रापश्यना थी । बहुधधो कवि इन परिस्थितियों के उपर न उठ मरे। हिनंदी जी के कलाव्यविधान का दूसरा स्प मुक्तक हे । उनकी मुक्तक रचनाओं के मूल में दो प्रधान प्रवृत्तिया कान करती रही हैं-सौन्दर्यमूलक और उपदेशात्मक । 'विहारवाटिक', 'हामाला' आदि अनुवादो और प्रभात वर्णनम्', 'सूर्यग्रहणम्' आदि मौलिक रचनाओं का उद्देश्य सौन्दर्यनिरूपण ही था।२ शिवाष्टकम्', कथमहं नास्तिकः' आदि अात्म-निवेदनात्मक रवितानो मे भी भावसौन्दर्थ का चित्रण होने के कारण सौन्दर्यमुलक प्रवृत्ति की ही प्रधनता १. अथा----- २. यथा राय कृष्णदास को लिखित पत्र १५, ६. ३० । 'सरस्वती', भाग ४५, खण्ड २, संख्या ४, पृ० ४६६ । सुपत्र जम्बूफल गुच्छकारी, इलै उठी श्याम घटा करारी । महानियो --- बाला उतै परी मूर्छित हवै विहाला ॥ 'ऋतुतरङ्गियो , द्विवेदी पृ० ८५ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ । है । उपदेशात्मक मुक्तका म नीति श्रादि का उपदेश देने के लिए मुक्त विचारा की निब धना की गई है, यथा-विनय-विनोद, "विचार करने योग्य बाते' आदि ।' द्विवेदी जी की कविता के तीसरे रूप प्रबन्ध मुक्तको में एक ही वस्तु या विचार का वर्णन होने के कारण प्रबन्धता और प्रत्येक पद दूसरे से मुक्त होने के कारण मुक्तत्व दोनो ही एक साथ हैं, उदाहरणार्थ-- "विधिविडम्बना', 'ग्रन्थकार-लक्षण' अादि । भारतेन्दुयुग में चली आने वाली समस्यापूति की प्रवृत्ति ने द्विवेदी जी को मुक्तकरचना के प्रति प्रभावित नहीं किया । सम्भवतः इसका वास्तविक कारण यह है कि वे तादृश समस्यापूरक कवि-समाजो के निकट संपर्क में कमी रहे ही नहीं। ____ कतिपय गीता ने द्विवेदी जी की कविता का चौथा रूप प्रस्तुत किया । मौलिकता की दृष्टि से इन गीतो के चार प्रकार हैं । 'भारतवर्ष में व संस्कृत के 'गीत गोविन्द से, 'वन्देमातरम्' में बंगला से और 'सरगौ नरक ठेकाना नाहि मे लोक-प्रचलित अाल्हे मे प्रभावित हैं। इस अंतिम गीत में प्रबन्धता होते हुए भी लोकप्रचलितगेयता के कारण इसकी गणना गीतो के अन्तर्गत की गई है । कहीं कहीं उन्होंने भारतीय परम्परा का ध्यान किए बिना ही स्वतन्त्र रूप से भी गीता की रचना की है । 'टेसू की टांग' और 'महिला परिपद् के गीत' इसी प्रकार के हैं । इनकी लय पर उर्दू का बहुत कुछ प्रभाव परिलक्षित होता है।" १. यथा यौवन वन नव तन निरखि मूढ अचल अनुमानि । हठि जग कारागार म ह परत आपदा प्रानि ॥ ___ --- द्विवेदी-काव्यमाला', पृ० ५ । २. मथा--- इष्टदेव आधार हमारे, तुम्हीं गले के हार हमारे, भुक्ति मुक्ति के द्वार हमारे, जै जै जै जै देश ॥ जै जै सुभग सुवेश ॥ द्विवेदी-काव्यमाला', प ० ४५४ । ३. यभा--- मलबानिल मृदु मृदु बहती है, शीतलता अधिकाती है, सुखदायिनि बरदायिनि तेरी, मूर्ति मुझे अति भाती है । वन्देमातरम् ॥ --'द्विवदी-काव्यमाला', प.० ३८३ । होत बनिबई आई हमरे, को अब तुमसे झूठ बताय, हमहूँ घिउ बरसन ब्यांचा है छोटी बड़ी बजारन जाय । हियां की बातें हियै रहि गई, अब आगे का सुनौ हवाल, गाउँ छोड़ि हम सहर सिधायन लागेन लिखै चुटकुला ख्याल ॥ 'द्विवेदी-काव्यमाला', प.० ३८८ । ५, यथा- विद्या नहीं है, बल नही है. धन भी नहीं है, क्या से हुआ है क्या यह गुलिस्तान हमारा द्विवनी का प. ३ ३ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर की दृष्टि स य गात दो प्रकार क हैं-एकछदोमय और मिश्रछदोमय उदाहरणार्थ मरगौ नरक ठेकाना नाहिं मेर प्यारे हिंदुस्तान' आदि एक छदोमय और भारतवष' आदि मिश्र छन्दोमय हैं । द्विवेदी जी की कविता का पाचवा रूप गद्य-काव्य है । 'समाचारपत्रो का विराट रूप' और 'प्लेगगजस्तव' इसी रूप की रचनाएं हैं । इन गद्यकाव्यो में न तो सस्कृत-गद्यकाव्या की-सी कवि-कल्पना का उत्कर्ष ही है और न 'हिन्दी-गद्य-काव्यों कीमी धार्मिक भाव-व्यञ्जना । किन्तु ये हिन्दी-गद्मकाव्य के प्रारम्भिक रूप हैं अतएव इनका ऐतिहासिक महत्व है। द्विवेदी जी ने 'विनयविनाद' की रचना अभ्यासार्थ और स्वान्तःमुग्वाय ही की थी। तब हिन्दी की न्यूनतापृति की भावना उनमें न थी। हिन्दी के पराम्परागत दोहा का ही प्रयोग उन्होने उसमे किया। मराठी और संस्कृत के अध्ययन ने उन्हें संस्कृत-वृत्तों की ओर प्रवृत्त किया । 'विहारवाटिका' में हिन्दी के दोहा और हरिगीतिका के कुछ पदों के अतिरिक्त सारी पुस्तक संस्कृत के स्रग्धरा. शालविक्रीडित, द्रुतविलम्बित, वंशस्थ, शिग्वरिणी, भुजंगप्रयात मालिनी, मन्दाक्रान्ता, नाराच, चामर, वसन्ततिलका, उपजाति, उपेन्द्रवज्रा इन्द्रवज्रा और इन्द्रवंशा में ही हैं । 'स्नेहमाला' में उन्होंने फिर दोहोका ही प्रयोग किया किन्तु आगे चलकर 'महिम्नम्तोत्र' के अधिकाश पद शिवरिणी, मालिनी, भुजंगप्रयात, तोनर और प्रज्झाटिका छन्दों में ही रचे गये । 'ऋतुतरंगिणी' की रचना उन्होंने वर्मततिलका, मालिनी, द्रुतविलम्बित, इन्द्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा मे की : 'गंगालहरी' म मबेयो का ही विशेष प्रयोग हुश्रा किन्तु उनकी अागामी कृति 'देवीस्तुतिशतक' आद्योपान्त बमन्ततिलका में ही लिखी गई। उम् गणना का अभिप्राय केवल यह सिद्ध करना था कि अपने कविजीवन के प्रारम्भिक कान्त में द्विवेदी जी ने संस्कृत के छन्दो की ओर अपेक्षाकृत अधिक व्यान दिया था । उस युग की प्रवृत्ति की दृष्टि में यह बात अनुपेक्षणीय जंचती है । आगे चलकर भी उन्हाने शिवाष्टकम्', 'प्रभातवणनम्', 'काककूजितम्' यादि में भी गगात्मक छन्दो का प्रयोग किया। ब-नुतः छन्द के क्षेत्र मे द्विवेदी जी की देन गणात्मक छन्दों की दृष्टि से ही महत्त्वपूर्ण है। हिन्दी-माहित्य में केशवदास ने इस ओर ध्यान दिया था। उनके पश्चात् हिन्दी-कवियों ने छन्द की इस प्रणाली के प्रति विशेष प्रवृत्ति नहीं दिग्वलाई । द्विवेदी जी ने इन छन्दो का प्रयोग करके हिन्दी मे इनकी विशेष प्रतिष्ठा की । इस प्रकार प्रियप्रवास' आदि गणात्मकछन्दोमय काव्या की भमिका प्रस्तुत हुई । कवि द्विवेदी की अपेक्षा युगनिर्माता द्विवेदी ने इम दिशा में भी अधिक कार्य किया। संस्कृत-छन्दों के अतिरिक्त उन्होंने उर्दू, बंगला, अगरी शादि र तथा सत र छन्दों के प्रयोग और प्रचार लिए गिला कवियों को Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १०८ । प्रोत्साहित किया। उनके प्रयास के फलस्वरूप खड़ीबोली इन छन्दो की मुन्दरता से भी सम्पन्न हुई। इसकी प्रमाणसम्मत विवेचना 'युग और व्यक्तित्व' अध्याय मे आगे चलकर की गई है। भाषा की दृष्टि मे द्विवेदी जी के कविता-काल के तीन विभाग किए जा सकते हैं क. १८८६ ई० से १८६२ ई० तक । ख. १८६७ ई० मे १६०२ ई० तक । ग १६०२ ई. के उपरान्त ।। 'विनयविनोद' (१८८६ ई०), 'विहारवाटिका (१८६० ई०), 'स्नेहमाला'(१८६० ई०), 'महिम्नस्तोत्र' (१८६१ ई०), 'नुतरंगिणी' (१८६१ ई०), 'गंगालहरी' (१८६१ ई०), और 'देवीस्तुतिशतक' (१८६२ ई०) ब्रजभाषा की रचनाएँ है। उनका यह काल प्रायः अनुवादों का ही है । उस समय हिन्दी की काव्यभापा संक्रान्ति की अवस्था मे थी। भारतेन्दुकृत खड़ीबोली के प्रयोगो के पश्चात् श्रीधर पाठक आदि ने खडीबोली का व्यवहार प्रचलित रखा । अयोध्याप्रसाद खत्री ग्रादि के खड़ीबोली-अान्दोलन ने भी हलचल मचादी थी। तत्कालीन व्रजभाषा के कवि उसका कोई सर्वसम्मत आदर्श रूप उपस्थित न कर सके। इसका भी कुछ न कुछ प्रभाव द्विवेदी जी पर अवश्य पडा होगा। द्विवेदी जी ने संस्कृत-ग्रन्थो के अनुवाद प्रायः सस्कृत-छन्दों में ही किए । उनका हिन्दी-मापा और साहित्य का ज्ञान भी अपरिपक्क था अतएव उनकी उपयुक्त प्रारम्भिक रचनाओं की भाषा का रूप काव्यमय और निखरा हुआ नहीं है।' द्वितीय काल में उन्होने ब्रजभाषा , खडी बोली और संस्कृत तीनो ही को कविता का माध्यम बनाया। १६०२ ई० में प्रकाशिन 'काव्यमंजपा' इसी प्रकार की कविताओंका संग्रह है। १. क, यथा--- विधाता है कैसो रचत व्रय लोके किमि सुई । धर कैसी देही, सकल किन वस्तू निरमई ॥ कुतक है मूर्खा कहि सुइमि माया भ्रम परे । न जाने ऐश्वर्यो सकत नहिं जो खण्डन धरे ॥ ___-'द्विवदी-काव्यमाला', प.. १६६ । ख दूषित भाषा के संबंध में द्विवेदी जी का निम्नांकित निबेदन अवक्षणीय है "इसमें बहुत सा संस्कृत वाक्य प्रयोग होने से रोचकता में विरोध हुआ है परन्तु असाधारण छन्द होने के कारण नियतस्थान में शुद्ध हिन्दी शब्द की योजना नहीं हो सकी। इस न्यूनता का मुझे बडा खेद है।" भूततरङ्गियी की भूमिका Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! १०६ । उनकी 'सस्कत पदावली विशेष प्रसन्न ध रावा हक तथा का पाचित है । सरस्वती -सम्पादनके पूर्व द्विवेदी जी ने भाषा-संस्कार की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था इसीलिए उनकी खडीबोली की तत्कालीन रचनाओं की भाषा को वज, अवधी आदि के पुट ने विकृत कर दिया है १२ ४१०२ ई० में 'कुमारसम्भव-मार' के द्वारा उन्होने काव्य-भाषा के रूप में खडीबोली की विशेष प्रतिष्ठा की । यत्र तत्र ब्रजभाषा, अवधी या तोडे मरोड़े हुए शब्दो का प्रयोग उसके भट्त्व को घटा नहीं सकता। उनकी काव्य भाषा मे गुहावरो और कहावतो का अभाव-सा है । लानणिकना, ध्वन्यान्मकता या चित्रात्मकताका समावेश भी नगण्य ही है । तथापि हिन्दीकाव्य-भाषा के एकातपत्र मिहामन पर ग्बड़ीवाली को ग्रासीन कर देने का प्रायः समस्त श्रेय सम्पादक-द्विवेदी को ही है ।" उन्होंने स्वयं तो सरल, प्राजल, प्रवाह-युक्त और व्याकरणमम्मत खडोबोली में पद्यात्मक रचनाएं का ही, अपने आदर्श, उपदेश और प्रोत्साहन से अन्य कवियों को भी खडीवाली में कविता लिखने के लिए प्रेरित किया। इसका विस्तत पिवचन 'युग और व्यक्तित्व' अव्याय में यथास्थान किया गया है। उन्नीसवीं शती के अन्तिम चरण मे, विविध अान्दोलनो के कोलाहल मे, भी संस्कारजन्य धार्मिक भावना ने नवयुवक द्विवेदी के हृदय को विशेष प्रभावित किया । भारतेन्दु-युग की धार्मिक कविता में भक्ति-कान की परम्परा का निर्वाह, जनता की धार्मिक भावना का प्रतिबिम्ब ८ १. प्रभातवर्णनम्', 'समाचारपत्रसम्पादक स्तवः' आदि कविताएं उदाहरणीय हैं, यथा-- कुशेशयः स्वच्छजलाशययु __ वधूमुग्वाम्सोजदले गहेषु । वनेषु पुष्पैः सवितुः सपय यां तत्पादस्पर्शनया कृतासीत् ॥ -द्विवेदी काव्यमाला', प.० १६६ । २. यथा- दिखा प.हे तव रम्वरूपता' अादि । -'द्विवेदी-काव्यमाला', प.० २६१ । क्यों तुम एकादश रुद्र अधोमुख सार ? हैं गये कहां हुंकार कठोर तुम्हारे ? ज्या तुमसे भी बलवान देवगण कोई जिसने तम सब की आज प्रतिष्टा ग्बोई १ ॥ -द्विवेदी-काव्यमाला', प० ३१५ । ४ अथा- 'लगाय' सर्ग १, पद २६, 'समामी' सर्ग ६, पद ३, 'जाला' सर्ग २, पद ४, 'टपकै है' सर्ग ५, पद ६७ आदि । ५ उसी काल में टेठ अवधी में लिखित और जनवरी ११०६ ई० की सरस्वती' में प्रकाशित सरगौ नरक टकाना माहि भाषाविषयक एक है Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ११ । और उपदेशक का स्वर स्पष्ट है द्विवदा जा सस्त की काव्य सरसता और भावपूर्ण स्तुति की ओर विशप आकृष्ट हुए 'महिम्नस्तोत्र' और 'गगालहरी' इसी प्रवृत्ति के परिणाम हैं । संस्कृत के परमेश्वरशतक , सूर्यशतक, चंडीशतक आदि की पद्धति पर दैहिक तापों से मुक्ति पाने के लिए उन्होने १८६२ ई० में 'देवीस्तुतिशतक' की रचना की। धर्मों के परस्पर संघर्पकाल में भी वे मतमतान्तर और धार्मिक वाद-विवाद से दूर ही रहे। उनकी रचनाएँ युग की धार्मिक भावना मे परे और एकान्त भक्तिप्रधान है । उनम आराध्य देवता का स्तवन और उसके प्रति अात्मनिवेदन है । उनका यह निवेदन कहीं नो निजी कल्याण भावना से और कही लोककल्याण भावना से अनुपाणित है। उदाहरणार्थ 'देवीस्तुतिशतक' में उन्होने अपने अमंगलनाश के लिए और अन्य कवितायो में स्थान स्थान पर देश, जाति, समाज श्रादि के मंगल के लिए देवी-देवताओं एवं ईश्वर से प्रार्थना की है।' शोकात बालविधवाओं की दयनीय दशा में अभिभूत द्विवेदी जी ने हिन्दू-धर्म की कठोर रूडियों के विरुद्ध लेखनी चलाई और विधवाविवाह को धर्मतंगत बतलाया २ टीकाधारी कट्टर कान्यकुब्जो ने क्रोधान्ध होकर उन्हे नास्तिक तक कह डाला । 'कथमहं नास्तिक' द्विवेदी जी के उसी अाहत हृदय की धार्मिक अभिव्यक्ति है । उस एक ही रचना मे उनी धार्मिक भावनाओं का समन्वय है। परम्परागत धर्माचार के नाम पर बालविधवानो को वलात् अविवाहित रग्बना समाज की मूढता, हठधर्म, दम्भ, धर्माडम्बर और नृशंसता है । ईश्वर की प्रसन्नता मूर्तिपूजन, गंगास्नान या सविध सन्ध्योपामन मे नहीं है । सत्यनिष्ठा मे ही मंत्रजप की पावनता, सजनी के प्रति भक्तिभाव में ही भगवदभक्ति, उनकी पूजा में ही देवपूजा और प्राणिमात्र के प्रति दया तथा परोपकार में ही निखिल ब्रतो का फल एवं शाश्वत शान्ति है। एकमात्र करुणा ही समस्त सद्धमो का सार है। भारतेन्दुयुग से ही हिन्दीकवि-समाज असाधारण मानवता से साधारण समाज की ओर आकृष्ट होता आ रहा था। काल की इस अनिवार्य गति का प्रभाव द्विवेदी जी पर भी पड़ा । उन्होंने अपनी कविताओं द्वारा समाजसुधार का भी प्रयास किया । वे चाहते थे कि भारतीय समाज अपनी सभ्यता-संस्कृति को अपनावे, साहित्यकार सच्चे ज्ञान का प्रसार करें, समाज की १ यथा-- किए बिलम्ब प्रलय' पूरी इत हवै है तब पछित हो, स्वकर बनाये को बिगारि के अंत ताप हिय पैहौं । नहि नहि अम्म कदापि करिहौ नहि, दयादृष्टि तुम हो, प्रतपाल यहि काल उबारन ऐहौ, ऐहो, ऐहो ।। द्विवेदी पृ० १८१ द्विवदी क प्र० २१० Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धामक दृष्टि उदार अोर व्यापक तथा उसक हृदय म प डिता क प्रति सहानुभूति हो उनकी सामाजिक भानना चार विशिष्ट रूपा म व्यक्त हुइ कही तो उन्होंने पीडित ओर दयनीय वर्ग के प्रति सहानुभूति दिखलाई,' कही समाजसुधार का स्पष्ट उपदेश दिया, कही धार्मिक कट्टरपंथियो तथा साहित्यिक वंचको आदि का व्यग्यान्मक उपहास किया और कहीं नमाज के पथभ्रष्ट हठधर्मियों की कठोर भत्सना की ।४ भारतेन्दुयुग ने समाज की अधोगति के विविध चित्र अंकित किए थे । यज्ञ, श्राद्ध, जातिपॉति, वर्णाश्रमधर्म, स्त्रीशिक्षा , छुआछूत, अन्धविश्वान, धर्मपरिवर्तन. विधवाविवाह, बालविवाह, गोरक्षा, विदेशगमन, मूर्तिपूजा अादि पर लेखनी चलाई थी। सबको सब कुछ कहने की चाट थी । कवियों की रूढ़िवादिता या सुधारवादिता के कारण उनकी रचनाओं में महानुभूति की अपेक्षा अालोचनामन्यालोचना का ही स्वर अधिक प्रधान था। द्विवेदी जी ने समाज के सभी अगो पर लेखनीचालन नहीं किया, किसी एक विषय पर भी बहुत सी रचनाएँ नही की । कान्यकुञ्ज ब्राह्मणों के धर्माइम्बर, बालविधवानो की दुरवस्था और ठहरौनी की कुप्रथा ने उन्हे विशेष प्रभावित किया । 'कान्यकुब्जलीलामृतम्' में पाखंडी समाज का चित्रण भारतन्दु-युग की सामाजिक कविताओं की आलोचना-पद्धति पर किया गया है। बालविधवाविनाप', 'कान्यकुब्जअवलाविलाप' और 'ठहरौनी' में बालविधवानों और अबलानी के प्रति ममानुभूति की निदर्शना परवर्ती द्विवेदी-युग की सामाजिक कविता की विशेषता है। अाधुनिक हिन्टी-माहित्य में देश और स्वदेशी पर रचित कविताओं में निहित भावनाओं १ उदाहरणार्थ--'भारतदुर्भिक्ष, त्राहि नाथ त्राहि आदि कविताएं द्विवेदीकाव्यमाला', में संकलित । २. यथा--- हे देश 1 सप्रण विदेशज वस्तु छोड़ो, सम्बन्ध सर्व उनसे तुम शीघ्र तोडो। मोडो तुरन्त उनमे मुह आज से ही, कल्याण जान अपना इस बात में ही ।। 'द्विवेदीकाव्यमाला', पृ० ४२३ । ३. यथा-- 'जन्मभूमि', 'ग्रन्थकारलक्षण', कर्तव्यपञ्चदशी आदि द्विवेदीकाव्यमाला में संकलित । क्यों है तुझे पट विदेशज देश भाये ? क्यों है तदर्थ फिरता मुह नित्य बाये ? तूने किया न मन में कुछ भी विचार, विकार भारत तुमे शत कोटि बार Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११२ ] के क्रमिक इतिहास की रूपरेखा इस प्रकार है । भारतेन्दु युग के कुछ कवियों ने भारत के अतीत गौरव की ओर संकेत करके अभिमान का अनुभव किया, देश की दयनीयता का चित्राकन करके उसे दूर करने के लिए भगवान् से प्रार्थना की । द्विवेदी युग के अधिकाश कवियों ने अतीत की अपेक्षा वर्तमान पर ही अधिक ध्यान दिया, भगवान् से सहायतार्थ प्रार्थना करने के साथ ही आत्मवल का भी अनुभव किया । वर्तमान क्रान्तिवादी युग तो प्रस्तुत समस्या को लेकर अपने ही बल पर संसार को उलट देने के लिए कटिबद्ध है । इस विकासक्रम मे द्विवेदी जी की कविताएं भारतेन्दुयुग और द्विवेदीयुग की मध्यस्थ श्रृंखला की भाँति हैं। शासकों के गुणगान और भारत के सहायतार्थ ईश्वर से प्रार्थना करने में वे भारतेन्दु युग के साथ है । किन्तु अतीत को छोड़कर वर्तमान के ही चित्र खीचने में वे भारतेन्दु युग में एक पग आगे बढकर द्विवेदी युग की भूमिका में खड़े हुए हैं। द्विवेदी जी की राजनैतिक या राष्ट्रीय कविभावना चार रूपी मे व्यक्त हुई है । पहला रूप शासको के गुणगान का है । 'कृतज्ञताप्रकाश' आदि रचनाओं में कुछ सुविधाएं देने वाली सरकार की मुक्तकंठ से प्रशंसा और हर्ष की इतनी वृत अभिव्यक्ति की है मानो किसी बच्चे को अभीष्ट खिलौना मिल गया हो । परन्तु ये कविताएं द्विवेदीयुग के पूर्व की हैं। अपने जीवन के प्रारम्भिक वर्षो मे द्विवेदी जी विदेशी सरकार के भक्त थे - यह बात 'चरित और चरित्र' अध्याय मे सप्रमाण कही जा चुकी है। इसके दो प्रधान कारण परिलक्षित होते हैएक तो भारतेंदु युग से चली आनेवाली राजभक्ति की परम्परा और दूसरे अंग्रेजी द्वारा देश में स्थापित की गई शान्ति तथा उन्हें प्रसन्न करके हिन्दी के लिए कुछ प्राप्त करने की भावना | राजनैतिक कविता के दूसरे रूप में द्विवेदी जी ने देश की वर्तमान अधोगति के प्रति क्षोभ प्रकट किया है ।" इस सम्बन्ध में एक विशेष अवेक्षणीय बात यह है कि उन्हो ने भारतेन्दु की मुकरियो या द्विवेदीयुग के राष्ट्रीय कवियों की भाति अंग्रेजो को देश की दुर्दशा का कारण नहीं माना है और इसलिए कहीं भी उनके अत्याचारों का निरूपण नहीं किया है उनकी राजनैतिक कविता का तीसरा रूप भारत के गौरवगान का है। इस भाव की अभिव्यक्ति मुख्यतः चार रूपों में हुई है । कहीं तो उन्होंने भारत के अतीत वैभव की महिमा का वर्णन १. यथा- यदि कोई पीड़ित होता है, उसे देख सब घर रोता है । देशदशा पर प्यारे भाई आई कितनी बार स्लाई प्र. ३६७ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L ९१३ किया है, 'देवरूप म उसकी प्रतिष्ठा की है, कहीं उसके रमणीय प्राकृतिक दृश्यों का रूपाकन किया है और कही देश तथा स्वदेशी वस्तुओं के प्रति सरल प्रेम की व्यंजना की है । ४ पाचवें रूप मे कवि द्विवेदी की स्वतंत्रता की आकाक्षा का व्यक्तीकरण हुआ है । यह afroयक्ति प्रधानतया पाँच प्रकार से हुई है। कहीं देश के कल्याण के लिए देवीदेवताओ की दुहाई दी गई है, " कही उत्थान के लिए देशवासियों को विनम्र प्रोत्साहन दिया गया है, ही तीत की तुलना में वर्तमान का चित्रण करके भविष्य सुधारने की चेतावनी दी गई७ है, कही राष्ट्रीय जागृति के लिए मेलजाल का राग अलापा गया है और कहीं देश के उद्धार के लिए बाहुबल मे क्रान्ति कर देने का संकेत किया गया है | ६ द 3. ३ यथा- यथा -- जहाँ हुए व्यास मुनि प्रधान, 1 रामादि राजा अति कीर्तिमान | जो थी जगत्पूजित धन्यभूमि यथा है. वही हमारी यह ग्रार्यभूमि || 'द्विवेदी - काव्यमाला' पु० ४०६ । state धार हमारे तुम्हीं गले के हार हमारे, जै जै जै जै देश | वह जंगल की हवा कहां है ? कहां ने का मना है ? वह मोरों का शोर कहां है कोयल की मीठी तानों को ? ४. यथा- 'जन्म भूमि' में, ५ यशा 5 'द्विवेदी काव्यामाला' में संकलित । ग्रालस्य फूट, मदिरा, मद दोप सारे, यह कहीं टरते न टारे । + 'द्विवेदी - काव्यमाला' पृ० ४२४ । वह इस दिल की दवा कहाँ है ? लहरा रही कहां जमुना है ? श्याम घटा घनघोर कहां है ? सुन सुख देते थे कानों को ? 'द्विवेदी - काव्यमाला' पृ० ३६१ । हे भक्तवत्सल ! उन्हें उनमे बचाओ, हस्तारविन्द उनके सिर पै लगाओ। 'द्विवेदीकाव्यमाला' पु०३६२/ ६. यथा 'द्विवेदी-काव्यमाला' म संकलित 'जन्मभूमि' में । ७ यथा 'द्विवेदी-काव्यमाला' में संकलित 'आर्यभूमि' और 'देशोपालम्भ' मे | ८ उदाहरणार्थ हिन्दू मुसलमान ईसाई, यश गावे सब भाई भाई, सबके सब तेरे शैदाई, फूलो फन्तो स्वदेश | 'द्विवेदी - काव्यमाला' '१०४५३. ४५४ । कहा ? बता यह प्रश्न हमारा | प्राण जन्म मेरा है वहाँ द्विवेदी प० ४२० यथा कवि हे स्वतंत्रते ! जन्म तुम्हारा स्वतंत्रता शूर देशहित तजते नहीं Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ हिन्दी-भाया और साहित्य क पुजारी द्विपदी जी हिन्दी की टीन दशा से विशेष प्रभावित थे । साहित्यसम्बन्धी विपयो पर लिखित उनकी कविताएं तत्कालीन साहित्य का बहुत कुछ आभास देती हैं। उनमें कही मायावी सम्पादकों की बंचक लीलानी का निरूपण है,' कहीं हिन्दीभाषियों द्वारा नागरी के त्यागे जाने और विदेशी भाषाओं के अपनाए जाने पर ग्वेदप्रकाश है, २ कही सरकारी कार्यालयां, कचहरियो अादि में हिन्दी को उचित स्थान दिलाने के लिए निवेदन है, 3 कहीं संस्कृत बंगला, मराठी, अँगरेजी श्रादि के सामने हिन्दी की हीनता, तुकडो की अलंकारवादिता, कवित्वहीन पद्यरचना और समस्यापूरको तथा वडीबोली के विरोधी व्रजभाषाभक्तों की विडम्बना से व्यथित कविहृदय का व्यक्तीकरण है,४ कही यशोलोलुप, ईर्ष्यालु, चोर और अपंडित हिन्दी ग्रन्यकर्ताओं की यथार्थ झाकी है, कही - कविता का अंगभंग करने वाले हिन्दीपकारो के प्रति क्रोध, शोक तथा उपहास की व्यंजना है और कहीं हिन्दी को आश्रय देने के लिए देशी नरेशो से विनय की गई है ।७ यही प्राग्दि वेदीयुग-अराजकता-युग-का चित्र है । 'समय नहीं है', 'मुझे लिखना नहीं पाता' आदि बहानी के अाधार पर विदेशीभाषाग्रेनी हिन्दुओ और हिन्दीभाषियो को हिन्दीसेवा के पथ का पथिक बनाने के लिए ही युगनिर्माता द्विवेदी ने 'संदेश' की रचना की। , रविवर्मा आदि चित्रकारी के चित्रो ने हिन्दीकविया का ध्यान विशेष आकृष्ट किया। उन चित्रों की वस्तु पर द्विवेदी जी ने स्वयं कविताएं लिखी और दूसरों से भी लिखवाई। द्विवेदी-सम्पादित 'कविताकलाप' इसी प्रकार की कविताओं का संग्रह है । द्विवेदी जी की रम्भा', 'कुमुद-सुन्दरी', 'महाश्वेता', 'उषाम्वप्न' आदि चित्रपरिचयात्मक रचनात्रो का अालम्बन पौगणिक या आधुनिक युग की नारी है । अादर्श नारियों के चरित्र अंकित करक वे भारतीय नारी-ममाज को सुधारना और मरत, परिष्कृत तथा मंजी हुई पद्यभापा खड़ीबोली की प्रतिष्ठा एवं प्रचार करना चाइने थे । रविवर्मा के चित्रों का गुणानुवाद भी इन रचनाओं का उद्देश जान पड़ता है । द्विवेदी जी ने हिन्दी-हितैषियों की प्रशंसा में और अवमर-विशेष पर भी अनेक कविताएं लिया । ८ 'बलीबर्द', 'काककृजितम्', 'जम्बुकी-न्याय', 'टेमू की टाग' यथा- द्विवेदी-काव्यमाला' में संकलित 'समाचारपत्रसम्पादकस्तवः' में। , 'नागरी तेरी यह दशा' में। ,, नागरी का विनयपत्र' में। ., 'हे कविते' में। यथा- द्विवेदी-काव्यमाला' में संकलित 'ग्रन्थकारलक्षण' में। 'स्वाम प्रार्थना' कवितायें आदि Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि में व्यक्तिगत आक्षेप भी है किन्तु उमका विबन्धन उचित नही प्रतीत होता । क द्विवेदी जी के प्रकृतिवर्णन में बस्तु की नवीनता नहीं है। 'ऋतुतरंगिणी', 'प्रभातवर्णनम्', 'सूर्यग्रहणम्', 'शरत्सायंकाल', 'कोकिल', 'वसन्त' आदि कविताश्रो में उन्होंने प्रकृति के रूढिगत विपयो को ही अपनाया है। उनका महत्व विधानशैली की दृष्टि से है । वस्तुतः द्विवेदी जी प्रकृति के कवि नहीं हैं । प्रकृति पर उन्होंने कुछ ही कविताएं लिखी हैं जिनका न्यूनाधिक महत्व ऐतिहासिक आलोचना की दृष्टि से है । भाव की दृष्टि में उनकी कविताओं मे कही तो प्रकृति का भावचित्रण हुअा है और कही रूपचित्रण ! भावचित्रण में उन्होंने प्रकृतिगत अर्थ का ग्रहण कराने का प्रपाम ओर रूपचित्रण में प्रकृति के दृश्यो का चित्र-सा अंकित किया है । मौन्दर्य की दृष्टि से द्विवेदी जी ने प्रकृति के कोमल और मधुर रूप को ही दवा है, उसके उग्र और भयंकर रूप को नहीं जैसा कि मुमित्रानन्दन पन्त ने अपने 'परिवर्तन' 3 में किया है। 'नुतरंगिणी' में ग्रीष्म का वर्णन यथार्थ होने के कारण द्विवेदी जी की उग्रताविपक प्रवृत्ति का द्योतक नहीं हो सकता। निरूपित और निरूपयिता की दृष्टि में द्विवेदी जी के प्रकृति-वर्णन में केवल दृश्य-दर्शक मग्बन्ध की व्यजना हुई है, तादात्म्यसम्बन्ध की नहीं । यही कारण है कि उनकी प्रकृतिविषयक कविताओं में गहरी अनुभूति की अपेक्षा वर्णनात्मकता ही अधिक है। विधान की दृष्टि में उन्होंने प्रकति-निरूपण दो प्रकार मे किया है--प्रस्तुत-विधान अोर अप्रस्तुत-विधान । उदाहरणार्थ-'तुतरंगिणी' आदि में प्रकृतिचित्रण ही कवि का लक्ष्य रहा है किन्तु 'काकृजितम्' अादि में अप्रस्तुत काक यादि के चित्रण के द्वारा कवि ने प्रस्तुत दुष्टो के चरित्रचित्रण का ही प्रयास किया है। विभाव की दृष्टि से उन्होंने प्रकृति का चित्रण दो रूपों में किया है-- उद्दीपनरूप में और अालम्बनरूप मे । रीतिकालोन परम्परा ने प्रकृति के विविध दृश्यों को श्र'गार के उद्दीपनरूप मे ही प्रायः अंकित किया था | जगमोहन सिंह और श्रीधरपाठक उसके पालम्बन-पक्ष की ओर भी प्रवृत्त हुए । प्राकृतिक दृश्यो का आलम्बनम्प में चित्राकन करके द्विवेदी जी ने इस १. २. यथा--कुमुदपुष्पसुवाससुवासिता, बकुलचम्पकगन्धविमिश्रिता । मदुल बात प्रभात भये बहै, मदनवर्द्धक अर्द्धकला कहै ।। द्विवेदी-काव्यमाला' पृ० ८२ । यथा---क्व मामनादत्य निशान्धारः पलाय्य पाप. किल यस्तीति । ज्यलन्निव कोधभरेण भानुरंगाररूप. सहसाचिरासीत् ।। _ 'द्विवेदी काव्यमाला पृ० १६६ । माधुनिक कवि २ में सकलित Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रणाली को और आगे बढाया ' इमी काव्यभूमिका म गोपाल शरण सि. राम नरश त्रिपाठी रामनन्द्र शुक्ल, मुमित्रानन्दन पन्त श्रादि ने श्रालम्बनरूप में प्राकृतिक दृश्या का अर्थग्रहण और बिम्बग्रहण कगया। १. यथा-- विशुष्क पत्र द्रुम में अनेका, धमे धसे कीचक एक एका। अनन्त जीवान्तक दुःखदाई, दशों दिशा पावक देत लाई ॥ 'द्विवेदी काव्यमाला' पृ० ८० । या -- ममाचिरात् सम्भविता समाक्षिः शुचा हृदीनीव विचिन्तयन्ती । उष: प्रकाशप्रतिभामिषेण विभावरी पांडुरतां बभार ।। 'द्विवेदी क ८ १० १६८ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां अध्याय अालोचना पश्चिमीय साहित्य में ममालोचना का अर्थ किया जाता है रचना के विषय के इतिहास, सौदर्यमिद्वात्त. रचनाकार की जीवनी ग्रादि की दृष्टि से रचना के गुग्णदोष और रचनाकार की अन्तत्रु लियो तथा प्रवृत्तियों का सूक्ष्म विवेचन। सस्कृत-माहित्यकारों ने इम अर्थ में न तो यालाचना ही की है और न उम शब्द का ही प्रयोग किया है। हिन्दी में प्रचलित समालोचना, समालोचन, पालोचना और अालोचन एक ही अर्थवाचक शब्द है । ये शब्द संस्कृत के होते हुए भी अंगरेजी के 'क्रिटिसिज्म' के ममानार्थी हैं । समीक्षा और परीक्षा भी अालोचन के पर्याय हैं । 'क्रिटसिज्म' के लिए इन शब्दों के चुनाव का अाधार क्या है ? अपने "ध्वन्यालोकलोचन' में अभिनवगुप्तपादाचार्य ने लिखा है "अपने लोचन (जान या मन) द्वारा न्यूनाधिक व्याख्या करता हुअा मैं काव्यालोक (वन्यालोक )को जनमाधारण के लिए विशद ( स्पष्ट ) करता हूँ ।”१ 'चन्द्रिका" ( ध्वन्यालोक पर लिखी गई व्याख्या ) के रहते हुए भी लोचन के बिना लोक या ध्वन्यालोक का ज्ञान असम्भव है। इसीलिए अभिनवगुप्त ने प्रस्तुत रचना में (पाठको की ) प्रान्वें बोलने का प्रयास किया है।" इन उदाहरणों में स्पष्ट है कि लोचान लोचक द्वारा भावक को दिया गया वह जानलोचन है जिसकी सहायता से बह लोचित रचना का उचित भावन कर सके । परीक्षा और ममीक्षा शब्द भी इसी अर्थ की पुष्टि करते हैं। संस्कृत के लक्षणग्रन्थों का नामकरण भी इसी अर्थ की भूमिका पर ग्रालम्बित दिखाई देता है। श्रानन्दवर्धन, मम्मटाचर्य, शारदा यत्किंचिदप्यनुरणन्स्फुटयामि काव्य - लोक स्वलोचननियोजनयो जनस्य ।। __ वन्यालोकलोचन', पृ० २ । किं लोचन बिना लगेको भाति चन्द्रिकयापिहि । तेनाभिनवगुप्तोऽत्र खोचना मोखन व्यधात् । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ११८ तनय, जयदेव, विश्वनाय श्रादि के ध्वन्यालोक , काव्यप्रकाश', ना7771 , 'चन्द्रालोर'. 'सहित्यदर्पण' यादि शब्द लोचन के उपयुक्त अर्थ के ही समर्थक हैं 'सम्' और 'या' उपसर्गो के सहित लोचन ही समालोचन है । व्याकरण, दर्शन, इतिहास आदि-विषयक ग्रन्थों की समालोचना भो ममालोचना ही है । ममालोचना की चाहे जो भी परिभाषा की जाय, उमका निम्नाकित लनण सर्वव्यापक है--साहित्यिक समालोचना वह रचना है जो आलोचित साहित्यिक कृति के अर्थ या बिम्ब का भली भाँति ग्रहण करने में पाठक, श्रोता या दर्शक की सहायता करे। इस उदेश की दृष्टि से संस्कृत ही नहीं, हिन्दी-साहित्य में भी छः प्रकार की ग्रालोचनापद्वतियां दिखाई देती हैं ! १. प्राचार्य-पद्धति २. टीका-पद्धति ३. शास्त्रार्थ-पद्धति ४. मुक्ति-पद्धति ५. वडन-पद्धति ६. लोचन-पद्धति द्विवेदी जी की अालोचना भी इन्हो छः वर्गों के अन्तर्गत होतो है। संस्कृत के प्राचार्य अपने लक्ष णग्रन्थों में काव्यादि के लक्षणों का निरूपण करते थे। जिन लक्ष्यग्रन्थों को वे उत्कृष्ट समझते थे उन्हे रस, अलंकार श्रादि के सुन्दर उदाहरणा के रूप में और जिन्हे निकृष्ट समझते थे । उन्हे अधम काव्य या दोपो के उदाहरणों के रूप मे उद्वत करके उनके गुणदोपो की यथोचित समीक्षा करते थे । 'ध्वन्यालोक', 'काव्यप्रकाश', 'साहित्यदर्पण' श्रादि इसी प्रकार के ग्रन्थ है । हिन्दी-प्राचार्यों ने अपने रीतिग्रन्थों में मम्मट आदि का अनुकरण न करके पंडितराज जगन्नाथ अादि का अनुकरण किया-सिद्धान्तनिरूपण में दूसरों की रचनायो के स्थान पर अपनी ही रचनाओं के उदाहरण दिए और दोष-प्रकरण की अवहेलना कर दी। अाधुनिक हिन्दी-साहित्य में भी संस्कृत की आचार्यपद्धति पर अनेक ग्रन्थ लिखे गए --जैसे गुलाब राय का 'नवरस', कन्हैया लाल पोद्दार का 'काव्य १. पंडित रामचन्द्र शुक्ल को संस्कृत-साहित्य में आलोचना के केवल दो ही ढंग दिखाई पढे हैं-आचार्यद्धति और सूक्तिपद्धति । उनका यह मत है कि 'समालोचना का उद्देश हमारे यहां गुणदोप-विवेचन ही समझा जाता रहा है।' हिन्दी साहित्य का इतिहास पृ ६ ० ६३ अक्ल जी का यह चिन्रय निएंय प्रशत सत्य है Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 १६ ] कल्पद्रुम अतु न दास कडिया का भारती भूपण अयाध्या मह उपा याय का रम कलस श्रादि । इस पद्धति म मद्धातनिरूपण ही प्रधान और उदाहृत रचनाए गाण है । अतएव यह पद्धति वस्तुतः पालोचना की पीठिका है। 'रसार जन', 'नाट्यशास्त्र' श्रादि बालोचनाएं द्विवेदी जी ने प्राचार्यपद्धति पर की है। उनकी प्राचार्यपद्धति और संस्कृत की परम्परागत प्राचार्यपद्धति में रूप का ही नहीं अात्मा का भी अन्तर है । मिद्धान्त का निरूपण करते समय उन्होंने संस्कृत-प्राचार्यों की भाति मगुण या दुष्ट रचनाओ का न तो उद्धरण दिया है और न उनका गुणदोपविवेचन ही किया है यत्र तत्र अाए हुए एक दो उदाहरण अपवादस्वरूप है । ' द्विवेदी जी की प्राचार्यपद्धति पर की गई अालोचनाओं की पहली विशेषता यह है कि उन्होंने हिन्दी-विद्यापीठ के वास्तविक प्राचार्यपद से ही सिद्धान्तसमीक्षा की है । छन्द-अलंकारादिनिदर्शक के अासन से कोरा सिद्धान्तनिरूपण ही उनका ध्येय नहीं रहा है। नाटक के क्षेत्र मे यथार्थ नाट्यकला से अनभिज्ञ नाटककारो और 'इन्द्रमभा', 'गुलेवकावली' श्रादि में रुचि रखने वाले दर्शको को प्रशस्त पय पर लाने के लिए उन्होंने 'नाट्यशास्त्र' की रचना की 13 हिन्दी कविता अतिशय १. 'ग्मज्ञरंजन' में 'रामचरितमानस पृ०५१.५२.५३ और 'एकान्तावासी योगी' पृ० ४५ के उद्धरण। २ क “छन्द, अलंकार, व्याकरण आदि तो गौण बातें हुई उन्हीं पर जोर देना अविवक्ताप्रदर्शन के मिवा और कुछ नहीं।" विचार-विमर्श', पृ० ४५ । "ये सब पूर्वोक्त भेद हमने, यहां पर बाचको के जानने के लिए दिया तो दिए हैं, परन्तु हमारा यह मत है कि हिन्दी में नाटक लिखने वालो के लिए इन सब भेदी का विचार करना आवश्यक नहीं । इन भेदों का विचार करके इन में से किमी एक शुद्ध प्रकार का नाटक लिखना इस समय प्रायः असम्भव भी है। देश, काल और अवस्था के अनुसार लिग्वे गये सभी नाटक, जिनमें मनोरंजन और उपदेश मिले प्रशंसनीय हैं। थे चाहे हमारे प्राचीन आचायो के मारे नियमों के अनुकूल बने हो चाहे न बने हो उनमे लाभ आवश्य ही होगा। इसमें यह अर्थ न निकालना चाहिए कि नाट्यशास्त्र के प्राचायों में हमारी श्रद्धा नहीं है। हमारे कहने का तात्पर्य इतना ही है कि ये सब जटिल नियम उस समय के लिए थे जिम ममय भरत और धनजय आदि ने अपने ग्रंथ लिग्वे हैं । इस समय उनको यदि कोई परिवर्तितदशा में प्रयोग करे, और ऐमा करके, यदि वह सामाजिको का मनोरंजन कर सके, तथा, अपने खेल के द्वारा वह सदुपदेश भी दे सके, तो कोई हानि की बात नहीं।" नाट्यशास्त्र', पृ० २६ ! ३."नाट्यकला का फल उपदेश देना है। इसके द्वारा ननोरजन भी होता है और उपदेश भी मिलत है। चाहे जेसा नारक हो और चाहे जिसने उमें बनाया हो उसमे कोई न कोई शिन अवश्य मिननी चहिए यदि ऐमान रा तो नारकार का प्रयन व्यर्थ है और दर्शको Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थ गारिकता से अाक्रान्त थी लोग कविता के वास्तविक अय को नहीं समझ रहे थे भाषा श्रादि बहिरंगो को लेकर विवाद चल रहा था । ऊर्मिला-जैसी नारियों के प्रति उपेक्षा थी। सम्पादक, समालोचक, लेखक सभी अपने कर्तव्य के प्रति उदासीन थे। द्विवेदी जो ने टन वाना की ओर ध्यान दिया । हिन्दी की परिस्थितियो और आवश्यकताओं को दृष्टि में रखकर उन्होंने अालोचनाएं की। 'कवि बनने के सापेक्ष माधन', 'कवि और कविता', 'कविता', 'नायिका-भेद', 'कवियों की मिलाविषयक उदासीनता', 'उर्दूशतक', 'महिपशतक की ममीक्षा', 'श्राधुनिक कविता'. 'बोलचाल की हिन्दी में कविता', 'सम्पादको, ममालोचको तथा लेबको के कर्तव्य' श्रादि लेखों में स्थान स्थान पर साहित्य और अालोचना का शास्त्रीय विवेचन करते समय वे सचमुच ही श्राचार्य बन गए हैं। ___ उनकी दूसरी विशेषता यह है कि उनका सिद्धान्तनिरूपण मभी श्राले बनायो में यथास्थान बिग्बग हुया है। इसका कारण यह है कि उन्होंने संस्कृत-प्राचार्यों की भाति मिद्वान्तों को साव्य और लक्ष्य रचनाओं को माधन न मानकर लक्ष्य रचनाओं को भी मान्य और सिद्धान्तो को ही भाषन माना है । लेखक या उसकी कृति की आलोचना करते ममय जहा कही अपने कथन को प्रमाणित या पुष्ट करने की आवश्यकता पडी है वहा पर उन्होंने अपने या अन्य प्राचार्य के सिद्धान्तो का उपस्थापन किया है।' उनकी सिद्वान्तमूलक अालोचनाओं की तीसरी विशेषता यह है कि उन्होंने अपने मिद्वान्ता को किमी वाद के बन्धन में नहीं बाधा है। वे न तो भरत, विश्वनाथ आदि की भाँति रसवादी हैं, न मामहादि की भाति अलङ्कारवादी है, न वामन अादि की भाति रीतिवादी हैं न कुन्तक आदि की भाँति वक्रोकिवादी हैं, न आनन्दवर्द्धन, अभिनवगुप्त आदि की भाति ध्वनिवादी है, न पंडितराज जगन्नाथ की भाति चमत्कारवादी हैं और न पश्चिमीय समीक्षाप्रणाली से प्रभावित अालोचक की भांति अन्तःसमीक्षावादी हैं। उनकी आलोचना मे सभी बादो के मार का समन्वय है । उन्होने अपनी अालोचनायो मे व्यवहारबुद्धि मे काम लिया है, किन्तु कोरे उपयोगितावादी भी नहीं है। उन्होने किसी वाद का खडन का नेत्रव्यापार भी व्यर्थ है। जो लोग 'इन्दर-सभा और गुलेबकावली' आदि खेल, जो पारमो थियेटर बाले आजकल प्रायः खेलते हैं, देग्नने जाते है उन्हे अपना हानि-लाभ सोचकर वहा पगरना चाहिए।" 'नाट्यशास्त्र' पृ० ५७ । १. उदाहरणार्थं, कालिदास के ग्रन्थों की आलोचना करते हुए ये लिखते हैं- 'जिस साहित्य में समालोचना नहीं वह विटपहीन महीरुह के समान है। उसे देखकर नेनानन्द नहीं होता। उसके पाठ और परिशीलन से हदय शीतल नहीं होता वह नीरस मास म होता है " कालिदास और उनकी कविता' पृ १५१ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १५१ मडन करने के लिए लेखनो नहीं उरई अतएव उनकी रचनामा को किसी वाद : उपनयन में देखने का माग सबथा पतित है। साहित्य और मनुष्यत्व मे बहुत गहरा सम्बन्ध है। द्विवेदी जी का कथन है कि साहित्य ऐसा होना चाहिए जिसके अाकलन से बहुदर्शिता बडे, बुद्धि की तीव्रता प्राप्त हो, हृदय में एक प्रकार की संजीवनीशक्ति की धारा बहने लगे, मनोवेग परिष्कृत हो जायं और अात्मगौरव की उद्भावना हो ।' महाकवि इस काम को समुचित रूप से कर सकते है । महाकवि वस्तुतः है भी वहीं जिसने उच्च भावो का उद्बोधन किया है। उसे भी प्राचार्यों के नियमो का न्यूनाधिक अनुशासन मानना ही पड़ता है । महाकवि का काव्य उच्च, पवित्र और मङ्गलकारी होता है । वह कवि के स्वान्तःमुखाय ही नहीं होता। वह परार्थ को स्वार्थ से अधिक श्रेयस्कर समझता है। उसका लक्ष्य बहुजनहिताय है ।३ अन्तःकरण में रसानुभूति कराकर उदार विचारो में मन को लीन कर देना कविता का चरम लक्ष्य है। कविता एक सुखदायक भ्रम है जिसके उपभोग के लिए एक प्रकार की भावुकता, सात्विकता और भोलेपन की अपेक्षा है। कविता कवि की कल्पना द्वारा अंकित अन्तःकरण की कृत्तियों का चित्र है।', सुन्दर कविता का विषय मनुष्य के जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है । वह उसकी आत्मा और श्राव्यात्मिकता पर गहरा असर डालता है। कवि की प्रतिभा द्वारा किया गया जीवन के सत्य का चमत्कारपूर्ण उपस्थापन अानन्द की सष्टि करता है ।७ कवि के कल्पना-प्रधान जगत् मे सर्वत्र सम्भवनीयता हूँढना व्यर्थ है ।८ कविता और पद्य का अन्तर स्पष्ट करते हुए द्विवेदी जी ने बतलाया कि वास्तव में कविकर्म बहुत कठिन है। वह पिगलशास्त्र के अध्ययन और समस्यापूर्ति के अभ्यास का ही परिणाम नहीं है। वह किसी एक ही भाषा की सम्पत्ति नहीं है ।१० उस सक्रान्ति-काल के हिन्दी-कवियों के लिए उन्होंने १ हिन्दी-साहित्य सम्मेलन के तेरहवेअधिवेशन के अवसर पर स्वागताध्यक्षपद से द्विवेदी जी द्वारा दिए गए भाषण के पृ० ३२ के आधार पर । २. 'समालोचना-समुचय', 'हिन्दी-नवरत्न', पृष्ठ २२८ के आधार पर । ३. 'समालोचना- समुच्चय', 'भारतीय चित्रकला', पृष्ट २६ के आधार पर । ४ 'रसशरंजन', 'कविता', पृष्ट ५५ के आधार पर । ५. 'रसज्ञरंजन', 'कविता', पृ० ५० के आधार पर । ६ विचार-विमर्श', 'अाधुनिक कविता के आधार पर । ७. रसज्ञरंजन', 'कवि बनने के सापेक्ष साधन', पृष्ठ २६ के आधार पर । ८. 'समालोचना-समुञ्चर', 'हिन्दी नवरत्न', पृष्ट २३८ के आधार पर। * 'रसशरंजन', 'कवि बनने के सापेक्ष साधन'- पृष्ट २० के आधार पर । [समुच्चय उदू शतक', पृष्ठ १३३ के आधार पर Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L ४२२ स्प सदेश दिया था रस, भान, अलङ्कार छद शास्त्र और नायिकाभेद समाननाति का बहुत ही कम उपकार हो सकता है उसका त्याग यावश्यक है इस प्रकार का साहित्य समाज की दुर्बलता का चिन्ह है । इसके न होने से साहित्य का लाभ होगा ।' लोक्-रुचि के अनुसार सहज मनोहर काव्य रचना की अपेक्षा है जिससे जनता में नवीन कविता के प्रति अनुराग उत्पन्न हो | नवीन भाव-विचार को लेकर कल्पित अथवा सत्य श्राख्यान के द्वारा सामाजिक, नैतिक यादि विषयों पर काव्य- निबन्धना होनी चाहिए। आलोचना के विषय में भी द्विवेदी जी के विचार निश्चित थे । 'हिन्दी कालिदास' की समालोचना में उन्होंने सुबन्धु की ' वासवदत्ता' के निम्नांकित श्लोक को उद्धत करके आलोचना के अर्थ और प्रयोजन की ओर संकेत किया था -- 4 गुणिनामपि निजरूपय तिपत्तिः परत एव संभवति । स्वमहिमदर्शनमक्ष्णोमु कुरकरतले जायते यस्मात् ॥ अपने इस विचार को उन्होंने 'कालिदास और उनकी कविना मे स्पष्ट किया है- 1 " कवि या अन्थकार जिम मतलब से ग्रन्थरचना करता है उससे सर्वसाधरण को परिचित कराने वाले आलोचक की बड़ी ही जरूरत रहती है। ऐसे समालोचको की समालोचना से साहित्य की विशेष उन्नति होती है और कवियों के गूढाशय मामूली ग्रादमियों की सम मे जाते हैं । कालिदास की शकुन्तला, प्रियम्वदा और अनसूया में क्या भेद है ? उनके स्वभावचित्रण में कचि ने कौन कौन सी खूबिया रक्खी है ? उनमें क्या क्या शिक्षा मिलती है ? ये बातें सत्र लोगों के ध्यान मे नही आ सकती अतएव वे उनसे लाभ उठाने से वंचित रह जाते हैं । इसे थोडी हानि न समझिए । इससे कवि के उद्देश का अधिकाश ही व्यर्थ जाता है। योग्य समालोचक समाज को इस हानि से बचाने की चेष्टा करता है । इसी से साहित्य मे उसका काम इतने चादर की दृष्टि से देखा जाता है - इसी से साहित्य की उन्नति के लिए उसकी इतनी अवश्यकता है ।२ परम्परागत भारतीय समालोचनाप्रणाली के भक्त होते हुए भी द्विवेदी जी ने पाश्चिमात्य नवीन प्रणाली के गुणों को अपनाया। दोपदर्शन को उन्होंने बुग नहीं समझा । उनका कथन है कि समालोचक को न्यायाधीश की माति निष्पक्ष और निर्भय होना पडता है । सन् समालोचक को बड़े बड़े कवि, विज्ञानवेत्ता, इतिहास-लेखक और वक्ताओ की कृतियों पर १. ' रसज्ञरंजन', 'नायिकाभेद', पृष्ठ ६२ के आधार पर | २. 'कालिदास और उनकी कविता', पृ० १३ | ३ प्राचीन कवियों क काव्या में + पृ० ३ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ ] फसला सुनाने का अधिकार होता है ढग मम्यतापूर्ण और युक्ति-सगत होना चाहिए पाडिल्यमूलक अालोचना भूला के प्रदर्शन तक ही रह जाती है । प्रमुख बात तो अालोचक की वस्तूपस्थापन-शैली, मनोरंजकता, नवीनता, उपयोगिता प्राटि है । जिसके कार्य या ग्रन्थ भी ममालोचना करनी है उसके विपय मे समालोचक के हृदय मे अत्यन्त सहानुभूति का होना बहुत आवश्यक है । लेग्वक, कवि या ग्रंथकार के हृदय मे घुमकर समालोचक को उसके हर एक परदे का पता लगाना चाहिए । अमुक उक्ति लिखते समय कवि के हृदय की क्या अवस्था थी, उसका श्राशय क्या था, किस भाव को प्रधानता देने के लिए उसने वह उक्ति कटी थी-यह जब तक समालोचक को नहीं मालूम होगा तब तक वह उस उक्ति की आ नोचना कभी न कर सकेगा। किमी वस्तु प्रा विषय के सब अंगो पर अच्छी तरह विचार बग्ने का नाम समालोचना है । वह नवतक मभव नहीं जब तक कवि और समालोचक के हृदय में कुछ देर के लिए एकतान्न स्थापित हो जाय ।' व्यवहार के क्षेत्र में श्राकर समालोचको को अनेक बातो का ध्यान रखना पड़ता है। समाज के भय की चिन्ता न करके विचारो को स्वतन्त्रतापूर्वक उपस्थित करने का उनगे गुण होना चाहिए । उनका कथन स्पष्ट, सोद्देश्य, तर्कसम्मत और साधिकार होना चाहिए । आलोचन का लक्ष्य मत का निर्माण और रुचि का परिष्कार है। अनर्गल बातें और अत्युक्तिया तो सर्वथा त्याज्य हैं ।३ जहा पारस्परिक तुलना और श्रेष्ठता का प्रश्न हो वहा युग, परिस्थिति, व्यक्ति, लक्ष्य, कल्याणकारिता अादि पर भलीभाति विचार करना पड़ता है। अालोचक की तुली हुई और मयत भाषा मे गहरे चिन्तन एवं मूल्याकन का आभाम मिलना चाहिए । द्विवेदी जी ने अपने उपर्युक्त सभी सिद्धान्तो को कार्यान्वित करने का भरसक प्रयास किया परन्न युग की बढमुग्वी अावश्यकनायो ने पूर्ण सफलता म पाने दो। मकी समीक्षा प्रारी की जाय । टीकापद्धति ने सिद्धान्त का पता अालोच्य कृति को अधिक महत्व दिया है। मल्लिनाथ श्रादि कोरे टीकाकार ही न थे. समालोचक भी थे । टीका लिग्बते समय उन्होंने कवि के प्राशय को तो स्पष्ट करके बता दिया है, उसकी उक्तियों को विशेपताएं भी बताई हैं और रस, अलङ्कार, ध्वनि याटि का भी उल्लेख किया है । इम पद्धति ने रचनागत अर्थ और व्याकरणपन्न पर ही अधिक ध्यान दिया ! सम्भवतः संस्कृत के उम उत्थान-काल में काव्यजैमे सरल विषय की विस्तृत अालोचना अनपेक्षित समझी गई थी। रूपको के टीकाकारों १. 'कालिदास और उनकी कविता', पृ० ११२ । २ 'समालोचना-समुबा' 'हिन्दी नवन' १२ २११ २३३ के आधार पर ३ सम सिमुन्नय' हिटी नवरन प० २ ३५ के आधार पर Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने स्थान स्थान पर शास्त्रीय दृधि से उनकी बर कुछ यान || की है यः । नन्दी प्रस्ता गना, सन्धिया, सन्ध्यगा आदि के अवसरों पर । व्याकरण, दर्शन श्रादि काव्यतर विषयो की आलोचना पति और विशद हुई, उदाहरणार्थ पंतजलि का 'महाभाष्य', 'श'करभाष्य' आदि । इस पद्धतिकी विशेषता अर्थव्याख्या के साथ साथ रस, अलङ्कार श्रादि के निर्दशन मे है । हिन्दी में 'मानसपीयूष', पद्मासहशर्मा की 'बिहारी-सतमई', जगन्नाथदाम का 'बिहारी-रत्नाकर' आदि इसी कोटि की कृतियाँ हैं । हिन्दी के श्रेष्ठ समालोचक रामचन्द्र शुक्ल भी अपनी अालोचनाओं के बीच बीच में इस पद्धति पर चले बिना नहीं रह सके है।' __केवल हिन्दी जानने वालों को 'भागिनी-विलास' आदि की काव्यमाधुरी का अाम्वाद कराने के लिए द्विवेदी जी ने उनके हिन्दी-भाषान्तर प्रस्तुत किए। उन अनुवादा में मालोचनात्मक टीकापद्धति की कोई विशेपता नहीं है । संस्कृत-टीकापद्धति का उद्देश था सरल वर्णनात्मक शैली में पाठको को भालोचित ग्रथ के अर्थ और गुणदोपका ज्ञान कराना । इस उद्देश और शैली के अनुकूल चलने वाली द्विवेदीकृत अालोचना में हम इस पद्धति के तीन विक्रमित या पारेवर्तित रूप पाते हैं। पहला रूप है उनके द्वारा की गई काव्य-चर्चा | २ 'नेपधचरितच ' और 'विक्रमाकदेवचरितचर्चा' मे 'नैपधचरित' और 'विक्रमाकदेवचरित' की परिचयात्मक आलोचना है । काव्य के रचयिता और कथा के परिचय के माथ कही कहो कवित्वमय मुन्दर स्थलो की व्याख्या भी की गई। 'कालिदास की वैवाहिका कविता' ३ 'कालिदाम की कविता में चित्र बनाने योग्य स्थल'४ श्रादि व्याख्यात्मक आलाचनाएं संस्कृत-टोकापद्धति के अधिक ममोप है ! दूमरा रूप है 'सरस्वती' में प्रकागित पुस्तक-परिच य । इसमे संस्कृत टीकापद्धति की भाति पदगत अर्थ या गुणदोपविवेचन अालोचक का लक्ष्य नहीं है । पुस्तक की परीक्षा व्यापक रूप में की गई है। द्विवेदीलिखित व्याख्यात्मक आलोचना के तीसरे रूप में साहित्यकारों की जीवनिया है । 'कोविदकीतन ५ 'भ्रमरगीतसार' की भूमिका में सूर की आलोचना । २. "संस्कृत ग्रन्थों की समालोचना हिन्दी में होने से यह लाभ है कि समालोचित ग्रन्यो का सारांश और उनके गुणदोप पढ़ने वालों को विदित हो जाते है। ऐसा होने से सम्भव है कि संस्कृत में मूल अन्यों को देखने की इच्छा से कोई कोई उस भाषा का अध्ययन करने लगे, अथवा उसके अनुवाइ देखने की अभिलाषा प्रकट करें । अथवा यदि कुछ भी न हो, संस्कृत का प्रेममात्र उनके हृदय में ग्रंकुरित हो उठे, तो इसमें भी थोड़ा बहुत लाम अवश्य ही है।" 'विक्रमांकदेवचरितचर्चा', प० । ३. 'सरस्वती', जुन. १६०५ ई० } * मास्वती एप्रिल १११ ई. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२५ ] प्राचीन 3 और कवि 'सुविसद्धीतन आदि इसी प्रकार की आजोचना - पुस्तकें हैं संस्कृत साहित्य में रचना की व्याख्या में रचनाकार को कोई स्थान नहीं दिया गया था । इसका कारण या उन आलोचकों का दृष्टिभेद । वे अर्थ की व्याख्या करने चले जाते थे और जहा प्रयोजन समझते थे, न्यूनाधिक आलोचना भी कर देते थे । उन आलोचको के समक्ष एक ही प्रश्न था -- श्रालोच्य वस्तु क्या है ? उसके रचनाकार तक जाना उन्होंने निष्प्रयोजन समझा । द्विवेदी जी ने रचयिताओं की आलोचनाद्वारा उनकी कृतियों से भी पाठको को परिचित कराया । उपर्युक्त रचनाओं के अतिरिक्त 'अश्वघोषकृत सौन्दरानन्द', ' 'महाकवि भास के नाटक' 3 वेबटेश्वर प्रेस की पुस्तके', 'गायकवाड़ की प्राच्यपुस्तकमाला ४ यादि फुटक्ल लेख भी इसी कोटि में हैं । १ 3 पूर्ववर्ती समीक्षकों से असहमत होने के कारण उनके परवर्ती थालोचकों ने तर्कपूर्ण युक्तियों के द्वारा दूसरों के मत का खडन और अपने विचारों का मंडन करने के लिए शास्त्रार्थ पद्धतिलाई । इन ग्रास्तोको ने विपक्ष के दोपों और अपने पक्ष के गुणों को ही देखने की विशेष चेष्टा की । कहीं तो समीक्षक ने तटस्थभाव मे ईर्ष्यामत्सरादिरहित होकर सूक्ष्म विवेचन किया, यथा श्रानन्दवर्द्धन ने 'व्वन्यालोक' के तृतीय उद्योत में और मम्मद ने 'काव्यप्रकाश' के चतुर्थ और पंचम उल्लास में । कहीं पर उसने गर्व के वशीभूत होकर पूर्व - वर्ती आचार्यो के सिद्धान्तो का खंडन और अपने विचारों का मंडन किया यथा पंडितराज जगन्नाथ ने 'रसगंगाधर में और कहीं पर उसने शत्रुभाव से विपक्ष का सर्वनाश करने की चेष्टा की । इस दृष्टि से महिमभट्ट का व्यक्ति-विवेक' अत्यन्त रोचक और निराला है । आधुनिक हिन्दी के त्रालोचना-साहित्य में भी 'बिहारी और देव', 'देव और विहारी' आदि पद्धति पर की गई रचनाएं ह । ; 'चरित और चरित्र' अध्याय में यह कहा जा चुका है कि किसी विषय मे विवाद उपस्थित * जाने पर द्विवेदी जी अपने कथन को पाहिल और तर्क के बल से अकाट्य प्रमाणित करके ही छोड़ते थे । श्रालोचनाक्षेत्र में भी उनकी यह विशेषता कम महत्वपूर्ण नही है । 'नैषधचरितचर्चा और सुदर्शन', ' 'भद्दी कविता', ' 'भाषा और व्याकरण', ७ 'कालिदाम की 'सरस्वती', १६१३ ई०, पृ० २८० । २, 'सरस्वती", १९१३ ई० ३ १६१७ ई०, १६१६ ३०, 52 " 31 0 ६३ । ४. 93 ५. 'सरस्वती', १९०६ ई०, १६०६ है ० 22 ,, १४०, १६७, २६३ । १६३ । ३४१ । 25 ३०३ / ६० Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरकुशता पर विद्वाना की सम्मतिय' १ 'प्राचीन रविया क काव्यो म दोपोदभावना'२ अ दि उनकी पालोचनाए शास्त्राथपद्धति पर की गई हैं विपन का नडन और स्वपक्ष का मन करते समय उन्होने कठोर तर्क से काम लिया है । अोज लाने के लिए उन्होने निस्संकोचभाव से संस्कृत, फारसी आदि के शब्दों का प्रयोग किया है । कहीं कहीं श्राक्षेपों की तीव्रता अमा हो गई है। स्थान स्थान पर सन्दर्भो, मिद्धान्ता आदि का सन्निवेश करके अपने मत को पुष्ट सिद्ध करने में उन्हे सफलता मिली है।४ सुन्दर जेचनेवाली वस्तु की प्रशंसा करना मनुष्य का स्वभाव है। संस्कृत-काव्यां और कवियों के विषय में भी प्रशंसात्मक सुभाषित लोकोक्तियो के रूप में प्रचलित हुए यथा--- उपमा कालिदाम्य भारवेरर्थगौरवम । नैपधे पदलालित्यं माघ सन्ति त्रयो गुणाः ॥ १. , १६११ ई०, पृ.० १६२ । २ , १५६, २२३, २७२। ३. 'अपने पहले लेख में एक जगह हमने लिखा-मन में जो भाव उदित होते है वे भाषा की सहायता से दूसरो पर प्रकट किए जाते है। इस पर उम्र भर कवायददानो की सोहबत और जु बादानो की खिदमत करके नामपाने वाले हमारे समालोचकों मे से एक ममालोचकशिरोमणि ने दूर तक मसखरापन छांटा है। श्राप की समझ में यहा पर सहायता गलत है। अब अाप को चाहिए कि जग देर के लिए जुबांटानी का चोगा उतार कर मेक्समूलर के सामने पावें । या अगर उर्दू फारमी ही के जाननेवाले अाप की समझ में सर्वज्ञ हो तो हेचमदानी का जामा पहन कर श्राप पंडित इकबाल कृष्ण कौल एम० ए० के ही सामने सिर झुकावें । 'रिसाले तालीम व तरबियत' नाम की अपनी किताब के शुरू ही में पंडित साहब फरमाते है---"अशयाए खार्जिया का इल्म हमको इन्ही कृवता के जरिए होता है। ...हवास के जरिए जो खयालात पैदा होते हैं...।' लेकिन इसरो को भी कुछ समझने और उनकी बात मानने वाले जीव और ही होते हैं। बहुत तरफ की बाते फाकने का ख्याल आते ही इन जीवो को तो जुड़ी आ जाती है । ये इन्हे हजम ही नही होती । ह्जम होती है सिर्फ एक चीज-प्रलाप । उसे वे इतना खा जाते हैं कि उगलना पड़ता है।" सरस्वती, 'भाग ७, सं० २, पृ० ६३।। ४. “योग्य समालोचक के लिए यह कोई नहीं कह सकता कि जिसकी पुस्तक की तम समालोचना करना चाहते हो उसके बराबर विद्वत्ता प्राप्त कर लो तब तो समालोचना लिम्बने के लिए कलम उठानो। होमर ने ग्रीक भाषा मे 'इलियड' काव्य लिखा है । वाल्मीकि और कालिदास ने संस्कृत में अपने काव्य लिखे है। फिरदौसी ने फारसी म शाहनामा' लिखा है। कौन ऐसा समालोचक इस मसर है जो इन भाषाओं में पूर्वोक्त विद्वानों के महश योग्यता रखने का दावा कर मकता हो ?" ग्रालोचनाज'ल' प० ३ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किं सा तरुणी ? नहि नहि वारणी बारणस्य मधुरशीलस्य ॥ अपनी तथा दूसरों की प्रशंसा में महान कवियों और आचार्यों ने भी सूक्तियों की र | हिन्दी मे भी प्रशंसात्मक सूक्तिया लोकप्रचलित हुई, यथा ग्ञ [ 35 ] नोदय तावद्भा मारमाति उदिते नैषधे काव्ये क्व माघः क्व च भारविः ॥ रुचिरस्वरवर्णपदा नवरसरुचिरा जगन्मनोहरति । ग. कवितामञ्जरी यस्य रामभ्रमरभूषिता ॥ आधुनिक हिन्दी - साहित्य में भी सूक्तिपद्धति पर रचनाएं हुई हैं । डाक्टर रसाल वशतक' का प्राक्कथन, 'शेषस्मृतिया' की रामचन्द्र शुक्ल - लिखित भूमिका आदि कृि (धुनिक समालोचना के मांचे में ढली हुई प्रवर्द्धित, संस्कृत, गद्यमय और प्रशंसात् नीलोत्पलदलश्यामां विज्जिकां मामजानता । वथैव इंडिना प्रोतं सर्वशुक्ला सरस्वती ॥ क सूर सूर तुलसी ससी उडुगन कंसवदास | के कवि खद्योत सम जहं तई करहि प्रकास || कविताकर्त्ता तीन हैं तुलसी केमव सूर । कविता खेती इन लुनी कांकर बिनत मंजूर | तुलसी गङ्गदु भए सुकचिन के सरदार | इनके काव्य में मिली भाषा विविध प्रकार || साहित्यकानने ह्यस्मिश्जङ्ग मस्तुलसीतरुः । कवीनामगलर्षो नूनं वासवदत्तया । बाणभट्ट 'हर्षचरित' की भूमिका ! यदि हरिस्मरणे सरसं मनो यदि बिलासकथासु कुतूहलम् । मधुरकोमलकान्तपदावलिं श्रृणु तदा जयदेवसरस्वतीम् ॥ जयदेव, 'गीतगोविन्द की भूमिका ! व भामनाटकचक्रे पिच्छेकै तिरते परीक्षितुम् । स्वप्नवासवदत्तस्य दाहकोभून पावकः || + निमग्नेन क्लेशैर्मननजल धेरन्तरुदर मयोनीनो लोक ललितर भगंगाधरमणिः । हरन्नन्तर्ध्वान्त हृदयमधिरूढो गुणवता - मलंकारान सर्वानपि गलितगर्वान रचचतु ' विज्जिका देवी दितराज नगनाथ चारण-'हर्षचरित' रसगंगाधर, पृ० २३ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिया ही है मैत्री विज्ञापन आदि से प्रभावित गुणवाचक आलोचना मी रचनाकार और भावका का विशेष हित कर सकती है । द्विवेदी जी द्वारा सूक्तिपद्धति पर की गई आलोचनाऍ अपेक्षाकृत बहुत कम है 1 'महिपतक की समीक्षा' - जैसे लेख 'गर्दभकाव्य' और 'बलीवर्द' का औचित्य सिद्ध करने और "हिन्दी - नवरत्न " आदि दोपान्वेषण के यश से बचने के लिए ही लिखे गए जान पडते हैं । श्रीधर पाठक की 'काश्मीर-सुपमा', नैथिलीशरण गुप्त की 'भारत-भारती', 'गोपालशरण सिंह की कविता' आदि की जो आलोचनाएँ द्विवेदी जी ने की हैं वे वस्तुतः प्रशंसात्मक है | परम्परागत सूक्तिपद्धति और द्विवेदीकृत सूतिसमीक्षा में केवल रूप और ग्राकार का ही अन्तर है । द्विवेदी जी की आलोचनाएं गद्यमय और विस्तृत हैं । हा, प्रभावोत्पादकता लाने 1 के लिए कहीं कही प्रशंसात्मक पदों की योजना अवश्य कर दी गई है । 3 द्विवेदी जी की सूक्तियो मे किसी प्रकार की मायिक्ता या पक्षपात नहीं है । ४ धर्मसंकट की दशा में जिस रचना की प्रशंसा करना उन्होंने अनुचित समझा उसकी आलोचना करना ही स्वीकार कर दिया । " ९. 'सरस्वती', १६१२ ई०, पृ० ३० । २. ये तीनों आलोचनाएँ 'सरस्वती' में क्रमश: जनवरी, १९०५ ई०, अगस्त, १९५४ ई० और सितम्बर, १९१४ ई० में प्रकाशित हुई थीं । ३. "यही स्वर्ग सुरलोक यही सुरकानन सुन्दर | यहि अमरन को लोक, यही कहुँ बसत पुरन्दर || ऐसे ही मनोहर पद्यो में आपने 'काश्मीर - पुपमा' नाम की एक छोटी सी कविता लिखकर प्रकाशित की है काश्मीर को देखकर आपके मन मे जो जो भावनाएं हुई है उनको उसमे ग्रापने मधुमयी कविता में वर्णन किया पुस्तक के अन्त में आपकी ' शिमलागम्' नाम की एक छोटी सी संस्कृत कविता भी हैं । हम कहते हैं कि--- ताहि रसिकवर सुजन अवसि अवलोकन कीजै । मम समान मनमुग्ध ललकि लोचनफल लीजै । " 'सरस्वती', भाग ६, पृ० २ । ४ " मित्रता के कारण किसी की पुस्तक को अनुचित प्रशंसा करना विज्ञापन देने के सिवा और कुछ नहीं ।" I द्विवेदी जी - 'विचार-विमर्श ', पृ० ४५ । ८५ ५. 'साधना' उत्कृष्ट छपाई और बंधाई का आदर्श है । देखकर चित्त बहुत प्रसन्न हुआ बाबू मैथिलीशरण पर और ग्राप पर भी मेरा जो भाव है वह मुझे इस पुस्तक की समालोचना करने में बाधक है । अपनी चीज को समालोचना ही क्या ? अतएव क्षमा कीजिएगा ।" दास को लिखित २१७१६१८ ६० सरस्वती' भाग ४६ स० २, प्र ८२ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२६ ] मनुष्य जा लोगन व गुण ही दग्न सक्त हैं, उनम कल दोपहास की प्रवृत्ति है। इसी महजबुद्धि ने पंडितराज जगन्नाथकृत 'चित्रमीमामा खण्डन' श्रादि को जन्म दिया | हिन्दी - समालोचना साहित्य में कृष्णानन्द गुप्त - लिखित ' प्रमाद जी के दो नाटक ' यदि इसी प्रकार की रचनाए है । मस्कृत-साहित्य मे श्राचार्यपद्धति में भी दूसरी का स्वडन किया गया था । परन्तु वह खडन-पद्धति में बहुत कुछ भिन्न था। वह केवल खडन के लिए न था । वह साध्य नहीं था, साधन था । अपने मत को मली माति पुष्ट और area करने के लिए विरोधी मतां का समुचित इन अनिवार्य था । खनपद्धति सोलहो याने दीपदर्शनप्रणाली है। ईर्ष्या, द्वेष यादि रहित होकर की गई दीपवान्तक आलोचना भी दूषित और रचनाओं का प्रचार रोकने तथा साहित्यकारों को त्रुटियों और दोनों के प्रति सावधान करने लिए साहित्य की महत्वपूर्ण आवश्यकता है । संस्कृत-साहित्य में खाइनपति के दो रूप मिलते है । एक तो श्रानाय द्वारा उन सिद्धान्तों या ग्रंथों का इन जिनकी इन्होंने स्वीकार नहीं किया; उदाहरणार्थ अभिनव गुप्त-कृत मद्र लोल्लट, श्री शंकुक और न नायक को रमविषयक व्याख्या का दीपनिरूपण | इसका उद्देश था वास्तविक ज्ञान का प्रचार | दूसरे रूप में वह खंडन है जिसमें मन्सरादिग्रस्त बालोचक ने अपने पाहित्य और आलोचित की अज्ञता या दीनता का प्रदर्शन करने का प्रयास किया है, यथा जगन्नाथ राय का 'चित्रमीमामा - खडन' । इम पद्धतिकी विशेषता है केवल त्रुटियों या अभावो की समीक्षा । द्विवेदी जी की वनपद्धति दो प्रकार की है - श्रमाव-मुलक और दीपमुलक । पहली का उद्देश था हिन्दी के अभावों की आलोचना द्वारा उनकी प्रति के लिए हिन्दी साहित्यकारों को प्रेरित करना । इसके दो रूप है -- एक का उदाहरण है "हिन्दी साहित्य" सरीखे व्यंग्यचित्र और दूसरी के उदाहरण 'कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता' यादि लेख है जिनमे हिन्दी की आवश्यकताओं की ओर ध्यान दिया गया है। 'हिन्दी - नवरन' आदि लेखों में भी यत्र तत्र आलोचना की इस पद्धति का पुट है | 3 १. 'सरस्वती', १६०२ ई०, पृ० ३५ । २. 'रमज्ञरंजन' में सकलित । ३. "वे दिखलाते कि कौन कौन सी बातें होने से किसी कवि की गणना रत्न करियों में हो सकती है । फिर कविरत्रों की कवितादीति की भिन्न भिन्न प्रभात्रों की मात्रा निर्दिष्ट करते, जिससे यह जाना जा सकता कि कितनी प्रभा होने में बृहत् सभ्य और लघुची म उन कवियों को स्थान दिया जा सकता है । यदि वे ऐसा करते तो उनके बतलाए हुए लक्षणों की जाच करने में सुमीता होता, तो लोग इस बात की परीक्षा कर सकते कि जिन गुणाने लेखका ने रवि को कविग्नीवी के पोग्य वे Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 द्विवेदी जी का दोषमूलक आलोचना के अनेक उद्दश थ हिन्दी में बटत हुए कूडाकर कट के संहार के लिए 'भाषा-पद्य व्याकरण' आदि की खंडनप्रधान तीव्र आलोचना की निवार्य अपेक्षा थी । लाला सीताराम आदि लेखकों के अनुवादों की दोषमूलक समीक्षा का लक्ष्य था कालिदासादि महान् कवियों के गौरव की रक्षा | "हिन्दी - नवरत्न' आदि की आलोचना द्वारा वे लेखकों को सुधार कर साहित्य-रचना के आदर्श मार्ग पर लाना चाहते थे । कालिदास की निरंकुशता' जैसी समीक्षा माहित्यमर्मज्ञों के मनोरंजनार्थ लिखी गई थी | इन समालोचनाओ के शरीर भी अनेक प्रकार के थे । 'कलासर्वज्ञसम्पादक', " 'काशी वैसे ही हैं या नहीं, और वे प्रस्तुत कवियां में पाये भी जाते हैं या नहीं ।" 'समालोचना - समुच्चय', पृ० २०७ । आपने कैसे पद्य में व्याकरण विषय सिखाये है सो भी देख लीजिए । अनुवाद विपय पाठ आप यो पढते हैं- प्रथम स्वभापा वाक्य को स्यामपटल पर लिखी । बालकगण स्वकापी पर प्रतिलेख सबै लिखौ || प्रथम कर्ता क्रिया कहें अन्य भाषा जाने } प्रश्नद्वारा शब्द रवै तुल्य कारक जाने || क्रियापद स्थान देखि क्रियापदे प्रकाशे । वर्ता कर्म क्रिया जोड़ि लघुवाक्य प्रकाश || भगवान पिगलाचार्य ही आपके इस छन्द का नामधाम बतावै तो बता सकते हैं, और आपके इस समग्र पाठ का अर्थ भी शायद कोई श्राचार्य ही अच्छी तरह बता सके । '''' आपने पुस्तकादि में जो एक छोटी सी भूमिका लिखी है, उसका पहला ही वाक्य है 'मैने यह पुस्तक बड़े परिश्रम से बनाई है और आज तक ऐसी पुस्तक भारतवर्ष में किसी से नही लिखी गई ।' सचमुच ही न लिखी गई होगी। आपके इस कथन में ज़रा भी ऋत्युक्ति नहीं । भारतवर्ष ही में क्यों शायद और भी किसी देश में भी ऐसे पद्य में ऐसा व्याकरण न लिखा गया होगा । " आचार्य जी ने अपने व्याकरण का आरम्भ इस प्रकार किया हैश्री गुरु चरण सरोज रज निज मन मुकुर सुधारि । व्याकरण पद्य में जो दायक फल चारि ॥ खो धार्मिक हिन्दुओं को चतुर्वर्ग की प्राप्ति के लिए पूजापाठ, दानपुण्य छोड़कर केवल आपके व्याकरण का पारायण करना चाहिए। तुलसीदास पर जो आपने कृपा की है उसके लिए हम गोसाई जी की तरफ में कृतज्ञता प्रकट करते हैं। ' विचार-विमर्श', पृ० १८५.८६ | २. देखिए 'हिन्दी कालिदास की समालोचना', पृ० ७२ ३ ' समालोचना-समुच्चय' पु०२८६ । ४ देखिए 'कालिदास की निरंकुशता', पृ० ३ । १६०३ ई० पू० १० प० ३६ > Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का माहित्य-वज्ञ', 'शूरवीर ममालाचक श्रादि व्यंग्यचित्र है। 'हिन्दी कालिदाम की ममालोचना', 'हिन्दी शिक्षावली तृतीय भाग की ममानोचना' और 'कालिदास की निरंकुशता' पुस्तकाकार प्रकाशित हुई । 'नायिकाभेद', ४ 'हिन्दी-नवरत्न',” अादि अालोचनात्मक निबन्ध है । 'हे कविने ६ 'ग्रन्थकारलक्षण' । श्रादि कविताओं में भी पालांचना की प्रधानता है। 'भाषा-पद्य व्याकरण', आदि की अालोचनाएं पुस्तक-परिचय के रूप में लिखी गई थीं। इन श्रालोचनाओं के लेखकरूप में उन्होंने अपना नाम न देकर कल्पित नामों का भी प्रयोग किया है । 'समाचारपत्रों का विराट रू.प' के लेखक पंडित कमला किशोर त्रिपाठी और 'राम कहानी की ममालोचना'१० के श्री कंठ गठक एम० ए० हैं । टन अालोचनाओं की अभिव्यंजनाशैन्ती अपेक्षाकृत अधिक व्यंग्यात्मक, आक्षेपपूर्ण और कही कहीं हास्यमिश्रित है । ११ द्विवेदी-कृत ग्बद्धनात्मक, अालोचनाओं का कारण किमः प्रकार का ईयाद्वेष नहीं है । हिन्दी का सच्चा उपासक उसके मन्दिर मे किसी भी प्रकार का व्यभिचार नहीं देग्य मका है । इमोलिए उसमें कटुता आ गई है किन्तु वह सार्वत्रिक न होकर यथास्थान है । सच तो यह है कि हिन्दी-साहित्य के ढीठ चोरों और कलंककारिया की अमग ताति को गकने के लिए द्विवेदी जी-जम मैनिक ममालोच क की ही आवश्यकता थी। मंस्कृत-साहित्य में अालोचना का उन्कटतम रूप लोचनपति में दिखाई देता है। यह पद्वति पूर्वोक पाची पद्धतियों के अतिरिक्त काई पदार्थ नहीं है । अन्तर केवल इतना ही है कि इसम अालोचक अालोच्य विषय के अर्थ को पूर्णतया हृदयगम करके रचनाकार की अन्तदृष्टि की विशद ममीक्षा करता है । यह टीका-पद्धति में अनेक बाता में भिन्न है। टीका-पद्धति का क्षेत्र व्यापक किन्तु दृष्टि मीमित है । उमकी पहुँच काय, माहित्य अादि १. 'सरस्वती', १६०३ ई०, पृ. ४०६ । २. 'सरस्वती', १६०३ ई०, , २६५ । ३ पहल लेखरूप में 'सरस्वती' १६१२ ई. प० ,७५ और १०७ में प्रकाशित । ४ 'सरस्वती', १६०% ई०, पृ० १६५ । ५. ., १२ ई.,, ६६ ६. १६०१ , १६८ । ७. . २५५ । , अगस्त १६१३ ई० । १. , १६०४ ई० पृ० ३६७ । १०. , १६.० ६. ई०,,. ४५० । १ क हिन्दी भाग की प०५ म्प 'भाषा और ' 'सरस्वती' माग , म० २ १०, भौर । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात हे प प रचनागत साधारणा यावरण रम अलङ्कार आदिम आगे नहीं सकी है। लोचन -पद्धति की दृष्टि रचनाकार की त. समीक्षा और तत्तनात्मक आलोचना तक गे तो aढी किन्तु उसका विषय साहित्यशास्त्र तक ही मामित रह गया | काव्यों पर इस प्रकार की आलोचनाए नहीं हुई । सम्भवतः उन कविया ने की रचनाओं की विस्तृत समीक्षा को व्यर्थ समझा । संस्कृत में अभिनवगुप्त का बन्यालोकलोचन' और 'अभिनवभारती' आदि इसी प्रकार की रचनाएं है । रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास ग्रादि की समीक्षा-शैली इमी लोचन पद्धति और पाश्चात्य समालोचना प्रणाली का मिश्ररूप है । संस्कृत में लोचन पद्धति पर की गई आलोचना सौन्दर्यमूलक रही है । भारतीय 'श्रालोचक ने ग्रालोच्य रचना सुन्दर या अमुन्दर क्यों है' इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये रचनाकार की जीवनी, विपय के इतिहास, तत्कालीन समाज आदि को दृष्टि में रखकर श्रीचना नहीं की। ये विशेषताएं पश्चिमी साहित्य ने ही हिन्दी को दी ह । 'मेघदूत- रहस्य', ' 'रघुवंश' और 'किरातार्जुनीय' की भूमिकाएं आदि लोचन पद्धति पर द्विवदी जी द्वारा की गई आलोचनाए है इनमें उन्होंने रचना के विषय में मुख्यतः दृष्टियों में विचार किया है— सौन्दर्य, इतिहास, जीवनी और तुलना । सौन्दयदृष्टि में उन्होंने केवल रचना के अन्तर्गत सौन्दर्य तथा उसके गुण-दोप का विवेचन किया है । इतिहास-दृष्टि में रचनाविपयक इतिहास और रचनाकाल की सामाजिक आदि परिस्थितियों की भूमिका मे उसकी समीक्षा की है। जीवनी-दृष्टि से रचना में रचनाकार के व्यक्तित्व, अनुभव यादि का प्रतिबिम्ब खोजते हुए उसकी आलोचना की है । तुलनादृष्टि से उसी वर्ग की अन्य रचनाओं या रचनाकारों की तुलना में प्रस्तुत रचना या रचनाकार की उत्कृष्टता या निकृष्टता की जाँच की है । भारवि पर लिखी गई आलोचना इस पद्धति का विशिष्ट आदर्श है । उसमें उन्होंने भारवि की काव्य- कला पर उपर्युक्त सभी दृष्टियों में विचार किया है । 'कालिदास के मेघदूत का रहस्य' में सौन्दर्य, कवर के राजत्वकाल म १. 'सरस्वती' अगस्त, १९१२ ई० । २. उदाहरणार्थ ----- क. तुलनात्मक “शिशुपालवध के कर्ता माघ पंडित भारति के बाद हुए ह । जान पड़ता है. माघ ने किरातार्जुनीय को बड़े ध्यान से पढकर अपने काव्य की रचना की है। क्योंकि दोनों में कथावतरणसम्बन्धिनी अनेक समताए है। " · HARA 'किरातार्जुनीय' की भूमिका, पृ० १३.१४ । स्व. सौन्दर्यमूलक - "भारवि को लिखना था महाकाव्य । पर कथानक उन्होंने ऐसा चुना जिसके विस्तार के लिए यथेष्ट सुभीता न था । श्रालंकारिको की आजा के पाश न फँसने के कारण ही भारवि को कथा का अस्वाभाविक विस्तार करना पडा और ऐसी ऐमी विशेषताएं रखनी पड़ीं जिनमे काव्यानन्द की प्राप्ति में कमी आ जाती है ।" विगतानीय की भमिका प० २७ और ३० Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५ ] हिन्दी मतिनाम और गोपालगग्गु म की कविता १ मनीवन की ही दृषि प्रधान है लोचनपद्धति की ही नहीं अन्य पद्धतियों की यालाच नात्रां स भी उन्हाने झालोच्य रचनाकार की न्तटिका आवश्यकतानुसार विवेचन किया है। टीका या परिचय की पद्धति पर 'पचरित' की अथवा स्वन-पद्धति पर 'हिन्दी कालिदाम' या कालिदाम की मौन्दर्यमूलक चालोचना करते हुए द्विवेदी जी ने रचनाकारों के भावो की तह तक जाने का प्रयास किया है । हिन्दी - नवरत्न' में मिश्रबन्धुश्री ने किसी सारगर्भित और तर्क-सम्मत विवेचन के बिना ही रत्नकोटि में कवियों की मनमानी श्रायोजना की थी। उनके आलोचन की समालोचना मेद्विवेदी जी ने एक रत्न कवि की विशिष्टताओ उसकी ऐतिहासिक और तुलनात्मक छानबीन की विशेष गौरव दिया |४ यालोचनापद्धतिया का पूर्वोक्त वर्गीकरण गणित का-सा नहीं है । एक पति की विशिष्टताएं दूसरी पद्धति की आलोचनाओं में अनायास ही समाविष्ट हो गई हैं। उनके विशिष्ट व्यपदेश का एकमात्र कारण प्राधान्यद्दी है । द्विवेदी जी की आलोचनाओं की उपर्युक्त समीक्षा प्राय सौन्दर्य दृष्टि से की गई है। केवल सौन्दर्य के आधार पर उनकी आलोचनाओ को चर्चा या परिचयमात्र कह कर टाल देना ग्रानिक समालोचना की दृष्टि में बुद्धि-संगत नहीं है । उनकी आलोचनाओं का वास्तविक मुल्य ऐतिहासिक, तुलनात्मक और जीवनीमूलक दृष्टियों मे लॉका जा सकता है । उनकी आलोचना पुस्तकी पर अलग मे भी कुछ कह देने की आवश्यकता है। 6 ग. ऐतिहासिक - " भारवि के जमाने में इन बाता (अप्रासंगिक विस्तार और स्वनाविषयक चातुर्य) की गणना शायद दोषों में न होती रही हो । सब प्रकार के वर्णन करना और कठिन से कठिन शब्द नित्र लिख डालना अब भी पुराने ढंग के कितने ही पंडितो की दृष्टि में दोष नहीं, प्रशंसा की बात है।' 'किरातार्जुनीय' की भूमिका, पृ० ३७ । कम पर नैतिक विचार बहुत 5 ध. जीवनीमूलक -- "उनके काव्य में दार्शनिक विचार बहुत अधिक हैं । वे नीतिशास्त्र के बहुत बड़े पंडित थे । सम्भव है, वे किसी राजा के सभापंडित, धर्माध्यक्ष, न्यायाधीश या और कोई उच्चपदस्थ कर्मचारी रहे हो । जहा कही मौका मिला है वहा वे नीति की बात कहे बिना नहीं रहे । राजनीतिज्ञ, नैयायिक और मुकवि होने ही के कारण भारवि ने अपनी वक्ताओं में अपूर्व योग्यता प्रकट की है" 'किरातार्जुनीय' की भूमिका, पृ० ३३, ३४ और ३५ | 'समालोचना-समुच्चय में, लकलिन । 1. २. विचार-विमर्श में संकलित । ३. उदाहरणार्थ 'नैषधचरित चर्चा', पृ०१३ या 'कालिदास की निरंकुशता' पृ०२ । મ -समुचय पृ० २०८२११२३४ २३५ श्र । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जीवन के नत्र म रूपरंग पहचानन की जा शक्तिमा क्षेत्रम वह स्मति चिन्तना तथा तुलना के रूप में प्रकट होती है । माहित्यिक जगत् में जब यह नीरक्षीरविवेक का रूप धारण करती है तब उसे हम आलोचना कहते है । थालोचना की सहज प्रवृत्ति युग, व्यक्ति, विपय, तत्कालीन बौद्धिक स्थिति, रूढ़ि, भावों के प्रकाशन की सुविधा, सम्प्रेपण के साधन आदि बातों के कारण विशिष्ट रूप धारण किया करती है। आलोचक की अभिरुचि उसकी मानसिक भूमिका, उसका सिद्धान्त- पक्ष, उसकी महृदयता, उसकी सूक्ष्मदर्शिता आदि व्यक्तित्व के श्रावश्यक उपकरण उसकी आलोचना के आकार और प्रकार का निर्धारण करते हैं । युग की समस्याएं समाज की आवश्यकताएं, माहित्य की कमियों, } अच्छाइयाँ या बुराइयाँ किसी न किसी रूप में आलोचना का अग बन ही जाती है । पश्चिम के विज्ञानवादी समाज ने आलोचना की व्याख्यात्मक प्रणाली को जन्म दिया । भारत के निःस्पृह, श्रात्मविस्मृत और सिद्धान्तवादी आलोचक ने जीवनीमूलक आलोचना की ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया। आलोचना की निर्णयात्मक प्रभावाभिव्यंजक, व्याख्यात्मक, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, तुलनात्मक आदि सभी प्रणालियों के पीछे युग, माहित्य आवश्यकताएं तथा व्यक्ति छिपे हुए हैं । द्विवेदी जी के युगनिर्मातृत्व को भूल कर हम उन की रचनाओं की यथार्थ परख नही कर सकते । युग को पहचान कर, एक उच्च ग्रादर्श स , - " > प्रेरित हो कर अनवरत साधना के बल पर आजीवन तपस्या करके उस तपस्वी ने युगनिर्माण के रूप में भावी समाज को जो वस्तु दी है वह कुछ साधारण नहीं है । ग्राज वे समस्याएं नहीं हैं। आज वह युग नहीं है। ग्राज व प्रश्न नहीं है । वर्तमान हिन्दी - साहित्यभवन के सप्तम तल पर विराजमान समालोचक को यह भी विचारना होगा कि उसके निचले तलों के निर्माता को कितना घोर परिश्रम और वलिदान करना पडा था । द्विवेदी जी के प्रत्येक पक्ष को समझने के लिये सतर्कता, दृष्टि व्यापकता और सहृदयता की आवश्यकता है । द्विवेदी जी ने श्रालोचक का बाना युग-निर्माण के महान कार्य के निर्वाह के लिए ही धारण किया था । उनकी आलोचनाओ का वास्तविक मूल्य उनके व्यक्तित्व में हैं । द्विवेदी जी ने श्रालोचनाशास्त्र पर कोई पोथा नहीं लिखा और न तो स्थूल और ठोस आलोचनात्मक ग्रन्थों ही की रचना की । युग ने उन्हें ऐसा न करने दिया । ऐसे ग्रन्थों के पढने और समझने वाले ग्राहक ही नहीं थे । इसीलिए उनकी आलोचनाओं ने सरल पुस्तिकाओं और निबन्धों का ही रूप स्वीकार किया । उस समय केवल उपदेष्टा समालोचक की नहीं, क्रियात्मक और सुधारक समालोचक की अपेक्षा थी । इसीलिये समालोचक द्विवेदी सम्पादक श्रासन पर बैठे थे उनकी को उनक युगने उत्पन्न किया उन्होंने अपने Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 4 ] युग को मसात् किया था इसीलिए उनकी आलोचनात्रा में उन+ व्यक्तित्व व अतिरिक्त उनका युग भी बोल रहा है। वह युग प्राचीन और नवीन के सघन का था । नवीन क प्रति उत्कट श्रौत्सुक्य होते हुए भी उसके मन में प्राचीन के प्रति दुर्दमनीय निष्ठा थी । बह नृतन गवेषणाओं को कुतूहलपूर्वक सुनकर उनकी तुलना में अपने पूर्व पुरुषों के ज्ञानविज्ञान की भी जॉच कर लेना चाहता था। यह संघर्ष राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, माहित्यिक आदि सभी दिशाओं में व्याप्त था । द्विवेदी जी का आलोचक भी अपने युग का प्रतिनिधि है क्योंकि उसने अपनी आलोचनाओ में प्राच्य और पाश्चिमात्य दोनों ही पद्धतियों का समावेश किया है। युग-निर्माता आलोचक द्विवेदी की प्रवृत्तियों के दो पक्ष हैं। एक ओर तो प्राचीन कवियों की आलोचना, उनकी विशेषता, प्राचीन और पाश्चात्य काव्यसिद्धान्तों का निरूपण आदि हैं। दूसरी ओर अस्तव्यस्तता अनिश्चितता, दिशालक्ष्य - उद्देशशून्यता, अध्ययन, संकुचित दृष्टि, चिन्तन के प्रभाव, साहित्यसर्जन के लिए आपेक्षिक सच्चाई और नैतिकता की कमी, भाषा की निर्बलता, व्याकरण की अव्यवस्था, हिन्दीभाषियों की विदेशी प्रवृत्ति, मातृभाषा के प्रति निगदर, लोभ, मस्ती ख्याति, धन के लिए साहित्य-संसार मे बॉली आदि बातों को दूर कर हिन्दी पाठकों के ज्ञानवर्द्धन का प्रयास है । द्विवेदी जी के समक्ष हिन्दी मे आलोचना की कोई परम्परागत आदर्श प्रणाली नहीं थी । भूमिका में वर्णित आलोचनाएं नाममात्र की आलोचनाएं थी । द्विवेदी जी को अपना मार्ग निश्चित करने मंडी कठिनाई हुई । उन्होंने हिन्दी का हित करने के लिए मस्कत, बँगला, मराठी. अँगरेजी आदि के साहित्यों का कठोर अध्ययन और चिन्तन किया । हिन्दी-साहित्य ने भारतीय आलोचक की दोषवाचकप्रणाली की अवहेलना कर दी थी। हिन्दी के प्रथम वास्तविक आलोचक द्विवेदी मे उसकी प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी । माहित्य का मुन्दर भवन बनने के पहले वहाँ का झाड़-खाड काट डालना आवश्यक था । निर्माता द्विवेदी की प्रारंभिक आलोचनाओं को युग की आवश्यकताओं ने स्वयं ही संहारात्मक बना दिया " १८६६ ई० के आरम्भ में 'काशीपत्रिका' में द्विवेदी जी की 'कुमारसम्भव भाषा' की समालोचना प्रकाशित हुई । उसका अन्तिम भाग 'हिन्दोस्थान' में छपा । 'ऋतुसंहार भाषा' की समालोचना १८६७ ई० के नवम्बर मे १८६८ ई० के मई तक 'वेंकटेश्वर - समाचार' मे छपी । १६०१ ई० मे जब 'हिन्दी कालिदास' की समालोचना प्रकाशित हुई तब उसमें 'मेघदूत' और 'रघुवंश' की समालोचनाएं भी जोड़ दी गई। हिन्दी साहित्य में किसी एक ही रचनाकार पर लिखी गई यह पहली आलोचना पुस्तक थी । लाला मीताराम के अनुवादी ने महाकवि कालिदाम क काव्य सौन्दय पर पानी पर दिया या साहित्य पुजारी ॠ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का यह भी कर्तव्य था कि वह सर्वसाधारण को अनुवाद की निकृष्टना और बालिकाम की कविता की उन्कृष्टता के विषय में सावधान कर देता। इन नालोचनाया से यह सिद्ध है कि आलोचक द्विवेदी ने मस्कृत-काव्यो का मच्चाई के माध अध्ययन किया है और उनकी प्रास्तोचानाश्रा के सिद्धान्त-पद का गाधार मस्कत माहित्य है । 'कुमार नभव, 'ऋतुसंहार,' मेघदत' और 'रघत्रंश' की अालोचनाओं के प्रारम्भ में क्रमशः 'वासवदत्ता' ('सुबन्धु') 'श्रीनं ठारित' और 'शृंगारतिलक' (अंतिम दो में) के नोक द्विवेदी जी ने उद्वत किए हैं। शास्त्राचक्रमण,' 'उपमा का उपमर्द' 'अर्थ का न' 'भाव का अमात्र दोषों की यह प्रणाली भी मंस्कृत की है। श्रालीक का पाडित्यपूर्ण व्यक्तित्व भीनहीं व्यक्त है। जनता को पथभ्रष्ट होने से बचाने के लिए द्विवेदी जी ने मची और उचित बालाचाना की ! उम ममय पत्र-पत्रिकायां का नया युग था, पत्री और पुस्तका के नये पाठक तथा लेखक थे सभी की बुद्धि अपरिपक्क और सभी को पथप्रदर्शक की श्रावश्यकता थी । युग के मानयिक माहिन्य की इस मॉग को द्विवेदी जो ने स्वीकार किया । यही कारण है कि उनकी अधिकाश रचनाएँ पत्रिकायों के दवा में ही प्रकाशित हुई । वे मन्त्र की अभिव्यंजना करके उपेक्षा, निन्दा, अनादर, गाली आदि सभी कुछ महने को प्रस्तुत थ ! उनकी आलोचना की प्रमस्व विशेरता हिन्दी के प्रति पूजाभाव, अमायिकता, आराधना और तप में है। क्रोग अालोचक होने और अपनी मानना के बल पर युग का मानचित्र परिवर्तित कर देने मे कौडी-मुहर का-सा अन्तर है। यह संयोग की बात थी कि द्विवेदी जी ने आलोचना का प्रारम्भ अनूदित ग्रन्थों गे बिया। भाषान्तर होने के कारण अालोचक हिवदी का मचा रूप उमन निम्बर नहीं पाया। मूलाग्रन्थों में वर्णित पात्र, स्थल, वस्तुवर्णन, शैली आदि को छोड़कर उन्हें यह देखना पढ़ा कि मूल का पूरा पृगग अन बाद हुआ है अथवा नहीं, कवि का भाव पृर्णनय तद्वत अाया है अथवा नहीं और भापान्तर की माया दापरहित तथा अनुवादक के अभीष्ट अर्थ की व्यंजक हुई है अथवा नहीं । उनका ध्यान भाषासंस्कार और व्याकरण की स्थिरता की अोर बरबस अाकृष्ट हो गया । हिन्दी का कोई भी आलोचक एक नाथ ही हिन्दी, संस्कृत, बंगला, मगठी, गुजराती, उर्दू अादि साहित्या का पंडित, सम्पादक, भाषासुधारक और युगनिर्माता नहीं हुआ । इसीलिए द्विवेदी जी अद्वितीय है ! वही कारण है कि वे अाज के समालोचक के द्वारा निर्धारित श्रेणी-विभाजन को स्वीकार करके अपनी पालो का विशिष्ट वर्गों म प्रतिष्ठित न कर सब याद श्राधनित्र Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ५७ । समालोचक की कसौटा पर द्विवेदा जी की आलोचनाए मोना नहीं ऊँचा तो इसम द्विवेदी जी का कोई अपराध नहीं, वस्तुतः अालोचक की कसौटी ही गलत है। वह भ्रान्तिवश यह मान बैठा है कि श्रालोचनाएं प्रत्येक देशकाल में एक ही रूप और शैली ग्रहण करेंगी। वह इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है कि साहित्यिक समालोचना मौखिक या चित्रमय भी हो सकती है, टीका, भाष्य, मूक्ति, शास्त्रार्थ आदि का भी रूप धारण कर मकती हैं । वह अपने ही युग को अपरिवर्त्य और प्राप्त समझ कर दूसर युग __ की भूमिका, आवश्यकताओं, व्यक्तिया और विशेषताओं को समझने में असमर्थ है। द्विवेदी जी की आलोचनाओं में दो प्रकार के द्वन्द्व की परिणति है | एक तो बाह्य-जगत में नवीन और प्राचीन, पूर्व और पश्चिम का द्वन्द्व है और दूसरा अन्तर्जगत में कटु सत्य तथा कोमल सहृदयता का द्वन्द्र है। इन्ही संघर्षों के अनुरूप द्विवेदो जी की अालोचनाएं भी दी धाराओं में बंट गई है । एक धारा का उद्गम है महृदयना पार प्राचीनता के प्रति प्रेम जिसमें बालोचना का विषय संस्कृत-साहित्य है । दूसरी थारा नवीनता और मत्व के आकर्षण से निकली है जिसमें प्रायः सम्पादक और मुधारक द्विवेदी ने हिन्दी-साहित्य और उसमे सम्बन्ध रस्मने वाली बाता पर अालोचनाएं की है। पूर्व और पश्चिम के ममन्वित सिद्धान्तनिरूपण की तीसरी धारा भी कही कहा __दृष्टिगोचर हो जाती है । यद्यपि द्विवेदी जी की आलोचनाए हिन्दी-पुस्तकी, हिन्दी कालिदाम' और 'हिन्दी शिक्षावली ततीय भाग' को लेकर प्रारम्भ हुई तथापि उनकी भूमिकारूप में द्विवेदी जी के मस्तिष्क म मस्कृत-माहिल्य का अध्ययन उपस्थित था। यह बात ऊपर कही जा चुकी है। 'कालिदाम की निरंकुशता' कालिदास की समीना का एक एकागो चित्र है । उसकी रचना का उद्देश केवल मनोरंजन था । इस सम्बन्ध में स्वर्गीय पं० रामचन्द्र शुक्ल का निम्नाकित कथन विचारणीय है “द्विवेदी जी की तीसरी पुस्तक 'कालिदाम की निरंकुशता' में भाषा और व्याकरगा के ब व्यतिक्रम इकट्ठे किए गए है जिन्हें संस्कृत के विद्वान् लोग कालिदास की कविता म बताया करते है। यह पुस्तक हिन्दी वाला के या संस्कृत वालो के फायदे के लिए लिखी गह पर ठीक ठीक नहीं समझ पन्ता । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक के प्रारम्भ म हा अनक बार चतावना दे दी थी जिनके विचार हमार ही ऐस हैं उन्हीं का मनोरजन हम इस लेस स करना चाहते हैं इस पाप क्वल वाग्विलास ममझिए । यह केवल आपका मनोरंजन करने के लिए है ।११ प्रस्तुत पुस्तक के भाव संस्कृत-टीकाकारों के हैं पर उनकी उपस्थापनशैली द्विवेदी जी की है । कालिदास में द्विवेदी जी की अतिशय श्रद्धा होने पर भी इतना बवंडर उठा क्योकि दोपदर्शन की प्रणाली हिन्दी-संमार के लिए एक अपरिचित वस्तु थी। सस्कृत-सादिन्य का अध्ययन तथा परिचय कराने की भावना और मासिकपत्र क के लिए मामयिक निबन्ध लिखने की आवश्यकता ने द्विवेदी जी को नैषधचरितचर्चा' और 'विक्रमाकदेवचरितचर्चा' लिखने के लिए प्रेरित किया । इन नालोचनाओं में द्विवेदी जी ने संस्कृत-साहित्य को ऐतिहासिक दृष्टि से देग्वने और पश्चिमीय विद्वानों के अनुसन्धान द्वान मान संस्कृतमम्बन्धी बातों से हिन्दी-मंमार को परिचित कराने का प्रयास पिया है । इन आलोचनाओं में विवेदी जी की ठो प्रवृत्तियों परिलक्षित होती है। पहली यह कि उनका सिद्धान्तपन्न मरकृत-माहित्य पर ही नहीं आश्रित है अापेतु उन्होंने पश्चिन के सिद्धान्ती पर भी विचार और स्वतन्त्र चिन्तन किया है । अतएव उनका अालोचना का प्रतिमान अपेक्षाकृत व्यापक, उदार और नवीन है । उनकी दूमरी प्रवृत्ति है कवि की कविता को सुन्दरतर बनाने की चेष्टा न करते हुए उसके उदाहरण पाठक के भामने रखकरके चुप हो जाना। सम्भवतः कविता के अच्छे नमूने' शीर्षक की देविकर ही शुक्ल जी ने श्राक्षेप किया है कि पंडितमंडली में प्रचलित रूढि के अनुसार चुने हुए श्लोकों की खूबी पर साधुवाद है । खरा सत्य तो यह है कि पद्य को गद्य में परिणत करके, काव्य को बुद्विप्रधान अाकार देकर, सौन्दर्य को तार्किकता और वाग्जाल का बाना पहना दन में ही आलोचना का चरम उत्कर्ष नहीं है। सीधी भादी उद्धरणाप्रणाली या मामान्य अर्थव्यंजक टीकापद्धति की भी हमारे जीवन मे आवश्यकता है और इसीलिए माहिल्य में उनका भी महम्म है। आलाचनाजाल' स्वरूप और उद्देश में उपयुक्त चर्चाओ से भिन्न है। यह मन १६०१ और १६५७ ई० के बीच लिख गए निबन्धो का एक संग्रह है। प्रत्येक निबन्ध की अपनी विशेषता है । व भिन्न भिन्न अावश्कताओं को ले कर लिग्वे गाए हैं। उनकी बहुत कुछ ममीता विभिन्न पद्धतियों के सन्दर्भों में हो चुकी है। आगे चल कर जब द्विवेदी जी १ कालिदास की निरंकुशधा' १०३ २ इमकी वर्षा माहित्यिक में हा चुकी है Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 युवश पार “किरातात्रु नाय क अनवाद किया तव कालिदास और भारवि पर अालोचनात्मक भूमिकाएँ भी लिखी। इस प्रकार की भूमिका लिखने की प्रेरणा पश्चिमीय साहित्य के अध्ययन का फल जान पटती है। कालिदास पर हिन्दी मे काई पुस्तक नही लिग्बी गई थी अतएव उन्होंने 'कालिदान और उनकी कविता' प्रकाशित की ।' यह मन् १६०५ में लेकर १६१८ ई. तक लिव गए निवन्धों का संग्रह है । अधिकाश लेग्य १६११-१२ ई० के हैं। _ 'कालिदास और उनकी कविता' का अालोचनात्मक मूल्याकन करने के लिए उन पुग को ध्यान में रग्ब लेना होगा । उस समय पाठकों की दो कोटिया थी । एक मे तो साधारण जनता कालिदाम मे नितान्त अनभिज्ञ थी और दूसरी में वे पंडित थे जो 'कौमुदी के कीड़े और 'महाभाष्य के मतंगज' थे । वे कालिदास का एक भी शब्दस्खलन नही सह सकत थे और उसे महो सिद्ध करने के लिए पाणिनि, पतंजलि, कात्यायन की भी उक्तियां पर हरताल लगाने की चेष्टा करते थे ।२ समालोचको और ममालोचनाश्रो की दशा भी शोचनीय थी । यदि किसी सम्पादक ने किमी अालोचक की आलोचना अप्रकाशनीय ममझ कर न छापी तो उसकी समालोचना होने लगी। यदि किमी पत्र ने किमी अन्य पत्र के साथ विनिमय नहीं किया ता सम्पादक पर ही वाग्बागी की वर्षा होने लगी। फिर उम ममालोचना में उमके बरद्वार, गादीघाई, नौकरचाकर, वस्त्राच्छादन तक की ग्बबर ली जाने लगी । पाश्चात्य विद्वानों द्वारा की गई भारतीय पुरातत्वमंबन्धी खोज ने हिन्दी-जनता को भी अाकृष्ट किया । ऐतिहासिक अनुमंधान के नवोन उपनयन को पाकर टुटपुजिए ममालोचको ने कालिदामादि का कालनिर्णय करके यश लूट लेने का उपक्रम किया। इस क्षेत्र में भी पदार्पण करके अज्ञान का निगन योग ज्ञान का प्रचार करना द्विवेदी जी ने अपना कर्तव्य ममझा । 'कालिदाम और उनकी कविता' के प्रारंभिक बहत्तर पृष्ठ उनकी गवेषणात्मक और ठोस अालोचना के मानी ह । हममे उन्होंने अनेक प्राच्य अोर पाश्चिमान्य विद्वानो के मनों का उल्लेब, उनकी परीक्षा और अार अपने मन की युक्तियुक स्थापना की है । 'नेपधचरितचर्चा' ग्रार विक्रमाकदेवचरित चना में द्विवेदी जी भस्कृत-माहित्य के ऐनिहासिक पन्न के अन्वपी हाकर प्रकट हुए थे। प्रस्तुत पुस्तक में उनका बह रूप अपने चरम विकास को ग्राम हुआ है । श्राद्योपान्त ही सूक्ष्म श्रीन्यपन और गभीर चिन्तन की छाप है । 'कालिदाम की दिखाई हुई प्रचीन भारत की एक मन्तक' में अालोचक द्विवेदी ने अतीत और वर्तमान की विशेषताओं को लेकर कालिदास का १. 'कालिदास और उनकी कविता', निवेदन । , प १२१ ११२ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविता म तत्कालान समाज का विशेषताश्नों को निरखा है, 'कालिदास की वैवाहिकी कविता 'कालिदास की कविता मे चित्र बनाने योग्य स्थल' और 'कालिदास के मेघदूत का रहस्य' में द्विवेदी जी के सहृदय कविहृदय का प्रतिविम्ब है । यह तीसरा निबन्ध तो द्विवेदी जी के हृदय का भी रहस्य है । इसमें प्रेमी-हृदय के विश्लेषण और व्याख्या के रूप में द्विवेदी जी ने अपने ही प्रेमी हृदय की अभिव्यक्ति की है । प्रेम के संसार से गहरा परिचय होने के कारण ही उनकी लेखनी में अनायास ही प्रेम की सुन्दर व्याख्याएँ निकल पडी हैं । १ प्रेम की कठिनाइयों और कठोरताओं का भोगी होने के कारण ही उनका हृदय यक्ष के हृदय के समान अनुभूति कर सका है। प्रेम की नीयता और प्रेमयोग को लेकर साहित्य म बहुत कुछ लिखा जा चुका है किन्तु सात्विकता, निर्मलता, अमायिकता और भोलेपन से प्रतिमांत द्विवेदी जी के प्रेमी हृदय का यह स्वर निराला है । संस्कृत साहित्य पर द्विवेदी जी के द्वारा की गई, आलोचनाओं के मूल में तीन प्रधान कारण थे-पुरातन्त्रसम्बन्धी अनुसन्धान में निरत वह युग, रह रह कर अतीत की ओर देखने वाला द्विवेदी जी का व्यक्तित्व और हिन्दी काव्यों की आलोचना द्वारा हिन्दीलेखकों की दृष्टि व्यापक बनाने की चन्तवती आकाक्षा | संस्कृत को लेकर आलोचना की जो शुदला द्विवेदी जी ने चलाई वह उन्ही के साथ लुप्त हो गई। उनके विश्राम ग्रहण करने पर हिन्दीश्रालोको के लोचनों में अनेक वादी का मद छा गया। इसकी समीक्षा 'युग और व्यक्तित्व' अध्याय में यथास्थान की जायगी । द्विवेदी जी की आलोचनाओं की धारा संस्कृत और हिन्दी के कुलयुग्म में वही है । संस्कृत विषयो की आलोचना करते समय हिन्दी को और हिन्दी - विषयों की आलोचना करते समय संस्कृत को वे नहीं भूले हैं । 'हिन्दी कालिदास की समा लोचना' हिन्दी - पुस्तक की आलोचना होते हुए भी संस्कृत से प्रभावित है । यह ऊपर सिद्ध किया जा चुका है। 'नैपधचरित', 'विक्रमाकदेवचरित', कालिदास आदि की आलोचनाएँ संस्कृत की होने पर भी हिन्दी के लिए लिखी गई है। ८ 'हिन्दी शिक्षावली तृतीय भाग की समालोचना' का प्रारम्भ भर्तृहरि की 'अहो ! कष्टं मापि प्रतिदिनमधोधः प्रविशति पंक्ति से होता है । इस उक्ति में छिपी कष्टभावना उनकी सभी खंडनप्रधान आलोचनाओ के मूल में है। 'भाषादोप', 'कवितादोप', 'मनुस्मतिप्रकरणदीप', 'सम्प्रदायदोप', 'व्याकरणदोष', 'स्फुटदोष' - दोषदर्शन में ही पुस्तक की समाप्ति हुई है । द्विवेदी जी को इस बात का दुख है । हिन्दी पाठकों और लेखकों के कल्याण के लिए ही १. 'कालिदास और उनकी कविता', पृ १३०, १३१, १३६. १३७, १३८ । उपर्युक पृष्ठों के अतिरिक्त १२२, १२७ १२८, १२६, १३ ४३६ १३२ १३३ १३४ } Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवश हाकर सहारात्मक आलोचना करनी पडी है व कहते हैं- "हम यह जानते हैं कि किस कृति में दोष दिपलाना बुरा है परन्तु जिसम सबस धारण को हानि पहचती हो ऐसे दोष को प्रकाश करके उनको दूर करने की चेष्टा करना बुरा नहीं है । इस प्रकार का दोषाविष्करण यदि लाभदायक न होता तो हमारी न्यायशीला गवर्नमेंट पुस्तको और राजकीय कार्यों की समालोचना की अपराधों की तालिका में गणना करके उसके लिए भी पेनलकोड मे दड निर्धारित करती है फिर जिम लेखक के दोप दिखलाए जाते है, वह यदि शान्तचित्त होकर विचार करे तो समालोचना से उमका भी लाभ ही होता है, हानि नहीं होती । ऐसे अनेक लोग है जो अपनी विद्या, अपनी बुद्धि और अपनी योग्यता का पूरा पूरा विचार किए बिना ही पुस्तके लिखकर ग्रन्थकार बनने का गर्व हाँक्न हैं। अपने दोप अपने ही नेत्रों से उनको नहीं देख पडतं । उन्हीं को क्या मनुष्यमात्र को अपने दोप प्रायः नहीं दिखाई देते । अतएव उनके दोष उनका दिग्वलाने के लिए दृमर ही की अपेक्षा होती है ।"१ द्विवेदी जी का महान् अालोचक ठोम अालोचनान्मक ग्रन्थों का प्रणयन न कर सका। वह भाषासुधार, मन्त्रिपरिष्कार और लेविकनिर्माण तक ही मीमित रह गया । उसने जानबूझकर इन मकुचित सीमाओं को स्वीकार किया-युग की मागो को पूरा करने के लिए। 'सरस्वती' उनकी इन आलोचनाओ का वाहन बनी। उसमें प्रकाशित सभी ग्रालोचनात्मक लेखो की समीक्षा करना यहां कठिन है। 'समालोचना-समुच्चय', 'विचारविमर्श' और ‘रसज्ञरजन' मे संकलित लेग्वा की संक्षिप्त अालोचना अवश्य अपेक्षित है । पहली पुस्तक को हम अाधुनिक अर्थ में समालोचना का समुच्चय नहीं कह मकने । मामयिक पुस्तको की परीक्षारूप में लिखे गए ये निबन्ध हिन्दी-साहित्य की स्थायी सम्पत्ति नहीं है । परन्तु यह भी स्मरण रखने की बात है कि स्थायित्व और अमर यश ही अालोचना का एकान्त उद्देश नहीं है, साहित्यसर्जन भी कोई वस्तु है । इन आलोचनायो का महत्व लेखको और कविया के उचित पथप्रदर्शन में है । द्विवेदी जी की पुस्तक-समालोचना की पद्धति इस पुस्तक के अन्तिम निबन्ध “हिन्दी-नवरत्न' मे अपने सुन्दरतमरूप मे प्रकट हुई है। इसका अनुमान उसकी विषयसूची में ही हो जाता है । मूलग्रन्थ मे प्रायः ६४ उद्धरण देकर उसकी दोषप्रधान विस्तत और अकाट्य समालोचना की गई है। अालाचक ने दोपा के परिष्कार १. 'हिन्दी शिक्षावली तृतीय भाग की समालोचना', पृ. २६ २. उसकी विषय सूची इस प्रकार है पुस्तकसम्बन्धिनी साधारण बाते, लेखकों का विचार स्वातल्य, पुस्तक की उपादेयता, काल्पनिक चित्र कवियों का श्रेणीविभाग, तुलसीदास मतिराम टेव बिहारीलाल, हरिश्चन भावानोष गटदोप फुटकर रोष Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रदम्यता के साथ पदन्यास किया है उसकी - और साहित्य में सुधार के लिए म आद्योपान्त ही तर्क, चिन्तन, और संयम से काम लिया गया है । इतिहासलेखक को जब जब बीसवी शती ई. के प्रथम चरण के हिन्दी साहित्य को देखने और समझने की श्रावश्यकता होगी तब तब विवेदी जी का यह 'ममालोचनासमुच्चय' स्थायी साहित्य की निधि न होने पर भी अनुपेक्षणीय होगा | 'विचारविमर्श' में 'याधुनिक कविता', 'पुरानी समालोचना का एक नमृना', 'हिन्दी के समाचारपत्र', ‘बोलचाल की हिन्दी मे कविता', 'सम्पादकी, समालोचको और लेखकों का कर्तव्य', 'ठाकुर गोपाल शरण सिंह की कविता, भारतभारती का प्रकाशन' श्रादि कुछ ही निबन्ध आलोचनात्मक है । ये भी सामयिकता और पुस्तक परिचय की सीमानों से बंधे हुए है । आलोचना और मनोरंजक्ता के सुन्दर समन्वय के कारण प्रसज्ञरंजन' की विशेषता ही निगली हे उसके मज पाठकों की दो कोटियाँ सो कर दी गई है। पहली कोटि में रसज्ञ कवि हैं जिनको लक्ष्य करके प्रथम पाच लेख लिखे गए है और दूसरी कोटि में रसज्ञ कविताप्रमा है जिनके मनोरंजनार्थ अन्तिम चार निबन्धों की रचना हुई है । संस्कृत से अनुप्राति युगनिर्माता द्विवेदी का स्वर सर्वव्यापक है । मैथिलीशरण गुप्त के 'साकेत' को जन्म देने का मुख्य श्रेय इस संग्रह के कवियों की उर्मिलाविषयक उदासीनता" निबन्ध को ही है । आलोक द्विवेदी का सच्चा स्वरूप उनकी कृतियों के कतिपय ग्रहों में नहीं है, वह उस युग के साहित्य के साथ एक हो गया है। उन्होंने आलोचना को तप के रूप में स्वीकार किया | उनकी संहारात्मक समीक्षाओ ने लेखकों को सावधान करके, मापा को मुव्यवस्थित करके हिन्दी साहित्य की ईदृक्ता और इयत्ता का उन्नत करने की भूमिका प्रस्तुत की, माहित्यिक जगत् में जागृति उत्पन्न की जिसके फलस्वरूप श्रागे चलकर भननीय ठोस ग्रन्थों की रचना हो सकी। उनकी सर्जनात्मक सकर्मक थालोचनाश्री ने मैथिलीशरण गुप्त, रामचन्द्र शुक्ल यादि साहित्यकारों का निर्माण किया जिनके यश: सौरभ में हिन्दी- संसार सुवासित है। उन्होंने हिन्दी साहित्य में आधुनिक आलोचना की पति चलाई। आलोचक द्विवेदी युग का निर्माण करने के लिए सम्पादक बने, भापामुवारक बने, गुरु और श्राचार्य बने । अपनी इन्ही विशेषताओं के कारण वे अपने समसामयिक बालोचको -- पद्म सिंह शर्मा, मिश्रबन्धु श्रादि -- अत्यधिक महान् है । मन्त्र तो यह है कि द्विवेदीजी जैसा-युगनिर्माता थालोचक हिन्दी साहित्य में कोई नहीं हुआ । १ १ यह निचव रवीनाथ ठाकुर के 'काय में उपेचिता" नामक निबन्ध पर आधारित है रसनरजन का भूमिका Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PAGES छठा अध्याय STARA निबन्ध संस्कृत साहित्य में 'निबन्ध' शब्द प्रायः किसी भी रचना के लिए प्रयुक्त हुआ है, तथापि उममे भी निबन्धों की एक परम्परा थी जो भाष्य और टीका से प्रारम्भ होकर साहित्यिक धार्मिक, दार्शनिक श्रादि विषयों के विवेचन में परिणत हुई । उदाहरणार्थ पंडितराज जगन्नाथ का नित्रमीमासा-ग्वंडन एक आलोचनात्मक निवन्ध ही है । आधुनिक हिन्दी-निबन्ध के रूप या शेली पर संस्कृत के निबन्ध का कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ा है । वर्तमान 'निबन्ध' शब्द अगरेजी के 'एसे' का समानार्थी है ! हिन्दी मे गद्यभापा तथा सामयिक पत्र-पत्रिका के साथ ही निबन्धलेखन का प्रारम्भ हुआ। राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक, वैज्ञानिक तथा माहित्यिक आदि विषयों पर जनता की जानवृद्धि की तत्कालीन अावश्यकता की पूर्ति के लिए पश्चिमीय पत्रों के अनुकरण पर निबन्ध लिन्वं गए । लेखको के साहित्यिक व्यक्तित्व की दुर्बलता, भाषा की अस्थिरता, पत्रपत्रिकाओं की आर्थिक दुर्दशा, अपेक्षित पाठकवर्ग की कमी आदि कारणो मे द्विवेदी जी के पहले हिन्दी में निबन्धो की उचित प्रतिष्ठा न हो पाई और न उनके रूप और कला की ही कोई इयत्ता और ईदृक्का ही निश्चित हो मकी सम्पादक तथा पत्रकार के रूप में द्विवेदी जी ने संक्षित, मनोरंजक, सरल तथा ज्ञानवर्द्धक निबन्धों की जो शक्तिशाली परम्परा चलाई उसने निबन्ध को हिन्दी-साहित्य का एक प्रमुख अंग बना दिया। द्विवेदी जी की भापा और शैली अपने विभिन्न रूपों में विकसित होकर उस युग तथा भावी युग के निबन्धी की व्यापक भाषाशैली बन गई। हिन्दी-साहित्य के द्विवेदीयुगीन तथा परवर्ती निबन्धो की कलात्मकता और साहित्यिकता का निर्माण इसी भूमिका में हुआ। लक्षण तथा परिभाषा बाद की वन्तुएं है। हिन्दी-निवन्धी के स्वरूप और विकास को समझने के लिए वर्तमान युग की पश्चमीय परिभाषाएं उधार लेने में काम नहीं चल मकता । हिन्दी में निबन्ध का न तो उतना विस्तृत इतिहाम ही है और न उसका प्रारम्भ वेकन में ही हुआ है । निबन्ध की यह पश्चमीय कसौटी कि वह व्यक्तित्व की मनोरंजक एवं कलात्मक अभिव्यक्ति है हिन्दी के लिए श्राप्त नहीं होमकती । यहाँ तो सीमित गद्यरचना म व्यक्त का गई सुसम्बद्ध विचार-परम्परा को ही निवध मानना अधिक समीचीन अनत Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ है। बातों का संग्रहण और अप्रत्यक्ष रूप में ज्ञान का संवर्द्धन ही इसकं प्रमुख उद्दश रह है । लेग्वक को जीवन अथवा जगत् की कुछ बाते मीधी सादी भाषा में कहनी थी, उपलब्ध साधना के द्वारा उन्हें जनता तक पहुँचाना था। इन बातों को ध्यान में रखकर जो वल्लु रची गई वह निबन्ध हो गई। अपनी बहुविधता, व्यापकता और सामयिकता के कारण ही निबन्ध पत्र-पत्रिकाओं में व्यंजना का मामान्य माध्यम बन गया । उसम स्वतन्त्रता का अधिक अवकाश हाने के कारण ही भारतेन्दु-और-द्विवेदी-युग के माहित्यकारी ने निबन्धनेग्वन की ओर अधिक ध्यान दिया । अधिकाश निवन्ध मामयिक विषयो पर निबद्ध होने तथा मामयिक पुस्तकों में प्रकाशित किए जाने के कारण सामयिकता मे ऊपर न उठ सके । भारतेन्दु-और- द्विवेदी-युग के निबन्ध की विशेष महत्वपूर्ण देन है निबन्ध की निश्चित गतिशेली । द्विवेदी जी के निबन्यो को प्रधानतः इसी ऐतिहासिक दृष्टि में परखना होगा। निबन्ध का वर्तमान मानदंड उनके निबन्धी की ईदृक्ता और इयत्ता को नापने के लिए बहुत छाटा गज है । उनके निबन्धों की गुरुता का उचित भावन करने के लिए उनके व्यक्तित्व, उद्देश, युग, उस युग की आवश्यक्तानो, उनकी पूति के साधक उपायो तथा बाधक नत्वा अादि को ठीक ठीक समझने वाली व्यापक बुट्टि और मद्ददय हृदय की अनिवार्य अपेक्षा है। द्विवेदी जी के प्रारम्भिक प्रयासो मे अालोचना और निबन्ध का समन्वय हुश्रा है ! उद्देश की दृष्टि से ये कृतिया अालोचना होते हुए भी ग्राकार की दृष्टि से निबन्ध की ही कोटि में हैं । 'हिन्दी कालिदास की ममालोचना' आदि निबन्ध सामयिक पत्रों में प्रकाशित हो जाने के पश्चात् मंग्रहपुस्तक के रूप में जनता के समक्ष अाए । 'नैपधचरितचर्चा और "मुदर्शन'', 'वामन शिवराम आपटे २, 'नायिका भेद'3, 'कविकर्तव्य'४, महिषशतक की समीक्षा'५ श्रादि निबन्ध निबन्धकार द्विवेदी के प्रारम्भिक काल के ही हैं। इन निबन्धी से यह स्पष्ट सिद्ध है कि निबन्धकार द्विवेदी के निर्माण का प्रधान श्रेय आलोचक द्विवेदी को ही है। 'सरस्वती'-सम्पादक द्विवेदी को सम्पादकीय टिप्पणियाँ ता लिखनी पड़ी ही साथ ही साथ लेग्बको के अभाव की पूर्ति भी अपने निबन्धा द्वारा करनी पड़ी । इसका विस्तृत विवेचन 'सरस्वती'-सम्पादन अध्याय मे किया जायगा। उपयुक्त लेखकों की कमी के कारण पत्रिकाओं १. 'सरस्वती' १६०६ ई०, पृ० ३२१ । २ .. १६०१ पृ. ७ । به س : Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 श्रद हो ज ना पड़ता [ द्विवेदा जी ने अपने अध्यवसाय तथा मनोयोग से सरस्वती को सभी प्रकार के निवन्धो न सम्पन्न किया। निबन्धों के विषयों में अकस्मात् ही कितनी व्यापकता अागई, इसका बहुत कुछ अनुमान 'सरस्वती' की विषय-चूची से ही लग सकता है । द्विवेदी जी ने गारव्यायिका, प्राध्यात्मिक विषय, वैज्ञानिक विषय, स्लथनगर-जात्यादिवर्णन माहित्यिक विषय शिन्ना-विषय, प्रौद्योगिक विषय आदि ग्बंडा के अन्र्तगत अनेक प्रकार के निबन्धों की रचना का। निबन्धकार द्विवेदी ने केवल अान्माभिव्यजक और कलात्मक निबन्धा की सृष्टि न करके इतने प्रकार के विषयो पर लेग्वनी क्यो चलाई--इमका उत्तर निबन्धकार के व्यक्तित्व, युग की अावश्यक तानी, पाठक-वर्ग की मचि की व्याख्या और इनके पारस्परिक भाबन्ध के निर्देश द्वारा दिया जा मकता है । द्विवेदी जी के आलोचक, सुधारक, शिक्षक श्रादि ने ही इन निबन्धा के विषयों का बहुत कुछ निर्धारण किया है। इस व्यक्तित्व मे अधिक महत्वपूर्ण उनका उद्देश ही है। अधिकाश निवन्धों की रचना पत्रकार द्विवेदी ने ही की है और उनका धान उद्देश रहा ह मनोरं जनपूर्वक 'मरस्वती'-पाठको का जानवर्द्धन तथा मचिपरिष्कार । कलात्मक अभिव्यक्ति कही भी उनकी निवन्धरचना का साध्य नहीं हो सकी है। यजातरूप में अनायास ही जो प्रामाभिव्यंजना द्विवेदी जी के निवन्धी में परिलक्षित होती है वह उनकी निबन्धक रिता की द्योतक है। उनकी अधिकाश समीक्षानो. खडनमंडन, वादविवाद अाटि में इस निवन्धता का कलात्मक विकास नहीं हो पाया अन्यथा द्विवेदी जी के निबन्ध भी स्थायी माहित्य की मूल्य निधि होते। मामयिकता की रक्षा. जनता के प्रश्नों का समाधान और समाज को गतिविधि देने के लिए मार्गप्रदशन-इमने प्रेरित होकर द्विवेदी जी ने विभिन्न विषयों पर रचनाएँ की। सम्पादक-द्विवेदी ने पुस्तकपरोक्षा विविध-वार्ता आदि मंक्षित निबन्ध-मरीखी रचनाएँ भी की। माहित्यिक निबन्ध के अथ ग इन रचनाअं को निबन्ध नहीं कहा जा सकता। मौलिकता की दृष्टि ने द्विवेदी जी के निवन्धा का मल विविध है-मामयिक पत्रपत्रिकाएँ तथा पुस्तके और स्वतन्त्र उद्भावनाए। 'सरस्वती' को भारतीय तथा विदेशी पन-जगत् के समकक्ष रखने तथा हिन्दी--पाठको के बौद्धिक विकास के लिए द्विवेदी जी ने अधिकाधिक मख्या में दृसरी का श्राशय लेकर अपनी शैली में निबन्धा की रचना को ! उन पर द्विवेदी जी की छाप इतनी गहरी है कि वे अनुवाद प्रतीत ही नहीं होते । 'कवि और कविता', 'कविता', कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता अादि निवन्ध इसी श्रेणी के ये निवध रसन रजन म सकलित है. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है दूसरी श्रेणी म व निबघ हैं जिनके विषय तथा लेसन की प्ररणा द्विवदा नी को स्वत प्राप्त हुई । यथा भवभूति'', 'प्रतिभा' , 'कालिदाम के मंघदूत का रहस्य', 'साहित्य की महत्ता आदि । प्रायः इस प्रकार के निबन्धों की रचना प्रमुख व्यक्तियों के जीवन चरित, स्थानादिवर्णन, सभ्यता एवं साहित्य, बालोचना भादिको लेकर हुई । इस श्रेणी के निबन्धो में निबन्धकार द्विवेदी अपने शुद्धतम और उच्चतम रूप में प्रकट हुए है। प्राशयप्रधान अमौलिक निबन्धों की अपेक्षा इन निबन्धो मे उनके व्यक्तित्व की भी सुन्दरतर अभिव्यक्ति हुई हैं । सामयिकता एवं पत्रकारिता की दृष्टि में निवन्ध की इन दोनों ही श्रेणियों का महत्व समान है। द्विवेदी जी के निबन्धो के व्यापक अध्ययन के लिए उनके प्रकार निर्धारण की अपेक्षा है। शरीर की दृष्टि से द्विवेदी जी के निवन्ध चार रूप में प्रस्तुत हुए। पहला रूप पत्रिकाया के लिए लिखित लेखो का है जिनके अनेक उदाहरण ऊपर दिए जा चुके हैं । दृसर रूप में भूमिकाएँ हैं जो ग्रन्थी, ग्रन्थकारी या ग्रन्थ के विषय के परिचयरूप मे लिखी गई हैं। 'रघुवंश', 'किरातार्जुनीय', 'स्वाधीनता' आदि की भूमिकाएँ निबन्ध की इसी कोटि में है । नीमरा रूप पुस्तकाकार प्रकाशित निबन्धी का हे उदाहरणार्थ 'हिन्दी भाषा की उत्पत्ति', 'नाट्यशास्त्र' आदि । चौथे रूप में वे भाषण हैं जो द्विवेदी जी ने अभिनन्दन, मेले, और तेरहवें साहित्य-सम्मेलन के अवसर पर दिए थे । विपय की व्यापकता एवं अनेकरूपता के कारण इन निबन्धो को किसी एक विशिष्ट कोटि में रज्यकर, विमी एकही विशिष्ट लक्षण से प्रॉकना असम्भव है । उनके प्रकारनिर्धारण में विषय, शैली एवं उद्देश का समान हा रहा है। विषय की दृष्टि से द्विवेदी जी के निबन्धों के अाठ वर्ग किए जा सकते हैं---साहित्य, जीवनचरित, विज्ञान, इतिहास, भूगोल, उद्योगशिल्प, भाषा और अध्यात्म । साहित्यिक निबन्धी के भी अनेक प्रकार है-कविलेखक-परिचय, ग्रन्थपरिचय, समालोचना, शास्त्रीय विवेचन, सामयिक साहित्यावलोकन आदि । 'कविवर लछीराम', 'पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र', ६ पंडित सत्यनारायण मिश्र', 'मुग्धानलाचार्य', 'बाबू अरविन्द घोप', 'कविवर १. 'सरस्वती,' जनवरी, ५१०२ ई० । २., १६०२, ई०, पृ०, २६२ । ३. 'कालिदास और उनकी कविता में संकलित । ४. हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के तेरहवें अधिवेशन में स्वागताध्यक्षपद से दिए गए लिखित भाषण का एक अंश जो निबन्धरूप में स्वीकृत हो चुका है। *. 'सरस्वती,' १९०५ ई०, पृ० ११४ । ८८। ११०७ ३२ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवीन्द्र नाथ ठाकुर ' आदि निब व कविलेखक परिचायक हैं सरस्वती के प्रय परिचयखंड मे प्रकाशित अनेक पुस्तक-ममीक्षाएँ ग्रन्थ-परिचायक निबन्धो की कोटि में श्राएंगी ! 'महिष-शतक की समीक्षा', 'उर्दू शतक', 'हिन्दी नवरत्न'४ अादि निबन्ध अालोचना की कोटि के हैं । 'नायिका भेद', 'कवि और कविता'६ 'कवि बनने के लिए मापेक्ष माधन', 'हिन्दू-नाटक'८ 'नाट्यशास्त्र', आदि का विषय माहित्यशास्त्र है। विषय की दृष्टि में द्विवेदी जी के निबन्धी का दृमग वर्ग जीवनचरित है। प्राचीन एवं आधुनिक महापुरुषो मे साधारण पाठको को परिचित कराने और उनके चरित्र से उन्हें लाभान्वित करने के लिए इस प्रकार की सुन्दर जीवनिया लिम्वी गई। ये जीवनचरित चार प्रकार के व्यक्तियों को लेकर लिन्वे गए है--विद्वान् गजारईस, राजनीतिज्ञऔर धर्मममाजसुधारक । 'सुकविमंकीर्तन' तथा 'प्राचीन पंडित और कवि' विद्वानों पर लिखे गए, निबन्धी के ही संग्रह है । 'हर्बर्ट स्पॅमर',१० गायनाचार्य पंडित विष्णु दिगम्बर १५ प्रादि भी इभी प्रकार के निवन्ध है । 'महाराजा टावनकोर',१२ 'श्यामनरेश चूडालकरण १3 आदि राजाश्री पर लिग्वित नियन्व है । 'कांग्रेस के कर्ता'१४ सर हेनरी काटन'," 'आदि राजनीतिजा पर लिखेगए हैं। धर्मप्रचारको एवं समाजसुधारका पर द्विवेदी जी ने अपेक्षाकृत बहुत कम लिग्वा है। बौद्धाचार्य शीलभद्र',१६ 'शास्त्रविशारद जैनाचार्य', 'श्रीविजयधर्म सूरि १७ श्रादि के विषय धार्मिक पुरुप हैं । १. सरस्वती' १९१२ २. ,, १६०१ १९०७ १६०३ ई० में लिखित और १६१० ई० में पुस्तिकाकार प्रकाशित । १०. 'सरस्वती', ११०६ ई०, पृ० २५५ । ११. . १६०७ ३८६ । १२ 'सरस्वती', १६०७ ई., पृ. ५०३ । १९१५ 'विचार-विमर्श' में मंकलित । ११० एप्रिल Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैधानिक निरधा म अाविष्कार आर अनस धान पर द्विवदी नी ने अन रोचक निवन्ध लिखे । उनकी सम्पादित 'सरस्वती' में मंगल ग्रह तक तार', रंगीन छायाचित्र', "कुछ अाधुनिक अाविष्कार'-3 सरीखे निबन्धी की बहुलता है। विषय की दृष्टि से द्विवेदी जी के निबन्धी का चौथा वर्ग ऐतिहासिक निबन्धो का है। ये निबन्ध तीन प्रकार के है । 'भारतीय शिन्य शास्त्र'.४ "विक्रमादित्य और उनके मबत् के विषय में एक नई कल्पना'," 'प्राचीन भारत में रसायन-विद्या'६ आदि निवन्ध सामान्य ऐतिहासिक हे । यह ऐतिहासिक निवन्धो का पहला प्रकार है । दूसरे प्रकार के ऐतिहासिक निबन्ध वे है जिनमें भारतीय वैभव, सभ्यता आदि का चित्रण किया गया है, यथा 'भारतवर्ष की मभ्यता की प्राचीनता',७ 'अायों की जन्मभूमि', 'प्राचीन भारत में जहाज' श्रादि । तीसरे प्रकार के ऐतिहासिक निबन्ध पुरातत्वविपयक है, उदाहरणार्थ 'सोमनाथ के मन्दिर की प्राचीनता',१० 'भारतवर्ष के पुराने खडहर',११ 'शहरे बहलोल में प्राप्त प्राचीन मूर्तिया १२ श्रादि । विषय के आधार पर उनके पाचवे वर्ग के निबन्ध भौगालिक है । ये दा प्रकार के है-एक तो भ्रमण--सम्बन्धी और दूसरे स्थल-नगर-जात्यादि-वर्णनमय । भ्रमण-सम्बन्धी निवन्धो में प्रायः दूमरो की कथा वर्णित है । 'व्योम-विहरग' १३ उत्तरी ध्रुव की यात्रा' ६४ 'दक्षिणी ध्रुव की यात्रा १५ श्रादि इस विषय के उदाहरणीय निबन्ध है । पेरिस'१६ जापान की स्त्रिया १७ १. , १००६ पृ० २८५ । १४६। ४. 'विचार-विमर्श, प.८६, जुलाई, १६१६६० । ६. 'सरस्वती', १९१५ ई०, अगस्त । ७. 'विचार-विमर्श'. पृ० १६० ८ 'साहित्य-संदर्भ पु० ५१ । ६. 'सरस्वती',१६१६ ई०, पृ० ३१० १०. 'विचार-विमर्श',पृ० १०२ । १३ 'परम्वती', १९०५ ई०, ५० ३१५.३४० । , १९०७ ११०६ २६५। १६२० २५. १६०५० सनमरी Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरी ध्रुव की यात्रा और वहा की रुकीमा जाति ' श्रादि भौगोलिक निवव दूसरे प्रकार अन्तर्गत है । छ वर्ग के निबन्धों मे उद्योग-शिल्प आदि विषयों पर विचार किया गया है । 'खेती की बुरी दशा', २ हिन्दुस्तान का व्यापार' भारत मे औद्योगिक शिक्षा ४ यदि लेखों में प्रायः ग्रत्य पत्रिकाथा, रिपोटों आदि के आधार पर उपयोगी बातें कही गई हैं । इनके मूल में भारत को औद्योगिक रूप में उन्नत देखने की उत्कट अभिलापा सन्निहित है। इस वर्ग के त्रिधा मे नामयिकता का सबसे अधिक समावेश हुआ है । सातव वर्ग के निबन्ध भाषा-व्याकरण आदि को लेकर लिखे गए हैं | साहित्यिक निबन्धों के अन्तर्गत इन्हें न समाविष्ट करने के दो प्रमुख कारण है- एक तो ये निबन्ध प्रधानतया भाषा में सम्बद्ध है और दूसरे व्याकरण की दृष्टि ही इनमे मुख्य है । इन निवन्धों की रचना का श्रेय भाषा - मस्कारक द्विवेदी को है । 'भाषा और व्याकरण', " हिन्दी नवरत्न ६ आदि निबन्ध हिन्दी गद्यभाषा की व्याकरण - विरुद्ध उच्छं बलगति को रोकने तथा उसके शुद्ध और व्याकरग्गर्भगत रूप की प्रतिष्ठा करने की सदाकाक्षा में लिखे गए । उनके अन्तिम वर्ग के निबन्ध श्राध्यात्मिक विषयों से सम्बद्ध है। ये निबन्ध द्विवेदी जी की भक्तिभावना तथा श्रात्मजिज्ञासा के परिचायक है । आत्माभिव्यंजकता और कला की दृष्टि से इन निबन्धों का महत्वपूर्ण स्थान है । 'सरस्वती' - सम्पादन के पूर्व ही ‘निरीश्वरवाद’७ 'आत्मा', 'जान' - जैसे निवन्ध द्विवेदी जी लिख चुके थे । उसके पश्चात् तो 'ईश्वर', १० श्रात्मा के अमरत्व का वैज्ञानिक प्रमाण', ११ 'पुनर्जन्म का प्रत्य प्रमाण', १२ ' सृष्टि विचार', १३ 'परमात्मा की परिभाषा' १४ आदि आभ्यात्मिक निबन्धों की १. 'लेखाजलि' में संकलित २. 'सरस्वती', १६१८००८ ३ ४. ५ ६. ૪ ६५. । ४२४ तथा 'सरस्वती', १६०६ ई०, प०६० । ६६ । ३११ । १७ । " 51 ६ 'सरस्वती' १६०१ ई, पृ० १४ | १०. 'सरस्वती', १६०४ ई०, प०२७८, ३०२, ३५२, ३६२ । ११ १६०५ १२. ? S. 2 १४ " " " 10 " " 多分いる १६१३ १६.८५ १६१२ १६०१ २३६ । ४२१ । 538 3 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उहाने एक श वला मी प्रम्नत कर दी उनक श्रायामिक विधा का एक विशिष्ट प्रकार भारतीय भक्तिमुलक है और उसमें श्रात्मनिवेदन की प्रधानता है, यथा- 'गोपियों की भगवद्भक्ति" । उद्देश की दृष्टि से द्विवेदी जी के निबन्धो की दो कोटियाँ हैं- मनोरंजन - प्रधान और ज्ञानप्रधान | द्विवेदी- लिखित मनोरंजनप्रधान निबन्धों की संख्या अत्यन्त श्रल्प है । 'प्राचीन कवियों के काव्यों में दोपोद्भावना', 'कालिदास की निरंकुशता', 'दमयंती का चोपालम्भ १४ आदि निबन्ध मनोरंजनप्रधान होते हुए भी ज्ञानवर्द्धन की भावना से सर्वथा शून्य नहीं हैं । वह तो द्विवेदी जी का स्थायी भाव है । द्विवेदी जी के प्रायः सभी निवन्ध पाठकों की ज्ञानभूमिका का विकास करने की मंगलकामना से अनुप्राणित हैं । इसी लिए मनोरंजन की अपेक्षा ज्ञानप्रसार का स्वर ही अधिक प्रधान है । शैली की दृष्टि से द्विवेदी जी के निबन्धो की तीन प्रमुख कोटियां हैं - वर्णनात्मक, भावात्मक और चिन्तनात्मक । यो तो द्विवेदी जी के सभी निबन्धों का उद्देश निश्चित विचारो का प्रचार करना रहा है और उन सभी में उन विचारों का न्यूनाधिक सन्निवेश भी हुआ है तथापि वर्णनात्मकता, भावात्मकता या चिन्तनात्मकता की प्रधानता के आधार पर ही इन तीन विशिष्ट कोटियों की भावना की गई हैं । " ७ द्विवेदी जी के वर्णनात्मक निबन्धों के चार विशिष्ट प्रकार हैं - वस्तुवर्णनात्मक, कथात्मक, आत्मकथात्मक और चरितात्मक । वस्तुवर्णनात्मक निबन्ध प्राय: भौगोलिक स्थल-नगरजात्यादि या ऐतिहासिक स्थानो, इमारती आदि पर लिखे गए है, उदाहरणार्थ 'नेपाल', ' 'मलाबार', 'माची के पुराने स्तूप', 'बनारस' श्रादि । 'श्रतीत-स्मृति, 'दृश्यदर्शन, ' 'प्राचीन चिन्ह' श्रादि इसी प्रकार के निबन्धों के संग्रह हैं । द्विवेदी जी के अधिकाश कथात्मक निबन्धों में 'श्रीमद्भागवत', 'कादम्बरी' या 'कथासरित्सागर' की-सी कथा नहीं है । केवल कथा की शैली में घटनाओ, तथ्यां, संस्थाओ, यात्राश्री आदि का वर्णन किया गया है, यथा१. ' समालोचना - समुच्चय, प००१ । २ सरस्वती, १९११ ई० एप्रिल | मई | יי ૨ जून | ," ३. 'सरस्वती' १९११ ई०, प००७, ५०, ४ साहित्य-सन्दर्भ में संकलित । ५ हरयदर्शन' में सकक्षित ܕܕ 3 ०७ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५, व्यामारदरण' ' अदभुत इ द्रजाल २ श्रादि लेखाजलि महिलामोद और अदभत अालाप' मे संकलित अधिकांश निबन्ध इमी प्रकार के हैं । अाधुनिक कहानियों का-सा वस्तुविन्यास, चरित्रचित्रण आदि न होने के कारगा ये निबन्ध कहानी की कोटि मे नहीं ना मकते । द्विवेदी जी के कुछ निबन्ध ऐसे भी हैं जिनमे वस्तुत: कथा का-सा प्रवाह और सारस्य है, यथा-'हंम-सन्देश',3 'हंस का दुस्तर दूत-कार्य'४ श्रादि। इनमें न तो कहानी की विशेषताएँ हैं और न भावात्मक निबन्धा की । अपनी वर्णनात्मक शैली और कथाप्रवाह के कारण ही ये कथात्मक निबन्ध हैं। अात्मकथात्मक निबन्ध की विशिष्टना है वर्णित पात्र द्वारा उत्तम पुरुप में ही अपनी कथा का उपत्थापन । भावात्मकता का बहुत कुछ पुट शने पर भी अपनी इमी विशेषता के कारण यह भावात्मक निबन्ध की कोटि में नहीं रखा जा मक्ता । 'दंडदेव का अात्म-निवेदन'५ इम शैली का एक उत्कृष्ट उदाङ्ग्ण है जिसमें दददेव के मुख से ही उनके मंक्षिप्त चरित का वर्णन कराया गया है। द्विवेदी जी के चरितात्मक निबन्ध विशेष महत्व के हैं। हिन्दी साहित्य के प्रारिद्ववेदीयुगा मंक्षिप्त जीवनचरित लिखने की कोई निश्चित प्रणाली नहीं थी । प्रबन्ध-काव्या में नायकों के च रित अंकित किए गए थे। रेणावों की वातांया में धार्मिक महापुरुषों के वृत्तो का मंकलन किया गया था किन्तु उनमें ऐतिहासिक सन्य और कला की और कोई ब्यान नहीं दिया गया । यद्यपि द्विवेदी जी के पूर्व मी 'सरस्वती' में अनेक संक्षिप्त जीवनचरित प्रकाशित हुए तथापि उनकी कोई निश्चित परम्परा नहीं चली। द्विवेदी जी ने हिन्दीमाहित्य की इस कमी का अनुभव किया। उन्होंने पाश्चान्य मादित्य के सक्षिप्त जीवनचरिता के ढंग पर हिन्दी में भी जीवनचरित-रचना की परिपाटी चलाई । उन्होंने नियमित रूप में 'मरत्वनी मे निबन्धो का प्रकाशन किया । 'चरितचयाँ', 'चरितचित्रण', 'वनिता-बिलाम', 'सुकवि-मंकीर्तन', 'प्राचीन पंडित और कवि' आदि जीवनचरितो के ही संग्रह हैं। उनके दम क्रम के दो उद्देश थे-एक तो मनोरंजन और दूमग उपदेश, । यहाँ यह भी स्मरणीय है कि अधिकाश जीवनचरित सम्पादक द्विवेदी के लिये हुए हैं। पत्रपत्रिकात्रा के उस १. 'सरस्वती', १६०५ ई०, प.० १२ । २. , १६०६ ई. जनवरी । ३. ४. 'रसज्ञ-रंजन' में संकलित । ५. 'लग्वांजलि' में संकलित । ६ यथा- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र-राधाकृष्ण दास- सरस्वती', १६०० ई०, प्रथम ५ संख्याय। 'राजा लक्ष्मण सिंह-किशोरी लाल गोल , प.० २०५, २३६ । 'रामकृष्णगोपाल भंडारकर -श्यामसुन्दर दास ,, , २८ ! . इनमें शिधापहर करने की बहुत 3 सामग्री है परम्म यति इनसे विशेष लाभ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपेक्षाकाल म उन्द मनोरंजक बनाने की उतनी ही आवश्यक्ता थी जितना ज्ञानवद्धन बनाने की । इन जीवनचरितों को भी द्विवेदी जी ने 'सरस्वती' पाठको के मनोरंजन का साधन समझा | अनुकरणीय व्यक्तियों के चरितों के चित्रण द्वारा पाठकों की बुद्धि और चरित्र विकास का विचार भी स्वाभाविक और सगत था । कला की दृष्टि से इन निबन्धों की कुछ विशेषताएं प्रवेक्षणीय है । द्विवेदी जी ने उन्ही व्यक्तियों के चरित पर लेखनी चलाई ह जिनमें कुछ लोककल्याण हुप्रा है और जिनके चरित को पढ़कर पाठको का कल्याण हा मक्ता है। लोगों का प्रलोभन और प्रभाव उन्हें योग्य व्यक्तियों का चरित अंकित करने और उन्हें 'सरस्वती' में प्रकाशित करने के लिए बाध्य न कर सका । इसकी विस्तृत समीक्षा 'सरस्वती - सम्पादन' अध्याय में की जायगी। इन नियन्त्रों की दूसरी विशेषता यह है कि ये बहुत ही मंक्षिप्त हैं। इनमें पात्रों के जीवन की उन्हीं बातों का संग्रह किया गया है जो उनके परिचय और चरित्र चित्रण के लिए प्रावश्यक तथा पाठकों की रुचि को परिष्कृत, भावों को उद्दीत एवं बुद्धि को प्रेरित करने में समर्थ प्रतीत हुई है। इनकी सर्वोपरि विशेषता यह है कि लेखक अपने भावन और अभिव्यजन में सर्वत्र ही ईमानदार है । उसे हिन्दी पाठकों के हिताहित का इतना ध्यान है कि अनुचित पक्षपात और मिथ्या को इन निबन्धों में कही अवकाश नहीं मिला है । शैली की दृष्टि में द्विवेदी जी के निवन्धों की दूसरी कोटि भावात्मक है । इन निबन्धा मे लेखक ने मधुमती कविकल्पना या गम्भीर विचारक मस्तिष्क का महारा लिए बिना हो ara fare के प्रति अपने भावों को वाध गति से व्यक्त किया है। इन भावात्मक निबन्धा की प्रमुख विशेषता यह है कि उच्च कोटि के कवित्व और मननीय वस्तु का प्रभाव होत हुए भी इनमें किसी अंश तक काव्य की रमणीयता और विचारों की अभिव्यक्ति एक साथ है | कवित्व या विचारों की सापेक्ष प्रधानता के कारण ही इनके दो प्रकार हैं- कवित्व-प्रवान और विचार प्रधान । मौलिकता की दृष्टि से कवित्व-प्रधान निवन्ध दो प्रकार के है । 'अनुमोदन का अन्त', ' 'सम्पादक की बिदाई' २ यदि मौलिक निवन्ध है जिनमें द्विवेदी जी १ उठाने का विचार छोड भी दिया जाय तो भी इनके अवलोकन से घड़ी दो घड़ी मनोरंजन तो अवश्य ही हो सकता है। शिक्षा, सदुपदेश और सुसंगति से स्त्रियाँ अनेक अभिनन्दनीय गुणों का अर्जन कर सकती है, यह बात भी पाठकों और पाठिकायों के ध्यान में आए विना नहीं रह सकती | १ सरस्वती १६०५ ई प ८ २ भाग २२ वड ५ ,, २७ मध्य प्र प ० १ महावीर प्रसाद द्विवेदी, 'वनिता-विलास' की भूमिका | Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने अपनी ही माम, अनभूतिष की अभिव्यक्ति की है मगर मात्र का प्रभात वर्णन'.१ 'दमयन्ती का चन्द्रोपालम्भ'३ अादि अमौलिक निवन्ध हैं जिनमें क्रमशः 'शिशुपालवव' और 'पधीयच रित' के अंशानुवादरूप में भावनिवन्धना की गई है। विचारप्रधान भावात्मक निवन्ध भावोद्दीपक के समान ही विचारोत्तेजक भी हैं। इस प्रकार के निबन्धों में 'कालिदाम के समय का भारत', 3 'कालिदाम की कविता में चित्र बनाने योग्य स्थल', 'साहित्य की महत्ता'५ अादि विशेष उदाहरणीय हैं । भावात्मक निबन्धी की रीति संस्कृतशब्दबहुल तथा शैनो वक्तृतात्मक और कहीं कहीं चित्रात्मक या संलापात्मक भी है । कबिल्वप्रधान भावात्मक निबन्धों में माधुर्य और विचारप्रधान भावात्मक निबन्धी में अोज की प्रधानता है। चिन्तनात्मक निवन्धो में मननीय विषयों का गम्भीर विवेचन किया गया है । शैली की दृष्टि से इन निबन्धों के तीन मुख्य प्रकार हैं-व्याख्यान्मक, आलोचनात्मक और तार्किक ! व्याख्यात्मक निबन्धों में लेखक ने पाठको को विस्तृत विवेचन द्वारा किसी विषय में भलीभाँति अवगत कराने का प्रयास किया है । ये निबन्ध मनोविज्ञान, अध्यात्म, माहिल्य आदि अनेक विषयो पर लिखे गए हैं । 'अात्मा', जान', 'कविकर्तव्य', 'कविता', 'ऋषि और कविता', 'प्रतिभा',११ 'नाट्यशास्त्र १२ आदि विचारात्मक निबन्धों के इमी पकार के अन्तर्गत हैं । 'प्राध्यात्मिकी व्याख्यात्मक प्राध्यामिक निबन्धी का ही संग्रह है। द्विवेदी जी के ममस्त निबन्धों में उनके बालोचनात्मक निबन्धी का स्थान मबमे ऊंचा है क्याकि वे ही युगनिमीता द्विवेदी के व्यक्तित्व की मबमे अविक अभिव्यक्ति करते है । ये निबन्ध अालोचना की छः विभिन्न पद्धतियों पर लिखे गए है और तदनुसार उनकी गीतिशैली भी विभिन्न प्रकार की है। इसकी विस्तृत विवेचना 'बालोचना' अध्याय के अन्तर्गत की गई है। चिन्तनात्मक निबन्धा का तीसरा प्रकार तार्किक है । तार्किक निबन्धों में * माहित्य-सन्दर्भ में संकलित । ३. ४, कालिदास और उनकी कविता' में संकलिन । ५. सेरहवें हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के अवसर पर स्वागताध्यक्ष-पद से द्विवेदी जी के भाषण का एक भाग! १. 'सरस्वती', १६०१ ई०, प.० १७ । ८ १. ३०. रसज्ञरंजन' में संकलित । " 'सरस्वती' १६०२ ई पृ०२.२ ॥ १२ १६०३ ई में खिम्मित और " ई में पुस्तिकाकार प्रकाशित Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भाषा प्रभाग कार न्याय के द्वारा प्रतिपाद्य विषय का ठोस उपस्थापन किया गया है। उहश की दृष्टि से इसके भी दो प्रकार हैं। एक तो वादविवादात्मक निबन्ध हैं जिनमें अपनी बात को पुष्ट और विपक्षियों की बात का खंडित करने के लिए तर्क का सहारा लिया गया है. उदाहरणार्थ-'नंनधचरितचर्चा और 'सुदर्शन', ' महिपतक की समीक्षा', और व्याकरण' आदि । इस शैली का सुन्दरतम निबन्ध द्विवेदी जी का वह लिखित ' Tear' है जिसे उन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा के पास भेजा था और जिसके परिवखित रूप में 'कौटिल्य कुठार'' की रचना की थी। दूसरे प्रकार के चिन्तनात्मक निबन्ध त्मक हैं जिनमें उपर्युक्त प्रकार का कोई विवाद कारण नहीं है और जिनमें अपने कथन की पुष्टि के लिए सप्रमाण तथा न्यायसंगत शैली अपनाई गई है, यथा- 'राजा युविष्ठिर का समय', " 'हिन्दी भाषा की उत्पत्ति", कालिदास का समयनिपण',৺ 'कालिदास का स्थितिकाल' आदि । द्विवेदी जी की निवन्धगत भाषा, रचनाशैली और व्यक्तित्व नी विवेचनीय है । भाषा की रीतियो और शैलियों की विस्तृत समीक्षा ग्रागे चलकर 'भाषा और भापासुधार' श्रव्याय में की गई है । वहाँ यह भी स्पष्ट कर दिया गया हैं कि द्विवेदी जी ने हिन्दी गद्य के शब्दसंकलन की सभी रीतियां और मावाभिव्यंजन की सभी प्रणालियों का यथावसर प्रयोग किया है जो उनकी रचनाओं में विकसित होती हुई भी उनके युग की रीतिशैलियों की भूमिका हैं। उनकी रचनाशेलोगत विशेषताओं का ग्रव्ययन दो प्रकार से सम्भव हैवस्तुस्थापन को दृष्टि से और अभिव्यक्ति प्रणाली की दृष्टि से । वस्तूपस्थापन में भी दो बातें विशेष आलोच्य हैं प्रारम्भ करने की शैली और समाप्त करने की शैली । प्रारम्भ करने के लिए अनेक शैलियों का प्रयोग करके द्विवेदी जी ने पिष्टपेषण की एकरसता को दूर रखा है। विपयानुसार और सुविधानुसार उन्होने निबन्ध की प्रारम्भिक - १'सरस्वती', १६०० ई०, पृ० ३२१ । २ १६०१ ३४५ । 33 ३ 'सरस्वती', १६०६ ई०, पृ० ६० । ४ अप्रकाशित वक्तव्य काशी-नागरी प्रचारिणी सभा के कार्यालय और restfra 'कौटिल्य कुठार' उक्त सभा के कलाभवन में रक्षित है । ५. 'सरस्वती', १६०५ ई०, जून ६. १६०७ ई० में पुस्तिकाकार प्रकाशित | ७ सरस्वती, १६१२ इ० पृ० ४६१ ११११ ४०, फरवरी - » Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका अनक प्रकार से प्रस्तुत का है सबस प्रचलित तथा सरल शैली कथात्मक है । कहीं पर अात्मनिवेदन-सा करते हुए विषय की प्रस्तावना की गई हैं ।२ कही मूल लेखक के विषय में ज्ञातव्य बातो का कथन करते हुए उन्होंने निबन्ध का प्रारम्भ किया है, कहीं पर निबन्ध का प्रारम्भ तद्गत सुन्दर वस्तु ने ही हुआ है, कहीं प्रस्तुत विषय से सम्बद्ध किसा सामान्य तथ्य का उद्घाटन ही निवन्ध की भूमिका के रूप में आया है,५ कही निबन्ध को अधिक संवेदनात्मक बनाने के लिए भावप्रधान संबोधन द्वारा उसका प्रारम्भ किया गया है। और कहीं अध्यापक के स्वर में शीर्षक या विषय के स्पष्टीकरण के द्वारा ही निवन्ध की प्रस्तावना की गई है ।७ निवन्ध को समाप्त करना अपेक्षाकृत सुगम है। उसकी समाप्ति म १. यथा-'श्रीहर्ष का कलियुग'.--- नषधचरित नामक महाकाव्य की रचना करनेवाले श्रीहर्ष को हुए कम से कम आठ सौ वर्ष हो गए । वे कन्नौजनरेश जयचन्द के समय विद्यमान थे।" --- 'सरस्वनी, मार्च, १६२१ ई० । २ यथा-'वैदिक देवता' "हम वैदिक संस्कृत नहीं जानते । अतएव वेद पढ़कर उनका अर्थ समझ सकने की शक्ति भी नहीं रखते । वेद हमने किसी वेदज्ञ विद्वान से भी नही पढ़ ।' ---'साहित्यसन्दर्भ,' ३७ । ३. यथा- पार्यो की जन्मभूमि'-- __ "पूने में नारायण भवानराव पावगी नाम के एक सजन हैं। आप पहले कही सब जज थे।.." --'सरस्वती,' अक्टूबर, १६२१ ई० । ४ यथा-'महाकवि माघ का प्रभातवर्णन' रात अब बहुत ही थोडी रह गई है। सुबह होने में कुछ ही कसर है । जरा सप्तर्षि नाम के तारों को तो देखिए । .. -'साहित्य सन्दर्भ,' प. १०४। ५. यथा-'जगद्धर भट्ट की स्तुति कुसुमांजलि जिन के हृदय कोमल है, अर्थात् अलकार शास्त्र की भाषा में जो सहृदय है उन्हीं को सरस काव्य के प्राकलन से प्रानन्द की यथेष्ट प्राप्ति हो सकती है।" --'सरस्वती,' अगस्त, १९२२ ई. । ६ यथा--'प्राचीन भारत की एक झलक'---- भारत क्या तुम्हें कभी अपने पुराने दिनो की बात याद आती है ?.... " - सरस्वती, दिसम्बर, १६२८ ई. । ७. यथा-कवि कर्तव्य'"कवि कर्तव्य से हमारा अभिप्राय हिन्दी कवियों के कर्तव्य से है।" मरस्वनी ० पृ. र Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R १ निवन्धकार कला का समावेश भी उचित रोति स सहज ही कर सकता है। द्वित्रदी जो ने अपने विम्व को समाप्त करने में गहरी कलात्मकता का परिचय दिया है। कहीं ता विवादग्रस्त विषय पर अपना मत देकर वे पाठक में विचार करने का अनुरोध करके मौन हो गए हैं, कवि के निरूपण के साथ हो निबन्ध को समाप्त कर दिया है, कही उपदेशक की सीधी मादी भाषा में प्रार्थना, अमिलापा आदि की अभिव्यक्ति के द्वारा उन्होंने निवन्ध की समाप्ति की है और कहीं उनके निवन्धों का अन्त किमी सुभाषित उद्धरण आदि के द्वारा हुआ है ।' श्राकस्मिकत। एवं प्रभाव की दृष्टि में ऐसा अन्त अत्यन्त ही सुन्दर बन पड़ा है। अध्ययनशील द्विवेदी जी के अनेक सुन्दर निकम्मी को समाप्ति प्रायः इसी प्रकार हुई है 1 व्यक्तित्व की दृष्टि से द्विवेदी जी के निबन्धों का अध्ययन कम महत्वपूर्ण नहीं है। } १ यथा- 'भारतभारती का प्रकाशन' आशा है पाठक इसे लेकर एक बार इसे सावन पसे और पड़ चुकने पर - 'हम कौन थे, क्या हो गए है, और क्या होंगे मिलकर विचारेंगे हृदय से ये समस्या अभी ।" ་་ सभी ॥ विचार-विमर्श' पृ० १६६ २ यथा- 'महाकवि माघ की राजनीति में शिशुपाल को मारने का निश्चय हुआ ।" ३. 'अतएव इव चलने और वहीं युधिष्ठिर के यज्ञ सरस्वती, फरवरी ३१२ ई० । यथा- 'जगदुर भट्ट की स्तुति कुसुमांजलि - "जगर की तरह भगवान् भाव से हम भी कुछ कुछ ऐसी ही प्रार्थना करके 'स्तुति - कुसुमांजलि' 'की करा कथा से विरत होते है ।" - साहित्यसन्दर्भ, पृ० ४. क. यथा- 'उपन्यास - रहस्य'-- दुकानदारी ही क कुत्सित कामना से जो लोग, पाठकों को पशुवत् समझ कर, बासपात सदृश अपनी बेसिरपैर की कहानियाँ उनके सामन फेंकते हैं ने के न जानीमहे ।” १४६ । - 'साहित्यसन्दर्भ, पृ० १७३ । a. यथा- 'विवाहविषयक विचारव्यभिचार' "पर केवल अधिकारी जन ही उस पर कुछ कहने का साहस कर सकते हैं। हम नहीं। हमारी तो वहाँ तक पहुंच ही नहीं . जिहि मारुत गिरि मेरु उड़ाही । कहहु तूल केहि लेखे माहीं ॥" पृ 50 د Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५७ ना धकार द्विपदी र व्यक्ति र उनके ममा नरा म प्रायोपान्त भी घिर एक गतिशील ह टस विरा भास की व्यारया अपक्षित हैं द्विवदी जी के व्यक्तित्व की स्थिरता उनक उद्देश की स्थिरता में है। उनकी निबन्धरचना का उद्देश निश्चित है--पाठको का मनोरजन मोर उनका बौद्विक तथा चारित्रिक विकाम करना । इम सम्बन्ध में उनके विचार भी निश्चित है -भारतीयों को अपनी भाषा, साहित्य, धर्म, देश, मभ्यता और संस्कृति के प्रति प्रेम तथा उनके उत्थान के लिए प्रयन्त्र करना चाहिए । पाठ को में उत्थान और प्रेम की भावना भग्ने का यह मात्र द्विवेदी जी के सभी निवन्या में ममवेतया असमवेत रूप से व्याप्त है । उनके व्यस्तित्व की गतिशीलता इस भाव की अभिव्यजनाशैली में है। प्रस्तुत उद्देश की पूर्तिके लिए उन्हें अावस्यकतानुसार या नोच कसम्मादक, भाषा-मस्कारक आदि के विभिन्न पदों ने मंग्राम करना पड़ा है। आवश्यकतानुसार उन्हें वर्णनात्मक, व्यग्यात्मक, चित्रात्मक, वक्तृतात्मक, मलापात्मक, विवेचनात्मक या भावत्मकशैली में वर्णनात्मक, भावात्मक या चिन्तना मक निबन्धों की सृष्टि करनी पडी है । पाश्चात्य निबन्धकारो की भाँति द्विवेदी जी का व्यक्तित्व उनके निबन्धों में विशेषस्फुट नहीं हो सका है। इसका एक प्रधान कारण है । पश्चिम के व्यक्तित्व-प्रधान निबन्ध का लेखक स्वयं ही अपने निबन्धी का केन्द्र रहा है । द्विवेदी जी की अवस्था इसके ठीक विपरीत है। अनुमोदन का अन्त,अभिनन्दन, मेले और सम्मेलन के भाषण, सम्पादक की विदाई प्रादि कतिपय अात्मनिवेदनात्मक निबन्यो को छोड़कर अपने किसी भी निबन्ध में द्विवेदी जी ने अपने को निबन्ध का केन्द्र नहीं माना है । पाठक ही उनके निबन्धों का केन्द्र रहा है। उन्होंने प्रत्येक वस्तु को उसी के लाभालाम की दृष्टि से देखा है। ऐसी दशा में द्विवेदी जी क निवन्या का व्यक्तिवैचित्र्य मे विशेष विशिष्ट न होना सर्वथा अनिवार्य था। मनोरंजकता तथा काव्यात्मकता को जब द्विवेदी जी ने ही गौण स्थान दिया है तब उमे ही प्रधान मान कर उनके निबन्धो की विशेषताओं की सच्ची परीक्षा नहीं की जा सकती। व्यक्तिवैचित्र्य तो व्यक्तित्व का संकुचित अर्थ है । उनका व्यापक एवं उचित अर्थ है व्यक्ति की प्रवृत्तिया, विशेषतायो तथा गुण का एक माघातिक स्वरूप । इस दूसरे अर्थ में द्विवेदी जी के निबन्ध उनके व्यक्तित्व में व्याप्त हैं । यह तो निबन्धकार द्विवटी के व्यक्तित्व के अव्यक्त पक्ष की बात हुई । उनके व्यक्तित्व का सुव्यक्त पत्र भी है जो उनके कलात्मक निबन्धों में स्पष्टतया प्रकट हुआ है। इमकी अभिव्यंजना दो रूपों में हुई है--महृदयता के रूप में और भक्तिभावना के रूप में । पहले मे कवि द्विवेदी का रूप पण हा है और दूसरे में भक्त एवं दार्शनिक द्विवेदी का मेघर त गस्य' "स का नीर नीर विवा की विदाई प्रादि निषघ दि वटी का Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी 7 महृदय काव-हृदय का अभिव्याक्त करने ह जगद्वर मट्ट की स्तुात कुसुमाजलि गोपिया की भगवदभक्ति श्रादि निब ध उनक भक्त हृदय के व्यजक हैं व्यक्तित्व क प्रत्यक्ष रूप मे अनुप्रायित निबन्ध द्विवेदी जी ने बहुत कम लिखे । युग की आवश्यकताओं ने उन्हे वेमा न करने दिया । द्विवेदी जी को निबन्धकारिता स्वतन्त्ररूप ने विकसित नही हुई-यह एक सिद्ध तथ्य है। उमे आलोचक, सम्पादक, भाषासुधारक श्रादि ने ममय समय पर अाक्रान्त कर रखा था, अतएव उसका पूर्ण विकाम न हो सका । साथ ही उस युग का पाठक उस साधारण स्तर से ऊपर की वस्तु स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत नहीं था। निबन्ध की कलात्मकता एवं साहित्यिकता पाठक तथा निवन्धकार के सहयोग पर ही अवलम्बित है। केवल स्थायित्व की दृष्टि से द्विवेदी जी के सभी निबन्धों की परीक्षा करना अनुचित है। उनकी रचना मुख्यतः सामयिक प्रश्नों के समाधान के लिए की गई थी । शुद्ध कला की दृष्टि से ऐसे सामयिक निबन्धों का मूल्य बहुत कम है । तो फिर बाता के मंग्रह कहे जाने वाले द्विवेदी जी के इन निबन्धों का हिन्दी-साहित्य में स्थान क्या है ? यहा अालोचना और अालोचक के विषय में भी एक बात कहना आवश्यक हो गया। सौन्दर्यमूलक अालोचना ही आलोचना नहीं है। इतिहास और रचनाकार की जीवनी अादि यदि अधिक नहीं तो सौन्दर्य के समान ही महत्वपूर्ण हैं । सौन्दर्य की ईदृक्ता देशकालानुसार परिवर्तनशील है। इसलिए आज की सौन्दर्यकसौटी पर कल की वस्तु को भद्दी और रही कहना न्यायसंगत नहीं जॅचता । आज की कसौटी पर भी द्विवेदी जी के प्रतिभा,' 'हिन्दा भाषा की उत्पत्ति,' 'कालिदास के मेवदूत का रहस्य,' 'कालिदास का स्थिति काल', साहित्य की महत्ता' अदि निबन्ध सोलहो आने वरे उतरते हैं । ये हिन्दी साहित्य की स्थायी निधि हैं । प्राप्त अालोचक बनने के लिए केवल ज्ञान की ही नहीं सहृदयता की भी अपेक्षा है। निबन्ध के कलात्मक विवेचन में विभिन्न प्रकार से चाहे जो भी कहा जाय किन्तु उसके मूल उद्देश मे कोई तात्विकअन्तर नहीं है। हिन्दी साहित्य मे निबन्ध का उद्देश रहा है नियत समय पर निश्चित विचारों का प्रचार करना। और इसी कारण पत्रिकाएँ उसके प्रकाशन का माध्यम बनी ! भूमिका में कहा जा चुका है कि द्विवेदी जी के पूर्व भी 'हिन्दी-प्रदीप', 'ब्राह्मण', 'अानन्दकादम्बिनी,' 'भारतमित्र' आदि ने बहुसंख्यक निबन्ध प्रकाशित किए थे, परन्तु उन्होंने निबद्ध रूप से निश्चित विचारों का प्रचार नहीं किया। एक ही निबन्ध में उच्छखल भाव से इच्छानुसार सब कुछ कह देने का प्रयास किया गया । द्विवेदी-सम्पादित 'सरस्वती' ने इस कमी को दूर किया । उसका प्रत्येक अंक अपने निबन्धों द्वारा नियत समय पर निश्चित विचारों के प्रचार की घोषणा करता है हिन्दी निबन्ध ने क्ला के लिए कला' Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ५ । दाल मिद्वान्त का स्वीकार नहा किया : उसका दृष्टि प्रधानतया उपय गिता पर ही रही हैं ! इस दृष्टि में भी द्विवेदी जी और उनकी 'सरस्वती' की देन अप्रतिम है। उद्देश, रीति, शैली यादि ममी दृष्टियों में द्विवेदी जी तथा उनकी सम्पादित 'सरस्वती' ने ठोम, उपयोगी अार कलात्मक निववा की रचना के साथ हो अपने तथा परबती युग के निवन्धा की आदर्श भूमिका प्रन्तुत की। हिन्दी-माहित्य का निबन्धकार द्विवेदी की नही देन है। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवा अध्याय सरस्वती-सम्पादन १६ वी शती के हिन्दी-पत्रों की अवस्था का निरूपण भूमिका में हो चुका है। १८६७ ' में प्रकाशित होने वाली 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका" का उद्देश्य था मादित्यक अनुसन्धान प्रौर पर्यालोचन । पाठकों का मनोरंजन, हिन्दी के विविध अगो का पोपण, परिवर्धन और कवियों तथा लेग्वको को प्रोत्माहित करने की भावना से प्रेरित और काशी नागरी प्रचारिणी ममा के अनुमोदन से प्रतिष्ठित सचित्र हिन्दी मासिक पत्रिका सरस्वती' का प्रकाशन १६०० ई० से प्रारम्भ हुा । कदाचित् कार्यगुरुता के कारण और जनता का ध्यान आकृष्ट करने के लिए पहले वर्ष इसकी सम्पादक-समिति में पाच व्यक्ति थे--कार्तिकप्रसादखत्री, किशोरी लाल गोस्वामी, जगन्नाथदास बी० ए०, राधाकृष्ण दाम और श्यामसुन्दर दास । प्रथम बारह संख्याओं में सम्पादकों के अतिरिक्त केवल दस अन्य लेखको ने लिखा । पत्रिका का क्लेवर १६ मे २१ पन्नों तक ही मीमित रहा 'सरस्वती' के पहले अंक के विपय निम्नलिखित १. भूमिका २. भारतेन्दु हरिश्चद्र- जीवनी ३. सिम्बेलीन-महाकवि शेक्मपियर रचित नाटक की श्राख्यायिका का मर्मानुवाद । ४. प्रकृति की विचित्रता- कुत्ते के मद्द वाला अादमी श्रादि ५. काश्मीर-यात्रा ६. कवि-कीर्ति कलानिधि--अर्जुन मिश्र ७. श्रालोक-चित्रण अथवा फोटोग्राफी लेख संख्या ६ को छोडकर सभी लेग्य मम्पादकों के थे। प्रथम अंक की प्रारम्भिक भूमिका में ही 'सरस्वती' ने अपने उद्देश्य और रूपरेखा का सुन्दर शब्दचित्र अंकित किया था।' खेद है कि प्रथम तीन वर्षों तक उसकी यह प्रतिज्ञा १६...... हिन्दी के उत्साहिया, हितैपियो, उन्नायकी, रसज्ञो और सहयोगियों से ऐमी असंडनीय आशा क्या न की जाय कि चे लोग सब प्रकार से अपनी बहुलता की शीतल छाया में इम नवीन वालिका को प्राश्रय देने में कदापि परान्मस्य न होंगे कि निनफे मन्मम्ब Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपृण रही पहले वर्ष पाच सम्पादका क होत हुए भी उसका भार श्यामसुन्दर दास पर ही रहा सभा क तथा अन्य उत्तरदायि पृण काया म व्यस्त रहन क कारण व 'सरस्वती को अपेक्षित समय और शक्ति नहीं दे सकते थे । पहले दो अंको में पद्य, काव्य, नाटक, उपन्यास चम्पू आदि के नाम पर कुछ भी न निकला । तदुपरान्त भी नाममात्र को ही इनका समावेश हो सका । प्रारम्भिक विषय-सूची भी गडबड रही । लेखों के अन्त या प्रारम्भ में कहीं भी लेखकों का नाम नहीं दिया गया । सम्पादकीय टिप्पणी और विविध-विषय-जैसी वस्तु का अभाव रहा। हा, प्रकाशक का वक्तव्य अवश्य था, परन्तु वह उपर्युक्त अभाव का पूरक नहीं कहा जा सकता। उसकी भाषा का श्रादर्श भी अनिचिश्त था। १६०१ ई. में केवल श्यामसुन्दर दास ही सम्पादक रह गए। अपने एकाकी सम्पादनकाल (१६०१-२) में उन्होंने 'सरस्वती' का बहुत कुछ सुधार किया। १६०१ की मई मे ‘विविध वार्ता' और जुलाई से 'साहित्य समालोचना' के खंडो का श्रीगणेश हुअा। वर्ष भर की लेख-सूनी लेखको के नामानुक्रम मे प्रस्तुत की गई । १६०२ ई० की रचनाश्रो के अन्त म रचनाकारी के नाम और चित्रो के सुधार की ओर ध्यान दिया गया। लेग्नक-संख्या भी दूनी हो गई । द्विवेदी जी के लेखों और व्यंगचित्रो ने 'सरस्वती' के वर्धमान सौन्दर्य में चार चाद लगा दिये। आज यह अपने नये रंग ढंग, नये वेश विन्यास, नये उद्याग उत्साह और नई मनमोहिनी छटा से उपस्थित हुई है। - इसके नव जीवन धारण करने का केवल यही उद्देश्य है कि हिन्दी रसिको के मनोरजन के माथ ही साथ भापा के सरस्वती भंडार की अंगपुष्टि, वृद्धि और यथायथ पूर्ति हो, तथा भाषा सुलेखको की ललित लेखनी उत्साहित और उत्तेजित होकर विविध भाव भरित ग्रन्थराजि को प्रसव कर ।. और इस पत्रिका में कौन कौन से विषय रहेगे, यह केवल इसी से अनुमान करना चहिये कि इसका नाम सरस्वती है । इसमें गब, पद्य, काव्य, नाटक, उपन्यास चम्पू. इतिहास जीवनचरित, पत्र, हास्य, परिहास, कौतुक, पुरावृत्त, विज्ञान, शिल्प, कला कौशल आदि, साहित्य के यावतीय विषयो का यथावकाश समावेश रहेगा और अागत ग्रन्यादिकों की यथोचित समालोचना की जायेगी। यह हम लोग निज मुख से नहीं कह सकते कि भाषा में यह पत्रिका अपने ढग की प्रथम होगी। किन्तु हा, सहृदयो की समुचित सहायता और महयोगियो की सच्ची सहानुभूति हुई तो अवश्य यह अपने कर्तव्य पालन मे सफल मनोरथ होने का यथाशक्य उद्योग करने में शिथिलता न करेगी। इससे लाभ केवल यही सोचा गया है कि सुलेखकों की लेखनी स्फुरित हो जिससे हिन्दी की अगपुष्टि और उन्नति हो । इसके अतिरिक्त हम लोगों का यह भी दृढ विचार है कि यदि इस पत्रिका सम्बन्धीय सब प्रकार का व्यय देकर कुछ भी लाभ हुआ तो इसके लेखको की हम लोग उचित मेवा करने म किमी प्रकार बरि न करगे सरस्वती माग १ म. १ श्रारम्भिक भूमिका Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १६२ । उपयुक्त मुधारों और उत्कर्षों के होते हुए भी 'सरस्वती' का मान विशेष ऊवा न हो सका। उसके प्रतिज्ञा-वाक्य और योजनाएँ यथार्थता का रूप धारण न कर सकी । विषय, भाषा, पाठक, और लेखक-सभी की दशा शोचनीय बनी रही। १६०२ ई० के अन्त में श्याममुन्दर दास ने भी सम्पादन करने में असमर्थता प्रकट की। उन्होने सम्मति दी, बाबू चिन्तामणि घोष ने प्रस्ताव किया और पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती' का सम्पादन स्वीकार कर लिया। जनवरी १६०३ ई० से द्विवेदी जी ने सम्पादन प्रारम्भ किया । पत्रिका के अग-अंग में उनकी प्रतिभा की झलक दिखाई पड़ी । विषयो की अनेक-रूपता, वस्तुयोजना, सम्पादकीय टिप्पणियो, पुस्तक-परीक्षा, चित्रो, चित्र-परिचय, साहित्य-समाचार के व्यंगचित्रो, मनोरजक सामग्री, बाल-वनितोपयोगी रचनायो, प्रारम्भिक विषय-सूची, प्रफ-संशोधन और पर्यवक्षण में सर्वत्र ही सम्पादन-कला-विशारद द्विवेदी का व्यक्तित्व चमक उठा। तत्कालीन दुर्विदग्ध मायावी सम्पादक अपने को देशोपकारबती, नानाकला-कौशलकोविद नि:शेप-शास्त्र-दीक्षित, समस्त-भाषा-पंडित और सकलकला-विशारद समझते थ । अपने पत्र में वे बेसिरपैर की बातें करने, रुपया ऐठने के लिए अनेक प्रकार के वंचक विधान रचते, अपनी दोपराशि को तृणवत् और दूसरों की नन्ही सी त्रुटि को मुमरु समझ. कर अलेख्य लेखा द्वारा अपना और पाठको का अकारण समय नष्ट करते थे । निस्सार निद्य लेखा को तो सादर स्थान देते और विद्वानों के सम्मान्य लेखों की अवहेलना करते थे। श्रालोचनार्थं आई हुई पुस्तकों का नाममात्र प्रकाशित करके मौन धारण कर लेते और दृस्रो की न्याय-सगत समालोचना की भी निदा करते । दूसरे पत्रो और गुस्तको से विषय चुराकर अपने पत्र की उदरपूर्ति करते और उनका नाम तक न लेते थे । पत्रोत्तर के समय परे मौनी बन जाने, स्वार्थवश परम नम्रता दशाने और अपने दोप की निदर्शना देखकर प्रलयंकर हर का-सा उग्र रूप धारण कर लेने थे । भली-बुरी औषधियो, गई-बीती पुस्तको और सभी प्रकार के कूड़ा-करकट का विज्ञापन प्रकाशित करके पत्र-साहित्य को कलंक्ति करते थे। अपनी स्वतंत्रता, विद्या और बल का दुरुपयोग करके अपमानजनक लेख छापते और फिर भय उपस्थित होने पर हाथ जोडकर क्षमा मागत थे।" सम्पादन-भार ग्रहण करने पर द्विवेदीजी ने अपने लिए मुख्य नार आदर्श निश्चित पिए-समय की पाबन्दी करना, मालिको का विश्वास- भाजन बनना, अपने हानि-लाभ की परवाह न करके पाठकों के हानि-लाभ का ध्यान रखना और न्याय-पथ से कभी भी विचलित १ द्विवेदो लिखित और द्विवेदी काव्य-माला में सखित सम के आधार पर Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ । न हाना ।' उस समय हिन्दी पत्रिकाए नियत समय पर न निकलती थीं , वे अपने विलम्ब का कारण बतलाती--सम्पादकजी बीमार हो गये, उनकी लेखनी टूट गई, मशीन बिगड़ गई, प्रकाशक महाशय के सम्बन्धी का स्वर्गवास हो गया, इत्यादि । द्विवेदी जी इन विडम्बनापूर्ण घोषणानो के कायल न थे। उनकी निश्चित धारणा थी कि पत्रिका का बिलम्बित प्रकाशन ग्राहको के प्रति अन्याय और सम्पादकके चरित्रका घोर पतन है। मशीन फेल होती है, हुआ करे; सम्पादक बीमार है, पड़ा रहे; कलम टूट गई है, चिन्ता नहीं, सम्बन्धी मर रहे हैं, मरा करें; सम्पादक को अपना कर्तव्यपालन करना ही होगा, पत्रिका नियत समय पर ग्राहक के पास भेजनी ही होगी । सम्पादक के इस कठिन उत्तरदायित्व का निर्वाह उन्होंने जी जान होमकर क्रिया । चाहे पूरा का पूरा अंक उन्हेही क्यो न लिखना पड़ा हो, उन्होने पत्रिका समय पर ही भेजी। केवल एक बार, उनके सम्पादन-काल के प्रारम्भ में, १६०३ ई० की दूमरी और तीमरी सख्याएँ एक साथ निकली। इस अपराध के लिए नवागत सम्पादक द्विवेदी जी सर्वथा क्षम्य है। इस दोष की श्रावृत्ति कभी नहीं हुई । कम से कम छ. महीने की सामग्री उन्होने अपने पास सदैव प्रस्तुत रखी। जब कभी वे बीमार हुए छुट्टी ली, या जब अन्त में अवकाश ग्रहण किया तब अपने उत्तराधिकारी को कई महीने की सामग्री देकर गए जिसमे 'मरस्वती' के प्रकाशन मे विलम्ब, अतएव ग्राहकों को अमुविधा और कष्ट न हो। उनके लग. भग सत्रह वपोंके दीर्घ सम्पादन-काल में एक बाग्भी 'सरस्वती' का प्रकाशन नहीं रुका। उसी समय के उपार्जित और स्त्रलिग्वित कुछ लेख द्विवेदी जी के संग्रह मे अभिनन्दन के समय भी उपस्थित थे। वे आज भी काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा के कलाभवन और दौलतपुर में रक्षित हैं। उन्होंने 'सरस्वती' के उद्देश्यों की दृढ़ता के माथ रक्षा की । अपने कारण स्वामियों को कभी भी उलझन में न डाला। उनकी 'सरस्वती' मेवा क्रमशः फूलती फलती गई । उनकी वर्तव्यनिष्ठा और न्यायपरायणता के कारण प्रकाशकों ने उन्हे सर्वदा अपना विश्वासपात्र माना । द्विवेदी जी के लेखो तथा कथनों से विदित होता है कि उनके लक्ष्य थे---हिन्दी-भाषियों की मानसिक भूमिका का विकास करना, संस्कृत-साहित्य का पुनरुत्थान, खडीबोली-कविता का उन्नयन, नवीन पश्चिमीय शैली की महारता में भावाभिव्यंजन, संसार की वर्तमान प्रगति का परिचय और साथ ही प्राचीन भारत के गौरव की रक्षा करना । हिन्दी-पाठकों की असंस्कृत १. अात्म-निवेदन, 'साहित्य-सन्देश', एप्रिल, १९३६ ई., के आधार पर २ 'साहित्य-संदेश'.-.-एप्रिल, १९३६ ई. में प्रकाशित ग्रामनिवेदन के आधार पर Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L त्रि को तृप्त करने का प्रयास न करके उन्होंने उसके परिष्कार का ही उद्योग किया इस अर्थ में उन्होने लोकरुचि और लोकमत की अपेक्षा अपने सिद्धातों और आदर्शो का ही अधिक ध्यान रखा । वस्तुतः उनके सम्पादक-जीवन की समस्त साधना 'सरस्वती' - पाठको के ही कल्याण के लिए थी । विविधविषयक उपयोगी और रोचक लेम्बो, ग्राख्यायिकाया, कविताश्री, श्लोकों, चित्रों, व्यंग चित्रों, टिप्पणियों आदि के द्वारा जनता के चित्त को 'सरस्वती' के पठन में रमाया । 1 आज 'वीणा, ' 'विशाल भारत' 'हंस' 'माधुरी' 'विज्ञान' 'भूगोल' साहित्य - संदेश' आदि अनेक व्यापक एवं विशिष्ट विषयक पत्रिकाएँ हिन्दी का गौरव बढ़ा रही हैं । द्विवेदी जी के सम्पादन-काल में, खद्योत सरीखे साप्ताहिक और मासिक पत्रों की उस अंधकारमयी रजनो में, अपनी अप्रतिहत प्रभा से चमकने वाली एक ही ध्रुवतारिका थी- 'सरस्वती' । तव उसमे कुछ प्रकाशित कराना बहुत बड़ी बात थी। लोग द्विवेदी जी को अनेक प्रलोभन देते थे | ‘कोई कहता- मेरी मौसीका मरसिया छाप दी, मैं तुम्हें निहाल कर दूंगा । कोई लिखताअमुक सभापति की स्पीच छाप दो, मैं तुम्हारे गले में बनारसी डुपट्टा डाल दूंगा । कोई चामा देतामेरे प्रभु का सचित्र जीवन चरित्र निकाल दो तो तुम्हें एक बढिया घडी या पैरगाडी नज़र की जावेगी । द्विवेदी जी अपने भाग्य को कोसते और बहरे तथा गूंगे बन जाते थे । पाठको के लाभ के लिए स्वार्थी की हत्या कर देने में ही उन्होंने गौरव, सुख और शाति का अनुभव किया । शक्कर की थैलिया मेट करने वाले सजन को उन्होंने मुँहतोड उत्तर दिया था - "तुम्हारी थैलिया जेसी की तैमी रवी है । 'सरस्वती' इस तरह किसी के व्यापार का साधन नहीं बन सकती । १२ सत्समालोचना के श्रागे उन्होंने सम्बन्धी को प्रधानता नहीं दी । उनकी खरी और अप्रिय आलोचनात्रों से सन्तुष्ट अनेक सामाजिक सत्पुरुषो ने 'सरस्वती' का बहिष्कार कर दिया परन्तु द्विवेदी जी डिगे नहीं | स्वार्थी और मायावी संसार परार्थी और अमायिक द्विवेदी की सच्चाई का मूल्य न ग्रॉक सका । उन्होंने अपने ही लेबो- 'विक्रमाक देव-रितचर्चा, ' 'नाट्यशात्र', 'व्योम विहरण' यादि -- को स्थानाभाव के कारण न छाप कर दूसरों की रचनाओं को उचित स्थान और सम्मान दिया । ४ 'सरस्वती' को वाद-विवाद के चमरपन में बचाने के लिए उन्होंने अपना ही लेग्य 'शील निधान जी की शालीनता' 'भारतमित्र' मे छपाया ।" यह एक सम्पादक की न्यायनिष्ठा और निष्पक्षता की पराकाष्ठा थी । १. 'श्रात्मनिवेदन', 'साहित्य-संदेश', एप्रिल १६३६ ई०, पृ० ३०४ २. 'द्विवेदी - अभिन्दन ग्रन्थ', पृ० ५४३ ३. ' श्रात्म-निवेदन', 'साहित्य संदेश', एप्रिल सांवत्सरिक सिंहावलोकन' 'सरस्वती', 8 ५ काशी - नागरी प्रचारिणी सभा के १६३६ ई०, पृ० ३०४ भांग ५ संख्या १२ में रक्षित कतरनें Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६५ । उस विपम काल में जब न तो माहित्य-सम्मेलन की योजनाएं थी, न विश्व-विद्यालयों और कालेजो में हिन्दी का प्रवेश था, न रंग-बिरंगे चटकीले मासिकपत्र थे, हिन्दी के नाम पर लोग नाक भौ सिकोडने थे, लेख लिखने की तो बात ही दूर रही, अँगरेजीदा बाबू लोग हिन्दी मे चिट्ठी लिग्वना भी अपमान-जनक समझते थे, जनसाधारण में शिक्षा का प्रचार नगण्य था, हिन्दी-पत्रिका 'सरस्वती' को जनता का हृदय-हार बना देना अदि अमाध्य नही तो कष्टमाध्य अवश्य था। हिन्दी के इने गिने लेग्वक थे और वे भी लकीर के फकीर । ममाज की श्राकाक्षाएँ बहुमुग्त्री थी । इतिहास पुरातत्व, जीवन-चरित,पर्यटन, ममालांचना, उपन्यास, कहानी, व्याकरण, काव्य, नाटक, कोप, गजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, दर्शन, विज्ञान, सामयिक प्रगति, हास्य-विनोद आदि सभी विषयों की विविध रचनायो और तदर्थ विपन्न हिन्दी को मम्पन्न बनाने के लिए विशिष्ट कोटि के लेखकों की अाबश्यकता थी । काल था गद्यभाषा लडीबोली के शैशव का। काशी-नागरी-प्रचारिणी समा में सुरक्षित 'सरस्वती' की हस्त-लिम्बित प्रतियाँ इस बात की साक्षी हैं कि तत्कालीन साहित्यकाराकी तुनली भाषा व्याकरगा आदि के दोपों में कितनी भ्रष्ट और भावाभिव्यंजन में कितनी श्रममयं श्री। लेखकों की कमी का यह अर्थ नहीं है कि लेन्बक थे ही नहीं। 'सरस्वती' के अस्वीकृत लेग्या मे स्पष्ट सिद्ध है कि लेग्वको की मंज्या पर्याप्त थी । परन्तु उनको रद्दी रचनाएँ अनभीष्ट थी। सम्पादन-काल के प्रारम्भ में 'सरस्वती' को आदर्श पत्रिका बनाने के लिए द्विवेदी जी को अथक परिश्रम करना पड़ा। इस कथन की पुष्टि में १६०३ ई० की 'मरम्वती' का निम्नाकित विवरण पर्याप्त होगा--- मंख्या-मूलक विवरण 'सरस्वती' को मख्या । कुल रचनाएं अन्य लेखको की द्विवेजी जी की १ 12 16 nnu Ku. १ काशी नागरी प्रच रिसा ममा के कलाभवन में रचित Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय अद्भुत आख्यायिका कविता जीवनचरित (स्त्री) जीवनचरित (पुरुष) फुटकर विज्ञान साहित्य व्यंग्यचित्र [ १६६ । मूलक विर‍ कुल रचनाएं १० ८ ၁ ခု ८ ११ १६* १४ ६. अन्य लेखकों की १ ६ १६ ४ ४ द्विवेदी जी की · ६ २ ૪ ८ ७ १३ १३ ५. Ε वर्ष भर की कुल १०६ रचनाओं में ७० रचनाएँ द्विवेदी जी की हैं। अन्य लेखको की देन आख्यायिका, कविता, साहित्य और पुरुषों के जीवनचरित तक ही सीमित है । लेखक की कमी ने द्विवेदी जी को श्रन्य नामों से भी लेख लिखने की प्रेरणा दी । सम्भवतः सम्पादक के नाम की बारम्बार आवृत्ति से बचने के लिए, अपने प्रतिपादित मत का विभिन्न लेखकों के नाम से समर्थन करने, उपाधिविभूषित अन्य प्रान्तीय या अलंकारिक नामां के द्वारा पाठकों पर अधिक प्रभाव डालने और उम लाठी-युग के लडेंत लेखकों की भयंकर मुठभेड़ से बचने के लिए ही उन्होंने कल्पित नामों का प्रयोग किया था । द्विवेदी जी ने कभी 'कमलाकिशोर त्रिपाठी " बनकर 'समाचार पत्रों का विराट रूप ' १. प्रभाग: (क) 'समाचार पत्रो का विराट रूप' द्विवेदी जी के ही 'समाचारपत्र - सम्पादकस्तव' का गद्यानुवाद है । यदि कोई और व्यक्ति इसका लेखक होता तो द्विवेदी जी उसकी भर्त्सना अवश्य करते । (ख) कला भवन गे रक्षित हस्तलेख मे लेखक का नाम नहीं दिया गया है, द्विवेदी जी ने ही पेंसिल से कमलकिशोर त्रिपाठी लिख दिया है। यदि कोई अन्य लेखक होता तो उमी स्याही से अपना नाम अवश्य देता । हस्त लिखत प्रति से प्रतीत होता है कि द्विवेदी जी ने किसी नौसिखिए से अनुवाद कराकर उसका संशोधन किया है I (ग) कमला किशोर त्रिपाठी नामक तत्कालीन किसी लेखक का पता नही चलता । द्विवेदी जी के भानजे कमलकिशोर त्रिपाठी उस समय निरे बालक थे । द्विवेदी जी ने अपने नाम के बदले उन्हीं का नाम उठा कर रख दिया (घ) स वठार लेख को अपने नाम से सम्बद्ध करने से प्रतिद्वन्द्विया की भावना डो A 1 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ । दपलाया तो वा 'कल्लू अल्हत' बनकर सरगौ नरक ठकाना नाहि का पाल्हा गाया कभी तो गनानन गणेश गर्वसाइ २ के नाम स 'जम्बुको न्याय का रचना की और कभी 'पर्यालोचक' 3 के नाम से ज्योतिषवेदांग की आलोचना की। कही 'कवियों की ऊर्मिला-विषयक उदासीनता' दूर करने ‘भारत का नौका-नयन' दिग्वलाने, 'बाली द्वीप में हिन्दुओ का राज्य' सिद्ध करने अथवा 'मेघदूत-रहस्य' खोलने के लिए 'भुजंग भूपण भट्टाचार्य बने, तो कहीं 'अमेरिका के अखबार', 'रामकहानी की समालोचना', 'अलबस्नी' जित्त हो उठती । कल्पित नाम से द्विवेदी जी के नत की पुष्टि होती थी। (ङ) लेख के नीचे स्वाभाविक रूप से M P.D. लिखकर काट दिया है। और उसके ऊपर कमलाकिशोर त्रिपाठी लिखा है। 1. उपयुक्त पाल्हे का 'द्विवेदी-काव्यमाला' मे समावेश, द्विवेदी-अभिनन्दन-ग्रन्थ', पृष्ठ ५३२ अादि से प्रमाणित। २ हस्त-लिखित प्रति में पहले गजानन गणेश गर्नखडे का सानुप्रास नाम लेखक के रूप में दिया फिर किसी कारणवश काट दिया और कविता अपने ही नाम ने छपाई-‘मरस्वती' के स्वीकृत लेखो का बंइल, १६०६ ई०, कलाभवन, काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा । ३ काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा के कार्यालय में रक्षित बंडल २ (क) के पत्रो मे प्रमाणित ४. प्रस्तुत अवच्छेद में वर्णित रचनाओं का स्थान और कालःसमाचार पत्रों का विराट रूप..... मरलती १६०४ ई०, पृ० ३६७ सरगौ नरक ठेकना नाहि. ...... १६०६ ई., पृ० ३८ जम्बुकी न्याय.... ,, ,, पृ० २१७ ज्योतिष वेदाग...... १६०७ ई.. पृ० २०,१८६ कवियों की उर्मिता-विषयक उदासीनता... १६०८ ई०, पृ. ३१३ भारत का नौकानयन... १६०६ ई०, पृ० ३०५ बाली द्वीप में हिन्दुओ का राज्य ... १६११ ई०, पृ० २१६ मंघदत-रहस्य... ... पृ०६६५ अमेरिका के अखबार १६०६ ई०, पृ० १२४ राम कहानी की समालोचना" अलबरूनी... १६११ ई०, पृ. २४२ भारतवर्ष का चलन बाजार मिक्का... १६१२ ई०, पृ० ६६ मस्तिष्क ...... १६० ई०, पृ. २२१ स्त्रियों के विषय में अयल्प निवेदन .. १६१३ ई०, पृ० ३८४ शब्दों के रूपान्तर" १६२४ ई०, पृ० ४८३ ५. प्रमाण:(क) दनक लेख म टमरे के लेसों नेसा कोई संशोधन नहीं है (ब) लिन न मन्द द्विनट की है Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ । 'और भारत का चलन बाजार सिक्का' श्रादि लेखों के प्रकाशनार्थ श्री कंठ पाठक एम. ए.' की उपाधि-मंडित संज्ञा अपनाई । 'मस्तिष्क की विचारणा के लिए तो लोचन प्रसाद पाडेय बन गए । एक बार 'स्त्रियों के विषय में अत्यल्प निवेदन करने के लिए 'कस्यचित् कान्यकुब जस्य' पंडिताऊ जामा पहना तो दूसरी बार शब्दों के रूपान्तर की विवेचना करने के लिए नियम नारायण शमा ४ का मैनिक वेष धारण किया । पाठकों की बहुमुखी श्राकाक्षात्री की पूर्ति अकेले द्विवेदी जी के मान की न थी। अावश्यकता थी विविध विषयो के विशेषज्ञ लेखको की जो 'सरस्वती' की हीनता दूर कर मकते । पारखी और दूरदशी द्विवेदी जी ने होनहार लेखकों पर दृष्टि दौडाई । उन्होंने हिन्दीप्रान्तों और भारतवर्ष मे ही नहीं योरप और अमेरिका में भी हिन्दी-लेख को को हुँढा । सत्यदेव, भोलादत्त पांडे, पाडुरंग खानखोजे और रामकुमार खेमका अमेरिका मे; सुन्दरलाल, सन्त निहाल सिंह, जगविहारी सेठ और कृष्णाकुमार माथुर इंगलैड से प्रेम नारायण शर्मा, और वीरसेन सिंह दक्षिणी अमेरीका मे तथा बेनीप्रसाद शुक्ल फ्रास से लेख भेजते थे ! कामता प्रमाद गुरु, रामचन्द्र शुक्ल, केशव प्रसाद मिश्र, मैथिली शरण गुप्त, गोपाल शरण सिह, लक्ष्मीधर वाजपेयी, गंगानाथ झा, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, देवीदत्त शक्ल, वाबूराव विष्णु पराडकर, रूप नारायण पाडेय, विश्म्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' यादि की चर्चा यथास्थान की गई है। (ग) नीचे द्विवेदी जी के ही अक्षरों में भुजंग भूपण भट्टाचार्य लिखा गया है (घ.) इसकी बहुत कुछ पुष्टि 'रसज्ञ-रंजन' की भूमिका से हो जाती है, यद्यपि उमी में श्राए हुए 'विद्यानाथ' कामता प्रसाद गुरु हैं । १. 'राम कहानी की समालोचना' की लिखावट श्राद्योपान्त द्विवेदी जी की है। नीचे द्विवेदी जी के अक्षरी में श्री कंठ पाठक और फिर उसके नीचे श्री कंठ पाठक एम० ए० लिग्या गया है। २ मूल रचना की लिखावट सर्वाश में द्विवेदी जी की है ! ३. प्रमागाः (क) हस्त लिखित प्रति किसी और की लिखी हुई है परन्तु कहीं संशोधन नहीं है। जान पड़ता है कि द्विवेदी जी के वचन का अनुलेख है। (स्व) नीचे स्याही से द्विवेदी जी के हस्ताक्षर हैं और फिर काटकर पेंसिल से कस्यचित् कान्यकुञ्जस्य' कर दिया गया है । .४ प्रमाण: (क) लिखावट द्विवेदी जी की है। (ख) हाशिये पर श्रादेश किया है-~-पं० सुन्दरलाल जी, कृपा करके इस लेख को ध्यान से पढ़ लीजिएगा । निन्दा से 'सरस्वती' को बचाइएगा ! ५ 'सरस्वती' की विषय-सूची में इम नेम्बकों के नाम के सामने कोष्ठक में इनके स्थान का मी किया गया है Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १६६ । द्विवेदी जी के स्मात्य की हानि का प्रधान कारमा प्रान महान् साहि यकार कहलाने गले लगका का अशुद्विभरी रचमाया का आद्योपात संशाधन ही था लेख का से पन व्यवहार, फसशीधन और पर्यवेक्षण के अनन्तर अन्य लेखकों की रचनाओं को कोर्टछांट कर' सुधारने का भारि प्रयत्न' और 'उस पर भी अनेक उपयोगी और बालश्यक लेग्बो को 'स्त्रय मित्र और मिस्त्री को प्रत्येक संख्या नियत समय पर प्रस्तुत करना द्विवेदी जी-जैसे असो वारण मम्पादक काही काम या दुस्साय मशोधन कार्य से कभीकभी उन्हे अाक्रान्त कर देता था । सत्यशरण रतूड़ा की शरन्-स्त्रागत कविता की कि वाकल्म करते हुए उन्होंने हाशिये पर अंगरेजी में आक्षेप किया IIEATER : नोटये केवि मेरे लिए घोर दुःख के कारण हैं।"२ निस्सईह कोटे की मौमा हो जानें पर ही द्विवेदी जी न ऐमा लिखा होगा। इम 'अनन्त परिश्रम म परीजित होकर एक बार उन्होंने 'गिरिधर शर्मा की 'ग्रंशुमती कंक्ति की मेथिली शरण - गुप्त के पान संशोधनार्थ भेजते हुए उसके हाशिए पर नोर्देश किया जा . . Fy. TRE EFFथिलीशरण औ. The IFFERT : . .... दया कीजिए, हमारी जान बचाइए । इन दोनों कविताओं को जग ध्यान ना को जगे ध्यान में अपनी तरह देख जाइए। फिर उचित सशोधन करके ४-दिन में यथा संभव शीघ्र ही लौटा दीजिए। कई जगह शब्दस्थापना का क्रम ठीक नहीं पढनही बनता। क . . . ... 'मरस्वती'-सम्पादन के कठोर यज्ञ में द्विवेदी जी ने अपने स्वास्थ्य का बलिदान कर दिया.। १६१०. ई० में उन्हे. पूरे वर्ष. भर की छुट्टी लेनी पड़ी। तत्पश्चात् दूम, व की कष्टकरी साधना के कारण उनका शरीर जर्जर हो गया और उन्हे, विवश होकर 'मरस्वती, मवा में प्रधान ग्रहण करना पड़ा। 1लेग्वको के प्रति द्विवेदी जी का व्यवहार विशेषःहराहनीया झीय नाव पकानक पास पहुँचती तो वे तत्काल उसे देस्कत, शीघ्र ही उसकी पहुँच, अपने या न छापने का उत्तर भी भेज देने । अस्वीकृत रचना बोटाते. समयः लेखक - के आश्वामर के लिए कोई न कोई वाक्य अवश्य लिम्व देते थे जिम्मे वह आमसन्न या हतोत्साइन होक्करः गद्गद् हो जाता १. द्विवेदी जी के संशोधन- कार्य की गुरुता का न्यूनाधिक दिग्दर्शन परिशिष्ट संख्या ३ में उद्धत संशोधित रचना से हो जायगा। २ 'सरस्वती' के स्वीकृत लेख. बैंडल '१६०५ ई०. कला-भवन, ना. संभा, काशी' । 3 सरस्वती' क स्वीकृत लेख, बल्ल १९१७ का ना.सभा कसा भूक्त ।। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० । था। दिसम्बर १८१३ ई० म कशवप्रमाद मिश्र की मुदामा' शीप के लम्बी तुका दीम उम दोषो का निर्देश और उन्हे दूर कर कहीं अन्यत्र छपा लेने का आदेश किया ।' मैथिलीशरगा गुप्त की भी पहली कविता 'शरद' अस्वीकृत हुई, परन्तु दूसरो कविता 'हेमन्त' को उचित मशोधन और परिवर्धन के साथ 'सरस्वती' में स्थान मिला ।' उनका यह व्यवहार मी लेखका के प्रति था। वे रचनाओं में नामूल परिवर्तन करत, शीर्षक तक बदल देते थ । अप्रत्याशित संशोधनो के कारण मिथ्याभिमानी असंतुष्ट लेखक डाँटकर पत्र लिखते और द्विवेदी जी अत्यन्त विनम्र शब्दों में क्षमा मागने, उन्हें समझाते-बुझाते थे। उनके सपादकीय शिष्टाचार और स्नेहपूर्ण व्यवहार में लेखकों के प्रति शालीनता, नम्रता भार खुशामद की सीमा हो जाती। यह संपादक द्विवेदी का गौरव था। सच्ची लगन, विस्तृत अध्ययन, सुन्दर शैली और सज्जनोचित मकोच बाले लेखको का उपहास न करके वे उन्हें उ माहित करते और गुरुवत् स्नेह तथा सहानुभूति से उनके दोषो को समझाते थे । जिन लेग्वक को लिखना श्रा जाता रमे 'सरस्वती' निःशुल्क भेजते और योग्यतानुमार पुरस्कार भी देते थे । लक्ष्मीधर वाजपेयी के 'नाना फडनवीस' नामक विस्तृत लेग्व को अत्यन्त परिश्रम में काटछॉट कर पाठ पृष्ठी में छापा और भोलह रुपया पुरस्कार भी भेज दिया । आदर्श मपादक द्विवेदी जी अपने लघु लेख को पर भी कृपा रग्बते थे। द्विवेदी जी ने 'सरस्वती' को व्यक्ति विशेष या वर्ग-विशेष को संतुष्ट करने का मा-न नहा बनाया। उन्होंने ग्राहक समुदाय को स्वामी, और अपने को मेवक समझा । 'सरस्वती' का उद्देश्य था अपने समस्त पाठको को प्रसन्न तथा लाभान्वित करना । द्विवी जी ने जानवर्धक और मनोरंजक रचनायो का की तिरस्कार नहीं किया । कितने ही यश और धन के लोलुप स्वार्थान्ध महानुभाव अपनी या अपने स्वामियों की असुन्दर, अनुपये गी और नीरम रचनाएं चित्र एवं जीवन चरित छपाने की अनधिकार चेष्टा करते थे। कितना की भाषा इतनी लचर, क्लिष्ट और दूपित होती थी कि उसका मंशोधन ही असम्भव होता था । कठोर कर्तव्य द्विवेदी जी को उनका तिरस्कार करने के लिए बाध्य करता था। ये महानुभाव अस्वीकृत रचनाओं को वापस मंगाने के लिए टिकट तक न भेजते, महीनी बाद उनकी खोज लेने और धमकिया तथा कुत्मापूर्ण उलाहने भेजकर अपना एवं मम्पादक का ममय व्यर्थ नष्ट करते थे। द्विवेदी जी व्यक्तिगत पत्र या सांवत्सरिक सिंहावलोकन', १ 'सरस्वनी', भाग ४०. सं० २, पृ० १६६. २. 'सरस्वती', भाग ४०, सं० २. पृ० १६ ३. 'सरस्वती', भागे ४० सं० २, पृ० १४६; 'द्वि. मी,' ५२-५३, . सरस्वती', माग ४० म. २ पृ १३॥ * बेखकों स प्रार्थना मरम्पती मां 16 बा २ २ ३ के आधार पर Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लस का स प्राथना , लेखमा का क्त्तव्य ' आदि लेखा द्वारा लेपका को चेतावनी दे दिया करत थ इतन पर भी जो 'सरस्वती' के लक्ष्य और मान 7 अनुपयुक्त रचनाए भेजता वह अवश्य ही तिरस्कार का पात्र था । लेखको के प्रति उनके सहृदयतापूर्ण व्यवहार का प्रमाण उन्हीं के शब्दों में लीजिए__"नरदेव शास्त्री-आप ऐसे ऐने रद्दी लेखी का स्वागत करते हैं, यह क्या बात है ? द्विवेदी जी--(मस्मित) द्वार पर आने वालों का स्वागत करना परमधर्म है और जिन महानुभावों को बार बार लिम्ब कर लेख मँगाया जाता है, उनका तो आदर आवश्यक ही - - - - - - - द्विवेदी जी ने अपने व्यक्तित्र, वाणी और मंशोधन की कठिन तपस्या द्वारा अनेक लेखको और कवियो को 'सरस्वती' का भक्त बनाया। कितने ही लेखक 'सरस्वती' की मुन्दरता, लोकप्रियता, ईदृक्ता और इयत्ता मे नाकृष्ट होकर स्वयं पाए । द्विवेदी जी के संपादन-काल के पूर्व अनेक हिन्दी-पत्रिकाओं ने अपने को विविध-विपया की मासिक-पुस्तक घोषित किया, 3 परन्तु उनकी वाणी कभी भी कम का रूप न धारण १. समय समय पर 'सरस्वती' में प्रकाशित २. 'हम', 'अभिनन्दनांक', एप्रिल, १९३३ ई० ३ (क) अपने को 'विद्या, विज्ञान, साहित्य, दृश्य, श्रव्य और गद्य, पद्य, महाकाव्य, राजकाज समाज और देश दशा पर लेख, इतिहास, परिहाम, समालोचनादि विविध विषय वारि बिन्दु भरित बलाहकावली" (माला ४,मेघ १, १६०२ ई०) समझने वाली 'आनंदकादंबिनो' की माला चार, मेघ ८-६ की विषय-सूची डम प्रकार थी१. मंपादकीय सम्मति ममीर, नवीन सम्वत्सर, उदारता का पुरस्कार, स्वामी रामतीर्थ, हर्ष, यथार्थ प्रजाहित, शोक!!! चैतन्यमय जगत । २. प्राप्ति स्वीकार वा समालोचना सीकर ३. माहित्य सौदामिनी लक्ष्मी। ४. काव्यामृत बर्षा--- अानंद बधाई, दिल्ली दरबार मित्र मंडली के यार । ५ निवेदन और सूचना । (ब) हिन्दी-प्रदीप' की घोषणा थी-विद्यानाटक, इतिहास, साहित्य, दर्शन, राजनम्बन्धी इत्यादि के विषय में हर महीने की पहली को छपता है ।" (जिल्द २५, संख्या १-२, जनवरी-फरवरी, १६०३ ई.) और विषय थे: १. हमाग पञ्चीसवा वर्ष २. ढोल के भीतर पोल ३ कान नन का लकर vोपी वमम मामा Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ कर सकी । द्विवीपादित सरस्वती ने हिन्दी मासिक पत्र व इस कला को दूर किया अद्भुत और विचित्र विनयों के आकर्षण व ग्राख्यायिकाओं की सरमता, आध्यात्मिक विपयों की ज्ञान-सामग्री, ऐतिहासिक विषयों की राष्ट्रीयता, कविताओं की मनोहरता और कातानंमित उपदेशों, जीवनियों के आदर्श चरित्रां, भौगोलिक विषयों में समाविष्ट देश-विदेश की जातव्य और मनोरंजक बातो, वैज्ञानिक विषय में वर्णित विज्ञान के आविष्कारी और उनके महत्व की कथाओं, शिक्षा-विषयों के अन्तर्गत देश की अवनत और विदेशों की उन्नत शिक्षा की समीक्षा, शिल्पादि विषयक लेखां में भारत तथा अन्य देशों की कारीगरी के निदर्शन, साहित्य-विषयों मे साहित्य के सिद्धान्तों, रचनाओं और रचनाकारों की ममालोचनाश्री, फुटकर विषय में विविध प्रकार की व्यापक बातों की चर्चा विनोद और यायायिका, हॅमी - दिल्लगी एवं मनोरंजक श्लोकों की मनोरंजकता, चित्रों के उदाहरण और कला, व्यंग्यचित्रां में हिन्दी-साहित्य की कुछ दुरवस्था के निरूपण आदि ने 'सरस्वती' बो सर्वागमुन्दर बना दिया ! द्विवेदी जी की संपादन- कला की सर्व-प्रधान विशेषता थी 'सरस्वती' की विविध विषयक सामग्री की समंजस योजना | फलक था, तूलिका थी, रंग थे, परन्तु चित्र न था । प्रतिभाशाली चित्रकार ने उनके कलात्मक समन्वय द्वारा सर्वांगपूर्ण चित्ताकर्षक चित्र कित कर दिया | इंट-पत्थर, लोह -लक्कड़ और चुने-गारे के रूप में विविध विषयक रचनाओं का ढेर लगा हुआ था । शिल्पो द्विवेदी जी ने उनके सुपमित उपस्थापन द्वारा 'सरस्वती' क भव्य मन्दिर का निर्माण किया । " श्राचार्य द्विवेदी जी के समन की सरस्वती का कोई अंक निकाल देखिए, मालूम होगा कि प्रत्येक लेख, कविता और नोट का स्थान पहले निश्चित कर लिया गया था। बाद में वे उसी क्रम में मुद्रक के पास भेजे गए। एक मी लेख ऐसा न मिलेगा जो बीन में डाल दिया गया सा मालूम हो । संपादक की यह कला बहुत ही कठिन है और एकाध को ही मित्र होती है । द्विवेदी जी को सिद्ध हुई थी और इसी में सरस्वती का प्रत्येक अंक अपने रचयिता के व्यक्तित्व की घोषणा अपने अग प्रत्यंग के सामंजस्य में देता है । मैंने अन्य भाषाओं के मामिका मे भी यह विशेषता बहुत कम पानी है और विशेष कर इसी के लिए मैं स्वर्गवासी पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी को 1 ५. सभ्यता -पिशाची सर्वनाशकारी हुई ६. परमोत्तम तार्थ ७. घुन ८. समालोचना ६. युक्तियुक्त अन्य परियो में सार रमिते हूँ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपारकाचाय मानता और उनको पण्य स्मृति म य श्रद्धानलि अपण करता हू "" 'मरम्बती' के प्रकाशन के बाद भी अन्य हिन्दी-पत्रिकाओं का मान ऊँचा न हुआ । 'छत्तीमगढ मित्र'.२ 'इन्दु', 'समालोचक', 'लक्ष्मी'५ 'विद्याविनोद'६ अादि अधिकांश पत्रिकामो मे संपादकीय टिप्पणियों का ग्बंड था ही नहीं। जिनमें था भी उनमें अत्यन्त गिरी दशा में । हिन्दी प्रदीप की विषय-सूची में कभी कभी मपादकीय टिप्पणिया में बंड का उल्लेख ही नहीं मिलता। उनकी पचीमवीं जिल्द की संख्या ५-६-७ के लघु लेख मम्भवतः विविध वार्ता के रूप में लिम्बे गए हैं । 'अानन्द कादम्बिनी' का 'संपादकीय सम्मति ममीर' अपेक्षाकृत अधिक व्यापक था। भारतेन्दु' के ग्बंड १, मंख्या १, अगस्त ११०५ ई. के संपादकीय टिप्पणिया' ग्वंड के अन्तर्गत केवल तीन लघुलग्यो (भूमिका, 'दाढी की नाप' और 'धडकन') का ममावेश किया गया है। एक बार 'भारती' पत्रिका की अालोचना करते हुए द्विवेदी जी ने लिम्बा था--'इसके विविध विषय वाले स्तंभ की बाते बहुत ही मामान्य होती हैं। उदाहरणार्थ 'एक चोर की जल मे मृन्यु' का हाल अाध कालम में छपा है। मतलब यह कि मंपादक महाशय ने नोटो और लेखों को उनकी उपयोगिता का विचार किए बिना ही प्रकाशित कर दिया है ।१० द्विवेदी जी ने इस प्रकार की कोरी अालोचना ही नहीं की वरन् हिन्दी-संपादकी के समक्ष श्रादश भी उपस्थित किया । उनके विविध विषय ममाचार-मात्र नहीं होते थे । उनकी टिप्पणियां का उद्देश्य था 'सरस्वती' के पाठका की बुद्धि का विकाश करना । पाठको के १. बाबू गव विष्णु पगड़कर, साहित्य संदेश , भा॰ २, सं० ८, पृ० ३१२, २. वर्ष ३ रा, अक १ ला. ३. कला 3, किरण १, स. १९६६ । इसमें प्रकाशित 'मनोरंजक बार्ता' और 'समाचार ___स्तम्भ सम्पादकीय टिप्पणियों की अभावपूर्ति नहीं करते। ४. अगस्त, १६०२ ई० १ भाग ५. अंक १. । इसका भी 'समाचार स्तम्भ सम्पादकीय विविध-वार्ता की रिक्तता का पूरक नहीं हो सकता। ६. नवम भाग, १६०२-३ ई० ७. जिल्द १५, संख्या १-२, जनवरी-फरवरी,१६०३ है. ८. सभ्यता पिशाची सर्वनाशकारी हुई, परमोनम नार्थ और धुन ६. माला ४, मेघ ८-६ की विषय-मची नवीन सम्बन्मर, उदारता, चेन का पुरस्कार, स्वामी रामतीर्थ, हर्ष, यथार्भ प्रजा हिन शोफ चैतन्य जगत । १ सरस्वनी', भाग 4 , ३७२ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ | लाभार्थ उनम साधारण अध्ययन की सामग्री भी रहती थी। वे प्राचीन तथा अबाचीन साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, विज्ञान, भूगोल, धर्म, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीति, पत्रपत्रिकाओं के सामयिक प्रसंग, हिन्दी भाषा और उसके भापियों की आवश्यकताएँ, महान गुरुपो के जीवन की रोचक और महत्वपूर्ण घटनाएँ, देश-विदेश के ज्ञातव्य ममाचार, गवर्नमेट आदि में प्रकाशित सरकारी मन्तव्य नादि विषयों का एक निश्चित दृष्टि में, अपनी शैली में, समीक्षात्मक उपस्थापन करते थे । कभी कभी तो रिपोर्ट और पुस्तकें उन्हें अपने मूल्य मे मंगानी पडती थी।' __उनकी संपादकीय टिप्पणियों की भाषा मरल और सुबोध है। कहीं परिचयमात्र कही परिचयात्मक समीक्षा, कही गभीर सक्षिप्त विवेचन और कहीं व्यंग्यपूर्ण तीव्र अालोचना है। अावश्यकतानुसार चार्ट आदि भी हैं । अनुवाद की दशा में मूल रचना या रचनाकार का नामोल्लेख भी है । द्विवेदी-संपादित 'सरस्वती' की परिचयात्मक सामग्री निस्सन्देह अनुपम है । प्रतिमान, अगरेजी, बॅगला, मराठी, गुजराती, उर्दू, हिन्दी और संस्कृत की 'पत्रपत्रिका श्री से संकलित मामग्री उनके उत्कट अध्ययन और असाधारण चयनशनि की द्योतक है । यपि उनके अधिकांश नोट दूसरों के व्याख्यानो और लेखा पर आधारित हैं तथापि उनकी अभिव्यंजना-शैली अपनी है। उनमे प्रभावोत्पादक व्यंग्य और मनोरंजक तात्विक विवचन हैं। वे सचमुच साधारण जान के भाडार हे । किसी भी वस्तु की सुन्दरता या असुन्दरता, महत्ता या लघुता, गुण या दोध ममी मापेक्ष हैं । द्विवेदी जी द्वारा दिए गए 'पुस्तकपरिचय' की श्रेष्ठता का वास्तविक ज्ञान तत्कालीन अन्य हिन्दी-पत्रिकामो की तुलना से ही हो मकता है। 'छत्तीमगढमित्र' के 'पुस्तक-प्राप्ति और अभिप्राय' खंड के अन्तर्गत दो पुस्तकों का परिचय इस प्रकार दिया गया है: (१४) धागधरधावन, प्रथम और द्वितीय भाग, तथा (१५) साहित्यहत्या, श्रीयुत राय देवी प्रमाद पूर्ण बी. ए. वकील कानपुर, द्वारा समालोचनार्थ प्राप्त । अवकाश पाते ही ममालोचना की जायेगी। यह है तत्कालीन हिन्दी-संपादकी की पुस्तक-परीक्षा का एक उदाहरण । द्विवेदी जी ने सपादक के कर्तव्य की कभी भी हत्या नहीं की। उन्होने जिन पुस्तकों को विशेष महत्वपूर्ण 1 'सरस्वती' भाग १४ पृ. ४१५ २ २ ३ अक ५ पृ. १३७ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ समझा उनकी पयाप्त ममोहा की, जो उनम जी उनकी प्रशसा के पुल बाव दिए । जिन्हें दूषित या निकृष्ट समझा उनको तीव्र एवं प्रतिकूल अालोचना की और जो पुस्तके माल्व हीन, घोर अंगारिक या अनुपयोगी प्रतीत हुई उनका नाम और पता मात्र देकर ही रह गए। उन्होंने 'भाइर्न रिव्यू' की भाति भाषानों के नामानुसार शीर्षक देकर प्रतिमाम नियमित ए में विवि व भापायी की पुस्तकों की परीक्षा नहीं की। हाँ, पाठको के लाभ का ध्यान रखकर हिन्दी, उर्दू, मस्कृत, अँगरेजी, मराठी, गुजराती, बँगला, मारवाडी आदि भाषामा एवं साहित्य, धर्म, ममाजशास्त्र, राजनीति, विज्ञान, भूगोल, इतिहास, ज्योतिष, दर्शन कामशास्त्र, यात्रादि, स्थानादि, श्रायुर्वेद, शिल्प, वाणिज्य, कला श्रादि विषयों की रचनाओं, मासिक, साप्ताहिक, देनिक आदि पत्री, सभापतियों के भाषण, शिक्षा-संस्थानो की पाठ्यपुस्तको आदि पर वे टिप्पणियाँ प्रकाशित करते थे । __अालोचनार्थ पुस्तक भेजने वाला म सन्चे मुगा-दोष-विवेचन के इच्छुक बहुत कम थे। अधिकाश लोग ममालोचना के रूप में पुस्तक का विज्ञापन प्रकाशित कराकर श्रार्थिक लाभ अथवा उसकी प्रशंमा प्रकाशित कराकर अपनी यशोवृद्धि करना चाहते थे : प्रतिकल ममीक्षा होने पर असन्तुष्ट लोग कभी अपने नाम न, कभी बनावटी माम में, कभी अपने मित्रा, मिलने वाला या पार्षदो में प्रतिकुल समीक्षा के एक एक शब्द का प्रतिवाद उपस्थित करत या करते थे। कुछ लोग तो घुस्तक की भूमिका में ही यह लिवा देत थे कि कटु आलोचना म लन्त्रक का उल्मा भग हो जायगा ।" द्विवेदी जी ने निम पुस्तक को ज्ञान, कला पार उपयोगिता को कमोटी पर जैसा पाया, उसकी वैसी बालोचना की । रचनाकार की माहित्यिक रस्ता या लघुता का ध्यान न करके न्यायपूर्वक आलोचक की कैंची चलाई। किमी की अप्रसन्नता और प्रनिशाधभावना की उन्होंने रनीभर भी परवाह न की ! मानव-मस्तिष्क नाव की अपेक्षा रूप में अधिक प्रभावित होता है । इमीलिए शिक्षा पद्रति में चित्रों का स्थान बहुत ऊंचा है। द्विवेदी जी ने पाठको के बौद्धिक और हादिक विकाम के लिए मादे और रंगीन चित्रो में सरस्वती' को अल कृत किया। चित्री , विषयानुसार वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है---- १ 'चन्द्रगुप्त की परीक्षा--सरस्वती' भाग १४, पृ० २५३ ।। २. 'भारत-भारती-'सरस्वती, अगस्त १९१४ ई०, ३ भाषापद्य व्याकरण'-~-'सरस्वती', अगस्त १६१६ ई. ४ प्रायः प्रत्येक अंक में इसके उदाहरण प्राप्य है। कामकार'सरस्वती', १११७. पृ३२७ के पापार पर - --- - -- - -- Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीन १. . - For F. . . . ..., ___ कमान मालकि विनयू-पजागत, त्रिस्यादि..: "3. " . प्रकृति कई = IS MEET - ८ . ३ धार्मिक चित्र-देवी देवताश्री, पौराणिक आख्याना तथा हिन्दू-त्योहार के है समाज .. . . . . . . हामी मी F . . . . . : .... ..... हो । . ... . : ... :: . . . ." . यो माया के 31 २ लेग्यको के चित्र . ... - ; १: .... . ३ महान् व्यक्रिया के चित्र माहित्यिक, पदाधिकारी, राजा आदि) * : . चिो की प्राप्ति में कठिनाई होने के कारण एक चित्रकारी नियुक्ति कर दी गई थी। माईन रिव्यू और प्रवासी' 'के म इडियन प्रेम से छाम्ने सरस्वती' को उलाक अादि की मुविधा-थी । रचनाओं कोलमचित्र छापने की और द्विवेदी जी का विशेष न्याना शा. चिञ्च के विषय में वे पूरी जानकारी सेवन थे । 'भरस्वती में वन्ही चित्र छपते थे जो सुन्दरतापूर्वक छा सकते थे यासुन्दरू'या ऋटिमुर चित्रीको छापन:- की अपेक्षा न छापना ही उल्हाम अधिक श्रेयस्करः ममझा IEE १. (क' कामता प्रसाद गुरु की 'शिवाजी' कविता को सचित्र करने के लिए लिखा "मई १९०७ ई. के माईन 'रिव्यू के ४३८ पृष्ठ पर जी चित्र शिवाजी का है वह . इसके साथ छापिए । म .. 'सरस्वती' की हस्तलिखित प्रतियाँ, १६०७ ई., कलाभवन ना. नं सभा । (ब) लक्ष्मीधर वाजपेयी के नानांफडनवीस निबंध के हाशिए पर बादश किया था इसके साथ ही चित्र छापिए। नानाफडनवीस को और राघोबा दादा पेशवाण का । पहला चित्र हम बाबू को ढे ये हैं दुमक्ष चित्र चित्रशाला प्रेस, पूना से मंगा लीजिए। म. प्र. .३०, ५,1805 ई . .... 'सरस्वती' की हस्तलिग्विन प्रनियाँ, १६१८ ई. कलाभवन, नागरी-. . प्रचारिणी सभा, काशी, 11' ................. ... . 'की गत मंख्या में शास्त्र विकास हाचालको विज़न धर्मसरि का चित्र महीं मिल पा ३ समस्या यह हुआ कि अचान साह निशु, अराद Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्रा के चयन और प्रकाशन में द्विवेदी जी ने उनकी कला मनोरंजकता और उपादेयता का सदा ध्यान रखा । उन्ही व्यक्तियों के चित्रों को स्थान दिया जिनका संसार ऋणी है। किसी के प्रलोभन में पड कर महत्वहीन व्यक्तियों के चित्र छापना पत्रिका के मालिका और पाठकों के प्रति अन्याय समझा । 'सरस्वती' के अधिकाश रंगीन चित्र बाबू और रामेश्वर प्रसाद वर्मा द्वारा अंकित हैं । मात्र ग्रहण में महायक चित्रों को 'सरस्वती' के सामान्य पाठक भी सहज ही समझ मक्ते थे, किन्तु कलात्मक चित्रों के उच्च भावो का भावन जनसाधारण की समझ के बाहर था। उनकी भावानुभूति कराने के लिए 'चित्र-दर्शन' या 'चित्र-परिचय' खंड की आवश्यक्ता हुई | चित्र और चित्र परिचय एकत्र न होने से पन्ना उलट कर देखने में पाठकों को कष्ट तो अवश्य होता रहा होगा परन्तु यह प्रणाली उनकी स्वतंत्र विचारक शक्ति को विकमित करने में विशेष सहायक श्री 1 I शैली की दृष्टि से द्विवेदी जी के चित्र-परिचय के चार वर्ग किए जा सकते हैं । वि शृंगारिक एवं स्पष्ट चित्रों के परिचय में उनके नाममात्र का उल्लेख ' कलात्मक चित्रों और उनके रचयिता का विशेष परिचय और अधिक सुन्दर होने पर उनकी प्रशंसात्मक आलोचना अत्यन्त भावपूर्ण एवं प्रभावोत्पादक चित्र का काव्यात्मक निर्देशन और arrear ऐतिहासिक आदि चित्रों की तुलनात्मक विवेचना भी है । संपादन के पूर्व मी द्विवेदी जी ने 'सरस्वती' को एक नवीन अलंकार ने अलंकृत किया था और वह था व्यंग्य चित्र | हिन्दी-पत्रिका जगत् के लिए वह एक अद्भुत चमत्कार था | 'माहित्य-समाचार' के चार व्यंग्य चित्र" १६०२ ई० की 'सरस्वती' में ही प्रकाशित हो चुके थे, परन्तु उनका प्रकाशन अनियमित था । १६०३ ई० में संपादक द्विवेदी ने उसे नियमित कर छपा । और ऐसा चित्र छापने से न छापना ही अच्छा समझा गया ।" सरस्वती १२ । ७ । ३५२ १. उदाहरणार्थ 'नवोड़ा-सरस्वती', भा. वंड 15, २. ३. ४. ५. 5 २ " 1 संख्या = दि 'श्रातिथ्य' – सरस्वती, जुलाई १६१८ ई० 'कृष्ण-यशोदा' - 'सरस्वती', जनवरी १६१६ ई० आदि १९९५ ई० आदि,, -'सरस्वती', मार्च १६१६ ई०, ""पृष्ठ ३१. 'वियोगिनी' 'सरस्वती', दिसम्बर, 'प्राचीन तक्षण कला के नमूने' 'हिन्दी-साहित्य'' *** 'प्रचीन कविता'' 'प्राचीन कविता' का अर्वाचीन अवतार' बड़ी बोली का प ***** ... .. ... ६६. पृष्ठ १०० पृ० १६३ श्रादि 1 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] दिया सरस्वता की प्रत्यक संख्या में एक अग्य चिन छपने लगा यद्यपि उनके प्रकाशन का एकमात्र उद्देश था मनोरंजक ढंग से हिन्दी साहित्य की सामयिक अवस्था का दिग्दशन कराना, तथापि उस कल्याणमूलक तीव्र व्यंग्य से अभिभूत हिन्दी - हितपियों को असह्य मनोवेदना हुई। उन्होंने द्विवेदी जी को पत्र लिख कर उन चित्रो का प्रकाशन रोकने का ग्रह किया । १ द्विवेदी- सरीखे निष्पक्ष हिन्दी-सेवी, निर्भय समालोचक और पाठक - शुभचिन्तक कर्तव्यपरायणसम्पादक ने, कुछ ही लोगों को तुष्ट करने के लिए, अपनी दयाशीलता के कारण, पहले ही वर्ष के अन्त तक उन व्यंग्य चित्रों का प्रकाशन बन्द करके अपने गौरव को घटा दिया । उन व्यंग्य - चित्रो की कल्पना और योजना द्विवेदी जी की अपनी ही है परन्तु उनके चित्रकार वे स्वय नहीं हैं । वे चित्रों की रूप-रेखा तैयार करके भेज दिया करते थे और चित्रकार उन्हें निर्दिष्ट रूप से निर्मित कर दिया करता था । इस कथन के समर्थन के लिए 'सरस्वती' की हस्त लिखित प्रति का एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा साहित्य-सभा ५. उपन्यास ४. समालोचना ३ पर्यटन २. जीवन चरित यह हिन्दी साहित्य की सभा है । १ में ७ तक कुर्सिया पड़ी हैं । उनका विवरण नीचे देखिए ६. व्याकरा ७. काव्य 'ireefoe सिंहावलोकन' (भा ४ सं० १२) के आधार पर 1 २ सरस्वती की प्रसिया १३०३३० ८. नाटक १. इतिहास कोश. ६ नीचे सरस्वती खड़े खड़े और सभा की ओर देख देख रो रही हैं । १. ग्वाली २. खाली ३. एक खूबसूरत लड़का, वय कोई १० वर्ष, इसी प्रान्त का रहने वाला, पायजामा, नागरी प्रचारणी सभा काशी Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ नाग ल्ल थ सम धी म द नगनी चक्षुषो नात लडकीया नष्टया न ज्यान स्वी कानीयाँ वैश्ले नप चला दान प इष्टी राम मददी बायू २ न अश्रुधारा लिए समाधि मन्दिर भगिनी चक्षुश्रा मानत लडकिया प्रक्रिया नाजनान गई कहानियाँ पहल चाहिए बलिदान हुए दृष्टि रीति महदी वायु पत्नी पूर्णभिह M "" " " D " " J 19 15 " +3 === कन्यादान " " 23 "> " >> * " 73 PA >> 31 +1 }} " 33 20 " : 3 ४ ५ '9 229 9 Us '७ ७ १३ १४ धू ६ ६ $4 歸 ? 9 1 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंधारी गान्धारी पूर्णसिह बदरीनाथ भट्ट कन्यादान महाकवि मिल्टन १६०६ १६११ नरक दाधियं पूर्वति ध गि जरूरी देखिए युवती घरणी सत्यदेव गणेशश कर विद्यार्थी अमरिका भ्रमण । आत्मोत्सर्ग जरूरी पन्न बनन हिदु हिन्दू गिरजाप्रसाद द्विवेदी कामताप्रसाद गुरु भारतीय दर्शन शास्त्र हिन्दी का व्याकरण १ पायी जातो इसलिये चहिये पहिले उदय उपर उसपक्ति पाई जाती इसलिए चाहिए पहले हृदय ऊपर उत्पत्ति पशु रामचरित उपाध्याय गणेशश कर विद्यार्थी पवनदूत १६०६ १६११ । अात्मात्सग १श गेरुये रोकर निमाज पूर्णसिंह | मजदूरी और प्रेम नमाज " Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मधु सक्को * वर्णा बसना सकारी चालस झूठा कदाचित उमर तुही सशयाई प्रगट चतम न कर्त्ता है मूल MA सकती करन न्चरणा बरसाना सरकारी चाल्म झूठा कदाचित उम्र संशोधित रूप वहीं सहाध्यायी प्रकट वर्तमान करता कामता ना माहला सत्यदेव गोविन्दबल्लभ पत पूर्णसिंह व्यंजन-गत लेखन - त्रुटियों का संशोधन लेखक काशीप्रसाद " सूर्यनारायण दीक्षित " मिश्र बन्धु " सत्यदेव }} कामताप्रसाद गुरु मिश्र बन्धु नालागारपवत काननासाट डालागा राजनीति विज्ञान कृषि सुधार कन्यादान ,, रचना एफ० एस० ग्राउस 35 टिड्डीदल चन्द्रहास का उपाख्यान जीवनबीमा " आश्चर्यजनक घटी " लेटिनी हिन्दी न्याय और दया 19 (METOVÁLÁSALTAR पृष्ठ th वीर 15 १६०४ १६०६ १६०६ १६०६ सन १६०६ "> १६०८ H १९७ J Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अञ तित्र दी स गया गरनभन्द श्रानराम โร पाश्री क्यू क दुनियां लापर उन् य पुग्न नि स्मशान साथ रन बाव मिठासन वध प्रतिवादी बतान गावा गवर्नमेंट आकाश ज्यांही चुनाव क्याकि दुनिया सूली पर इंद्रक दुखदायी पूर्णा नयन श्मशान साधारण बादल सिहामन मिश्र वन्धु >" सत्यदेव * "3 गिरजाप्रसाद द्विवेदी सत्यदेव 22 *1 पूर्णमि "J " "" " 13 वृन्दावनलाल वमा प्रसिद्ध $3 न्याय प्रारदपा 19 अमेरिकन स्त्रिया " देशo कंव्यान देन कुछ शरद्विलाम अमेरिका में विद्यार्थिजीवन राजनीति विज्ञान मन्त्री बीरता 33 " 解 " " 绅 कन्यादान राग्वीबन्द भाई कन्यादान 73 1 · 15 ४ X A 5 प्र a' " १५. " 3 גון eie r १९०८ 語 . १६०६ , 135 " K F Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेममै प्रेममय पूर्णसिह कन्यादान सामन सामने जोत मार पुरशत्तिम নিশান लोक ज्योति झाड़ पुरुषोत्तम निवारणार्थ लोग दुखडे सुबहे c पाशीरवाद आशीर्वाद . . . . . . . . . . . . . . १ HAMIndo सगुन प्रस्पर बहन परस्पर यहाँ प्रबन्ध पावों बनठन कर कोठरी सत्यदव अमरिका भगा १५ M0 पामो पनटन कर के उडी Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यथान रु नम्याग सर्वशा यम्य पनियो दच्छिन भम्रण पुरणे चम्ट निमदि श्रादमशुमार स्वच * नटर रिभ्राद जलजान श्रन्तधान हुएनसांग सदस यक्ष मटियामेट दक्षिण रमरण प्राचीन ( पुराने ) घटी किंवदन्ती मदुमशुमारी स्वच्छ - य जरठ विभ्राट जलयान रामचन्द्र शुक्ल ++ पूर्णसिंह F # रामचरित पाण्याच पूर्णसिह 33 13 श्रीमती बंग महिला 3.3 " मिश्र बन्धु 53 松 * टुपया >> कन्यादान 53 33 पवनदूत कन्यादान "3 मजदूरी श्री. प्रेम नीलगिरिपर्वतनिवाल Ps विज्ञापनों की धूम गजधर्म py >> 红 १६०६ F 要 १६०६ १६०६ M ? * * १६०४ १६०९ * १६ ४ நந 1 २५० Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम मनन का गला तक प मला पर क्यान इस परिचय ! हीनता खाज कल का मस्कृत मी कविता संस्कृत छन्द म भी जाकर और श्री श्रमिक हानिकारक है | मूल यह रेल की सड़क पर है प्रथम समागम में स्थान मेले फासले पर प्रकृति-परिचय-हीनता आजकल की मस्कृत मरी कविता का संस्कृतापयुक्त छन्दों में रचा जाना भार भी हानिकारक है। ATAU RAVENS संशोधित रूप वह रेल की सड़क पर है क्या क्या विषय अभ्ययन कोन कोन विषय अन्ययम विय है किये है इनम उनसे राठक, नुक्क पाठक, ""ग्रापका पमर्थ नाथ महानाय सत्यदेव बद्रीनाथ गह विद्यानाथ । काय. गु. 6 सर्वनाम सम्बन्धी संशोधन लेखक सत्यदेव 1J वृन्दावन लाल श्रमा पूर्णसिह राजपूतनी अमेरिकन स्त्रियां महाकवि मिल्टन कवि कर्तव्य बचना अमेरिका के खेत पर मरे कुछ दिन देश हितैषियों के व्यान देने भाग्य बाते राखी बन्द भाई कन्यादान १० श्रष्ठ SC १६ ०६ १६८ १६.१६ AP सन् १६०८ >> १९०६ ६ बल Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. .. . ...... ---... - m ng-mananmrime संशोधित रूप लेखक रचना प्रष्ट सन् - - - - - मत्यदेव अमेरिका-भ्रमण (४) मग मित्र · टहलने लगे कुछ एक ने मेरे मिन्न कई एक ने" ५ - - - - santraumaunmun . - - 1 rina विशेष्य-विशेषण-सम्बन्धी संशोधन मूल मशोधित रूप लेखक रचना सन् paduA BAR mama-Aami -Fa miseratunhadRAMPATWAruarpan कन्यादान १६.०६ अपना ताजा मताजा दाह । अपने ताज़ से ताजे दोहे। पूर्णसिह श्रर चोपाई। और चौपाई। इत । मब होने पर यह सब "... बदरीनाथ भट्ट उनके अभिमान का । उनका अभिमान चकनाचूर | सत्यदेव चन्नाचूर होगया होगया पर निश्चय नहीं..." । यह निश्चित नहीं गिरिजा प्रसाद द्विवेदी भव ..उदय हात है भाव"उदित होत हे विद्यानाथ महाकवि मिल्टन अमरिका-भ्रमण (४) भारतीय दर्शनशास्त्र कधि का कर्तव्य HPATMsomwarwa RAISARDaman ---- - -tamam Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महागाई नहीं हुई मधुमगल मिश्र - --- - मिश्र बन्धु . एक ही शरीर में अनेक प्रात्माएं गजपूतनी न्याय और दया अमेरिका की स्त्रिया | कृषि सुधार आश्चर्यजनक घटी १६०८ पदासी चलने लगी | बढ़ाती हुई चलने लगा प्रमथनाथ भट्टाचार्य बदला लेवे बदला ल खड़ा हाकर खड़े होकर सत्यदेव भज दिई चारे भेज दी जाय गोबिन्द बल्लभ पंत गथ पकड़ हाय पकड़ कर सत्यदेव माथ ले माथ लेकर ममझी जानी लगी है समझी जाने लगी है गमचन्द्र शुक्ष ताप्राता है होता श्राया है विवाह'...."टेदारी होगई | विवाह" ठेकेदारी होगया , प्रणमिद्ध ग्न हीं गा रही है बड़ी गारही है मम्बधी श्रीर मनियां हो सम्बन्धी और सम्बियां' 'हो | [ २२० । कविता क्या है sma मर कन्यादान जायगे अमेरिका भ्रमगा (५) नावेग अगरेजी बोलनी नहीं आती | अगरेजी बोलना नही श्राता सत्यदेव , " था Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेरिका भ्रमण (५) . बुलाया बुलाया सत्य टेन जिस दिन श्राकाश शुद्ध हो "ग्राकाश साफ रहता है , 'चीटियाँ दीग्व पड़ती चोटियां दीग्न पड़ती है दिल में आया चली अाज | .."चलू श्राज अापका कष्ट । श्रापका कष्ट दे 'शहरको वही सुभीता है। शहर को यही सुभीता है ""जी नगर को हो | जो नगर को होता है लाडके लडकिया लगे थे लइक लाइकियो लगी थी यह मी बात करे" याने | बह एसी बाते करता था कि "लगा लागों को 'बड़े पाये । लागा को...." खंड पाया जाना पड़ता है. इस प्रयोग | जान पड़ता है - मुष्टि हुई है | कामता प्रसाद गुरु की सृष्टि हुई हो। 1 का व्याकरण ४ । १६० - Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भा जन्म ता राहु भारत, श्रापको कष्ट ही होगा पर ★ .... अशांति व अधिकार हर एक मनुष्य मात्र यद्यपि परन्तु पहते व सुनन ल + उनके न्द्रिय ना....सकते है * बातचीत. benručialapos " कमी कमी' जब तब बाहरे भारत, श्रापका व्यथ कष्ट होगा वही . या अशांति और अधिकार हर एक मनुष्य यद्यपि कहते यार सुनते तथापि संशोधित रूप उनकी स्पर्शेन्द्रिय पन्ना ...." सकती हूँ की बातचीत सूयनारायण दीक्षित सत्यदेव 12 >> गिरजा प्रसाद द्विवेदी सत्यदेव पूर्णसिंह सत्यदेव गणेशशंकर विद्यार्थी लिंग-सम्बन्धी संशोधन लेखक प्रमथनाथ भट्टाचाय " टिड्डा दल " अमेरिका की स्त्रिया "> श्राश्चयजनक घटी शरद्विलास राजनीति विज्ञान कन्यादान अमेरिका भ्रमण ( ५ ) श्रात्मोत्सर्ग राजपूतनी " रचना . . ቦ த ก KA ४ पुष्ठ 4 कुछ 14 १६०६ १६०८८ १६०६ १८०६ १११ L wwwbaccaraka मन् १६०६ 1 २२५ / Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन वीमा एक अशर्फीकी प्रात्मकहानी १६०६ वाटसनरायण तिवारी क शुद्धि तक्षशिला वैमी बनी रही। तक्षशिला वैमाही ''बनारहा चलती ममय चलते समय मजु श्रीविद्या के देवता है | मंजु श्री विद्याकी देवता है| अाठवें शताव्दी आठवीं शताब्दी * श्रीर की ओर मिश्र बन्धु शव" थी. शव""था वैकटेशनरायण तिवारी बदौलत की बदौलत हमारे सन्तान हमारी सन्तान काशीप्रमाद जयमवाल एमी ममय ऐसे ममय गिरिजाप्रसाद द्विवेदी की मामय का मामध्य रामचन्द्र शुक्ल की लालच का लालच के अवस्था की अवस्था पूर्णसिंह अपनी माता पिता अपने माता-पिता मीठी सुरा | मीठे मुग सत्यदेव चल नहीं रहता धल नहीं उहती १६८८ हमाग सम्बत शरद्विलाम कविता क्या है १६८६ कन्यादान । अमेरिका भ्रमण (५) Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्यदेव गणेशश कर विद्यार्थी गिरजाप्रसाद द्विवेदी अनारा न. .., यात्मोत्सर्ग भारतीय दर्शन शास्त्र । - के रनायु चमा था चर्चा थी एम) मदान्ध्र एस मदान्ध अहिल्या का पापागा देह | अहल्या की पापागा देव को स्नायु पूर्वजा के पूजा पूर्वजों की पूजा अपनी भाग्य अपना भाग्य মামু * একা। शत्रु की प्रजा म पहितानी) कोठीका यादीही .."कोठरी की कैदी है श्री मती बंग महिला मिश्रबन्धु टोडा जाति विज्ञापनों की धूम साजधर्म । पंडित और पंडितानी १६०४ १६०३ १६०४ | गिरजादत्त बाजपेई Ldaum. mannaavedanwrg. urvwww MAAN 0 was ... वचन सम्बन्धी संशोधन { scà Imag e s ... ra+ TER - P ANNAPaamananamane a -- Feman मूल संशोधित रूप * लेखक पृष्ट सन ANSacard anuaNAARLearwimmaasaanम ग र REPETNM | मिश्रबन्धु | जीवन बीमा - - - सीमाना व रह रूपया यह नहीं सोचते जितनी स्त्री समाज है या सब बातें यह दोनों -- बाधा बीमा बारह रूपये वे नहीं सोचते | जितने स्त्री समाज है ये सब बातें ये दोनों | अनेक बाधाएँ | सत्यदेव न्याय और दया अमेरिका की स्त्रियाँ आश्चर्यजनक घटी - - गोविन्द बल्लभ पत । कृषि-सुधार १९०६ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राश्चचजनक य. अमेरिका में विद्यार्थी जीवन राजनीति-विज्ञान मम्ची बीरता कवित्ता क्या है? राखी बन्द भाई कन्यादान यद सब लाग ये सब लाग यद जितनी एशोसिएशन के जितनी एशानियेशन । बन रहीं हैं चल रही है। कानूनक क्या अर्धा मकन है। कानून का क्यान्अर्थ हो सकता मन्दरी कन्दरा पूर्णसिंह लालचराधमकी मीही जनग लालचया धमकी ऐसी है भिमस रामचन्द्र शुक्ल या योद्धाश्री अन्दाबन जाल वर्ग न्य है यह नैन धन्य हैं वे नयन पूर्णसिंह रद्द ..... कहानियो । जिसमें | "कहानिया जिनमें या कम..". वे किसक...... मन का मन को यह मजदूर लोग थ । ये मजदूर लागध मत्यदेव ना टया चादियों इतना ही रूपया लगा है इतने ही झपथ लग है पाठक गण पाठक यह लोग ये लोग श्री वग महिला यह बढती वे बढ़ाती गिरजादत्त बाजपई - - अमरिका भ्रमण (५) they - १६८७ शिकागो का रविवार टोड़ा जाति पंडित और पंडितानी Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गजपूतना له मिण बन्धु 11 जीवन बीमा एक अशरफीकी आत्मकहानी न्याय पोर दया م १६.०८ ع अमरिका की स्त्रियाँ ه ه शर में रगटने लगा शरीर स. 'गाइने गगा पगथ नाथ महानाय प में "भूपित कर | — भेष मे भूपित कर । ज म दन का जन्मदिन पर भ ग को वर्णन करूगी भागका वर्णन करूगी वकश नारायण तिवारी जा भर को कालापानी | जन्म गरके लिए कालापानी | मिश्रबन्धु मागता है भागता है महराकर कहा मझ मे कहा मत्यदेव सत्ता में संक्षेप में मरान कह चूक में कर चुका गरेम मुझरो मझ बाला मुझम बोला इन लागी के मत में । इन लाग के मत म लक्ष्मीधर बाजाची , भाग 'हमारे वैद्यक वैद्यक के भी है भी है शास्त्र के ही मरीन पर न ही शास्त्र ही के भगेसे न रह परिपक्य दशा में पहुँच गयाया परपश्य दशाको पहुँच गया था यजन का कहा बजाने के लिए कहा काशीप्रसाद जायगवान अमरिकाके खेतों पर मेरे कुछ दिन | ع » हमारा वैद्यन शास्त्र چه سع الله عو महाराजा बनारस का कुत्रा کر Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम अमरिका में विद्यार्थी जीवन राजनीति-विज्ञान पूर्णसिह सच्ची वीरता mamme १ राखी बन्द भाई कन्यादान इमको सत्यदेव हम लोगांने सीखनी है । हम लोगों की सीग्वनी है। बोलने ग स्वतत्रता बालने की स्वतंत्रता | मत्यदेव उसको उस तिनका की तरह तिनके की तरह कमानी म बाटा जाय किसाना का बाटा जाय ग्नवास को ले गये | रनवास में ले गये वृन्दावनलाल वर्मा २रा का रमरण करना धारा का रमरण करना | पूर्णसिह अवस्था को अनुभव करता है| अवस्थाका अनुभव करता है | माता पिता के घर को छोड़कर माता पिता का घर छोड़कर सभी जाती की पूजा करने | सभी जाति की पूजा करने कमीनापन के लालची से कमीनपन के लालचो से प धरा मे खुदी हुई पत्थरों पर खुदी हुई कन्या के हॉश कंगना बान्ध | कन्या के हाथ में कंकरण बाधा देता है | देता है योगी के हाथों को कोई | योगी के हाथों पर चाहे... ! कुछ करे करे गायन का आये हैं । देखने आये है गिरिधर शर्मा मेस दर जाना है मम दर जाना है सत्यदेव २२० । - - MAMANDopapa - १ प्राचीन भारत में राज्याभिषेक । । अमेरिका भ्रमण (५) Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेरिका भ्रमण (५) १६१२ यात्मोत्सर्ग | भारतीय दर्शन शास्त्र श्र पके पसन्द है अापको पसन्द है सत्यदेव म पर तीम लाग्न इमम तीस लाख ना बस के नहीं है जो "वश में नहीं है । उदरता को सिद्ध किया | उद्दडता सिद्ध की * घर में पहुँच कर कोवर पहुँच कर अनुराध पर अनुरोध से जानने के उत्सुक थे जानने को उत्सुक थे माहस होना परमावश्यक है माहस का होना परमावश्यक है| गणेशशकर विद्यार्थी गणों को होते हुये गुणों के होते हुए मिथिला से न्याय दर्शन का | मिथिला में न्याय दर्शन'.. | गिरिजाप्रमाद द्विवेदी अध्ययन करके माल्य दर्शन के आधार से माग्व्य दर्शनके आधार पर याय दर्शन बना है उसकी वृति बनाई । उस पर पनि बनाई शान के साथ में नाम, रूप" | ज्ञान के साथ नाम और रूप सन्य प्रभु के मत से जन्म, | चैतन्य प्रभु के मत मे जन्म | जमातर को पाकर जन्मान्तर पाकर स्नायु में श्राघान होने पर | स्नायु पर श्राधात होने से न टका को अतिरिक्ष नाटको को छाइकर सत्यदेव प्राधी सख्या हमारे देश | श्राधी संख्या हमारे देश में । + मूर्या स्त्रियों की है मर्मा स्त्रियां की है [ २३१ ] शिकागो का रविवार Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरेक ममृतादि विद्यऽभ्यास अन्तस्करण भाग्य उदय हुब परम अवस्था नई अध्यास वर प्रामदे में मूल भारत शासन की बागडोर व युरागी श्रद्धांग वायु मृत प्रविकृत हर एक मुश्रुत श्रादि विद्याभ्यास अन्तःकरणा भाग्योदय हुआ परमावस्था देहाभ्यास बरामदे मे गोविन्द बल्लभ पंत लक्ष्मीधर बाजपेई सत्यदेव पूर्णसिह 93 Sp सत्यदेव समास-सम्बन्धी संशाधन सशोधित रूप लेखक भारत के शासन की बागडोर | वेंकटेश नारायण तिवारी वायु के रोगी लक्ष्मीधर बाजपेयी श्रद्ध वायु में मृत विकारहीन #3 13 कृषि सुधार हमारा वैद्यक शास्त्र राजनीति-विज्ञान सच्ची वीरता 33 कन्यादान 鲱 अमेरिका भ्रमण | वचना एक अशरफी की आत्मकहानी हमारा वैद्यक शास्त्र " " DV ✰✰ CU मि १२ ११ पृष्ठ ४ ५ १६०८ १६. ०६ + भ * १६११ सन १६०६ १६.०८ 13 | २३० । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकाधिक कविताम्राग नमलीन हो गई एकराय हुए म्य श्री के उपवास निर्णा इच्छाश्री निषाण का लाभ हाता मूल अतीत कीजिए एकत्रित उप श्य अनपहचान पाला अमीत हो गया हे एक में अधिक कविता द्वारा नल में लीन हो गई एक मत हुए सम्न्रीक उपवास निर्दोष कुत्सित इच्छात्रा निर्वाण लाभ होता हैं संशोधित रूप व्यतीत कीजिए एकत्र उह श पहचान कापालिक श्रजेय ... बाबूराव विष्णु पराडकर रामचन्द्र शुक पूर्णसिंह गिरिधर शर्मा 33 सत्यदेव गणेशशंकर विद्यार्थी गिरिजाप्रसाद द्विवेदी c उपसर्ग-प्रत्यय सम्बन्धी संशोधन लेखक सूर्यनारायण दीक्षित प्रमथनाथ मट्टाचार्य मत्यदेव पूर्णसिह }} वररुचि का समय कविता क्या है कन्यादान प्राचीन भारतमे राज्याभिषेक " अमेरिका भ्रमण |४| श्रात्मोत्सर्ग भारतीय दर्शन चन्द्रहास का उपाख्यान राजपूतनी अमेरिका की स्त्रियाँ सच्ची वीरता " रचना " ४ 13 ४ ४ पत्र १६०६ १६११ " 99 23 " : 39 सन् १६०६ " १६०८ १६०६ [ २३३ لا Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ای चेतनता श्राव्यात्मिक रामचन्द्र शुक्ल | पूर्णसिह कविता क्या है कन्यादान به سه प्रज्वलित مه महत्ता H AC > علم + و प्रज्वलित सम्मति भद्रा-रमणी चैतन्य | पुस्तकों का..' • चतन - गिरिधर शर्मा सत्यदेव बदरीनाथ भट्ट प्राचीन भारत में राज्याभिषेक अमेरिका-भ्रमण १५१ महाकवि मिल्टन عر عر [ २६४ ] घि माग । वाशिंगटन को - विभक्त" सत्यदेव अमेरिका-नमगा ३१ ا - - गणेशशंकर विद्याभी अात्मोत्सर्ग - . eatmentation له उत्पत्ति नाहुत हो गए पीटर्स वर्ग की घोषणा श्यासवर्ग - " - मिश्रबन्धु सेंट निहालसिह राजधर्म पाताल देश के 'हवनी... - -- Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म पैदा हुए" सक्वन क शाम मोहिनी सी रम भरी लोग मार कर घाड़े पर चढ़ दुसरी को (ऊर रत्न के प्रति ) दूसरे को वहाँ न देखी श्री ...म ये पदा हुए इकठ्ठा करके इनमें एक मोहनी शक्ति सी रम से गरो हुई लोग उन्हें मार कर FA मूल अक्षुराण यशः शरीर यद्यपि किन्तु वह घोड़े पर चढ़कर वहा मैने न देखी थी काशीप्रमाद संशोधित रूप अक्षय्य यशः शरीर यद्यपि तथापि " " सूर्यनारायन दीक्षित मिश्रबन्धु कथन सुन कथन सुनकर द में मानवहृदय पर किसका मानव हृदयपरदान से किसका रामचन्द्र शुक्ल " लाला पार्वतीनन्दन सत्यदेव योग्यता सम्बन्धी संशोधन लेखक काशीप्रसाद एफ० एस० ग्राउस " ވ "" टिड्डीदल चन्द्रहास का उपाख्यान एक के दो दो आश्चर्यजनक घटी न्याय और दया कविता क्या है रचना एफ० एस० ग्राउस *F 1 १ 달콤 १५. १५ १६०६ 健 "D 23 " " 53 १६० כ$ १६०६ | सन् १६०६ " [ २३५ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAMADAI शन | अपशकुन सूर्यनारायन दीक्षित । चन्द्रहास का उपाख्यान लाग ये लोग मधमंगल मिश्र एकहीं शरीर मे अनेक आत्माएँ। स्त्री कुमारिका चित्र 'जागृत है चित्र विद्यमान है प्रमथनाथ मट्टावाय | राजपूतनी पाणयारी प्रियतमा बैंकटेश नारायण तिवारी एक अशरफीकी प्रात्मकहानी घटी बहुत प्यारी मालूम हुई घटी बहुत पमद अाई मत्यदेव श्राश्चयजनक घटी घटी को याग देग्वा है घटी पहले कभी देखी है। कात्पिति कार्य प्रवृति रामचन्द्र शुक्ल कविता क्या है चजला को गज पार चम- बिजली की गज और पूर्णसिद्ध चमक है कुटील कुटिलतापूर्ण स्यहरात खडहग विवाह वाली प्राय कन्या पतिवरा मनृप्यातोत परिश्रम मनुष्यातिगपरिश्रम बदरीनाथ भट्ट महाकवि मिल्टन विचारों में लिप्त बैठा था । विचारों में मग्न सत्यदेव अमेरिका भ्रमण ।४। कन्यादान maam a nammaNayaNETamrpa AADHunuwar-OPER ARRIA Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड़ा १६०६ - ywwwvar war or यह दून्ट निराश हो त्यागना | निगश हाकर यह निदि काशीप्रसाद फस sm छोड़ना पड़ा अपने मान कलेक्टर का अपने कलेक्टर साहब का टिममी काय का क्षय करने कृपिका क्षय करने वालीटिडी मूर्यनारायण दीक्षित (रिड्डी दल वाली | उसकी शामा और मां बड चन्द्रहाम का उपाख्यान उमकी और भी शोमा बदगई | गई जीवन का बिना अन्त किये | जीवन का अन्त किए बिना पर लकड़ी का टुकड़ा लकबी का एक टुकड़ा । शुरुदेव तिवारी गुरुत्वाकर्षण शक्ति उतनी ही आकर्षण शक्ति मा अाकर्षण शक्ति में ना , न्यूनसा हो जाती है । न्यूनता हो जाती है भारतका प्राचीन विश्वविद्यालय प्राचीन भारत के विश्वविद्यालय कटेश नारायण तिवारी प्राचीन भारतके विश्वविद्यालय मूल या सिन्हात था मूल सिद्धांत यह था बिम्पसार मगध नरेश मगध-नरेश बिम्बसार सस्कान रुपया कम्पनी को तत्काल कम्पनी को मपया मिश्रबन्ध जीवन बीमा श्रदा करना पड़े अदा करना पड़े शर र शान यथार्थ यथार्थ शरीर ज्ञान लक्ष्मीधर बाजयो हमारा बंद्यक शास्त्र हमारे मे ही विचार है हमारे विचार वैसे ही है। शास्त्रा की हमारे देश में | शास्त्रों की उन्नति हमारे । में. । २३७ । - १ - Hamw - १६०८ A - १६०८ MAR १६.८ -- Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्राश्चयजनक पदा अमेरिका में विद्यार्थी जीवन राजनीति विज्ञान १९०६ सागर 14.11 बात अपनी का पूरा निश्चय तन-1 किसने जगाया | जगाया किसने लेखक कैसे पैदा हों लेवक पैदा कैमे हाँ पेसे सभी सभी पेसे हानि समाज की ही है समाज ही की हानि है। ''आदि ऐसे ही शब्द है | .."अादि शब्द ऐसे ही है । रामचन्द्र शुक्ल उनसे चलते समय भेंट कर | चलते समय उनसे भेट कर । सत्यदेव परिणाम इसका | इसका परिणाम एक अंग्रेजी में अखबार | अनजी म एक अखबार आप एक की मिसाल से एक आपकी मिसाल से बहुत से हमारे पाठक हमारे बहुत से पाठक हमारा इससमय क्या कर्तव्य इस समय हमारा क्या । कर्तव्य है प्रथम इसके कि इसके प्रथम कि रामचन्द्र शुक्ल मागीण सब सब ग्रामीण कविता क्या है अमेरिका-भ्रमण 11 1४1 . . . .. प *. शिकागों का रविवार ग्यारह वर्ष का समय Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋभारका का नया home श्राश्चर्यजनक घंटी । अमेरिकाके खेती पर मेरे कुछ दिन २० । देश के न्यान देने योग्त कुछ बाते हवादार मकान शहर म। हवादार भकान शहर म बने । सत्यदेव पनवाये हुये है हुए है । कोई वस्तु चोरी हुई है । कोई चीज चोरी गई है । पसे इस प्रकार म्लाई करत चले इस प्रकार खड़े कियेजाते थे उनको भी काटा गया वे भी काटे गए इन विद्यार्थियों को अयापका ये विद्यार्थी अध्यापक बनाये बनाया जावे। जॉय यहाँ कुछ चोरी नहीं हुवा यहाँ कुछ चोरी नहीं गया इस खत को अमरीकन | यह खेत श्रमरीकन बना | पना दिया है दिया गया है पासवत होनी थी । बातचीत होने की थी पृष्ठों का माग्ना देवकर | दुष्टों को मारा जाना देखकर रामचन्द्र शुक्ल इसे स्नानागार में लाया | वट् स्नानागार मे लाया | गिरिधर शर्मा जाता जाता उद बालकों को रखा । उईड' बालक रवखे जाते हैं | सत्यदेव जाता है उन लड़को को लिया जाता वे लड़के लिये जाते हैं आश्चर्यजनक घंटी अमरिका मे विद्यार्थि-जीवन [ २३६ ] - १६०६ कविता क्या है प्राचीन भारत में राज्याभिषेक अमेरिका भ्रमण । ३ " Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेरिका-भ्रमण (४) उनका माणिक कीमतो था । हमारा माणिक कामता है । घहाँ पहुँचे तो देखते क्या हैं । वहा पहुंचे तो देखते क्या हैं | सत्यदेव कि पाच चार जने शराब के कि चार पांच अादमी नशे नशे में गुट्ट थे में चूर हैं उनको समझाया कि यदि उनको समझाया कि तुममे । उनमे कोई मागे कोई मांगे " [ ox7 मुहावरों का संशोधन लेखक संशोधित रूप सन् काशी प्रसाद एफ एस. ग्राउस विषय को छुबा" 'काम को उठा युक्ति विचारी सीधे पड़े . बच्चा नादमी पो हुई । विप्रथम हाथ लगाया .. काम को प्रारम्भ किया युक्ति निकाली चित लेटे बालक जान पड़ी RA सूर्यनारायण दीक्षित मधुमंगल मिन चन्द्रहास का उपाख्यान एक हो शरीर में अनेक प्रात्माएँ, ४ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काँखे खोली श्रखे दिलाई नाम का हिज्जे किया नाम बतलाया यह प्राश्चर्यित हुया परिचय जान सकते है उसे आश्चर्य हुआ परिचय पा सकती हूँ तीच ऊँच लगी हो रहती है। सुख दुख का जोड़ा है पत्र के पढने पर पत्र पढने पर आप को क्या काम है मूर्ति के आगे झुक गया ठडी सॉस भरी सष्ठि के बीच अपनी आँखो से देखा है प्रियावर पुत्री के विवाह को देखने धूल में उड़ गय महनत फल लावेगी शराब का दौर लगा रहे हैं उनमें से होकर निकल जाना श्राप क्या चाहते हैं मूर्ति को प्रणाम किया ठंडी सास ली सष्टि में अपनी आँखो देखा है प्रियतमा पुत्री का विवाह देखने धूल में मिल गए परिश्रम सफल होगा मधुमंगल मिश्र 事 3.3 प्रमथनाथ भट्टाचाय वेंकटेश नारायण तिवारी सत्यदेव " रामचन्द्र शुक्ल पूर्ण सिंह " 33 71 बदरीनाथ भट्ट सत्यदेव शराब का दौर चल रहा है उनके बीच से होकर निकल गणेश शंकर विद्यार्थी जाना " एक हो शरीर म अनेक श्रात्माए राजपूतनी एक अशरफी को ग्रात्म कहानी }; श्राश्वयजनक घंटा 39 P " H कविता क्या है ? कन्यादान " "J आत्मोत्सर्ग महाकवि मिल्टन अमेरिका भ्रमण | ५| /४/ * Leg ५ IS 2. १५. ม ५ O ܡ ७ १४ AUT १६ ६ 5 የ } , , 805 , १६०६ 1 A १६१० J 31 13 [ २४१ ] Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | काशीप्रसाद एफ० एस० भाउस १६.०६ दशल्प विद्वान कारीगरी आजकल की सिर्फ छोड़ना xxx www लेख पहले उसके ऊपर २४२ । | वेकटेश नारायण तिवारी | एक अशरफी की श्रात्मकहानी " HO दाहिनी तरफ बाई' तरफ फल प्रायश्चित के लिए एक मात्र पुत्र स्वच्छन्दता पूर्वक স্কায় । बाहरी । उन शक्तियों के अंशभुत ot - सत्यदेव | लक्ष्मीधर बाजपेयी अमेरिका की स्त्रियाँ | हमारा वैद्यक शास्त्र Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । लक्ष्मीधर बाजपेयो हमारा पद्यक शास्त्र मयथैव अर्वाचीन प्रचारार्थ वैराग्यवान् द्रव्यगत सौन्दर्य । बिल्कुल ही नबीन प्रचार के लिए विरत पार्थिव सौन्दर्य AAAA - सत्यदेव देश के ध्यान देने योग्य बातें पूर्णसिह सच्ची वीरता समचन्द्र शुक्ल कविता क्या है ? अरबी-फारसी शब्दों के स्थानापन्न शब्द - -DAI wam wmummonuma r immunadaenter M arasinium morea-aal मूल सशोधित रूप लेखक रचना S सन् Mamme ma m amudana Padmaavadanandacinema १९०६ । २४३ ] apana अंगरेजी दा ज्यादः गुजर राया म्यान प्राईन हुनर की तरक्की कद दरम्यान हे अगरेजी जानने वाले बहुत बीत गया खयाल कानून | कला-कौशल की उन्नति | कद मंझोला है कर्तव्य प्रयोग उदाहरण । काशीप्रसाद रसूर्यनारायण दीक्षित टेश नारायण तिवारी सत्यदेव मिश्रबन्धु सत्यदेव १६०८ एफ. एस. ग्राउस चिन्द्रहास का उपाख्यान एक अशरफी की श्रात्मकहानी । आश्चर्यजनक घंटी . . न्याय और दया अमेरिका की स्त्रियों अमेरिकाके खेतों पर मेरे कुछदिन देश के ध्यान देने योग्य कुछ बाते - तमाल show मनाला राजनाति के विज्ञान १६०६ । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m मस्टर बीम्म यूनीवर्सिटी बास बीम्स माहब विश्वविद्यालय वाशीप्रमाद मधुमगल मिश्र माधवराव माने सत्यदेव एफ एस० ग्राटस एक ही शरीर में अनेक अात्माएँ स्वर्गीय आनन्द मोहन वसु श्राश्चर्यजनक घटी अमेरिका की स्त्रियाँ ar ar a वसु कुमारी मामिक पुस्तका मिम मैगजिन टेक्स प्रारटिस्टिक राजनीति विज्ञान मच्ची वीरता * w w wl | कौशलमयों पूर्णसिंह - अन्य शब्दों के संशोधन अब तक | मधुगगल मिश्र २६०६ एक ही शरीर मनक प्रान्माएँ। अब लो या जय लौ"तब लौं या - जब तक सत्र तक इम में १६०८ मिश्रबन्धु सत्यदेव पाखें उपाहो जय"तो एक जना दिखायी गयी है न्याय और दया अमेरिका की स्त्रियाँ अमेरिकाके खेतों पर मेरे कछदिना शिकागो का रविवार श्राव वाला | जब तब एक आदमी दिखा य गया है wamm ०६ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४५ परिशिष्ट संख्य ५ म दा लई संशोधित लेख की प्रतिनिपि उनक मशोधन कार्य की और भी स्पष्ट कर देगी। स्वयं श्रान्त हो जाने पर वे मैथिलीशरण गुप्त आदि के द्वारा 'सरस्वती' को की भ्रष्ट मापा का सुधार करते थे । इसकी चर्चा 'सरस्वती-सम्पादन' अध्याय में हो चुकी है । श्राचार्य द्विवेदी जी पत्री और सम्भाषणों में नी भाषा-संस्कार का उद्योग करते थे । एक बार मैथिलीशरण गुन की 'कोमाष्टक' तुकबन्दी पर क्षुब्ध होकर उन्हें पत्र में लिखा "हम लोग सिद्ध कवि नही । बहुत परिश्रम और विचारपूर्वक लिने ने ही हमारे पढने योग्य बन पाते हैं। आप दो बातों में से एक भी नहीं करना चाहते हैं । कुछ लिख कर उसे छपा देना ही आपका उद्देश्य जान पड़ता है । आपने 'कोष्टक थोड़े ही समय मे लिखा होगा, परन्तु उसे ठीक करने के हमारे चार घंटे लग गये। पहला ही पद्म लीजिये - होवे तुरन्त उनकी बलहीन काया जानें न वे तनिक भी अपना पराया हावे विवेक र बुद्धि विहीन पर रेकी, जोजन करें तुमको कदापि आप को को आशीर्वाद दे रहे है जो आपने ऐसी क्रियाओं का प्रयोग किया ? इसे हम अवश्य 'मरस्वती में छापेंगे परन्तु आगे से आप मरस्वती के लिए लिखना चाहें ता इधर-उधर अपनी कविताएं छापने का विचार छोड दीजिए। जिस कविता को हम चाहे उसे छायेंगे | जिने न चाहे उसे न कही दूसरी जगह छपाइए, न किसी को दिखाइए । ताले मे बन्द करके रखिए " 1 पंडित विश्वम्भर नाथ शर्मा कौशिक की तीन-चार कहानिया तथा लेख प्रकाशित करने के बाद एक बार वार्तालाप के सिलसिले में द्विवेदी जो ने उनसे कहा- ' 'मरस्वती' व्यान में नहीं पढ़ते । पढते हा तो 'सरस्वती' की लेखन शैली की श्रर आपका ध्यान अवश्य जाता । 'सरस्वती' की अपनी निजी लेग्नन शैली है। वह में आप को बताता हूँ | देखिये लेने के अर्थ में जब लिये शब्द लिखा जाता है तब यकार से लिखा जाता है और जब विनक्ति के रूप में खाता है तब एकार मे लिखा जाता है। जा " सरस्वती भाग ४ स. २ प्र २०० Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ । शब्द एक बचन म यमार त रहत हे व बहुवचन में भी यकारान्त ही रहेगे जैस किया किये , 'गया-गये' पर तु स्त्री लिग में गयी' न लिखकर ईकार स 'बाई' लिखा जाता है 'कहिए', 'चाहिए', देखिए' इत्यादि में एकार लिखा जाता है। अकारान्त शब्दो का बहुवचन एकारान्त होता हैं । जैसे 'हुना' का बहुवचन 'हुए' । जहाँ पूरा अनुस्वार बोले वहाँ अनुस्वार लगाया जाता है । जैसे 'संस्कार' और जहा अाधा अनुस्वार, जिसे उर्दू में नूनगुन्ना कहते हैं, बोले वहा चन्द्रविन्दु लगाया जाता है जैसे काँपना । सम्भव है, मेरी इस शैली से श्रापका मतभेद हो, परन्तु प्रार्थना यह है कि 'मरस्वती' के लिए जब लिखिए तब इन बातो का ध्यान रखिए।" अपने लेखों और वक्तव्यो मे उन्होने समय-समय पर अपने भाषा सम्बन्धी विचारों की अभिव्यक्ति की है। हिन्दी की वर्तमान अवस्था'२ में उमकी शब्द-ग्राहकता पर लिखा था "अाज कल कुछ लेखक तो ऐमी हिन्दी लिखते हैं जिसमें संस्कृत शब्दो की प्रचुरता रहती है । कुछ संस्कृत, अंग्रेजी, फारसी, अरबो सभी भाषाओं के प्रचलित शब्दों का प्रयोग करते हैं। कुछ विदेशीय शब्दो का बिलकुल ही प्रयोग नहीं करते, ढूढ-ढूढ कर ठेठ हिन्दी शब्द काम में लाते है । मेरी गय मे शब्द चाहे जिस भाषा के हो, यदि वे प्रचलित शब्द हैं और सब कहीं बोलचाल में प्राते हैं तो उन्हें हिन्दी के शब्द-समूह के बाहर समझना भूल है। उनके प्रयोग से हिन्दी की कोई हानि नहीं, प्रत्युत लाभ है । अरबी, फारसी के मैकडो शब्द ऐसे हैं जिनको अपढ श्रादमी तक बोलते हैं । उनका बहिष्कार किसी प्रकार सम्भव नहीं ।" साहित्य सम्मेलन (कानपुर अधिवेशन ) में स्वागताध्यक्ष पद मे दिये गए भाषण में भी उन्होंने हिन्दी की इस ग्राहिवाशक्ति का मंडन किया । 3 अपने उसी भाषण में उन्होंने हिन्दी भाषा और व्याकरण के अनेक विवाद-ग्रस्त विषयों का भी स्पष्टीकरण किया । ४ कारक-विभक्तियों के सम्बन्ध में उनका वक्तव्य था कि जिस शब्द के साथ जिस विभक्ति का योग होता है वह उसी का अंश हो जाती हैं। यह सन्य है, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि विभक्तियो को शब्दों से जोड़ कर लिखा जाय । १. 'सरस्वती' भाग ४०, संख्या २, पृ० ११२ । २. 'सरस्वती' भाग १२, संख्या १०, पृ. ४७३। ३ साहित्य सम्मेलन के कानपुर अधिवेशन में . साहित्य सम्मेलन के कानपुर अधिवेशन में पद से भाषण पृ. ४६ ५० पद से माषमा ५ से ६१ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २४७ ] सस्कृत व्याकरण में भी स नियम का निर्देश नही उसमें विभक्तिया प्रथक रह ही नहीं सक्ती क्याकि उनकी मन्धि से शब्दो में विकार उत्पन्न हो जाते हैं। परन्तु हिन्दी में ऐसी बात नही । विभक्तियों को सटा कर या हटाकर लिखना रूढि, शैली या सुभीते का विषय है, व्याकरण का नहीं । शब्द अलग-अलग होने मे पढ़ने में सुभीता होता है, भ्रम की सम्भावना कम रह जाती है। अतः विभक्तियों का अलग लिखना ही अधिक श्रेयस्कर है। व्याकरण का कार्य केवल इतना ही है कि भाषा प्रयोगो की संगति मात्र लगा दे। उसे विधान बनाने का कोई अधिकार नही । अपप्रयोग तभी तक माना जा सकता है जब तक भ्रम या अजान के यशवर्ती होकर, कुछ ही जन किसी शब्द, वाक्य, मुहावरे आदि को प्रचलित रीति के प्रतिकूल बोलते या लिग्बने है ! अधिक जन-समुदाय, शिष्ट लेखको या वक्ताओं द्वारा प्रयुक्त होने पर वही माधु प्रयोग हो जाता है । शब्दो का लिग भी प्रयोग पर ही अवलंवित है ! जन्य मंस्कृत में 'दारा' शब्द पुल्लिग मे और अंग्रेजी में देशों के नाम स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होते हैं तब प्रयोगानुमार हिन्दी मे 'दहा शब्द मी उभयलिगो हो सकता है। हिन्दी के कुछ हितेपी चाहते हैं कि क्रियाओं के रूप में मादृश्य रहे । वे 'गया' का स्त्रीलिग ‘गयी' चाहते हैं, 'गडे' नहीं । कुछ लोग ‘लिया' और 'दिया' का स्त्रीलिग लिई' और 'दिई' चाहते हैं, 'ली' और 'दी' नहीं। सरलता के कुछ पक्षपातियों की राय है कि क्रियानो को लिग-भेद के झमेले मे एकदम ही मुक्त कर दिया जाय । परन्तु वकानी का मह और लेखकों की लेग्वनी बग्यावरण बन्द नहीं कर सकते । द्विवेदी जी की प्रारंभिक रचनायो की रीति और शैली' भी उनके भाषा प्रयोगो की । ही भाँनि चित्य है । शब्दो को योजना में वे एक अोर तो मंस्कृत ने और दूसरी ओर अरबीफारमी-मिश्रित उर्दू में बुरी तरह प्रभावित हैं। कहीं-कहीं तो अनेक भाषाओं के शब्दा की विचित्र वि चडी रेल-यात्रा या बाजार के योग्य होते हुए भी साहित्यिक रचनाओं में अत्यन्त अमुन्दर ऊंचती है। रोमन, बारनिरा, नम्बर. लैम्प, वेहिमाब, मरहम, वकील, कैंची, बटन, मोजा, फीता, नमूना अादि शब्द हिन्दी में खप गए हैं और उनका प्रयोग सर्वथा संगत है, परन्तु क्रिश्चियन (बे वि. र. ३), क्राइस्ट (वे. वि. र. १), फुटनोट्स (वे. वि र. भू ७), पैराग्राफ (हि. शि. तृ. भा. स. २८), आदि एवं स्वाधीनता' में प्रयुक्त जरूरत (१) शाइस्तगौ (२) दारमदार (E) जमात (१४) तहम्मुल (१६), मुस्तसना (२३।, ग्वयालात (२७,) मदाखिलत (२६), तकरीर (३४), पेशबन्दो (३५) आदि का प्रयोग हिन्दी के प्रति सरासर अत्याचार है। यह १ रीति पद-रचना की प्रयाली और श धर्म है Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४८ ता फुट कर शब्दों का उदाहरण हा निम्न कित अवच्छेद तो उदू ही है "कागजी रुपये से सम्बन्ध रखने वाले महकमे का काम काज चलाने के लिये एक कानून है । उसका नाम है एक्ट २ जो १६१० ईस्वी में पाम हुआ था। उसके पहले भी कानून था। पर १६१० ईस्वी में वह फिर से पाम किया गया, क्योंकि पहले के कानून मे कुछ रहोवदल करना था। इसी कानून की रू में इस महकमे का मारा काम होता है। ....... ....... ..... ..... ................. १६२७ ईश्वी में गवर्नमेंट ने एक और कानून बना कर एक्ट २ में कुछ तरमीम कर दी है। अपने पत्रों में भी कहीं-कहीं फारमी की छारसी उडाने में उन्होंने चमत्कार दिखाया है, यथा 'अदालत प्रालिया में मुकदमाजेर तजबीज या२ कुछ शब्दो के समर्थन में यह कहा जा सकता है कि वे हिन्दी समाज में व्यवहृत होते हैं, परन्तु हिन्दी-जनता मे प्रचलित तद्भव और द्विवेदी जी द्वारा प्रयुक्त तत्सम स्पा का समुचित निरीक्षण इस भ्रान्ति को दूर कर देगा । हिन्दी ने 'कागज', 'कानून', 'जरूरत', 'जवान', 'कबूल' श्रादि को अपनाया है, 'काग़ज', 'कानून', 'जरूरत', 'जवान', या 'कबूल' आदि को नहीं । द्विवेदी जी को चाहिए था कि उद् शब्दो के ग्रहण में गोस्वामी तुलमीदास जी की आदर्श-पद्धति पर अनुगमन करत ३ उनकी हिन्दी की पहली किताब की भाषा राजा शिवप्रसाद और वर्तमान रडियो की हिन्दुस्तानी की अपेक्षा कम उर्दू-ए-मुअल्ला नहीं है। उसके निम्नाकित नामवाचक विवरण में प्रयुक्त 'सूबह 'मदरसो', 'दफन,' 'मुत्राफिक', 'रोज़मर्रः' आदि शब्द किसी मुल्ला या मौलवी को बागी की शोभा निस्सन्देह बढ़ा सकते हैं, परन्तु द्विवेदी जी की नहीं “हिन्दी की पहली किताब १. शैली भावाभिव्यंजन की प्रणाली और अर्थ धर्म है। २. पद्मसिंह शर्मा को पत्र 'सरस्वती', दिसम्बर, १९४० ई० ३. तुलसीदास जी ने भी विदेशी शब्दों को अपनाया है, परन्तु उनकी शुद्धि करकेसस्य कहहुँ लिखि कागद कोरे। -रामचरित मानस रापरी पिमा म सरीकता कहा रही Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ जिम मुबह अागरा व अवध के मदरमा की प्रिरेटरी गवनेमन्ट रेजोल्यूशन न........ ....ता० १६ मई १६०३ ई. के मुश्राफ़िक, हिन्दुस्तानिया की रोज़मर्गः की बोली में पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बनाया । देवनागरी लिपि में लिखित इस उद पुस्तक में 'अक्षर', 'ईश्वर', 'भोजपत्र', 'विद्या' 'श्रम' और 'समुद्र' को छोडकर संस्कृत हिन्दी शब्दों का बहिष्कार किया गया है । ये भी वाव्य होकर लिखे गए हैं क्योकि उदाहरणार्थ 'क्ष', 'त्र', 'द्य', 'श्र' और 'द्र' का प्रयोग करना अनिवार्य था । पुस्तक भर में 'सदा', 'दुःस्व', 'टंड', 'श्राकाश', और 'पाठशाला या विद्यालय', 'बार', 'सुन्दर', 'बहुत', 'भारतवर्ष', 'बलवान', 'हानि', 'लाज', 'क्रोध'. 'दया', 'मृर्व 'मधुमकावी', 'बिना', 'विद्या', 'जीवन भर', 'मगय', 'शरीर' 'मामा जा नमस्ते' आदि के स्थान पर क्रमशः 'हमंशा', 'तकलीफ', 'सजा', 'श्राममान', 'तरफ्', 'मदरमा', 'दफा', 'खूबसूरत', 'जियादा', 'हिन्दुस्तान', 'ताकतवर', 'नुकसान', 'शरम', गुस्सा', 'रहम', 'ववक्रम', या 'कम अवल', 'शहद की सबबी', 'बगेर', 'इल्म', 'उमर मर', 'वक्त', 'बदन', 'माम साहब मलाम' श्रादि का ही प्रयोग हुश्रा है । इस पुस्तक में अरबी-फारसीपन के लिए द्विवेदी जी उत्तरदायी नहीं हैं। उनकी मूल पुस्तक की भापा हिन्दी थी, शिक्षा-विभाग के अधिकारियों ने उसका हिन्दीत्व नष्ट कर दिया है । यह बात मन्वपृष्ठ पर अन्य पुरुष के प्रयोग से भी मिद्ध हो जाती है । सम्भवतः इसी कारण द्विवेदी जी ने शिक्षा-संस्थात्री के लिए फिर कोई एस्तक नहीं लिम्बी : ____ भाषा की रीति के विषय में उनका निश्चित मत था कि हिन्दः एक जीवित भाग है। उसे किमी परिमित मीमा के भीतर श्राबद्ध करने में उसके उपचय को हानि है । दूसरों भाषाओं के शब्दो और भावों को ग्रहण कर लेने की शक्ति रखना ही सजीवता का लक्षण है। सम्पर्क के प्रभाव में हिन्दी ने अरबी, फारमी और तुकी तक के शब्द ग्रहण कर लिए हैं और अब अँगरेजी तक के शब्द ग्रहण करती जा रही है । इममें हिन्दी की वृद्धि है, हास नहीं । विदेशी भाव, शब्द और मुहावरे ग्रहण करने में केवल यह देखना चाहिए कि हिन्दी उन्हें पचा मकती है या नहीं, उनका प्रयोग ग्बट कता तो नहीं. वे उमकी प्रकृति के प्रतिकूल तो नहीं, हिन्दा हिन्दी ही बनी है या नहीं। मकान, मालिक, नोट, नम्बर आदि शब्द हिन्दी में खप गए है, विदेशी नहीं रहे । हा, ग्बटकने वाले मावा या मुद्दारी का प्रयोग करना ठीक नहीं । दृष्टिकोण (Angle of vision) लागू होना (to be applied) नगी प्रकृति (naked nature) यादि के प्रयोग में हिन्दी की विशेषता को पक्का पहुँचता है । १ साहित्य सम्मेलन के कानपुर अधिवेशन में दिए गए- भाषण (५० ४६ - ५६ ) के प्राधार पर Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विवटी जी ने इस सिद्धान्त का उचित पालन नहीं क्यिा इसकी समीना ऊपर हा चुकी है। सम्पादक-पद म 'सरस्वती' को लोकप्रिय बनाने क लिये व अन्य लेखका की मस्कृतपदावली के स्थान पर उर्दू शब्दो का सन्निवेश कर दिया करते थे. उदाहरणार्थ सन् ०६ मूल सशोधित लेखक रचना पृष्ठ यास्तु शिल्प मकान वगैरह बनाने काशीप्रसाद एफ० एस० साउन १ की विद्या अभ्यन्तर दरमियान मुतमौत्रल मिश्रबन्धु जीवन बीमा जाहिर काशीप्रसाद एफ.० एस० ग्राउस 8 , पश्चात् याद कदाचित् शायद अन्ततःस्वास्थ्य-श्राम्बीर में तबियत हीनता अच्छी न रहने भूमि ज़मीन क्याम उमर कुछ ही क्षण जग देर सूर्यनारायण दीक्षित टिड्डीदल . काशीप्रसाद एफ एस ग्राउस १५ सूर्यनारायण टिड्डादल दीक्षित प्रत्येक व्यक्ति हर आदमो न्याय प्रचलित कानुन जाग या , , उनके सुधार में अनेक लेखक और पाठक असन्तुष्ट थे । इन कथन की पुष्टि कामता प्रमाट गुरू के निम्नाकित पत्र मे हो जाती है. "अरबी फारमी के क्रम उपयोग के अनुरोध का सबसे बड़ा कारण यह है कि श्राप अादर्श लेखक हैं, इसलिये श्राप मापा का ऐसा रूप न देखें जो या तो पाठको को न बचें या इमारी हिन्दी को बीबी बना दे श्राप थोष्टा लिखा बहुत समझिए Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामचरित उपाध्याय. नायूराम शर्मा, मन्नन द्विवेदी. जयशंकरप्रसाद श्रादि की कविताओं प्रेमचन्द्र, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी. ज्वालादत्त शर्मा आदि की श्राख्यायिकाश्रो और पद्मसिह शर्मा, मिश्रबन्धु, गंगानाथ झा, श्यामसुन्दरदाम, रायकृष्णा माम श्रादि के लेखो का भी उन्होने यथा,स्थान सुधार किया है। ‘प्रिय प्रवाम' के प्रकाशन ( मं० १६७१ ) मे द्विवेदी-युग का उत्तराद्ध प्रारम्भ दुश्रा। उम समय बड़ीबोली काफी मॅज चुकी थी और ठाम भावों की व्यजना में समर्थ थी। अतएव वह काल स्थायी साहित्य-रन्चना करने में सफल हुआ। द्विवेदी-युग में हिन्दी वाड्मय के विविध अंगो की आशातीत अभावपूर्ति हुई । इतिहाम, भूगोल, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कृषि, गणित, विज्ञान, ज्योतिष्य आदि पर सहला ग्रन्थ लिग्वे गए । वाङमय के इन अंगो की बालोचना यहा अपेक्षित नहीं है। प्रस्तुत निबन्ध भाषा और माहित्य में ही मम्बन्ध रखता है, अतएव इमम द्विवेदी-युग के हिन्दी प्रचारका , पत्रपत्रिकाओं, कविता, नाटक, कथा-साहित्य, निबन्ध, भाषा-शैली और अालोचना की ही समीक्षा करना समोचीन प्रचार कार्य ६ जुलाई, मन् १८६३ ई. को हो काश! नागरी प्रचारिण! मभा की स्थापना हुई थी । सभा के उद्योग मे सन् १८६८ ई० में संयुक्त प्रान्त की सरकार ने अदालतों में नागरी का प्रचार ऐच्छिक कर दिया और ममन आदि के लिए नागरी और उर्दू दोनो लिपियां के प्रयोग की घोषणा की । सभा ने कचारियों में हिन्दी विद्या लेखकों की युक्ति करके उसमे लाभ उठाने का उद्योग किया । मन् १८६६ ई. में प्रान्तीय सरकार नं ४०० ० ( चार सौ रुपया ) वार्षिक की महायता देना प्रारम्भ किया और ११२१ ई. में यह सहाय ! २००० रु. नक पहुँच गई। सभा ने मैकड़ो नए कवियों और सहस्रो अज्ञात ग्रन्थों की खोज की ? १९२१ ई० मे १६२६ ई० नक के लिए पंजाब सरकार ने भी ५०० रु. की सहायता दी । गवेपरणा के माथ हो माध सभा ने 'पृथ्वीराज रामो', 'जायमी ग्रन्थावली. वैज्ञानिक-कोप'. 'हिन्दी व्याकरण' श्रादि महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन भी किया। प्रकाशनार्थ भी युक्त प्रान्त की मरकार ने कभी २०० रु० और कभी ३०. स. की महायता दी . १९१४ ई० में 'मनारंजन पुस्तकमाला' के अन्तर्गत ममा ने विविध-विषयक और मस्ती पुस्तकों का प्रकाशन प्रारम्भ किया। अपनो 'नागरी प्रचारिशी पत्रिका' के अतिरिक सरस्वती और हिन्दी साहित्य प मापन का अ य भी प्रोंक ममा को है Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयाग का दि समान अनोगट की भागावधिनी स | मरट के देव-नागरी प्रचारिणी ममा', अारा को 'नागरी प्रचारिणी मभा', कलकत्ता को 'एक लिपि विस्तार परिषद'. एवं हिन्दी साहित्य परिषद', प्रयाग की 'नागरी प्रवर्द्धिनी सभा', छत्रपुर में। 'काव्यलता सभा', जालन्धर और मैनपुरी की 'नागरी प्रचारिणी सभा', श्रादि संस्थाएँ मा देव नागरी लिपि और हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार तथा उन्नयन में लगी हुई थीं । परस्पर-विचार-विनिमय, मातृभाषा की हितचिन्तना और उसकी उन्नति के उपाय निश्चित करने के लिए काशा नागरी प्रचारणा सभा ने १८-११-१२ अक्टूबर १६१० ई. का साहित्य-मम्मेलन का योजना की उसमें हिन्दी को राष्ट्र-भाषा और देवनागर] को भारत का राष्टलिपि बनाने तथा सरकारी कार्यालयो, स्कूलों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी को उचित स्थान दिलाने के लिए अनेक प्रोजपूर्ण प्रस्ताव पास किए। सम्मेलन का दूमर अधिवेशन प्रयाग की नागरी प्रबर्द्धिनी समा' के तत्वावधान में हुआ और उसे स्थायी रूप दिया गया। सरकारी अदालतो, पत्रो, ग्लव के कायां नथा भावी हिन्दू विश्वविद्यालय म हिन्दी को उचित स्थान देने, हिन्दी सभाओं से नाटक खेलने, सम्मेलन परीक्षाएँ प्रचलित गरने और हिन्दी को राष्ट माषा बनाने का प्रयत्न करने के विविध प्रस्ताव पास किए गए। उसी अधिवेशन में मादित्य-सम्मेलन के उद्देश्यों की निश्चित रूप रेखा भी निर्धारित १. प्रथम हिन्दी साहित्य सम्मेलन के कार्य-विवरण, पृष्ठ २ और ३, के आधार पर । २ (क) हिन्दी साहित्य के सब अंगो की उन्नति का प्रयत्न करना। (ब) देवनागरी लिपि का देश भर में प्रचार करना और देशव्यापी व्यवहारा और काया को मुलभ करने के लिए हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रयत्न करना। (ग) हिन्दी को सुगम, मनोरम श्रोर प्रिय बनाने के लिए समय समय पर उसकी शेली के संशोधन और उसकी त्रुटियों को दूर करने का प्रयत्न करना । (घ) सरकार, देशी राज्यों, कालेज, यूनीवर्मिटी और अन्य स्थाना, ममाजी तथा जनसमूहों मे देवनागरी लिपि और हिन्दी भाषा के प्रचार का उद्योग करत रहना। (च) हिन्दी ग्रन्थकाग, लेखका, प्रचारको ओर सहायकों को समय समय पर उत्साहित करने के लिए पारितोषिक, प्रशंसापत्र, पदक प्रादि से सम्मानित करना। (छ) उच्चशिक्षा प्राप्त युवकों में हिन्दी का अनुराग उत्पन्न करने और बढ़ाने के लिए प्रयत्न करना। (ब) जहाँ श्रीश्यकत समझो ज ए वौं पाठशाला समिति तथा पुस्तकालय स्य पित 'न और गो ग या Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७१ तीसर या हिन्दी साहित्य सम्मत्ता व काय विवरण में सिद्ध है मि०१६६६ म व्यावर गोरखपुर शहर और श्रमर का नागरिणा सभाएँ कलकत्ता का 'हिन्दी साहित्य परिषद' तथा आगरा की नागरी प्रचारिणी सभा और सं० १६७० में लहेरियासराय की 'छात्रोपकारिणी समा', हायरस, तस्वीमपुर-खीरी तथा लाहौर की नागरी प्रचारिणी सभाएँ, धेनुगामा की 'हिन्दी हिनैपिणी ममा, भागलपुर की 'हिन्दी मना', मुरादाबाद की 'हिन्दी प्रचारिणी सभा', लखनऊ की 'हिन्दी साहित्य सभा', चित्तोड की 'विद्या प्रचारिणी सभा' और कोटा की 'हिन्दी साहित्य समिति' आदि संस्थाएँ हिन्दी साहित्य सम्मेलन से सम्बद्ध हुई । ' सं० १६६६--७० से बंगाल, बिहार, मध्यप्रान्त, गुजरात, गजपनाना, पंजाब आदि प्रान्ती और अनेक देशी राज्यों में धूमधाम से हिन्दी का प्रचार प्रारम्भ हुआ। मं० १६७२ म गुजराती और मराठी साहित्य-सम्मेलनों ने हिन्दी को राष्टभाषा स्वीकार करके अपने शिक्षालयों में उसे सहायक भाषा की भाँति पाने का मन्तव्य स्थिर किया । सं० १९७५ में महात्मा गाँधी की अध्यक्षता मे देवीदास गाँधी, पंडित रामदेव और सत्यदेव ने मद्रास में हिन्दीप्रचार किया । ल० १९७५ में सम्मेलन ने हिन्दी विद्यापीठ की स्थापना की । एकादश सम्मेलन में चालीस सहस्र का दान मिला और उसके सूद में 'मंगलाप्रसाद पारितोषिक' की श्रायोजना की गई । सं० १६८२ मे सम्मेलन ने बृहत् कवि सम्मेलन और सम्पादक-सम्मेलन की भी आयोजना की । उसी आन् मे सम्मेलन का विशिष्ट अविवेशन हुआ और दक्षिण में हिन्दी की प्रतिष्ठा हुई। अ इंडियन प्रेम, प्रयाग, वेंकटेश्वर प्रेम बम्बई, विलाम प्रेस, पटना, भारत जीवन प्रेस, काशी, हरिदान कम्पनी, कलकत्ता, हिन्दी ग्रन्थ प्रसारक मंडली, वडवा, हिन्दी-ग्रन्थ (झ) हिन्दी साहित्य के विद्वानों को तैयार करने के लिए हिन्दी की उच्च परीक्षाएं लेने का प्रबन्ध करना । (ट) हिन्दी साहित्य सम्मेलन के उद्देशों को सिद्धि और सफलता के लिए जो अन्य उपाय आवश्यक और उपयुक्त समझे जाए, उन्हें काम में लना ! द्वितीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का कार्य विवरण | १. हिन्दी के साहित्य सम्मेलन के कार्य विवरण के आधार पर। २. प्रथम बार स० १९७३ में साहित्य विषय पर पद्मसिंह शर्मा को उनकी विहारी सतसई पर, दूसरी बार मं० १६८० में ममाजशास्त्र पर गोरीशंकर हीराचन्द श्रा को उनकी भारतीय प्राचीन लिपिमाला पर और तीसरे बार मं० १९८१ में प्रो. सुधाकर लिखित मनोविज्ञान नामक दार्शनिक रचना पर दिया गया । २ ही साहित्य के कार्य विवरण के आधार पर Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रन्नाकर-कार्यालय, पम्पष्ट श्रादि ने हिन्दी-ग्रयां, विशेष कर उपन्यासा, का प्रकाशन करके हिन्दी का प्रचार और प्रसार किया। आर्यममाजियों, मनातन-धर्मियो, ईसाइया श्रादि ने अपने धर्म प्रचार के लिये हिन्दी को ही माध्यम बनाकर उसके व्यवहार की वृद्धि की। १९१० ई. में बड़ौदानरश ने बरनाक्यूलर स्कूलों की पाँचवीं और छठवी कक्षामा के लिए, हिन्दी अनिवार्य कर दी और हिन्दी-पुस्तको के प्रकाशन की भी व्यवस्था की ।' मन १६१५ में युक्तप्रान्त के शिक्षा विभाग ने पाठवीं कक्षा तक हिन्दी का माध्यम म्वीकार किया। उस समय कांगडी के गुरुकुल, ज्वालापुर के महाविद्यालय, हरिद्वार के ऋषिकुल, वृन्दाबन के गुरुकुल तथा प्रेम-महाविद्यालय श्रादि संस्थाएँ हिन्दी-माध्यम द्वारा ही शिक्षा देती थीं ! द्विवेदी-युग के उत्तरार्द्ध में हिन्दी को शिक्षा का माध्यम बनाने और विश्व-विद्यालया में हिन्दी माहित्य को पाठ्य विषय निर्धारित करने के लिए विशेष आन्दोलन हुना। भ० १६७६ में कलकत्ता विश्व-विद्यालय और सन १९२० ई० में काशी विश्वविद्यालय ने हिन्दी साहित्य को अन्य विषयों के ममकक्ष ही पाठ्यक्रम में स्थान दिया। अफ्रीका में श्री वा. मदनजात, मोहनदाम कर्मचन्द गाधी, भवानी दयाल मन्याभी आदि ने हिन्दी-प्रचार किया। मन्यामी जी ने अफ्रीका के विभिन्न स्थानों में हिन्दी-सस्थाएँ बोलीक्लेर स्टेट (नेटाल) में हिन्दी-श्राश्रम', 'हिन्दी-विद्यालय', 'हिन्दी-पुस्तकालय', 'हिन्दीयन्त्रालय और ' हिन्दी प्रचारिणो ममा', जमिस्टन में हिन्दी नाइट स्कूल', 'हिन्दी फुटबाल ऋत्नब' पोर हिन्दी बालसभा',डेन हाउसर में हिन्दी प्रचारिणी मभा' और 'हिन्दी पाठशाला' एवं प्रिटोरिया में हिन्दी पाठशाला' आदि । २ टान्सवाल में सिडनटम स्थान में हिन्दा जिज्ञाम्य ममा नेशनल मोसाइटी' की स्थापना हुई । मं० १६७५ मे रंगून में हिन्दी पुस्तकालय बुला ।४ दिसम्बर, १६१६ ई० में अफ्रीका में प्रथम हिन्दी माहित्य सम्मेलन हुअा। निवदी-मम्पादित 'सरस्वती' स्वयं एक प्राप्त विश्व-विद्यालय बन गई थी। उसनं भारत छ, मोतर और बाहर कितने ही अर्द्ध-शिक्षिता और अल्पज्ञों को शिक्षित, बहुज्ञ, लेखक तथा कवि बनने के लिए प्रेरित किया । मम्पादक द्विवेदी ने संसार के विभिन्न प्रदेशो में सरस्वती भक्तो की मष्टि की: इस प्रकार द्विवेदी-युग मे देश और विदेश में हिन्दी की प्रतिष्ठा हुई। 1. प्रथम हिन्दी-साहित्य सम्मेलन का कार्य-विवरण । २ साहित्य सम्मेलन पत्रिका', मग ३, अंक ३ । ३ 'इंदु', कला चार, खंड १, पृ० १६६ { ४ सम्मेवान पत्रिका भाग ३, अक २ ३ १० ८० 2 'सामान पत्रिका भाग ४ ५ पृ २०५ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • २७३ । पत्र पत्रिकायें द्विवेदी-युग के पूर्व, उन्नीसवी ई. शती के उत्तरार्द्ध में केवल दो ही दैनिक पत्र निकल सके थे 'सुधावर्षण' (१८५४ ई०) और 'भारतमित्र' (१८५७ ई.) दोनो ही अकाल काल-कवलित हो गए। १६११ ई० में दिल्ली-दरवार के अवसर पर 'भारतमित्र देनिक कप में पुनः प्रकाशित हुश्रा किन्तु जनवरी १६१२ ई० में बन्द हो गया । मार्च, १६१२ ई. से दैनिक रूप में वह फिर निकला और २२ वर्ष तक चलता रहा। १९१४ ई० में कुछ मारवाडी सजनों ने कलकत्ता समाचार' निकाता। कुछ ही वर्ष बाद उसका अन्त हो गया। उन्हीं दिन! 'बैंकटेश्वर ममाचार' भी कुछ काल तक दैनिक रूप में प्रकाशित हुआ था। १६१७ ई० म अम्बिकादत्त बाजपेयी के मम्पादकन्व के मूलचन्द अग्रवाल ने दैनिक 'विश्वमित्र निकाला। बाजपेयी जी ने कलकत्ते से कुछ काल तक स्वतंत्र' भी निकाला। उपर्युक्त पत्रो ने ममाचार तो अवश्य दिए परन्तु निश्चित विचारों का उल्लेखनीय प्रचार नही किया ! १६२८ ई० में काशी मे 'आज' प्रकाशित हुया ! उमका विशेष लक्ष्य था भारत के गौरव की वृद्धि और उमकी राजनैतिक उन्नति ।' उसने राष्ट्रीय विचारों का प्रचार क्यिा : देश-विदेश के समाचारों के अतिरिक्त भम्पादकीय अग्रलेखो और लेग्वको की रचनाश्रो के द्वारा उमन मनोरंजक और उपयोगी मामग्री पाठको को भेट की: भाषा, भाव और शेल्दी मभी दृष्टियों में उसने हिन्दी-समाचारपत्र-जगत मे युगान्तर उपस्थित किया बीसवी ईसवीं शती के प्रारम्भ में 'भारत मित्र', 'वगवामी', 'बैंकटेश्वर-ममाचार आदि उल्लेग्यनीय माताहिक पत्र थे ! लग्वन के श्रानन्द' (लगभग १६.५ ई० 1 और 'अवधवामी' (१९१४ ई.) का जोबन मृत्यु-सा ही था ! १६०७ ई० में पं० मदनमोहन मालवीय के संरक्षण और पुरुषोत्तमदास टंडन के सम्पादकत्व मे 'अभ्युदय प्रकाशित हुआ । माधवराव सप्रे ने नागपुर से हिन्दी-केमरी' निकाला परन्तु वह कुछ ही दिन चल सका ! १६० ई0 में सुन्दरलाल के सम्पादकीय में 'कर्मयोगी' निकला और कुछ समय बाद पाक्षिक में साप्ताहिक होकर १६१०ई० में बन्द हो गया । १६११-१२ ई. में कानपुर से गणेशशंकर विद्यार्थी ने १ "हमारा उद्देश्य देश के लिए सर्व प्रकार ले स्वातन्त्र्य उपार्जन है! हम हर बात मे स्वतंत्र होना चाहते है। हमारा लक्ष्य यह है कि हम अपने देश का गौरव बढाय अपने देशवासियों में स्वाभिमान का संचार करें, उनको ऐसा बनार्वे कि भारतीय होने का उन्हें अभिमान हो, संकोच न हो : यह स्वाभिमान स्वतंत्रता देवी की उपासना कम्न म मिलना है। चाज सार २८ १५. विक्रमी रजत पती अक पृष्ट १० Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ । प्रताप' निकाला १६॥ ई० में सुन्दरलाल न दूसरा पत्र भनिभ्य निकाला जा साप्ताहिक से दैनिक हो कर वन्द हो गया । १६२०, २१ ई0 के असहयोग आन्दोलन के पास पाम 'कर्मवीर' ( खंडवा ), 'स्वराज्य' ( खंडवा), 'सैनिक' (अागरा ), 'स्वदेश' ( गोरखपुर ), श्रादि अनेक साप्ताहिक पत्र निकले । 'भारतमित्र' आदि साप्ताहिक पत्री की गजनैतिक दृष्टि नरम थी । टंडन जी के सम्पादन काल में 'अभ्युदय' के विचार भी नरम रहे किन्तु कृष्णकान्त मालवीय के श्राने पर वह गरम दल का समर्थक हो गया । 'हिन्दी केशरी' लोक. मान्य तिलक के 'मराठी केसरी' का अनुवाद मात्र था । 'कर्मयोगी' के राजनैतिक विचार उनतम थे, अतएव यह सरकार का कोपभाजन हुअा 1 राष्टीय 'प्रताप' सच्चे अर्थ मे जनता का पत्र था ! 'कर्मवीर' आदि उसी के अादर्श के अनुपालक थे। 'भविष्य' की निर्मीक और तेजस्वी नीति ने उमे भी शीघ्र ही सरकार की शनिदृष्टि का लक्ष्य बना डाला ।' द्विवेदी-युग के सम्पूर्ण पत्र-साहित्य का श्राप्त विवरण देने के लिए स्वतन्त्र गवेषणा करने और निबन्ध लिखने की आवश्यकता है। प्रस्तुत अयच्छेद उसका मिहावलोकन भर कर मक्ते हैं। काशी नागरी प्रचारिणी मभा के इक्कीसवें कार्य विवरण से प्रकट है कि १६१३, १४ ई० मे केवल 'भारतमित्र' ही दैनिक पत्र था ! हिन्दी वंगवासी', 'भारतमित्र', 'वेंकटेश्वर ममाचार', 'वीर भारत', 'अभ्युदय', 'बिहार बन्धु', 'भारत जीवन', 'महर्म प्रचारक', 'अानन्द', “आर्य मित्र', 'मिथिला मिहिर', 'जयाजी प्रताप', 'शुभचिन्तक', 'शिक्षा', 'फौजी अग्ववार', 'भारत', 'सुदशा प्रवर्तक', 'पाटलिपुत्र', 'अलमोड़ा अखबार', आदि साप्ताहिक थे । 'राजपूत', 'क्षत्रिय मित्र', 'जैन मित्र', 'जैन शासन', 'श्राचार्य' आदि का प्रकाशन पाक्षिक था । 'सरस्वती' 'मर्वादा', 'प्रभा', 'इंदु', 'लक्ष्मी', 'नवनीत', 'चित्रमय जगत', 'स्वर्ग माला' 'हितकारिणी', 'एजुकेशनल गजट' 'बाल-हित पी', 'नवजीवन', जैन हितपी', मत्यवादी', 'वैदिक सर्वस्व' आदि मासिक पत्रिकाएँ थी। 'सुधानिधि', 'वैद्य', 'वैद्य-कल्पतरु', आरोग्य जीवन' आदि वैद्यक विषय के 'क्षत्रिय समाचार', 'अग्रवाल', 'जैन गजट', 'दिगम्बर जैन', 'कान्यकुब्ज हितकारी', 'गौड हितकारी', 'पालीवाल ब्राह्मणोदय', 'सनाढ्य', 'माहेश्वरी', 'तैलीम समाचार', 'जागीडा समाचार', 'कलवार मित्र' आदि जातीय 'स्त्री दर्पण', गृहलक्ष्मी', चाद, 'स्त्रीधर्मशिक्षक', अादि स्त्री-शिक्षा-सम्बन्धी, 'कन्यामनोरंजन' और 'कन्यासर्वस्व' मचित्र पत्र थे । 'जासूस' 'उपन्यास लगी', 'उपन्यास बहार', 'उपन्याममाला' पा० टि. । पत्रों का उपयुन विपरव भाज के रनत जयती अक के माधार पर दिया ___ गया है Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २७५ ] आदि उपन्यासों की मासिक पुस्तकें थीं । इनके अतिरिक्त 'स्वदेशवान्धव', 'गढवाली', 'भास्कर', ब्राह्माणसर्वस्व' 'औदुम्बर', 'साहित्यपत्रिका', 'चैतम्यचन्द्रिका, आत्मविया, 'आर्यावर्त्त', 'मारवाड़ी', 'विहारपत्रिका', 'प्रेम' 'कानपुरगज़ट', 'जैनतत्वप्रकाश', 'नागरी प्रचारक', 'देहाती जीवन', 'धर्मकुमुमाकर', 'भूमिहार ब्राह्मणपत्रिका', 'जैनसिद्धाताभास्कर' आदि भी प्रकाश से थे । १६१७, १८ ई० में हिन्दी साहित्य-सम्मेलन- कार्यालय में पत्र-पत्रिकाएँ श्राती थी । सम्मेलन के पंचदश अधिवेशन के अवसर पर आयोजित प्रदर्शिनी में निम्नाकित पत्र वस्तुतथेः-१ दैनिक १. श्राज カ ३ अजुन १. प्रसवीर नारपुर * तरुण राजस्थान ३. श्रार्य जगत ५. रंगीला ७ प्रेम ६. अग्रसर ११. कर्तव्य १३ हिन्दी केसरी १५ महिला सुधार १७. गरीब १६ तिरहुत समाचार २१. मारवाडी ब्राह्मण २३. सिन्धु समाचार २५ देश २७. शंकर ร काशी देहली अ सताहिक २. स्वतंत्र ४. कलकत्ता समाचार साप्ताहिक २. ४. मारवाड़ी नयाधान ६. मतबाला 5. मौजी अजमेर लाहौर हिन्दी राजस्थान वृन्दावन कलकता ६०. इटावा १२ उदय बनारस १४. शक्ति कानपुर १६. श्रमिक बिजनौर १८. स्वदेश गढवाली दादून पश हिन्दी-साहित्य समेलन का काय विवरण जैनमित्र मुजफ्फरपुर २०, महाबीर कलकत्ता २२. सूर्य शिकारपुर २४ कैलाश पटना २६. भविष्य मुरादाबाद २८. हिन्दू सम्बन्ध सहायक पाक्षिक कलकता देहली नागपुर कलकत्ता कलकत्ता सूरत सागर अल्मोडा कलकत्ता गोरखपुर दरद्वार काशी मुरादाबाद कानपुर सहारनपुर Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. सनाढ्य हितकारी ३. विद्यार्थी ५. देशबन्धु ७. हिन्दी प्रचारक ६. शिशु ११. हलवाई वैश्य संरक्षक १३. सम्मेलन पत्रिका १५. ब्राह्मण सर्वस्व १७. गहोई वैश्य वक १६. प्रजा सेवक २१. द्विजराज २३. कलवार क्षत्रिय मित्र २५. ब्रह्मचारी २७. भ्रमर २६. नरस्वती ३१. महिला महत्व ३३. प्रभा १. नागरी प्रचारिणी पत्रिका ३ युगान्तर ५. कान्यकुब्ज ७. महिलासुधाकर ६. सनातन धर्म ११. माहेश्वरी सुधाकर १३. समन्यय १५. नाई ब्राह्मण १७ शिक्षामृत १६. श्रभीर समाचार २१ क्षत्रिय वीर २३. कलौघन मित्र २५. कविकौमुदा कामी प्रयाग २. निगमागम चन्द्रिका ४. मालव मयूर कलकत्ता ६. सनाढ्योपकारक मद्रास प्रयाग काशी प्रयाग इटावा उरई २७५ ] मासिक ८ ब्राह्मण १०. सुखमार्ग १२. हिन्दी गल्प माला १४. तिजारत १६. सम्प्रदाय १८ परमार बंधु हुशंगाबाद २० वरन बाल चंद्रिना प्रयाग २२. अनुभूत योग माला २४. क्षत्रिय मित्र २६. गृह लक्ष्मी २८. छत्तीसगढ ३०. बालसवा कलकत्ता ३२ नाधुरी कानपुर प्रयाग हरिद्वार बरेली प्रयाग फुटकर काशी २. कान्फरन्स कलकता ४. लोकमान्य काशी ६ धर्म रक्षक कानपुर माहेश्वरी कलकत्ता १०. समालोचक अजमेर १२ समालोचक कलकत्ता १८ सावधान कानपुर १६. श्रार्य नरसिहपुर १८ मोहनी शिकोहाबाद २०. जैन गजट पौड २६. योग प्रचारक भागलपुर २४ कलवार केसरी प्रयाग २६ दिगम्बर जन बनारस काशी श्रागग देहली अलीगढ काशी शाहजहापुर astar जबलपुर काशी इटावा काशी प्रयाग रामगढ प्रयाग लखनऊ अजमेर बाँदा कलकत्ता वलवत्त सागर करनाबाट लाहौर दामोह कलकत्ता काशी लखन सूरत Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | २७७ । प्रयाग २७ जन महिला श्राद" २६. कृमि क्षत्रिय हित ३१. शान्दि ३३. प्रताप नूरन ८ माची सस्व पन्नागर ३० स्वास्थ्य महारनपुर ३२. शिक्षा प्रभाकर कानपुर ३४. शिक्षामेवर कानपुर अलीगढ़ पटना काशीनागरी प्रचारिणी सभा के प्रार्यभाषा-पुस्तकालय म द्विवेदी-युग के अधिकाश पत्री की प्रनिया रक्षित है।' ६०४ ई० मे बी. मदनजीत के प्रयत्न ने इग्बन नगर में इडियन नापिनियन' नामक माप्ताहिक पत्र निकला | कुछ माल बाद आर्थिक संकट के कारण यह मोहनदास कर्मचन्द्र गाधी को माप दिया गया और उन्होंने फीनिक्म नगर में उसका प्रकाशन क्रिया : अमामा में ही म्वामाभवानीदयाल मन्यामी के उद्योग ने १६१२ ई. में 'धर्मवीर' नामक माताहिक पत्र निकता ! १९२२ ई. में साप्ताहिक 'हिन्दी' का प्रकाशन प्रारम्भ किया जा तीन वर्ष बाद बन्द हो गई। १९१२ ई० में ही माग्मिम इडियन टाइरस' प्रकाशित हुअा । २ विदेशों में और भी अनेक पत्र प्रकाशित हए जिनका विवरण मम्प्रति अनन्य है। द्विवेदी-युग के अधिकाश लग्वक सम्पादक थ! काशी नागरी प्रचार गिणी ममा म रक्षित पत्रिकाया की फाइलों में मिट्ट है कि श्यामसुन्दर दाम (नागरीप्रचारिणी पात्रे का' और 'सरस्वती) राधाकृष्णदाम ('नागरी प्रचारिणी पत्रिका' और 'नरन्बनी) भीमन शर्मा ( ब्राह्मणमर्वस्व ) कृष्णाकान्त मानवीय ( मर्यादा ) गमचन्द्र शक्त ( नागरी प्रचारिणी १ अवता हितकारक, अान्मविद्या, अादर्श, अार्य, आर्यमहिला, इन्दु, उपन्याममागर, उपा, कथामुम्बी, कन्यामनार जन, कन्यासर्वस्व, कलाकुशल, कबोन्द्रबाटिका, कालिन्दी, किमानोपकारक, कृतिमुधार, गृहलक्ष्मी, गृहस्थ, चन्द्रप्रभा, चाद, चित्रमय जगन्, जामूम ज्योति, ज्ञानशक्ति, देहाती, नवजोवन, नवनीत, नागरीप्रचारित्रिका, नागरीहित पिणी पात्रका निगमागमचन्द्रिका, परोपकारी, पाचाल पंडिता पीयूपप्रवाह, प्रतिमा. प्रमा, प्रभात, प्रेमबिलाम, प्रियंवदा, बालक, वालप्रमाकर, बान्नहितपी, बिजली ब्रह्मचारी, भारतमित्र, भाग्नी, भारतेन्दु, भारतोदय, भास्कर भ्रमर, मनोरजन, मनोरमा, माढा, महिलादपंगा, माधुरी. रसिकरहस्य, रमिकवाटिका, लक्ष्मी विकाम विज्ञान विद्याधी, विद्यायिनोद, विश्वविद्याप्रचारक, श्री कमला, श्रीशारदा, मंगीतामृतप्रवाह, मंसार, नमन्वय, मम्मेलन पत्रिका, माहित्य, माहिल्यपत्रिका, सुधानिधि, स्त्रीदर्पण, स्त्रीधर्मशिक्षा. स्वदेशबान्धव, स्थार्थ, हिन्दीगल्पमाता, हिन्दी प्रचारक, हिन्दी प्रदीप, हितकारिणी आदि पत्रिक एँ विशेष लेखनीय है • आज क भ प्राधर पर Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २७.. । पत्रिका ) गौर शंकर हीराचन्द ओझा ( नागरीप्रचारिणी पत्रिका ) लाला भगवानदीन ( लक्ष्मी ), रूपनारायण पाडेय ( नागरी प्रचारक ), बालकृष्ण भट्ट ( हिन्दीप्रदीप), गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी ( ब्रह्मचारी ), पद्मसिह शर्मा ( परोपकारी और भारतोदय ), सन्तराम बी० ए० ( उषा और भारती), लाला सीतागम बी ए ० (विज्ञान), ज्यालादत्त शर्मा ( प्रतिमा), गोपालराम गहमरी ( समालोचक और जासूस ), माधवप्रमाद मिश्र (सुदर्शन ), द्वारिकाप्रसाद चतुर्वेदी ( यादवेन्द्र ), यशोदानन्दन अखौरी ( देवनागरवत्सर ), सम्पूर्णानन्द ( मर्यादा ), किशोरीलाल गोस्वामी (वैष्णव सर्वस्व ), छविनाथ पाडेय । साहित्य ), मुकुन्दीलाल श्रीवास्तव (स्वार्थ), शिवपूजनमहाय ( अादर्श वर्ष ), वियोगी हरि ( सम्मेलन पत्रिका ), चन्द्रमौलि सुकुल ( कान्यकुब्ज ), गणेशशंकर विद्यार्थी ( प्रभा) बालकृष्ण शर्मा ( प्रभा), पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ( सरस्वती ) आदि ने सम्पादक का श्रासन भी ग्रहण किया था। उस युग का सामयिक साहित्य मुख्यतः 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका', 'सरस्वती', 'मर्यादा' 'इंदु', 'चाँद', 'प्रभा', और 'माधुरी' मे प्रकाशित हुश्रा । 'सरस्वती' की अग्रजा 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' १६०४ ई.. मे त्रैमासिक थी, १६१५ ई० में मासिक हुई और फिर १६७७ वि० में त्रैमासिक हो गई । उमका उद्देश मामान्य पत्रिकाओं से भिन्न था। प्रारम्भ में तो उसने कविता श्रादि विषयों को भी स्थान दिया था किन्तु श्रागे चलकर केवल शोधसम्बन्धी पत्रिका रह गई । 'मर्यादा' आदि अन्य पत्रिकाए 'मरस्वती' की अनुजा थीं। रूप और गुग्ण की सभी दृष्टियो मे उन्होंने 'सरस्वती का अनुकरण किया। 'मर्यादा', 'प्रभा' और 'माधुरी' के अधिकांश लेखक भी द्विवेदी जी के ही शिष्य थे। भारतेन्दु-युग की पत्रिकामी की चर्चा भूमिका में हो चुकी है। उनकी भाषा अत्यन्त लचर थी। उनका माहिल्य अत्यन्त माधारमा कोटि का था। यद्यपि द्विवेदी-युग के पूर्वार्द्ध का पत्र-साहित्य अयोध्यामिह उपाध्याय, मैथिलीशरण गुप्त आदि की कुछ रचनाओं को छोड़ कर निस्सन्देह ऊँचा नहीं है तथापि उसके उत्तरार्द्ध में मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकरप्रसाद, गोपालशरण सिह, रामनरेश त्रिपाठी, प्रेमचन्द, विश्वम्भरनाथ शर्मा, वृन्दावनलाल वर्मा, बदरीनाथ भट्ट. माखनलाल चतुर्वदो, रामचन्द्र शुक्ल, सूर्यकान्त त्रिपाठी, चंडी प्रसाद हृदयेश, चतुरमेन शास्त्री की रचनाएँ महत्वपूर्ण और स्थायी माहित्य की निधि हैं । , इस कथन का सरस्वती के विस्तारपूर्वक हो चुका Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविता युग-निर्माता का नामन ग्रहण करने के पूर्व ही द्विवेदी जी ने हिन्दी-कवियों को युगान्तर करने की सूचना दे दी थी। अपने 'ऋविकर्तव्य' ( सरस्वती १६१६ ई.) लेग्य में उन्होंने ममय और ममाज की मचि के अनुमार सब बातो का विचार कर के कवियों को उनका कर्तव्य बतलाया था। द्विवदी जी की महत्ता इस बात में भी है कि उम लेग्ब म उन्होंने जो कुछ भी कहा था उमे सफलतापूर्वक पूर्ण किया और कराया। उपयुक्त मा पूर्ण लेग्व उद्बत करने का यहाँ अवकाश नहीं है । अतएव द्विवेदी जी की उम भविष्य वाणी और अादेश के मुख्य मुख्य वाक्या को लेकर ही उस युग की कविता की ममीक्षा की जायगी। द्विवेदी-युग ने हिन्दी नाहित्य के इतिहास में पहली बार पन और गध दोनो ही को काव्य-विधान का माध्यम स्वीकार किया। उस युग के कवियों ने हिन्दी साहित्य म अद्यावधि प्रयुक्त सभी विवानो मे कविताएं लिम्वीं। अपेक्षाकृत अधिक लोकप्रिय विज्ञान प्रबन्ध काव्य का था। इसके अनेक कारण थे । विश्व साहित्य की समीक्षा न यह बात मिट्ट हो जाती है कि ग्राम बोनियों में कविता का प्रारम्भ लोक गीता में और संस्कृत भाषाओं में प्रबन्ध काव्यों में हुया है। वाल्मीकि का गमायण', होमर का इलियड', आदि काव्य इस कथन के प्रमाण हैं। द्विवेदी-युग न्यु डी बोली कविता का प्रारम्भिक काल था, अतएव कथानक की महायता से ही कविता लिम्बना कवियों को अधिक सहज जान पडा। प्रबन्ध काव्य की विशेषताओं ने ही कवियों का ध्यान आकृष्ट किया । प्रबन्ध काव्य जीवन के तथ्यों को मूर्तरूप में उपस्थित कर देता है जिसने पाठक अनायाम ही प्रभावित हो जाता है । द्विवेदी जी के श्रादेश नुमार उस युगके उपदेश प्रवृत्ति प्रधान कवियों ने प्रबन्ध काव्यो मे अादर्श चरित्रों का अवलम्बन करके पाठकों को लाभान्वित करने का प्रयास किया। प्रबन्ध काव्यों के तीन रूप धे---पन्द्र प्रबन्ध, खंड काब्य और महाकाव्य । 'भूमिका' और 'कविता' अव्याय में पद्यनिबन्धी की विशेषता बदलाते हुए यह कहा जा चुका है कि व आधुनिक हिन्दी साहित्य में एक नृतन विधान के रूप में प्रतिष्ठिन हुए। द्विवेदो-युर के ५. "गध और पद्य दोनों ही में ही कविता हो सकती है।" द्विवेदी जी 'कविकर्तव्य'- सम्वनी १६०१ ई०, पृष्ठ २३२॥ २. "रसकुसुमाकर और जसवन्ननसोपण के समाननन्धों की इस समय आवश्यकता नहीं । इनके स्थान में यदि कोई कवि आदर्शपुरुष के चरित्र का अबलम्बन करके एक अचहा काव्य लिम्बता तो उसम हिन्दी साहित्य को अलभ्य लाभ होता।" करिम्मम्म' रसन्नरजन पूछ र Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व उनका प्रयाग मात्र हुआ था । द्विवेदी जी ने उनकी रचना की प्रोत्साहन दिया ।' द्विवेदी सम्पादित 'सरस्वती' निबंवों से भरी हुई हैं, उदाहरणार्थ १६१०ई० की 'सरस्वती' प्रकाशित मैथिलीशरण गुप्त की 'कीचक की नीचता', 'कुन्ती और कर्ण' श्रादि । ये पद्म कभी तो खंडकाव्य की पद्धति पर एक ही छन्द में लिखे गए, जैसे उपयुक्त 'कुंती और कर्ण', कभी गात प्रबंध के रूप में अनेक छन्दो का सम्मिश्रण था, यथा लाला भगवानदीन का 'वीर पंचरत्न' और कभी पत्र गीतों के रूप में जैसे मैथिलीशरण गुप्त की 'पत्रावली' । प्रबन्ध काव्य का दूसरा रूप खण्ड काव्य था । खड़ी बोली के अधिकाश सुन्दर खण्ड काव्य द्विवेदी युग में ही लिखे गए, उदाहरणार्थ मैथिलीशरण गुप्त के 'जयद्रथ वध' ( १६१० ई० ) 'किसान' (सं० १६७४ ) और 'पंचवटी' (स० १६८२ ) रामनरेश त्रिपाठी का 'पथिक' ( १६२० ई० ), प्रसाद का 'प्रेम पथिक' ( १६१४ ) सियारामशरस् गुप्त का 'मौर्य विजय' (सं० १९७१ ), सुमित्रानन्दन पंत कृत 'ग्रन्थि ' ( १६२० ई० ) आदि | are nor का तीसरा रूप महाकाव्य था । खडी बोली के प्रथम दो महाकाव्य 'मित्र प्रवास' (सं० १६७१ ) और 'साकेत' (अधिकाश मं० १६८२ तक ही लिखित किन्तु ग्रन्थ १६८८ वि० में प्रकाशित ) द्विवेदी युग में हो लिखे गये। संस्कृत आचार्यों के are हुए महाकाव्य के सभी लक्षण इन ग्रन्थों में नहीं पाए जाते तथापि ये महान काव्य होने के कारण महाकाव्य अवश्य हैं। के द्विवेदी युग की कविता का दूसरा विधान मुक्तक रचना के रूप में हुया । मुक्तक रचना मूल में कवियों की अनेक प्रवृत्तियों काम कर रहा थी। पहली प्रवृत्ति सौन्दर्य व्यंजना की थी। उन कवियों की सौन्दर्यविषयक इयत्ता भी अपनी थी। उनकी यह प्रवृत्ति कहीं ती आकारिक आदि चमत्कार के रूप में, कहीं उक्ति वैचित्र्य के रूप में और कहीं मार्मिक अनुभूति की हृदयहारी अभिव्यक्ति के रूप में फलित हुई । दूसरी प्रवृत्ति समस्यापूर्ति की थी" तीसरी प्रवृत्ति उपदेशक की थी। यह तीन रूप में व्यक्त हुईं। कहीं सीधे उपदेश १. "समस्यापूर्ति के विषय को छोड़कर, अपनी इच्छा के अनुसार विषयों को चुनकर, afa को यदि बड़ी न होसके तो छोटी ही स्वतंत्र कविता करनी चाहिए, क्योंकि इस प्रकार stafari at हिन्दी में प्राय अभाव है।" द्विवेदी जी - रसनरंजन', पृष्ट १३ । २. उदाहरणार्थ 'उजू वशतक' आदि ३. 'घुमते 'चौपदे' आदि । ४. गोपालrantee का 'व्रजवर्णन', वह छवि' आदि ( 'माधवी' में संकलित ) । ५. उदाहरणार्थ राजनैतिक कविता के संदर्भ में उद्धृत नाथूराम शर्मा की अकत है की Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८.४ क रूप कहां सूक्ति के रूप में श्राश्रन्योक्ति के रूप में तीमर काव्य विवान व रूप में प्रबन्धमुक्तक थे जिनमें प्रबन्ध का कथानक और मुक्तक की स्वच्छन्दता एक साथ थी, उदाहरणार्थ 'लू' (१६२५ ई०) गीता या गीतियां ने काव्यविधान का चौथा रूप प्रस्तुत किया। मौलिकता की दृष्टि से इन गीतों के पात्र प्रकार है । भारतस्तव (श्रीवर पाठक) आदि गीत संस्कृत के 'गीतगोविन्द' ग्रादि के अनुकरण पर लिखे गए। श्रीधर पाठक, रामचरित उपाध्याय, वियोगाहरि श्रादि ने हिन्दी की भक्तिकालीन पद-परम्परा की पद्धति पर गीतो की रचना की, उदाहरणार्थं रामचरित उपाध्याय का 'भव्यभारत' (सरस्वती, भाग २१, संख्या ६) मुभद्रा कुमारी चौहान के 'झामी की रानी' आदि गीत लोकगीतानुकरण के रूप में आए । ' उस युग के शोकगीत, प्रबन्धगीत और पत्रगीत अगरेजी के एलेजी, बैल आदि के बहुत कुछ अनुरूप हैं। मंथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पत, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला आदि ने उपयुक्त प्रभावों से युक्त गोत भी लिखे जिनमें भाव, भाषा और छन्द सभी में नवीनता थी, उदाहरणार्थं पंत का 'परिवर्तन' | शैली की दृष्टि में इन गीतों का प्रचार वर्णनात्मक, व्यग्यात्मक, चित्रात्मक या पत्रात्मक था और आकार एकछन्दोमय, मिश्रछन्दोमय या मुक्तछन्दोमय था | द्विवेदी युग के उत्तरार्द्ध में भाषा के मंज जाने पर उच्चकोटि के कलात्मक गीतों की रचना हुई । I ༣ काव्यविधान का पाचवा रूप गद्यकाव्य था । हिन्दी मे पद्य ही अब तक कविता का माध्यम था । गद्यकाव्य के आविर्भाव और विकास के कारण भी द्विवेदी युग का हिन्दी साहित्य के इतिहास में निराला स्थान है । द्विवेदी जी ने स्वय ही 'प्लेगस्तव राज' और 'समाचारपत्री का विराट रूप' दो काव्यात्मक गन्ध लिखे थे । 'तुम हमारे कौन हो ? १२ आदि गद्य रचनाओं में भी पर्याप्त कवित्व था । परन्तु इन प्रारम्भिक प्रयामी में आधुनिक हिन्दीगद्यकाव्य का रूप निम्बर नहीं सका । हिन्दी गद्य का रूप संस्कृत और परिष्कृत न होने के कारण उसमे काव्योचित गंजनाशक्ति या न पाई थी । जयशंकरप्रसाद के 'प्रकृतिसौन्दर्य' और 'प्रलय', ' बालकृष्ण शर्मा नवीन का 'निशीथचिन्ता " राय कृष्णदास के 'समुचित कर' और 'चेतावनी', चतुरसेन शास्त्री के 'कहा जाते हो', 'श्रादर्श ५. यह कविता बुन्देलखंड में प्रचलित 'खूब लड़ी मरदानी घरे झांसी वाली रानी' नामक लोकगीत के आधार पर लिखी गई है ७ 1 २. सरस्वती भाग १, पृष्ठ ११८ ३ इंदु कला १. किरण १ पृष्ट म । ४. माधुरी भाग २ खंड २ संख्या १, पृष्ठ ६० । 1 ५. प्रभा भाग १, खंड २ पृष्ट ३०४ ६ प्रभा वय ३ व १ 19 प्रमा प ३ पृष्ठ ४०१ २४१ २ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 10 श्रागू" और फिर प्रतापनारायण श्रीवास्तव का विलाप, ३ कुवर रामसिंह लिखित 'दो तरंगे', ४ त्रियोगी हरि के 'परदा', 'वीणा', 'सवा', 'दर्शन' और 'सरॉय', ' भगवतीप्रसाद बाजपेयी का 'कवि', शान्तिप्रिय द्विवेदी का क्षमायाचना श्रादि गद्यकाव्य पत्रिकाओं से प्रकाशित हुए। प्रभा ने तो कभी-कभी 'हृदयतरंग " नामक खंड ही निकाला जिसमें गद्यकाव्य के लिए स्थान सुरक्षित रहता था । 'सौन्दर्योपासक', 'अश्रुधारा 'नवजीवन वा प्रेमलहरी', 'त्रिवेणी', १२ 'साधना', १३ 'तर गिणी', १४ 'अन्तस्तल', १५ 'फिर निराशा क्यों', १६ " सखाप १७ श्रादि गद्यकाव्य पुस्तकाकार प्रकाशित हुए। जयशंकर प्रसाद के गद्यकाव्यों में संस्कृत-पदावली की बहुलता, दार्शनिकता की प्रतिगूढता और शब्दचयन की अनुपयुक्तता के कारण कवित्व नष्ट होगया है । 'नवीन' यादि में भी भावप्रवणता और अभिव्यंजता की मार्मिकता नहीं है । सम्भवतः अपने को गद्यकाव्य के अयोग्य समझकर ही इन कवियों ने तादृश रचनाओं से मुँह फेर लिया। उस युग मे गद्यकाव्य-निर्माण का विशेष श्रेय राय कृष्णदास, चतुरमेन शास्त्री और वियोगीहरि को ही है । वियोगी हरि का 'अन्तर्नाद' यद्यपि सं० १६८३ में प्रकाशित हुआ तथापि इसकी प्रायः सभी रचनाएं द्विवेदी युग के अन्तर्गत ही हैं । इस संग्रह की पाच रचनाओं के देशकाल का निर्देश ऊपर हो चुका है । पुस्तको के 'साधना', 'अन्नस्तल', अन्तर्नाद', आदि नाम स्वयं ही इस बात की घोषणा करते हैं कि ये रचनाए बाह्य आलम्बनों से सम्बन्धित न होकर अध्यान्तरिक हैं । १. प्रभा, वर्ष ३, ग्खंड २, पृष्ट २३३ । २. मार्च १३२५ ई०, पृष्ठ १८६ | ན ३. वर्ष ३, खंड २, १६२ । वर्ष ३, खंड २, पृष्ठ २०२ । ४. ५. फरवरी, १६२४ ३०. पृष्ठ १३१ | मई, १६२४ ई०, पृष्ठ २७६ । ६. " " 37 ॐ 33 ११ ७. जनवरी, १६२५ ई०, पृष्ठ ७३ । म. उदाहरणार्थं मई, जून, १६२१ ई० । e व्रजनन्दन मिश्र, १९११ ई० । १०. वजनन्दन मिश्र, ६६१६ ३० । ११. कुमार राधिकात्मणसिंह, १९१६ ई० । १२. देवेन्द्र, सं० १8३ । ३३. राय कृष्णदास, सं० १९७४ | १४ हरिप्रसाद द्विवेदी, सं० १९७६ । " १५. चतुरसेन शास्त्री, सं० १९७८ । १६. गुलाबराय द्वितीयावृति १६८० वि० । १७ राय 1 स०१६८९ 1 Henan Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २८३ } विषय और शैली की दृष्टि मे द्विवदोयुग के गद्यकाव्यो के दो प्रकार हैं... देश प्रेम की अभिव्यक्ति और लौकिक या अलौकिक प्रेमपात्र के प्रति अात्मनिवेदन । यह भी कहा जामकता है कि उनका मुख्य विषय प्रेम है चाहे वह लौकिक हो, अलौकिक हो या देश के प्रति हो । देशप्रेम को लेकर लिखी गई कविताएं अपवादस्वरूप हैं । द्विवेदी-युग के अन्तिम वर्षों में सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा-अान्दोलन प्रबल हो रहा था और उसका प्रभाव हिन्दी साहित्य पर भी अनिवार्य रूप मे पडा । जो देशप्रेम प्रार्थना और नम्र निवेदन मे प्रारम्भ हुअा था उसने उग्र रूप धारण किया। कवियों ने इस बात का अनुभव किया कि बिना बलिदान और रक्तपात के स्वतत्रता की प्राप्ति नहीं हो सकती । गय कृष्णदास के 'समुचित कर' और 'चेतावनी' गद्यगीत इसी भाव के द्योतक हैं। उसी वर्ष कुवर राममिह ने एक गद्य काव्य लिखा 'स्वतन्त्रता का मूल्य' जिसमे उन्होंने भारतीय नारियों को देश को स्वतन्त्रता के लिए प्रात्मत्याग और बलिदान करने को उत्तेजित किया । उम युग के अधिकाश गद्यकाव्य किसी प्रेमपान के प्रति प्रेमी हृदय की वेदना के ही शब्दचित्र हैं। इस प्रम का आलम्बन कहीं शुद्ध लौकिक है. और कहीं कहीं यह प्रेम 1 "ऋषियो । यदि तुम्हें भगवान रामचन्द्र की परमाशक्ति सीता के जन्म की आकांक्षा हो सो सुम्हें घडे भर खून का कर देना ही होगा। उसके बिना सीता का शरीर कैसे बनेगा ? और बिना सीता का आविर्भाव हुए रामचन्द्र अपना अवतार कैसे सार्थक कर सकेगे ? अत: ऋषियो उठो, अविलंब अपना रक्त प्रदान करो ।” -प्रभा, वर्ष ३, खंड १, पृ० ४०१ ! २. “हे देवियो ! यदि तुम्हें स्वतंत्रता का सुख चाहिए तो अपने पतियों सहित कारागार के कष्ठ उठाकर देवकी की तरह अपनी सात मन्तानों का बलिदान करो।" -प्रभा. भाग ३, खंड २, पृ. २०२। ३. "पाटल ! मैं ने तुमको इतने प्रेम से अपनाया । तुम्हे तुम्हारे स्वजनों से बिलगाकर छाती से लगा लिया तुम्हारे काटों की कुछ परवाह न की, क्योकि तुम्हारी चाह थी। __कहा मेरा मन इमी चिन्ता में चूर रहता था कि तुम्हारी पंखुडिया दब न जावे । सारे संसार से समस्त चित्तवृत्तिया खिचकर एक तुम्हीं से समाधिस्य हो रही थीं। कहा आज वही, मैं, तुम्हे किस निर्दयता, उदासीनता और घृणा मे भूमि पर फेक रहा हूँ। क्योंकि तुम्हारे रूप, रग, सुकुमारता और सौरभ सब देखते देग्वते नष्ट हो गए हैं। कहा तो मैं तुम्हें हृदय का फूल बनाकर अभिमानित होता था, कहा आज तुम्हे पददलित करने में डरता हूँ कि कहीं काटे न चुभ जाय ।। ___अरे, यह-प्रेम कैसा ? यह तो स्वार्थ है क्या इसी का नाम प्रेम है ? हे नाथ, मुझे ऐसा प्रेम नहीं चाहिए ! मुझे तो वह प्रेम प्रदान करो जो मुझे भेदबुद्धिरहित पागल बना -साधना, पृ०६७ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ । पारतोक्क्तिा का ओर उन्मुग्व है । ये गद्य काव्य 'बासवदत्ता', 'दशकुमार चरित', 'हर्ग चरित', 'कादम्बरी' आदि संस्कृत गद्य-काव्यों मे अनेक बातों में भिन्न हैं। कथावस्तु की दृष्टि बे प्राचीन--काव्य अाधुनिक उपन्यासो के पूर्व रूप हैं, इसलिये उन्हें 'पाख्यायिका' या 'कथा' बहा गया है। यहा त कि मराठी में उपन्यास के लिए कादम्बरी शब्द का ही प्रयोग किया जाता है । अाधुनिक गबकाव्य में इस प्रकार की कशा वस्तु का सर्वथा अभाव है । इसका कारण यह है कि अाज साहित्य ही नहीं सारा वाडमय ज्ञान विस्तार के माथ ही माय अनेक भागों में विभाजित होता जा रहा है। इसीलिये तब की पाल्यायिका और कथा के स्थान पर अब वहानी, उपन्यास और गद्यकाव्य तीन रूप दिखाई पड़ते हैं। आख्यायिका, कथा, उपन्यास श्रादि के रूप में दूसरों का वर्णन करते करते लेखक का हृदय थक गया और आत्माभिव्यक्ति के लिए रो पड़ा । वतमान गद्यगीत उसके उसी अाकुल अन्तर के शब्द प्रतीक हैं । वाणभट्ट ने भी अपने हर्ष चरित्र' के प्रारम्भिक अध्यायों में अपना चरित लिखा था किन्तु उनकी वह अभिव्यक्ति अध्यान्तरिक न होकर जीवन वृत्त-मात्र थी ! वे प्रबन्ध काव्य हैं, उनमें प्रबन्ध व्यंजकता है और रस परिपाक की ओर विशेष ध्यान दिया गया है ।२ द्विवेदो-युग के गद्यकाव्य लघुपबन्धमुक्तक हैं और इनमें रम परिपाक का प्रयास न करके कोमल भावी की मार्मिक अभिव्यक्त ही की गई है । उन संस्कृत कवियों ने शब्द-चमत्कार और अलंकारादि की अोर बहुत ध्यान दिया । हिन्दो-गद्रकाव्य कश्मिो के गीत एक श्वेतवसना तप प्रत १. “हे मेरे नाविक, यह कैसी बात है जब मेरी नाव मंझधार में थी तब तो तुम्हे हटाकर मैंने डाँड लेलिए थे और तुम्हारे आसन पर आसीन होकर बड़ा भारी खेया बन बैठा था । पर जब वह धार मे पार होकर गम्भीर जल मे पहुँची तब मै हारकर उसे तुम्हार भरोले छोड़ता हूँ। ___ तब तो नाव धार के सहारे बह रही थी, खेने की आवश्यक्ता ही न थी । इसी म मेरी मूर्खता न खुली । पर अब ? अब तो इम गम्भीर जल से चतुर नाविक के बिना और कौन नाव निकाल सकता है ? परन्तु मै तुम्हारी बडाई किम मुख मे करू. ! तुम मरी मर्वता और अभिमान तथा अपने अपमान की अोर नहीं देवते और सोम डॉड नाव किनारे की ओर चलाते हो ।' "राय कृष्णादाम'"साधना, पृ. ३१ । २. स्फुरस्कलाला पविलासकोमला करोति राग हृदि कौतुकाधिकम् । रसेन शरयां स्वयमभ्युपागता कथा जनस्यामिनवावधूरिव ॥ __बाणभट्ट, 'कादम्बरी' की प्रस्तावना । ३. सरस्वतीदत्तवरप्रसादश्चक्रे सुबन्धुः मुजनैकबन्धुः । प्रत्यक्षरश्लेषमयप्रबन्धविन्यासवैदग्थ्यनिधिनिबन्धम् ।। सुर धुक्त वासवदत्ता का प्रारम्भ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! ८५ मन्यासिनी की भांति निर लकार कि तु मास्वमा उ काव्या में पग-पग पर चित्रमयी कवि कल्पना की ऊत्री उडान हे । द्विवेदी-अंग के हिन्दी गद्यगीतों में कल्पना की ऊंची उडान न होते हुए भी मरलता, लाक्षणिक्ता और मृर्ति मना या प्रतीकात्मकता का इतना मुन्दर ममन्वय है कि वे पाठको के हृदय को महज ही मोह लेते हैं। इन गद्यकाव्या की द्विकलात्मकता इनकी एक प्रमुख विशेषता है। इनमें गद्य भाषा की छन्दहीनता, वाक्यविन्याम अोर व्याकरण संगति है, परन्तु माय ही पद्य की मी लय और काव्यमय उपस्थापना भो है। द्विवेदी जी ने अपने पवानुवादा में मकन के द्र नबिलम्बित, शिव रिंगो, स्वन्धग, इन्द्रबत्रा, उपेन्द्रबत्रा श्रादि अनेक वृत्ती और अपनी मौनिक कविताओं में वर्णिक छन्दों का प्रयोग किया था। उनके श्रादर्श और उपदेश२ ने उस यग के अन्य कवियों को भी प्रभावित किया ! पंडित अयोध्यामिह उपाध्याय ने अपना प्रिय प्रवास' श्राद्योपान्त मस्कृत वृत्ता मे लिग्या । संस्कृत वृत्तो का निर्वाह करने में कही कहीं कवियों को अत्यन्त कठिनाई हुई । कहीं नो उन्हें चरण के अन्तिम लधु को दीर्घ का रूप देना पड़ा, और कहीं वे मंयुक्र वर्ण के पूर्ववर्ती लघुस्वर को गुरु मानने के लिए विजश हुए । इस प्रकार के प्रयोग बार बागा भट्ट ने अपने यचग्नि' को भूमिका में इस प्रकार की कामयदत्ता' की प्रशंसा मीका 'कवीनामगलहों नूमं वासवदनया!'' १ "जब मै गेता हूँ तब तुम घोर अट्टहान कर मरे गेने का उपहास करते हो, जब हैमता हूँ, तुम्हारी यादों में ग्रामू छलछला पाते हैं-यह वैपरीत्य क्यों ? हे स्वामिन् ! तुम्हारे मम्मुम्ब क्या मेरे रोने और हमने का कोई मूल्य नहीं है ?" क्षमायाचना'.."शान्तिप्रिय द्विवेदी प्रभा । जन. १९२५ ई० पृष्ठ ७३ । २. "वाहा, चौपाई, सोरठा, घनाक्षरी, छप्पय और सवैया श्रादि का प्रयोग हिन्दी में बहुत हो चुका । कवियों को चाहिए कि यदि वे लिख सकते है तो इनके अतिरिन और भी छन्द लिया करे ।" ." रसजन, पृ. ३। ३ यथा---"योड़े दुशाले अनि उपण अंग. धार गरू वस्त्र हिए उमंग।" -सरस्वती. मई, ११०१३० ४ उदाहरणार्थ (क) जब देवव्रत अष्टम बालक । द्विवेदी जी, कविता-कलाप, 'गंगा-भीष्म । (स) भानन्द प्रिय मित्र के उदय से पाते सभी जीव हैं पूजा में रत है ममस्त जगत प्रात्साह पाहाद से Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८६ ! संस्कृत भाषा और संस्कृत छन्दा के कारण हुए है कहीं कहीं बोलचाल के प्रभाव के कारण भी कवियों ने लघु को गुरु मान लिया है । यथा--- गरल अमृत अर्भक को हुआ। इस उद्धरण में अमृत के 'भू' का '' हस्त्र स्वर है और 'अ' भी ह्रस्व है अतएव इन दोनों का ही उच्चारण लघु होना चाहिए परन्तु कवि ने 'म' में द्वित्व का अारोप करके छन्द की मर्यादा के निर्वाहार्थं लधु 'अ' को दीर्घ कर दिया है ! मैथिलीशरण गुप्त श्रादि ने हिन्दी के अप्रचलित छन्दो, गीतिका, हरिगीतिका,. रूप-माला आदि का प्रयोग किया । नाथूराम शर्मा आदि ने दो छन्दों के मिश्रण से भी नए छन्द बनाए । उस युग में लावनी की लय का विशेष प्रचार हुश्रा । हिन्दी के छन्दों का चरण और लावनी का अन्त्यानुप्रासक्रम लेकर मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्यामिह उपाध्याय, रामचरित उपाध्याय आदि ने हिन्दी में अनेक प्रबन्धीत लिखे २ बंगला के पयार और अंग्रेजो के सानेट का भी हिन्दी में प्रचार हुअा। जयशंकरप्रसाद आदि ने 'इंदु' और 'माधुरी' में अनेक चतुर्दशपदी गीत लिखे। छायावादी कवियो ने स्वच्छन्द और मुक्तछन्दों की परम्परा चलाई । अंत्यानुप्रास की दृष्टि से स्वच्छन्द छन्द तीन पकार के लिखे गए । एक तो वे थे जिनमें आद्योपान्त अनुप्रास था ही नही जैसे प्रसाद जी का 'महाराणा प्रताप का महत्त्व' या पंत की 'ग्रन्थि'। दूसरे वे छन्द थे जिसमे श्रन्यानुप्रास किसी न किसी रूप में श्राद्योपान्त विद्यमान था, यथा पत जी की 'लेह', 'नीरवतार' आदि कविताएँ । तीसरे वे छन्द थे जिनमें कहीं तो अंत्यानुप्रास था और कहीं नहीं था, उदाहरणार्थ पंत जी का निष्ठुर परिवर्तन' या सियारामशरण गुप्त की 'याद' १४ निराला जी ने मुक्तछन्दों का विशेष प्रचार किया। उनकी जुही की कली' १६१७ ई० में ही लिखी गई थी। परन्तु अपनी अति नवीनता के. कारण हिन्दी-पत्रिकायो में स्थान न पा सकी। उनकी 'अधिवास'५ ग्रादि कविताएँ आगे चल कर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई। इन मुक्तछन्दों में स्वच्छन्द छन्दो की छन्दलय का स्थान स्वाभाविक मावलय ने ले लिया । . प्रियप्रवास, सर्ग २, पद ३५ ॥ २. उदाहरणार्थ, हरिऔध जी का 'दमदार दावे'-~-- प्रभा, मार्च, १९२४ ई० पृ० २१३ । ३. यथा, आधुनिक कवि' २ के पृष्ट - पर । ४ प्रभा, नवम्बर, १९२४ ई०, पृष्ट ३७६ । ५ माधुरी भाग ! सर २, ५० १५३ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ । द्विवर नी ने उ के ३ र + प्रयाग का आदेश दिय 'लाला गगवाट न 7 अपने बीरपंचरत्नम, अयोन्यामिह उपा चाय ने नपन चौपढ़ो और छादी में तथा गन्य कवियों ने भी अपनी रचनाओं में उर्दू बों का प्रयोग किया ! द्विवेदी जी ने कविया न यह भी अाग्रह किया कि वे अपने मिद्ध छन्दों का ही व्यवहार करें । मेथिलीशरण गुप्त ने अपने मवे हुए छन्द, हरिगीतिका में ही 'भारत-भारती' और 'जयद्रथवध' लिम्वा । मापानशरणमिह ने धनाबरी और सवैया में ही अपनी अधिकाश रचनाएं की। जगन्नाथ दाम ने गेला और बनानी का ही अधिक प्रयोग किया। अनुक्रान्त कविता को भी द्विवेदी जी ने विशेष प्रोन्माहन दिया ।३ कविता का यह रूप भी द्विवेदी-युग की एक महत्वपूर्ण विशेषता है । यद्यपि मबलसिह चौहान, सरजूप्रमाद मिश्र, श्रीवर पाठक, देवीप्रसाद पूर्ण श्रादि काँचै तुकान्तहीन कविता कर चुके थे परन्तु संस्कृत वृत्ता और अतुकान्त कविता को अंन्यानुप्रामयुक्त कविता के समान ही प्रतिष्ठित करने का श्रेय द्विवेदी जी और उनके युग को ही है । द्विवेदी जी की 'हे अक्ति' और श्रीधर पाठक का 'वर्षा-वर्णन' १६०१ ई० म तथा कन्हैयालाल पोहार का 'गोपी गीत १९८२ ई० की मरस्वती में प्रकाशित हो चुके थे। अनुकान्त कविता का वास्तविक प्रबाह १६०३ ई० मे चला ! कन्हैया नाल पोहार को अन्योक्ति दशक' और अनन्तगम पाडेय के कपटी मुनि नाटक' में वणिक और मात्रिक अत्यानुप्रामहीन छन्दों के दर्शन हुए। पूर्ण जी के 'भानुकुमार नाटक' (१६०४ ई.) में नी यत्र नत्र अतुकान्त पदों का प्रयोग हुया है । 'मरस्वती' ने इस प्रवाह को आगे बढाया । १६०४ ई० में 'मृत्युजय' (पूर्ण), 'तुम बमन्त सदेव बने रहो (जन्नाप्रसाद पाण्डेय, और 'शान्तिमती शव्या' ( सत्यशरा रतूडी), ७५ ई. म 'शिशिर पथिक' ( रामचन्द्र शुक्ल), 'प्रभात-प्रमा' ( सत्यशरण रतूड़ी), 'भारवि का शरदवर्णन ( श्रीधर पाठक) अादि कविताएं प्रकाशित हुई और यह क्रम चलता रहा । १६ ई. में हरिऔध जी का दाव्यापवन' कविता-संग्रह प्रकाशित हुआ निमम उन्हान १. अाजकल के बोल चाल की हिन्दी की कविता उर्दू के विशेष प्रकार छन्दों में अधिक म्वुलना है, अतः ऐसी करिना लिखने में बदनु बज छन्द प्रयुक्त होना चाहिए। ___-~-रमजरंजन', पृ. ३ । २, "कुछ कवियों को एक ही प्रकार का छन्द मध जाना है, उस ही वे अच्छा लिख सकते है उनको दूसरे छन्द लिखने का प्रयत्न भी न करना चाहिए। 'रमशरजन' पृ. ४ ॥ ३ पाठान्त में मनुप्रामहीम इम्प भी हिन्दी में लिखे जाने चाहिए । रसशरजन पृ०४ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | २ कल्पित छन्दों का भी प्रयाग किया मय+नत्रक' और दिनेश दशक कविताला म शादूलबिक्रीडित की छाया लेकर मात्रा वृत्त में ग्रतुकान्त कविता का एक नूतन और अनूठा उद्योग किया ।' 'इन्दु' की चौथी और विशेषकर पाचवी कलाओं में राय कृष्णदास, जयशंकर प्रसाद मुकुटधर पांडेय आदि की अनेक अन्त्यानुप्रासहीन कविताएँ प्रकाशित हुई । सं० १९७० में जयशंकरप्रसाद का 'प्रेम-पथिक' और १६७१ में हरिऔध जी का 'प्रियप्रवास' अतुकान्त वृत्ता में प्रकाशित हुए । इस प्रकार हिन्दी में अतुकान्त कविता का रूप मान्य और प्रतिष्ठित हो गया | ध्वन्यालोककार आनन्दवर्द्धन आदि संस्कृत-साहित्य-शास्त्रियों ने रसभावानुकुल वृत्ता के प्रयोग की आवश्यकता पर विशेष जोर दिया था । द्विवेदी जी ने भी कविता के इस आवश्यक पक्ष की ओर कवियों का ध्यान आकृष्ट किया | ३ द्विवेदी युग के प्रारम्भिक वर्षो मे पंडित, असिद्ध और यशः कामी कवियों ने टूटी-फूटी तुक बन्दियों के द्वारा ही यश लूट लेने का प्रयास किया । 'सरस्वती' की हस्तलिखित प्रतिया इस बात की साक्षी हैं। कुछ ही वर्षो में भाषा का परिमार्जन हो जाने पर सिद्ध कवियों ने इस ओर पूरा ध्यान दिया । अयोध्या सिह उपाध्याय ने प्रियप्रवास' में रमभावानुकुल छन्दों का प्रयोग किया । यथा, शृंगार और करुण की व्यंजना के लिए द्रुतविलम्बित, वियोग वर्णन में मालिनी और मन्दाक्रान्ता, उत्साह के योग मे वंशस्थ आदि । मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, जयशंकरप्रसाद, सुमित्रानन्दन पंत आदि कवियों ने भी भावानुकूल छन्दो में कविताएं की। द्विवेदी जी ने भाषा की सरलता और सुबोधता पर पर्याप्त ध्यान दिया ! 3 अपने सम्पादनकाल के प्रारम्भिक वर्षो में उन्हें काव्य-भाषा का भी कायाकल्प करना पड़ा । उन्होंने कवियो को केवल उपदेश ही नहीं दिया, उनकी अर्थहीन या अनर्थकारिणी भाषा का आदर्श संशोधन भी किया । निम्नांकित उद्धरण विशेष अवेक्षणीय है ----- मूल संशोधित (क) रव वह सब ही का हो तभी व्यर्थ ही है, कलरव गति सब की भाम होती बुरी है । १. उदाहरणार्थ, राका रजनी के समान रंगिरिण जिसकी मनोहारिणी । रूपवती रोहिणी आदि जिसको हैं सप्तविशति प्रिया | हा जगदीश्वर । वह कबोकपति मी गुरु-वाम- गामी हुआ । कामीजन का अवरणीय कुछ भी संसार में है नहीं || 'कव्योपवन', मयंकनवक पृष्ठ ७२ । २ " वर्णन के अनुकूल वृत्त प्रयोग करने से कविता का यास्वदान करने वालों को अधिक आनन्द मिलता है - " 'रसज्ञरंजन' पृ० २ कचि को ऐसी भाषा विखमी चाहिए जिस सब काई सहज में समझ ल और पर्य रमझर जन प्र० ५ कर सक . Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { २८ जब पिक दिखलाती शब्द की चातुरी जब पिक दिग्वलानी शब्द की चानुरी है। (न्त्र )पय प्रकटल सुन्दर छवि तेरी, पर लरी छवि देव जान की, ज्ञान ध्यान विस्मृत हो जाये। गरिमा गुम हो जाती है। मुध बुध रहै न कुछ भी अपनी, सुध बुध रहती नहीं चित्त मे, न ही तू मन में बस जावे ॥२ तृ ही तू बस जाती है।। (ग) एक नयन कर लगत हमारा, नयन बाण तरा लगते ही, चित पानी पानी हो जाता। दिल पानी पानी हो जाता है। 'क' की मौलिक पंक्ति विशेष चिन्त्य है । 'बह मय ही का हो', इस बायाश का क्या अर्थ है ? उस पंक्ति में अर्थ या पद सौन्दर्य भी नहीं है । अत्यानत्रास भी अधम कोटि का है। सशोधित पद में प्रसाद और माधुर्य के कारण विशेष मौन्दर्य आ गया है। मुन्दर अन्न्यानुप्रास ने उसे और भी उत्कृष्ट बना दिया है : 'ख' की मौलिक प्रथम पंक्ति से प्रकट होता है कि कवि का अभिप्राय आशीर्वादात्मक वाक्य-कथन नहीं है। वह अपनी बात मामान्य वर्तमान में ही कहना चाहता है किन्तु उनकी भाषा उसके अभीष्ट अर्थ की व्यंजना करने में असमर्थ है । मंशोधित पद में उसकी यह अर्थहीनमा दूर कर दी गई है । 'ग' को मौलिक प्रथम पंक्ति में हमारा' सर्वनाम का प्रयोग इस अर्थ का द्योतक है कि कवि का नयनशर लगते ही लोगों का चित्त पानी पानी हो जाता है । किन्तु यह अर्थ कवि के तात्पर्य के विपरीत है । कविता तरुणी को संबोधित करके लिग्वी गई है और कवि कहना चाहता है कि तुम्हाग नयनशर लगने ही मेरा चित्त पानी पानी हो जाता है । वह इस बात को ठीक कह नहीं सका है। संशोधित पंक्ति इन अर्थ को स्पष्ट कर देती है। द्विवेदी जो के मद्योग में हिन्दी काव्यभाषा की क्लिष्टता, जटिलता और असमर्थता दृर हो गई। इसका प्रमाण अागे चलकर 'जयद्रथयध', 'भारत-भारती', 'प्रियप्रवास', 'माधवी', 'पथिक', 'पंचवटी' आदि रचनाओं में मिला। द्विवेदी जी के शिष्य मैथिलीशरण की प्रसन्न कविताओं ने लोगों को हिन्दी और ऋविता ने प्रेम करना मिग्याया। द्विवेदी युग के पूर्वाद्ध में अधिकाश ऋत्रियों की भाषा व्याकरण-विरुद्ध प्रयोगो में व्याप्त थी। द्विवेदी , कोकिल'-सेठ कन्हैयालाल पोहार-सरस्वती की हस्तलिखित प्रतियां १६.१०, कलाभवन, काशी नागरी प्रचारिणी सभा। २. तरुणी'-गंगासहाय--सरस्वती की हस्तलिखित प्रतियां १६०४ ई० कलाभवन, काशी नागरी प्रचारिणी सभा। ३ 'तरुणी गंगासहाय-सरस्वती की हस्तलिखित प्रतियां ११००, नागरी प्रचारिणी सभा Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीमुपदेश और पशोधन द्वारा उमर पारेकार कया एक दो उदाहरण अबलोकनीय संशोधित (क) मिला अहो मंजु रसाल डाल से मिला अहो क्या सुरसाल डाल से ? तथैव क्या गुंजित भृगमाल से ?' किंवा किसी गुंजित भृगमाल से ? (ख) अोढ़े दुशाले अति उष्ण अंग, अच्छे दुशाले, सित, पीत, काले, धारें गरू वस्त्र हिये उमंग : हैं श्रोढ़ते जो बहुवित्त थाले । तो भी करें हैं सब लोग सी, सी, तौ भी नहीं बन्द अमन्द सी, सी, हेमन्त में हाय कंपे बतीसी । हेमन्त में है कंपती बतीसी ।। पहले उदाहरण की प्रथम मौलिक पंक्ति में कोई प्रश्नवाचक सर्वनाम नहीं है और फिर भी प्रश्नवाचक चिन्ह लगाया गया है। उसकी द्वितीय पंक्ति में तथैव' की योजना सर्वथा असंगत है। संशोधित पद में 'क्या' और 'किवा' के व्याकरणसंगत प्रयोग से अधिक लालित्य श्रागया है। दूसरे उदाहरण में 'श्रो', 'धारे आदि क्रियारूपों का प्रयोग गलत हुआ था । 'कर है' और 'कंपे' के रूप भी खड़ीबोली की दृष्टि से अशुद्ध हैं । संशोधित पद में 'तो' का प्रयोग गलत है, किन्तु उस काल में 'श्री' के स्थान पर 'श्री' का प्रयोग करने की व्यापक प्रवृत्ति थी जिसका निश्चित सुधार द्विवेदी-युग के उत्तरार्द्ध मे हुश्रा । कभी कभी तो तुश्कड़ पद्मकर्ता छन्द की गति और यति की अवहेलना करके अपना तूफान मेल निर्बाध गति से छोड़ देते थे. उदाहरणार्थ: नुव दरसन ही प्रेम उमारे, तुलना अनुभव यहां मिवाता है। और द्विवेदी जी को इस प्रकार की तुकचन्दियों की निर्दयतापूर्वक शल्य-चिकित्सा करनी पड़ती थी। द्विवेदी जी ने कवियों से विषयानुकूल शब्द स्थापना, अक्षरमैत्री, क्रमानुसार पद योजना आदि का भी अनुरोध किया। द्विवेदी-युग के प्रथम चरण की 'सरस्वती' मे १. 'कोकिल'-कन्हैयालाल पोहार-सरस्वती की हस्तलिखित प्रतियां ११०४ ई०. कला भवन, काशी नागरी प्रचारिणी सभा । २. 'हेमन्त'-मैथिली शरण गुप्त सरस्वती की हस्तलिखित प्रतियां १६०५ ई० । ६. 'तरुणी'- गंगासहाय---सरस्वती की हरनलिखित, प्रनियां १६० ई० कलाभवन, काशी नागरी प्रचारिणी सभा ४. विषय के अनुकूल शब्दस्थापना करनी चाहिए 'शब्द चुनने में अक्षरमैत्री का विशेष विचार रखना चाहिए "शब्दों को यथा स्थान रखना चाहिए।" रसशारजन, पृष्ट ६ . Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "} प्रकाशित कविता का इम्नाल त प्रतियां द्विवदा जी की गुस्ता का वहुत कुछ अनुमान करा देती है । माकारण कवियों की कविताओं में ही नहीं, महाकवियों की कविताओं में भी शब्दों का व्यतिक्रम हुआ है जिसके प्रवाह में शिविन्दता और सौन्दर्य में कमी आ गई है। हरि जी की कविता का एक उदाहरण निम्नति है शोधित पेड हर सब हो जाते है नये नये पत्ते लाते है वह कुछ ऐसे लद जाते हैं दिसा मय महकने लगती हैं। " बहुत भले वह दिखलाते है after बहने लगती है। दिशा संहकने म लगती है। उपर्युक्त उद्धरण में कुछ बातें विशेष अन्य हैं । हरे 'पेड़' का विशेषण न होकर दो जात है' का पूरक हैं अतएव उसका 'पेड' शब्द के बादशाना ही अधिक शोभाकारक होता । नीमय यक्ति की लय में बोथी पंक्तिकी लय मिलती ही नहीं 'बहुत भन्ते' का पूर्ववर्ती होकर गुरु 'जो' ने उस पंक्ति के प्रभाव में एक बाब सा डाल दिया है। छठी पंक्ति की लय को अविरल रखने के लिए 'महकने' की विभाजित करना पड़ता है, 'महक', 'सब' के साथ और 'ने' लगती के साथ चला जाता है। इस प्रकार का विच्छेद मंगत नहीं जंचता । द्विवेदी जी के संशोधन ने इन सब दोषों को दूर कर दिया है। मूल हरे पेड़ सब हो जाते हैं नये नये पत्ते लाते हैं वह कुछ ऐसे लद जाते है जा बहुत भले दिखलाते है मी हवा चलने लगती है गद्य और पद्य की भाषा एक करने पर भी द्विवेदी जी ने विशेष जोर दिया। उनके पहले से भी बडी बोली में कविता करने का प्रयास हो रहा था । द्विवेदी जी का गौरव इस बात में है कि उनके आदर्श उपदेश और सुधार के परिणाम स्वरूप ही हिन्दी-संसार ने गद्य को भाषा को ही ना की माया स्वीकार कर लिया । १६०६ ई० में द्विवेदी जी ने 'कविताकलाप' संग्रह प्रकाशित किया जिसमें द्विवेदी जी, राय देवीप्रसाद, कामताप्रसाद गुरु, नाथूराम १ 'कोयल', 'सरस्वती, हस्तलिखित प्रतियां १९०६ ०. कलाभवन, काशी नागरी प्रचारिणी सभा | २. "गद्य और पत्र की भाषा पृथक् पृथक् न होनी चाहिए। यह निश्चित है कि किसी समय बोलचाल की हिन्दी भाषा ब्रजभाषा की कविता के स्थान को अवश्य छीन कगी इसलिए कवियों को चाहिए कि वे क्रम क्रम से गद्य की भाषा में कविता करना S { READ ON T Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शमा और मैथिलीशरण गुप्त की कविताए सकलित या , अधिकाश कविताए स्खला बाला का ही थीं । काव्य-भाषा की दृष्टि से द्विवेदी-युग के तीन विभाग किए जा सकते हैं-१६०३ ई० से १६०६ ई. तक, १९१० ई० से १९१७ ३० तक और १९१७-१८ ई० से १६२५ ई० तक । नागरी प्रचारणी सभा के कला भवन में रनित 'मरस्वती' की हस्तलिखित प्रतिया और तत्कालीन विभिन्न पत्रिकाओं तथा पुस्तकों की भाषा से सिद्ध है कि १९०६ ई. तक खडी बोली का मजा हुआ रूप उपस्थित नहीं हो सका। काव्य मापा का सुधार करने में द्विवेदी जी को गद्य-भाषा संशोधन की अपेक्षा कहीं अधिक घोर परिश्रम करना पड़ा था। भाषा की यह दुरवस्था १९०६ ई० तक ही विशेष रही । 'कविता कलाप' में उसका कुछ सुधरा हुया रूप प्रस्तुत हुआ है । उसमे शब्दो की तोड़ मरोड बहुत ही कम की गई । उनकी कवितानो में खड़ी बोली का व्याकरण-सम्मत और धारा प्रवाह रूप प्रतिष्ठित हुा । १६१० ई० मे 'जयद्रथ बध' मे रोज, प्रसाद और माधुर्य से पूर्ण खड़ी बोली का श्रेष्ठ रूप उपस्थित हुआ। तत्पश्चात 'प्रिय प्रवास' और 'भारत-भारती' के प्रकाशन ने खड़ी बोली के विरोधियों को सदा के लिए चुप कर दिया। १९१७ ई० मे 'सरस्वती' में 'साकेत' के अश प्रकाशित होने लगे। इसी वर्ष 'निराला' ने अपनी 'जुही की कली' लिखी। इसी वर्ष के पास पास मे पंत और प्रमाद की कविताएं भी समाहत होने लगी थीं। इस अवस्था मे द्विवेदी-युग की काव्य-भाषा में दो प्रकार के परिवर्तन हुए । एक तो लाक्षणिक, ध्वन्यात्मक और चित्रात्मक शब्दों का प्रयोग बढने लगा और दूसरे हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त आदि की कविताओं में हिन्दी के मुहावगं और कहावतो का भी विशेष प्रयोग हुआ। अभिनिवेशपूर्वक विचार करने से द्विवेदी-युग की काव्य-भाषा में अनेक विशिष्टताएं परिलक्षित होती हैं । द्विवेदी-युग ने खड़ी बोली की प्रतिष्ठा के लिए परिस्थितियो के विरुद्ध कठिन संग्राम किया। उस युग के महान् कवियो को भी छन्द की मर्यादा का निर्वाह करने के लिए 'और' के स्थान पर 'श्री' तथा 'तक', 'पर', 'एक' श्रादि के लिए क्रमशः 'लो', प', 'यक श्रादि का प्रयोग करना पड़ा।' कही वे पदो के समास करने में संस्कृत या हिन्दी व्याकरण के नियमों का उल्लंघन करने के लिए बाध्य हुए।२ खड़ी बोली की प्रारम्भिक कविताओं में प्रसाद, अोज और माधुर्य की कमी है। आगे चल कर भाषा के मॅज जाने पर ये त्रुटियाँ अपवाद रूप में ही दिखाई पड़ीं ! उम युग की कविता की सर्वव्यापक विशेषता उसका प्रसाद गुण है । 'भारत भारती' अपनी प्रासादिकता के कारण ही , भिषामबास में इस प्रकार के प्रयोगों की बहुलता है Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ हिन्दी-जनता का हृदयहार बन गई थी । प्रिय प्रवास श्रादि रचनाए अतिशय संस्कृत प्रधान होते हुए भी प्रसन्न है। प्रमाद गुण किमी एक ही भाषा या बोली की मम्पत्ति नहीं है , वह बोलचाल, उर्दू फारसी या संस्कृत की पदावली में समान रूप से व्याप्त हो सकता है । कवि की भाव व्यंजना ऐसी होनी चाहिए जिसे पड़ या सुन कर पाठक या श्रोता के हृदय में अबाध रूप मे ही प्रसन्नता की अनुभूति हो जाय । युग के प्रारम्भ या अन्त में कुछ कवियों की कविता का दुरूह हो जाना उनकी व्यक्तिगत अभिव्यंजना-शक्ति की निर्वलता का परिणाम था। पंत, प्रसाद या माखनलाल चतुर्शीदी की कुछ ही कविताएं गूढ़ हैं। ग्वनि के रहते हुए भी कविता सरल और सुबोध हो सकती है। ओज गुग का विशेष चमत्कार नाथूराम 'शकर', मारवनलाल चतुर्जेदी और सुभद्राकुमारी चौहान की रचनाओं में दिखलाई पड़ा। आर्य समाजी होने के कारण नाथूराम शर्मा मे अश्वपन, निर्भीकता और जोश की अधिकता थी। माखनलाल चतुर्वेदी और मुभद्राकुमारी चौहान देश के स्वतन्त्रता-मंग्राम में सक्रिय योग दे रही थी। अतएव उनकी अभिव्यक्ति का श्रांजोमय हो जाना अनिवार्य था। राजनैनिक और धार्मिक हलचल ने कवियों के मन में एक क्रान्ति सी मचा दी। उन्होंने समाज, साहित्य अदि की बुराइयों पर लट्ठमार पद्वति द्वारा आक्रमण किया । मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्या सिह उपाध्याय गोपालशरणमिह श्रादि की कविताओं में माधुर्यमयी व्यंजना हुई । विशेष रमणीयता-प्रतिपादक कोमलकात पदावली का दर्शन आगे चलकर पंत की कविताओं में मिला। द्विवेदो-युग की कविताओं में भी सभी प्रकार की भाषा का प्रयोग हुअा। एक श्रोर तो सरल और प्राजल हिन्दी का निरलंकार सहज सौन्दर्य है और दूसरी ओर संस्कृत की अलंकारिक समस्त पदावली की छटा ।३ वहीं तो प्रसन्न वाक्यविन्यास का अजल प्रवाह है। और कहीं छायावादी कवियों की अतिगूड व्यंजना ।५ एक स्थान पर मुहावरो और बोल चाल के शब्दो की झड़ी लगी हुई है तो दूसरे स्थल पर उन्हे तिलाजलि भी दे दी गई है। १. उदाहरणार्थ १६०८ ई. की 'सरस्वती' में प्रकाशित नाथूराम शर्मा की पंचपुकार' और मैथिलीशरण गुप्त की पंचपुकार का उपसंहार' कविताम् । २. उदाहरणार्थ 'जयश्रवध ॥' ३. , प्रियप्रवास ॥" ४. ., भारतभरनी ॥ निराला-लिखित “अधिवास' कविता । माधुरी भाग १, खंड २, संख्या ४, पृ. ३५३ । हरिऔध जी के भने और 'चोखे चौपदे ।' प्रियप्रवाम a wa Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] वहीं बाच्यप्रधान वर्णनामक शैली में वस्तुपस्थापन किया गया है तो कहा लक्ष्यप्रधान faaree शैली का चमत्कार है | १ द्विवेदी जी ने कवियों को विषय परिवर्तन की भी प्रेरणा दी। उन्होंने नायक-नायिका श्रादि के शृंगारादि वन और अलंकार, समस्यापूर्ति आदि के जाल से ऊपर उठकर सामाजिक, प्राकृतिक श्रादि स्वतंत्र विषयो पर फुटकर कविताएं तथा आदर्श चरित्रों को लेकर प्रबन्ध-काव्य लिखने का निर्देश किया । यो तो भारतेन्दु-युग ने भी शृंगारेतर रचनाए की थीं परन्तु वे अपेक्षाकृत बहुत कम थीं । द्विवेदी युग ने शृंगारिकता से आगे बढकर जीवन के अन्य पक्षो पर भी उचित ध्यान दिया । शृंगार प्रधान रचनाओ में भी उसने प्रेम को व्यापक, विश्वजनीन या रहस्योन्मुख रूप देकर उसे उत्कृष्ट बना दिया । वय विषय की दृष्टि से उस युग की कविताओं का दुहरा महत्व है । एक तो उन कवियों ने नवोन विषय पर रचनाएं की और दूसरे परम्परागत मानव, प्रकृति आदि विषयो को नवीन दृष्टि ने देखा | I युगनिर्माता द्विवेदी के सामने जो उदीयमान कविसमाज था उसमे ईश्वरदत्त प्रतिभा भले ही रही हो परन्तु लोक, शास्त्र आदि के श्रवेक्षण से उत्पन्न निपुणता और अभ्यास की न्यूनता थी । द्विवेदी जी ने विषय परिवर्तन की घंटी तो दे दी किन्तु नौसिखिए कवियों को परम्परागत विषयों के अतिरिक्त काव्योपयुक्त अन्य विषय दिखाई ही न पडे । स्वयं द्विवेदी जी रविवर्मा के चित्रो से प्रभावित होचुके थे और उनपर कविताएं भी की थी । अनुगामी कविसमाज ने भी अन्य सुन्दर विषयों को न पाकर परम्परागत विद्या, कमल, कोकिल, ऋतु श्रादि के अतिरिक्त रविवर्मा यादि के कलात्मक चित्रों को लेकर उनपर वर्णनात्मक कविताएं लिखी । इनका एक संकलन १६०६ ई० में 'कविताकलाप' के नाम में प्रकाशित भी हुआ ! चित्रविषयक कविताएं प्रायः द्विवेदी युग के प्रथम चरण में ही लिखी गई । इन कविताओं में कवियों ने चित्रकार और कही कही उन्हें प्रकाशित करने वाली 'सरस्वती' का भी उल्लेख किया | 3 धार्मिक कविता के क्षेत्र में उस युग के कवियों की मनोदृष्टि की नवीनता अनेक रूपो में व्यक्त हुई । पौराणिक अवतारवाद से प्रभावित भक्तिकाल ने राम और कृष्ण को ईश्वर के रूप में चित्रित किया था। बीसवी शती ई० के विज्ञानयुग में उनके मानवीकरण की } १. उदाहरणार्थं मैथिलीशरण गुप्त 'किसान ।' २ 'सू' श्रनि । अर्जुन और सुभद्रा श्रमिकविताम Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रक्रिया सर्वथा स्वामाविक था इसका यह अथ नहीं है कि उसम प्रियप्रवास' और 'माकेत' तथा पंचवटी में कृष्ण और गम का मानवरूप में चरितचित्रण करने वाले अयोध्यासिंह उपाध्याय और नैथिलीशरण गुप्त ने उन्हे अवतार न मानकर मनुष्य रूप मे ही ग्रहण किया ! उन कवियो के श्रात्मनिवेदन में यह स्वयं मिद्ध है कि उन्होंने कृष्णा और राम को ईश्वर माना है ।' उन्हे महापुरुष के रूप में चित्रित करने का कारण यह है कि अाधुनिक युग का विज्ञानवादी संसार उन्हें ईश्वर स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत नहीं था और उन कवियो को साहित्य-जगन् को ऐसी वस्तु देनी थी जो अबतारवादियों तथा अनवतारवादियो को समान रूप से रोचक और उपयोगी हो। ईश्वर के रूप में राम और कृष्ण का चरित्र अंकित करने से एक हानि भी हुई है। रामचरित मानस' या 'सूरसागर' का पाठक ईश्वररूप गम और कृष्णा का अनुकरण करने का कभी प्रयास नहीं करता क्योकि वह मान बैठा है कि राम और कृष्ण ईश्वर थे अतएव उनके कृत्य भी अतिमानवीय थे और उन कृत्यों का अनुकरण करना मनुष्य के लिए असम्भव है । वाल्मीकि और व्यास की भाति राम और कृष्ण को महापुरुष के रूप में प्रतिष्ठित करके द्विवेदी-युग ने हिन्दी-जनता के समक्ष अनुकरणीय चरित्र का श्रादर्श उपस्थित किया ? द्विवेदी-युग के कवियों की दृष्टि अवतार तक ही सीमित नहीं रही। उन्होंने विश्वकल्याण और लोकसेवा को भी ईश्वर का आदेश और उसकी प्राप्ति का साधन समझा। इस रूप के प्रतिष्ठापक कवियों ने यह अनुभव किया कि भगवान् का दर्शन विलास और भव की अानन्दभूमि मे रहकर नहीं किया जासकता, वह तो दीन दुखियों के प्रति महानुभूति और उनके दु:ग्व-निवारण में ही मिल सकता है, यथा--- मैं ढूंढता तुझे या जब कुंज और वन में। न खोजता मुझे था तब दीन के सदन में ॥ दू अाह बन किमी की नुझको पुकारता था। मैं था तुझे बुलाता संगीत में भजन मे ! मेरे लिए खड़ा था दुखियों के द्वार पर तू । मै बाट जोहता था तेरी किसी चमन में ॥२ ३. उदाहरणार्थ प्रियप्रवाम' की भूमिका में हरिऔध जी ने कृष्ण को महापुरुष माना है, ईश्वर का अवतार नहीं। माकेत' के प्रारम्भ में मैथिलीशरण गुप्त भी कहते हैं 'राम तुम मानध हो. ईश्वर नहीं हो क्या ? २ अन्देषण --रामनरेश त्रिपाठी माधुरी भाग , पर मम्मा ! १०॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २६६ । दाशनिक कवियां ने ईश्वर को किसी मन्दिर या अवतार म न देखकर और मावना ये संकुचित धेरे से निकाल कर विराट रूप में उसका दर्शन किया जिस मंदिर का द्वार सदा उन्मुक्त रहा है । जिस मंदिर मे रंक नरेश समान रहा है ।। जिसका है श्राराम प्रकृति कानन ही माग। जिस मंदिर के दीप इंदु, दिनकर श्री तारा ।। उस मंदिर के नाथ को निरुपम निर्मम स्वस्थ को । नमस्कार मेरा सदा पूरे विश्व गृहस्थ को ॥ अवतारी और देवी-देवताओं, राजाओ तथा अन्य ऐतिहासिक महापुरुषों, कल्पित नायक-नायिकानो और प्रेम-कथानों आदि का वर्णन करते २ हिन्दी-कवि थक गए थे। इसी समय प्राचार्य द्विवेदी जी ने उन्हें विषय-परिवर्तन का आदेश किया। उनके युग के कवियों की दृष्टि परम्परागत स्थान पर ही केन्द्रिन न रह सकी और उन्होंने असाधारण मानवता तथा देवता से आगे बढ़कर सामान्य मानव समाज को भी अपनी रचनाओं का विषय बनाया। भारतेन्दु-युग ने भी सामाजिक कुरीतियों पर आक्षेप किया था और कहीं कहीं दलितों के प्रति सहानुभूति भी दिखाई थी। किन्तु वह प्रगति अपेक्षाकृत नगण्य थी। कवि द्विवेदी की भाति उनके युग के कवियो की सामाजिक भावनाएं भी चार रूपों मे व्यक्त हुई ममाज के सन्तत वर्ग के प्रति सहानुभूति, समाज को कुरीतियों से बचने और सन्मार्ग पर चलने का स्पष्ट उपदेश, उसकी बुराइयों का ब्यंग्यात्मक उपहास तथा पतनोन्मुग्नु समाज की, उमकी बुराइयों के कारण, कठोर भर्सना । महानुभूति के प्रधानपात्र अऋत, किसान, मजदूर, अशिक्षित नारिया, विधवा, भिक्षुक श्रादि हुए १२ किसान और मजदूर की ओर विशेष ध्यान दिया । द्विवेदी जी ने 'अवध १. 'नमस्कार'-जयशंकर प्रसाद, इंदु कला ४, मंद २, पृ. ।। २. उदाहरणार्थ (क) ग्वपाया किए जान मजदूर, पेट मग्ना पर उनका दूर । उड़ाते माल धनिक भर पूर, मलाई लड्डू, मोतीचूर ॥ मुधरने मे है जा के देर, अभी है बहुत बड़ा अंधेरा ॥ अन्नदाना है धीर किसान, सिपाही दिखलाते हैं ज्ञान । डराते उन्हें तमाचा तान, तुम्हे क्या सूझी हे भगवान ! श्रावले बट्टे मीठे बेर ! किया है क्यों ऐसा अन्धरा ? मनेहा मय भाग १५ सख्या ५ पृष्ठ ४६ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क किमाना है। बर दी नमक पुस्तक में जमींदर द्वारा किमाना पर किए गए अत्याचारों का चित्रण किया था, परन्तु वह पुस्तक गद्य में थी ! कविता के क्षेत्र मे मैथिलीशरण गुप्त के 'किमान' ( १६१५ ई०), गयाप्रमाद शुक्ल सनेही के 'कृपक क्रन्दन' ( १६१६ ई० ) और सियारामशरण गुप्त के 'अनाथ' ( १.६१७ ई० में किसान और श्रमजीवी के प्रति जमीदार, महाजन और पुलिम आदि के द्वारा किए गए घोर अत्याचारी का निरूपण हा। द्विवेदी-युग में की गई इस प्रकार की कविताए आगामी प्रगतिशील काव्य की भित्ति क रूप में प्रस्तुत हुई। कविया की उपदेश-प्रवृत्ति मुख्यतः धर्मप्रचारको की देन थी। ईमाइवा, ब्राह्मसमाजिया, आर्यसमाजिया मनातनधर्मियों आदि ने अपने अपने मता का प्रचार करने के लिए देश के विभिन्न स्थानों में घूम घूम कर धार्मिक उपदेश दिए। उनकी सफलता से प्रभावित हिन्दी साहित्यकारों ने भी इस शैली को अपनाया । मैथिली शरण गुप्त ने अपनी 'भारतभारती' में ब्राह्मणो, क्षत्रिया, वैश्यो और शूद्री को उनके धर्म कर्म की हीनदशा का परिचय कराते हुए उन्नत होने के लिए विशेष उपदेश दिया। इस उपदेश के पात्र कवि आदि भी हुए। मामाजिक अभिव्यक्ति का तीसरा रूप-व्यंग्यात्मक उपहास-~-तीन प्रकार के विषयों को लेकर उपस्थित किया गया। कही तो नई सभ्यता मस्कृति और नए प्राचार-विचार की अपनाने वाले नवशिक्षित बाबुत्रो की हंसी उडाई गई, कहीं अपरिवर्तनवादी धार्मिक कट्टरपंथियों के समयविरुद्ध धर्माडम्बर पर हास्य मिश्रित व्यंग्य किया गया । और कही (ब) अाज अविद्या मूर्ति सी है सब श्रीमतियाँ यहा । दृष्टि अभागी देब ले उनकी दुर्गतियाँ यहा ॥ गोपलशरणसिंह--सर०, भाग, २६, संख्या ६ । (ग) निराला जी की 'विधवा' और 'भिक्षुक' [ परिमल में संकलित ] १. यथा:-... केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए । उसमे उचित उपदेश का भी मम होना चाहिए । नैथिलीशरण गुप्त--'इन्दु', कला ५, किरण १, पृष्ठ ६५ । छठे हिन्दी साहित्य सम्मेलन का कार्य-विविरण, भाग २, पृष्ठ ४३, ४४ । २ अथा:-१६८ ई. की सरस्वती' में प्रकाशित नाथूराम शर्मा की 'पंचपुकार' । ३ बोग उतना ही बताते हैं तुम्ह रंग वितन ही बरे हों चढ़ गए पर निलक उप बाम का माना नहीं इस तरह मुम घर ग या व गए Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 अपनी ही बात को प्राप्त एवं प्रधान मानने वाले साहित्यिकों, समालोचकों, सम्पादकों आदि पर आक्षेप | भर्त्सनामय अभिव्यक्ति समाज के उन दिग्गजों के प्रति थी जो बार बार समझाने पर भी, समाज के अत्यन्त पतित होजाने पर भी, श्राखें खोलने को प्रस्तुत न थे और अपनी हठधर्मी के कारण अशुभ पथ पर चल रहे थे । यह अभिव्यक्ति कही तो वाच्यप्रधान थी जिसमे सीधे शब्दो द्वारा समाज को फटकार बताई गई थी, यथा यह सुन मेरी विकट बोलिया चौक पड़े चंड्रल | पर जो हिन्दू बात कहेगा हिन्दी के प्रतिकुल || उसे घर घर धिक्कारूंगा । किसी मे कभी न हारूंगा || और कही व्यंग्यप्रधान थी जिसमें काकु आदि के सहारे हठधर्मियां पर तीव्र आक्षेप किया गया, यथा- सुने स्वर्ग ने लौ लगाते रहो, पुनर्जन्म के गीत गाते रहो । डरो कर्म प्रारब्ध के योग से, करो मुक्ति की कामना भोग मे । नई ज्योति की ओर जाना नहीं, पुराने दिये को बुझाना नहीं || समाज की आलोचना रूप में प्रस्तुत इन कविताओं की अन्त: समीक्षा करने पर कुछ बातें स्पष्ट होजाती है । उन कवियो का उद्देश समाज-सुधार था । वे चाहते थे कि समाज अपनी सभ्यता, संस्कृति और वातावरण के अनकूल केचुल को छोड़ दे और मातृभाषा का सम्मान करे | साहित्यकारों के विषय मे उनका मत था कि वे व्यर्थ की हठधर्मी और इस तरह के हैं कई ठीके बने, जो कि तन के रोग को देते भगा । जो न भन के रोग का टीकाबना, तो हुआ क्या लाभ यह टीका लगा | afrate 'सरस्वती', भाग १६, संख्या २ | १. यथा: - कोकिल, तू क्यों 'कुक' 'कुक' रटता रहता है ? करके उसमे सन्धि न क्यो कृक कहता है ? आलोचक जी, रीति मुझे भी यह जँचती है । बात वही है और एक मात्रा बचती है । सुनिए वह घुग्घू यह विषय कैसा अच्छा जानता । है 'ऊ' 'घु-ऊ' कहकर न जो 'घू-घू' मात्र बखानता । , मैथिलीशरण गुप्त - 'माधुरी', भाग १, खंड १, सं० ४ पृष्ठ ३३ । ● 'सरस्वती, १९०८ ३० पृष्ठ २१४ ३ सरस्वती भाग में सख्या १ | Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ रहह 1 म्हन-मन मे दूर रहकर मच्चे ज्ञान का प्रसार करें इस उद्दश की पूर्ति कवियों ये लिए एक जटिल समस्या थी। समाज के धर्म के ठेकेदार पंडित लोग थे । शिक्षा और दंडविधान आदि सरकार के हाथ में था जो जनसाधारण को कूपमंडक ही बनाए रखना चाहती थी । कवियों के पास केवल शब्द का बल था और विसा भय के प्रीति असम्भव थी। पीड़ितो के प्रति सहानुभूति और सन्मार्गियों को दिया गया नम्र उपदेश समाज को विशेष प्रभावित करने और सुधारने में अपर्याप्त था । इस न्यूनता को पूर्ति के लिए कवियों ने हास्य और व्यंग्य का सहारा लिया। जब कोई मार्गभ्रष्ट उपदेश और प्रदेशमे नही सुधरता तब कभी कभी उसका कठोर उपहास ही उसे सत्पथ पर लाने में समर्थ होता है । तत्कालीन समाज का संस्कार और रुचि इतनी गिर चुकी थी कि उसे जागृत करने के लिए कविया को लट्ठमार पति का अवलम्बन करना पड़ा । द्विवेदी युग के कवियों की राजनेतिक भावना मुख्यतः तीन रूपों मे व्यक्त हुई । नई पद्धति पर दी गई ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा, भारतीयों के विदेश गमन और विदेशियों के भारत में श्रागमम, विदेशी शासको द्वारा देश के श्रार्थिक शोषण आदि ने कवियो को तुलनात्मक दृष्टि से ग्रात्मसमीक्षा करने के लिए प्रेरित किया । फलस्वरूप उन्होंने देश की वर्तमान अधोगति के प्रति ग्लानि और क्षोभ का अनुभव किया । यह उनकी राजनैतिक भावना का पहला रूप था । इसकी अभिव्यक्ति तीन प्रकार से हुई । कही तो देश की दीनदशा का चित्राकन करते हुए उसके प्रति सहानुभूति प्रकट की गई, ' कही परिपीडक शासकों आदि के अत्याचारो का निरूपण किया गया और कही पतित तथा दीन अवस्था १ उदाहरणार्थ:-- २. यथा: अन्न नहीं अब विपुल देश मे काल पड़ा है ! पापी पामर प्लेग पसारे पाव पड़ा है । दिन दिन नई विपत्ति मर्म सब काट रही है । उदरानल की लपट कलेजा चाट 'सरस्वती' भाग नौकरीकी शाही सभ्यता का गत्ता काटती है. रही है | १४. संख्या १२ । गाधी के संगाती अंखियों में खटकत हैं। भारत को लूट कूटनीति को उजाड़ रही, जेलों मे स्वदेशभक्त न्याय के भिखारी ठौर ठौर भटकत है । हिसाहीन सजनों को, पेटपाल, पातकी, पिशाच पटकत कौन को पुकारें अब शंकर बचालो हमें, गोरे और गोरों के गुलाम श्रटकत है ॥ नाथूराम शर्मा मर्यादा, माग २२ ० ३ १० १३४ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 से मुक्ति पाने का प्रयास न करने व ले देशवासियों की भसना की गई अन्धकारमय वर्तमान के कलंक दृश्य दिग्वाकर ही पीडित जाति को सतोप नहीं हुआ । क्षुब्ध मन को श्राश्वासन देने तथा कल्पित श्रानन्द लेने के लिए द्विवेदी युग के कवियों ने भारत का प्रेम पुरस्सर गौरव गान किया। यह राष्ट्रीय भावना की अभिव्यक्ति का दूसरा रूप था । इस रूप के चार प्रधान प्रकार थे। कही तो भारत के श्रातीत वैभव और महिमा के उज्ज्वल चित्र अंकित किए गए, कहीं देवी-देवता के रूप में उसकी प्रतिष्ठा की गई, कही देश के प्राकृतिक मनोहर दृश्यों का चित्रण किया गया और कही सीधे शब्दों में देश के प्रति अतिशय प्रेम का प्रदर्शन हुआ ।" ૨ ३ यथा: ४. यथा: ५. यथा: जान में, मान में, शक्ति से हीन हो दान में, ध्यान से, भक्ति से हीन हो । आलसी भी महामूढ प्राचीन हो, सोच देखा सभी मे तुम्ही दीन हो । अंग को मिमोत रहो, क्यो जगोगे अभी देश सोते रहो || रामचरित उपाध्याय --- सर०, मार्च, २६१६ ई०, पृ० १६० । जगत ने जिसके पद थे छुए, सकल देश ऋणी जिसके हुए । ललित लाभ कला सब थी जहां, अब हरे वह भारत है कहाँ ? > मैथिलीशरण गुप्त - सर० भाग ११ संख्या १ । नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है। सूर्य चन्द्र युग मुकट मेखला रत्नाकर है । नादिया प्रेमप्रवाह फूल तारे मंडन हैं बन्टीजन खगवृन्द शेषफन सिहासन है । करते श्रमिक पयोद हैं, बलिहारी इस वेप की हे मातृभूमि ! तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की ॥ " , मैथिलीशरण गुप्त - 'भारत-गीत ।' जिसके तीनो ओर महोदधि रत्नाकर है । उत्तर में हिमराशि रूप सर्वोच्च शिखर हैं | जिसमें प्रकृति विकास रम्य ऋतुक्रम उत्तम है ! जीव जन्तु फलफूल शस्य अद्भुत अनुपम है | पृथ्वी पर कोई देश भी इसके नहीं समान है । इस दिव्य देश में जन्म का हमे बहुत अभिमान है || रामनरेश त्रिपाठी- सर० भाग १५, संख्या ११ पुण्य भूमि है, स्वर्गभूमि है, जन्मभूमि है देश यही । इससे बढ़कर मा ऐसी ही दुनिया में है जगह नहीं पाढेष - सर० भाग १४ स० ६ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "वमय श्ररि तान में समय चित्र यक्ति कर देना ही भविष्य को लिए प्राप्त न था। कवियों ने अपने मन मे भली भाति विचार करके सपनेहुँ सुख नाही' उनकी स्वतंत्रता की आकाक्षा ने राजनैतिक क का तीसरा रूप धारण किया यह अभिव्यक्ति साधरणतया पात्र प्रकार पन दुःख से गेकर उससे मुक करने के लिए शासका से प्रार्थना की यत्रणा का अन्त करने के लिए देवी-देवताओं और आदर्श मानवी की कहीं गिरी हुई दशा में ऊपर उठने के लिए देशवासियों को विनम्र T, 3 कही अवनति से उन्नति के मार्ग पर चलने के लिए मेल जोल की कही बहुत से क्रान्ति कर देने का सन्देश सुनाया गया ।" भारत के दीनहीन वर्तमान और श्राशापूर्ण भविष्य का मुन्दरतम चित्रान की 'भारत-भारती' में हुआ । वह स्वगत राष्ट्र भावना के कारण ही प्रियतम रचना हो सकी। t युग की तुलना में द्विवेदी-युग की राजनैतिक या राष्ट्रीय कविता प्रतीत फरियाद लगाते जाएगे, दुख दर्द सुनाने जाएंगे। हम अपना धर्म निभाएगे तुम अपना काम करो न करो || } सम्पूर्ण तन्त्र-प्रभा भाग २ संख्या १, पृष्ट १६६ । सत्याग्रह से अनुशासन की असहयोग से 'दुःशासन की साम्यवाद से सिंहासन की स्वतंत्रता से श्राश्वासन की || छिड़ी हुई है, कर्मक्षेत्र में शुचि संग्राम सचाने श्रावें । यदि मानव होवे भूतल पर मानवता दिग्बलाने आयें ॥ 7 एक राष्ट्रीय आत्मा-प्रभा, वर्ष २, खंड १, पृष्ट ३१, ३६ / कहते है सब लोग हमें हम दीन हीन हैं भिक्षुक है । कुछ भी हो हम लोग अभी अच्छे बनने के इच्छुक हैं । रूपनारायण पांडेय - सरस्वती', भाग १४, सं० ६ । हम कौन थे ar are sea और क्या होंगे अभीआश्रो विचारे आज मिलकर ये समस्याएं सभी । मैथिलीशरण गुप्त - 'भारत-भारती' | जैन, बौद्ध, पारसी, यहूदी, मुसलमान, सिख, ईसाई कोटिis से मिलकर कह दो हम सब है भाई भाई || रूपनागमण पांडेय - 'सरस्स्ती', भाग १४, सं० ० ६। काव्य के संदर्भ के उद्धृत राय कृष्णदास की 'चेतावनी', का मूल्य आदि गद्यकाव्य तथा रामसिंह की चतुर्वेदी, सुमद्रा मारी आदि की कविता Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३०२ ) से वर्तमान, कल्पना से यथार्थ, उपदेश से कर्म, पर-प्रार्थना से स्वावलम्बन, निराशा तथा अविश्वास से अाशा तथा विश्वास और दीनतापूर्ण नम्रता से क्रान्तिपूर्ण उद्गार की भोर अग्रसर होती गई है। उस युग के पूर्वार्द्ध में श्रीधर पाठक, मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, रूपनारायण पाडेय आदि का स्वर नम्रतापूर्ण रहा किन्तु उत्तरार्द्ध में माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्राकुमारी चौहान, एक राष्टीय अात्मा' श्रादि स्वतंत्रता-अान्दोलन के अनुभवी कार्यकर्ता कवियों का स्वर क्रान्तिारी उद्गारो से भरा हुया है। द्विवेदी-युग में प्रकृति पर लिखित कविताओं का पाच दृष्टियो से वर्गीकरण किया जा सकता है । भाव की दृष्टि से प्रकृति का वर्णन दो रूपो में किया गया एक तो भाव चित्रण और दूसरा रूप चित्रण । भावाकन ज्ञानतत्वप्रधान था । प्रकृति के सूक्ष्म पर्यवेक्षण और दृश्याकन द्वारा कवि ने एक दार्शनिक की भाति उसके रहस्यों का उद्घाटन किया, यथा: वही मधुऋतु की गंजित डाल झुकी थी जो यौवन के भार, अकिचनता में निज तत्काल मिहर उठती- जीवन है भार । आह ! पावस नद के उद्गार काल के बनते चिन्ह कराल, प्रात का सोने का संसार जला देती संध्या की ज्वाल ।' रूप चित्रण में कलातत्व की प्रधानता थी। इसमे कवि ने चित्रकार की भाँति प्रकृति के ऐन्द्रिक दृश्याकन द्वारा उसका बिम्ब ग्रहण कराने का प्रयास किया यथाः--- अचल के शिखरो पर जा चढी ___किरण पादप शीश विहारिणी। तरणि-बिम्ब तिरोहित हो चला गगनमंडल मध्य शनैः शनैः ॥ सौन्दर्य की दृष्टि से प्रकृति के मुख्यतया दो रूप अंकित किए गए, एक तो उसकी मधुरता और कोमलता का दूसरा उसकी भयंकरता और उग्रता का। इन दोनो चित्रो की भिन्नता का १. 'अनित्य जग'-सुमित्रानन्दन पंत, १९२४ ई० । 'आधुनिक कपि' पृष्ठ ३॥ २ मियप्रवास' सर्ग , पद १ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राधार कवि या उसक वणित पात्र व स्थ यी गाव की मिन्नवा हा है जहा कवि या उसके कल्पित पात्र के हृदय मे मृदु भाव की प्रधानता रही है वहा उमने प्रकृति के रमणीय रूपों का ही निपरण किया है, उदाहरणार्थ--- किरण नुम क्यो बिग्वरी हा श्राज, रगी हो तुन किमके अनुराग ? स्वर्ण सरसिज किंजल्क समान, उडाती हो परमाणु पराग । धरा पर झुकी प्रार्थना सदृश मधुर मुरली मी फिर भी मौन, किसी अज्ञात विश्व की विकल वेदना दूती सी तुम कौन ?' जहा कवि या उसके कल्पित पात्र का कोमल सौन्दर्यस्वप्न टूट गया है और उसने कठोर तर्क द्वारा प्रकृति की नाशकारी क्रान्ति का भावन किया है, जहा उसके हृदय में रति के स्थान पर घृणा, भय या क्रोध का उदय हुश्रा है, वहा उम्ने प्रकृति के उग्र और भंयकर रूप का ही निरूपण किया है, उदाहरणार्थ पंत का 'निष्ठुर परिवर्तन' । विभाव की दृष्टि से मति चित्रण के दो रूप थे-उद्दीपन और आलम्बन । उद्दीपन रूप में प्रकृति का चित्रण मिमी रस या भाव की अनुकुल भूमिका के निर्माण के लिए किया गया, जैसे मैथिलीशरण गुप्त की 'पंचवटी' के प्रारम्भ में लक्ष्मण के प्रति शूर्पणखा के स्थायी भाव रति की मम्यक अभिव्यंजना करने के लिए तदनुकुल उद्दीपन विभाव का चित्रगण अपेक्षित था। यदि किसी साधारण परिस्थिति में ही लक्ष्मण अपने काम-संयम का परिचय देते तो उसमे उनका कोई विशेष गौरव न होता । व्यभिचार की प्रत्येक मुविधा होते हुए भी उन्होंने इन्द्रियनिग्रह किया यह उनके चरित्र की महिमा थी । इन्ही भावों की सुन्दरतर मार्मिक अभिव्यक्ति के लिए उद्दीपन रूप में प्रकृति का चित्रण किया गया । जहाँ कवि या कवि-कल्पित पात्र ने प्रकृति को तटस्थ भाव से देखा है, वहा उसका चित्रण पालम्बन-रूप में किया है, जैसे पायक' का प्रारम्भिक पद । निरूपित और निरूपयिता के सम्बन्ध की दृष्टि से भी प्रकृति-चित्रण दो प्रकार से हुपा-दृश्य-दर्शक-सम्बन्ध-सूचक और तादात्म्य-सूचक ! जहाँ वस्तूपस्थापन पद्धति पर चलते हुए कवि या उसके कल्पित पात्र ने अपने को प्रकृति मे भिन्न मान कर उनका रूपाकन किया है, वहा दृश्यदर्शक सम्बन्ध की व्यंजना हुई है, यथा: m arwa १. 'किरण', जयशंकरप्रसाद झरना', पृष्ट । • प्रामिक कवि २ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहीं झील किनार बड़े बन ग्राम, महम्य निव स पने य ग्यपरेली में कद्द करेली की वेल के खूब तनाव तने हुए थे। जल शीतल अन्न जहाँ पर पाकर पक्षी घरों में घने हुए श्रे, सब अोर स्वदेश, स्वजाति, समाज भलाई के ठान ठने हुए थे।' जहा बाह्य जगत को अन्तर्जगत् का प्रतिबिम्ब मानकर कवि या कवि कल्पित पात्र ने प्रकृति की अभिव्यक्ति मे अपने हृदय की अभिव्यक्ति का दर्शन किया है, वहा तादात्म्य-सम्बन्ध की व्यंजना हुई है यथाः चातक की चकित पुकारे श्यामा ध्वनि तरल रसीली । मंग करणाद्र कथा की टुकडी पासू से गीली ॥ विधान की दृष्टि से द्विवेदी-युग की कविता में प्रकृति चित्रण प्रस्तुत और अप्रस्तुत दो रूपो म हुआ। प्रस्तुत विधान की विशेषता यह थी कि उसमें प्रकृति चित्रण कवि का निश्चित उद्देश था ! जहाँ प्रकृति अालम्बन रूप में अंकित की गई वहां तो वह वर्ग य विषय थी ही किन्तु जहा वह उद्दीपन रूप में अंकित हुई वहा भी वास्तविक वय विषय उपस्थित था। अप्रस्तुत-विधान की विशेषता यह थी कि उसमें प्रकृति-चित्रण कवि का उद्देश नहीं था। प्रकृति-चित्रण व्यंजक और उपस्थित मुख्य विषय व्यग्य था। लक्षणा, उपमा, रूपक आदि की सहायता से प्रस्तुत विषय में रमणीयता लाने के लिए ही उसकी योजना की गई, उदाहरणार्थ:-- देखा बौने जलनिधि का शशि छूने को ललचाना। वह हाहाकार मचाना फिर उठ उठ कर गिर जाना १४ रीतिकालीन शृंगारिक कविताएं प्रायः परप्रसन्नता-साधक, वस्तुवर्णनात्मक, वासनाप्रधान, सीमित और नखशिख-वर्णन नायक-नायिकामेद आदि के रूप मे लिखी गई थीं। उनका यह प्रवाह भारतेन्दु-युग तक चलता रहा। द्विवेदी जी के कठोर अनुशासन ने रतिव्यंजना की इस धारा को सहमा रोक दिया । परन्तु मानव-मन की सहज प्रेम-प्रवृति को रोकना असम्भव था। द्विवेदी युग के कवियो की प्रेम भावना परिवर्तित और संस्कृत रूप में व्यक्त हुई। यह द्विवेदी जी के आदेश का प्रभाव था। उनके युग की प्रेम प्रधान कवितानो में घोर शृंगारिकता, असंयम. व्यक्तिगतत्व, वासना आदि के स्थान पर शिष्टता, संयम, व्यापकता, , रूपनारायण पांडेय-प्रमा', भाग १. पृष्ट ३३७ । २ जयशंकर प्रसाद--'श्रांसू' । ३ यया शुक्र का हृदय का मधुर मार और प्रियश्वास का प्रकृति-वचन ५ प्रोसू प्रमाद Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीच में उनका ध्यान आकृष्ट करने के लिए उन्हें सम्बुद्ध मी करता चलता है किन्तु कला की दृष्टि से अाधुनिक कहानियों में इनका कोई स्थान नहीं है । कथात्मक पद्धित का दूसरा प्रकार-तटस्थ वर्णन-कहानी की एक प्रधान प्रणाली है । किशोरीलाल गोस्वामी की 'इन्दुमती',' मास्टर भगवान दीन की 'प्लेग की चुडैल',२ द्विवेदी जी की 'तीन देवता',' रामचन्द्र शुक्ल की 'ग्यारह वर्ष का समय',४ श्रादि कहानियों में इस प्रणाली का अविकसित और अकलात्मक रूप दिखाई पड़ता है। प्रारम्भिक कथावर्णन की शैली अलौकिक, देवी, प्रायजनक, असम्भव आदि तत्वो से आकीर्ण है, यथा 'भूतोवाली हवेली', एक अलौकिकघटना',८ 'चन्द्रहास का अद्भुत आख्यान', 'भुतही कोठरी' आदि । तटस्थवर्णन पद्धति की जिन कहानियों मे दैवयोग, अतिप्राकृत तथा अद्भुत तत्वों का परित्याग और यथार्थता, विश्लेषण, मनोविज्ञान, नाटकीयता आदि का सम्मिश्रण हुअा उनमे आधुनिक कहानी का कलात्मक सुन्दर रूप व्यक्त हुआ, उदाहरणार्थ 'दुलाई वाली' ९ 'ताई'१० 'सौत' आदि। कथात्मक शैली के तृतीय प्रकार-आत्मचरित-का प्रयोग सीन प्रकार से हुआ। पहला प्रकार कल्पनाप्रधान वर्णन का है जिसमें मानवीकरण, कविकल्पना आदि के सहारे कहानी सौन्दर्य की सष्टि की गई है, यथा 'इत्यादि की आत्मकहानी',१२ एक 'अशरफी की आत्मकहानी13 श्रादि । दूसरा प्रकार यथार्थ घटनावर्णन का है जिसमें वास्तविक भ्रमण, शिकार अादि स्वानुभव तथा परानुभव की घटनाओं का वर्णन डुअा है, उदाहरणार्थ 'एक शिकारों की सच्ची कहानी',१४ 'एक ज्योतिषी की आत्मकथा'१५ श्रादि । इन कहानियों में घटनाओं १. सरस्वती, जून १६०३ ई० । २, सरस्वती, १६०२ ई. । ३. सरस्वती, १६०३ ई., पृष्ट १२३ । ४. सरस्वती. १६०३ ई०, पृ० ३०८ । ५. लाला पानी नन्दन, सरस्वनी १६०३ ई० पृ० २३५ । ६ राजा पृथ्वीपाल सिंह सरस्वती, १६०४ ई०. पृ० ३१६ । ७ सूर्य नारायण दीक्षित सरम्बनी. १६०६ ई०, पृ० २०४। = मधुमंगल मिश्र, सरस्वती, १६०८ ई०, पृ० ४८८ । ___ श्रीमती वगहिला. 'सरस्वती', १६०७ ई०, पृ० २७८ । १० विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक, 'सरस्वतो', १६२० ई०, पृ. ३१ । ६१. प्रेमचन्द, 'सरस्वती', १६१५ ई०, पृ० ३५३ ।। १२. यशोदानन्दन अखौरी, 'सरस्वती', भाग ५, पृ० ४४० । १३, वेंकटेश नारायण तिवारी, 'सरस्वती', भाग ७, पृ० ३६६ । १४. श्री निजामशाह, 'सरस्वती', १६०५ ई० पृ० २६६ । १५ श्रीमान 'सरस्वती, ६०ई० १० १० - Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का बाहुल्य और मनोवैज्ञानिक चित्रण तथा अध्यातरिक विश्लेषण का अभाव होन के रसा कहानी की श्रात्मचरित शैलो का माहित्यिक और बलात्मक प्रयोग इन दोनों रूपो मे नही हो सका है। आत्मचरित प्रणाली का तीसरा प्रकार विश्लेषणात्मक है। विश्लेषणात्मक कहानियों में लेखक ने कहानी के पात्र के मुख मे ही वस्तु विन्यास कराया है और मानव जीवन के किसी न किसी पक्ष की व्याख्या की है। विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक की 'अधेरी दुनिया' और 'कवि की स्त्री तथा प्रेमचन्द की 'शान्ति' श्रादि कहानियाँ इसी कोटि की हैं। कथात्मक प्रणाली के दो अप्रचलित रूप और भी हैं-पत्र पद्धति और देनन्दिनी-पद्धति उदाहरणार्थ क्रमशः 'देवदासी' ( जयशंकर प्रसाद ) और 'विमाता का हृदय ।। कहानीकला की दृष्टि से ये दोनों ही रूप अवाछनीय हैं । मंवेदना की तीव्रता न होने के कारण इस प्रकार की कहानियाँ प्रभावोत्पादक नहीं हो पाती और उनका उद्देश ही अधूरा रह जाता है । द्विवेदी-युग के ऋहानी साहित्य की दूसरी व्यापक शैली काव्यात्मक है। इसके प्रायः दो प्रकार परिलक्षित होते है-~-वस्तु चमत्कार प्रधान और भाषा-चमत्कार प्रधान । पहले प्रकार की कहानियों के पात्र प्रायः नवयुवक, कल्पनायुक्त, भावुक, श्राशावादी और प्रेमपीडित होते हैं । घटनायो का अधिकाश कल्पनाजन्य और सारा वातावरण ही काव्यमय होता है । भाषा कवित्वपूर्ण होते हुए भी निग्लंकार है। रसिया बालम',२ 'कानोंमें कंगना 3 'दिनों का फेर', 'चित्रकार ५ सच्चा कवि'६ अादि भावात्मक कहानियाँ इमी काव्यात्मक शैली की हैं । भाषा चमत्कारप्रधान काव्यात्मक कहानिया के लेखको ने वस्तु-चमत्कार योजनाके साथ ही भाषा को अलंकृत करने और कवित्वपूर्ण बनाने का विशेष प्रयास किया । हिन्दी-कथा-साहित्य वे बाणभट्ट चण्डीप्रसाद हृदयेश इस शैली के प्रमुख कहानीकार हैं। उनकी 'मुधा', 'शान्ति निकेतन' श्रादि कहानियों में भाव की अपेक्षा भाषा की रमणीयता ही अधिक श्राकर्षक है। इम काव्यात्मक पद्धति पर कभी कभी रूपक-प्रणाली का आश्रय लेकर छोटी छोटी मार्मिक कहानियो की रचना की गई, उदाहरणार्थं अज्ञेय की 'अमर बल्लरी' सुदर्शन की 'कमल की वेटी', रायकृष्णदास की 'परदे का प्रारम्भ' श्रादि । इन १. श्राधुनिक हिन्दी कहानियां' में संकलित । २. प्रसाद, 'इन्दु', एप्रिल, १९१२ ई० । ३ राधिकारमण प्रसाद सिंह. 'इन्दु', कला, खंड २, किरण ५ । ४ गयकृष्ण दास, 'प्रभा', वर्ष २, खंड २ । ५. कृष्णानन्द गुप्त, 'प्रभा', वर्ष ३, खंड १ । रामो कौशिक' 'माधुरी' वर्ष ३ खर १ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहानिया की विशेषता यह है। चेतन वस्नु म चैतन्य का अरोप करके उसी की दृष्टि से सारी कहानो कही गई है। पात्र वातावरण प्रादि अपरिचित हैं, हम जिन रूपो में उन्हे नित्यप्रति देग्वत हे उन रूपों में उनका चित्रण नहीं किया गया है । द्विवेदी-युग की कहानियों की तीसरी व्यापक शैली नाटकीय है। बम्तृतः सभी मुन्दर कहानियों मे नाटकीयता का कुछ न कुछ समावेश हुया है । इसका कारण स्पष्ट है। मानव जीवन की प्रत्येक संवेदनीय घटना अभिनयात्मक है और कहानी उभी घटना का चित्रोपस्थापन या रहस्योद्घाटन करती है । स्थूल रूप से नाटकीय शैली भी काव्यात्मक शैली के ही अन्तर्गत मानी जा सकती है क्योंकि नाटक स्वयं ही काव्य है। उम युग की कहानियों के अधिक विस्तृत अध्ययन के लिए इस बूक्ष्म वर्गीकरण की आवश्यकता हुई है। इन दोनो शैलियों में मुख्य अन्तर यह है कि काव्यात्मक कहानी सामान्य काव्यगत मनोहर कवि-कल्पना और अलंकारिकता मे विशिष्ट है और नाटकीय शैली की कहानी नाट कोचित कथोपकथन एब घात-प्रतिघात से। इस शैली के मुख्यत. तीन प्रकार दिखाई देते है-मलाप-प्रधान, मंघर्ष-प्रधान और उभय-प्रधान ! मलाप-प्रधान कहानियों में कहानी का मौन्दर्य पात्रो के स्वाभाविक और नाटकीय कथोपकथन पर विशेष आधारित है. उदाहरणार्थ 'महात्मा जी की करतूत' ।' मंघर्ष-प्रधान कहानियों में दो पक्षों के संघर्ष, कभी हार कभी जीत और अन्त में घटना के नाटकीय अवसान का उपस्थापन है, यथा 'शतरंज के खिलाडी २ इम पद्धति का मुन्दरतम रूप उन कहानियों में व्यक्त हुआ है जिनमे लेखक ने नाटकीय संलाप और संघर्ष दोनो का सामंजस मन्निवेश किया है, उदाहरणार्थ जयशंकरप्रसाद लिखित 'आकाशदीप । उस युग की कहानियों की चौथी व्यापक शैली विश्लेषणात्मक है। इस पद्धति की कहानियों में पूर्वोक्त तीनों पद्धतियों में से किसी एक का या अनेक का प्रयोग अवश्य हुआ है किन्तु पात्र या पात्रों के अन्र्तगत या वाह्य जगत का विश्लेषण ही कहानी की मुख्य विशेषता है। विश्लेषणात्मक कहानियां की भूमिका दो रूपों में अकित की गई है। चण्डीप्रमाद हृदयेश और जयशंकरप्रमाद ने प्रायः मभी भावात्मक कहानियों मे पात्रों के भावपक्ष का विश्लेषण प्रकृति की भूमिका में किया है। पेमचन्द, विश्वम्भरनाथ शमी कौशिक श्रादि का अधिकाश विश्लेषणात्मक कहानियों में मानव-मन के रहस्यों और घात-प्रतिघात की विवचना समाज की भूमिका में की गई है, उदाहरणार्थ पंचपरमेश्वर', 'मुक्तिमार्ग' आदि । 1 राम कृष्णदास प्रभा' वर्ष २ बंड २ पृ. २३१ । माधुरी वर्ष ३ वट , म० ३ १० २१० Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोवैचानिक फ्रायड के सिद्धान्ता का युग अमी नहीं पाया या अतएव द्विवेदी युग की कहानियों में मानव-मस्तिष्क की विशेष चीर-फाड नहीं हुई। संवेदना की दृष्टि से द्विवेदी-युग की कहानिया के चार प्रधान वर्ग हैं-घटना-प्रधान, चरित्र-प्रधान, भाव-प्रधान और चित्र-प्रधान । प्रथम वर्ग की कहानियाँ घटनाओ की शृंखलामात्र हैं। किसी कल्पित, सुनी, पढी या देखी हुई घटना अथवा बटनाओं से अतिप्रभावित कहानीकार उसे व्यक्त किए बिना नही रह सका है। उस युग की प्रारम्भिक घटना प्रधान कहानियो मे अद्भुत तत्व की अधिकता है, यथा पूर्वोक्त 'भूतों वाली हवेली', 'भुतही कोठरी' आदि । किन्तु आगे चलकर कलात्मक घटना प्रधान कहानियों की रचना माधारण जीवन की श्राकर्षण घटनाओ को लेकर की गई है, उदाहणार्थ प्रेमचन्द की सुहाग की साडी', ' 'भूत'२ आदि । इस वर्ग की कहानियों में चरित, भाव आदि के विवेचन के कारण अाधुनिक कहानी कला के विकास के साथ ही घटनात्मकता का ह्रास होता गया है। कहानीकला का सुन्दर रूप उस युग की चरित्र-प्रधान कहानियों में व्यक्त हुअा। ये कहानियाँ मुख्यतः दो प्रकार की हैं। पहला प्रकार उन कहानियों का है जिसके पात्रों में क्सिी कारणवश कोई अाकस्मिक परिवर्तन हो गया है और कहानी वहीं समाप्त हो गई है। आरम्भ से लेकर परिवर्तन के पहले तक पात्रों का एक रूप मे चरित्र-चित्रण हुआ है और तत्पश्चात् उसका दूसरा रूप व्यक्त हुअा है, यथा 'अात्मराम' (प्रेमचन्द ), 'ताई'3 श्रादि । दूसरे प्रकार की चरित्र-प्रधान कहानियों का सौन्दर्य चरित्र के आकस्मिक विकास में न हो कर उसकी दृढ़ता असामान्यता और प्रभावोत्पादकता मे है, यथा 'उसने कहा था', 'खूनी',५ 'बूढी काकी' (प्रेमचन्द ), 'भिखारिन' (प्रसाद) श्रादि। इन कहानियो में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक चरित्र ही कहानी की घटनानी का मुख्य केन्द्र रहा है और उसके किसी एक पक्ष का उसका उद्घाटन करके कहानी समाप्त हो गई है। नायक या नायिका को ऐसी परिस्थितियो में इस कलात्मक रूप से चित्रित किया गया है कि उसकी अन्तर्हित विशेषताएँ अालोकित हो गई हैं । चरित्र को आकर्षक बनाने के लिये लेखक ने उसे भावुकता और मनोविज्ञान की दृष्टि से देखा है। संवेदना के अनुसार द्विवेदी-युग की कहानियो की तीसरी प्रमुख कोटि भाव-प्रधान है। १ प्रभा', वर्ष ३, खंड १, पृष्ठ ३१ । २. 'माधुरी', वर्ष ३, खंड १,सं १ पृष्ठ ६ । ३. कौशिक, 'सरस्वती', वर्ष २१, खंड २ पृष्ट ३१ । ४. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, 'सरस्वती', भाग १६, खंड १, पृष्ठ ३१४ । ५ चतुरसेन शास्त्री, 'प्रमा' अनवरी १३२४ ई० Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ ] चरित्र प्रवान कहानी म भार प्रपन स्टानी का मुख्य विशपता यह है कि भाब प्रधान कहानी लेग्वक कहानीकार के समान ही और कहीं कहीं उसमे बढकर कवि भी है। यही कारण है कि वह भावुकतावश घटना. चरित्र या रूप की अपेक्षा पात्रों के भावो का ही विशेष भावन और अभिव्यंजन करता है । गद्य के माध्यम द्वारा घटना, चरित्र यादि घर अाधारित जीवन के किमी अंग का शब्द चित्र होने के कारण ही ये रचनाएँ कहानी कहलाती हैं, कविता नहीं। टन भाव-प्रधान कहानियों में प्रेम, त्याग, वीरता, कृपणता ग्रादि भावो का काव्यात्मकी उद्घाटन किया गया है, यथा 'कानों में कंगना' ( राधिकारमणप्रसाद सिंह ), 'उन्माद ( चंडीप्रमाद हृदयेश ), 'अाकाश दीप' ( जयशकर प्रसाद ) आदि । चौथा वग चित्र-प्रधान कहानियों का है । भाव-प्रधान और चित्र-प्रधान दोनो ही प्रकार की कहानिया काव्यात्मक हैं। उनमे प्रमुख अन्तर यह है कि भाव प्रधान कहानी में कहानीकार का उद्देश पात्रों के भावो का ग्रहण करना रहता है किन्तु चित्र प्रधान कहानी में वह पात्रा के बातावरण का बिम्ब-ग्रहण कराने का प्रयास करता है । 'अाकाश दीप' मीग्व कहानियों में तो भाव और विम्ब दोनो ही का सुन्दर चित्रण हुआ है। अंकित चित्रों की काल्पनिकता या यथार्थता के अनुसार चित्र-प्रधान कहानियों दो प्रकार की हैं। एक तो बे हैं जिनका प्रधान सौन्दर्य उनके कवित्वपूर्ण कल्पनामंडित और अतिर जित वातावरण के चित्रों में निहित है, यथा प्रतिध्वनि' (प्रमाद ), 'योगिनी' (हृदयेश ), 'मिलनमुहूर्त' (गोविन्दबल्लभ पंत) 'कामनातरु' (प्रेमचन्द ) आदि। दूसरा प्रकार उन कहानियों का है जिनके चित्र वास्तविक जगत और डेनिक जीवन में लिए गए हैं : वेचन शर्मा उग्र और चतुरमेन शास्त्री इस प्रकार के प्रतिनिधि लेन्त्रक हैं | द्विवेदी-युग में जब कि उपन्यास-कला-शैली का विकाम हो रहा था तभी उस युग के कहानी-लेग्वक अमर कहानिया की रचना कर रहे थे । 'कानो मे कंगना', 'पंचपरमेश्वर', 'उसने कहा था', 'मुक्ति मार्ग', 'ग्रान्मागम'. 'मिलनमुहूर्त', 'श्राकाशदीप', 'खूनी', 'ताई', 'चित्रकर', 'बलिदान' श्रादि सुन्दर कहानियों उमी युग में लिखी गई । ज्ञान-विज्ञान की उन्नति, कहानी कला के विकास और द्विवेदी जी की आदर्शवादिता, मुधार तथा प्रोत्साहन से प्रभावित होने के कारण द्विवेदी-युग के कहानीकारो ने तिलस्मी, जासूसी, ऐयारी और भूत प्रेत के जगत से ऊपर उठकर मानव-मानस तथा समाज और जीवन तक आने मे अद्भुत प्रगति दिखाई । मन्दरतम हिन्दो कहानियों के किसी भी मकलन में द्विवेदी-युग की कहानियों का स्थान अपेक्षाकृत बहुत ऊँचा है । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३२८ । निबन्ध द्विवेदी-युग में गद्यविकास के साथ ही निबन्ध-साहित्य का अच्छा विकास हुआ। द्विवेदी जी के निबन्धो की भाँति उम युग के निवन्ध भो चार रूपा मे प्रस्तुत किए गए। पहला रूप पत्रिकाओं के लिए लिखित लेखो का था। बालमुकुन्द गुप्त, गोविन्दनारायण मिश्र, रामचन्द्र शुक्ल, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी अादि लेखको के अधिकाश निबन्ध पत्रिकाओं के लेख रूप में ही प्रकाशित हुए और आगे चलकर उन्हें संग्रह-पुस्तक का रूप दिया गया । दूसरा रूप ग्रन्थो की भूमिकाओं का था ! इस दिशा में 'जायसी-ग्रन्थावली', "तुलसी ग्रन्थावली' [ द्वितीय भाग ] और 'भ्रमरगीतसार' की भूमिकाएँ विशेष महत्व की है। तोमग रूप भाषण! का था। द्विवेदा-युग में दिए गए हिन्दी-साहित्य सम्मेलन के सभापतियों के महत्वपूर्ण भाषण इसी रूप के अन्तर्गत हैं । उस युग के निबन्धा का चौथा रूप पुस्तको या पुस्तकों के आकार में दिखाई पडना है। उदाहरणार्थ-द्विवेदी जी का 'नाट्यशास्त्र' या जय शकर प्रमाद का 'चद्रगुप्त मौर्य ।' द्विवेदी-युग ने वर्णनात्मक, भावात्मक और चिन्तनात्मक सभी वर्ग के निबन्धों की रचना की । वर्णनात्मक निबन्धो के मुख्य चार प्रकार थे - वस्तुवर्णनात्मक, कथात्मक, यात्मकथात्मक और चरितात्मक । वर्णनात्मक निवन्धो में निवन्धकार ने तटस्थ भाव से अपने या दूसरों के शब्दों में अभीष्ट विषय का वर्णन किया । उसमें उसने हृदय या मस्तिष्क को अभिभूत कर देने वाली भावविचार व्यंजना नहीं की । वस्तुवर्णनात्मक निबन्धो मे किसी जड़ या चेतन पदार्थ का परिचयात्मक निरूपण किया गया, उदाहरणार्थ 'इंगलैंड की जातीय चित्रशाला',' सोना निकालनेवाली चीटियारे श्रादि । कथात्मक निबन्धा मे लेन्वक ने श्रीमद भागवत की कथा सुनाने वाले व्यास जी की भाति निबन्ध पाठको का मनोरंजन करने का प्रयास किया है, यथा 'स्वर्ग की झलक', 3 'एक अलौकिक घटना'४ अादि । इन कथात्मक निबन्धी और आधुनिक वर्णनात्मक लघु कहानियों में अन्तर यह है कि कहानिया मे कहानीकार ने कहानी की सीमा के अन्तर्गत रहकर विश्लेषण और बस्तु-विन्याम की अोर विशेष ध्यान दिया है किन्तु निबन्धकार प्राद्योपान्त ही स्वच्छन्द गति में चला है । इन दोनों के विकाम के प्रारम्भिक रूपा में एकता है और एक ही रचना दोनी कोटियां में रखी जासकती है यथा इत्यादि की अात्मकहानी' । आत्मकथात्मक निबन्ध भी द्विवेदी-युग के साहित्य की मनोहर देन हे । इन निबन्धों में वरीय १. काशीप्रसाद जायसवाल, 'सरस्वती', भाग-, पृष्ठ ४६६ । २. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी 'सरस्वती' भाग ५६, खंड २, पृष्ठ १३४ । ___३. महावीरप्रसाद, सरस्वती', भाग ५, पृष्ठ ८२।। ___ राजा पृथ्वीपाबसिंह, 'सरस्वती' माग ५ पृष्ठ ३१५ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्य को ही वक्ता बनाकर निबन्धाकर ने उसी के मन्त्र में उनम पुरूष में उसकी परिचयात्मक कहानी कही है ।, यथा उपयुक्त 'इत्यादि की श्रा-मकहानी', 'एक अशरफी की आत्मकहानी, २ 'मुद्गरानन्द-चरितावनी' 3 अादि । ये नियन्ध मनोरजन की दृष्टि से विशेष आकर्षक हे ! चरितात्मक निबन्धी मे ऐतिहासिक, साहित्यिक धार्मिक, राजनैतिक आदि महान् पुरुषो या स्त्रियों के जीवनचरित अंकित किए गए है। कुछ जीवनचरित अपने स्वामी, श्रद्धापान या प्रेमभाजन को मस्ती ख्याति देने के लिए भी लेग्यको ने अवश्य लिग्वे किन्तु अधिकाश का उद्देश आदर्शचरित्री के चित्रण द्वारा पाठको के ज्ञान और चरित्र का विकास करना ही था। इस क्षेत्र में द्विवेदी जी के अतिरिक्त वणीप्रमाद, काशीप्रमाद, गिरिजाप्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, लक्ष्मीधर बाजपेयी आदि ने महत्वपूर्ण कार्य किया । मैकड़ो जीवनचरिन द्विवेदी-सम्पादित 'सरस्वती' में ममय ममय पर प्रकाशित हुए। भावात्मक निबन्ध सहृदय निबन्धकार के हृदयोद्गार और पाठक के हृदय को अभिभून कर देने वाले प्रभावाभिव्यंजक वस्तूपस्थापन है | द्विवेदी-युग के मावात्मक निबन्धो की तीन कोटिया है । एक तो साधारण भावात्मक निबन्ध है जिनमें चिन्तन और मर्मस्पर्शी कविन्ध दोना ही की अपेक्षाकृत न्यूनता है, उदाहरणार्थ कबिन्ध'४ श्रादि । दूमरे विचारगर्मित भावात्मक निबन्ध है जिसम काव्य की रमणीयता के साथ ही माथ चिन्तनीय मामग्री भी हे. यथा श्राचरण की मन्यता',५ 'मजदूरी और प्रेम'६ श्रादि और तीसरे गद्य-कविताओं के रूप मे लिखे गए वे काव्यमय भावात्मक निबन्ध हैं जिनकी ममीक्षा ऊपर कविता के प्रमग मे हो चुकी है। चिन्तनात्मक निबन्धों में पाठकों के बौद्धिक विकास की यथेष्ट मामग्री प्रस्तुत की गई। बीच २ में कहा कहः वर्णनात्मकता या भावात्मकता का पुट होने पर भी चिन्तनात्मक निबन्धकार उनके प्रवाह मे बहा नहीं है और अपनी विचार-व्यंजना के प्रति सदैव मावधान रहा है । गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, रामचन्द्र शुक्ल, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, श्यामसुन्दरदास, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी अादि ने हिन्दी माहित्य के इस अंग की मुन्दर पूर्ति की। द्विवेदी-युग के चिन्तनात्मक निबन्ध तीन श्रेणियों में रचे जासकते हैं--व्याख्या भक, बालोचनात्मक और ५. 'सरस्वती', भाग ५ पृष्ठ १६२ । २. 'सरस्वती' भाग ७, पृष्ट ३६ । ३. 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका', भाग १७ और १८ की अनेक संख्या में प्रकाशित । ४ चतुर्भुज औदीच्य, 'सरस्वती', भाग ५, पृष्ठ १८ । ५ एमसिंह सरस्वती भाग १३, पृष्ठ १८, और 11 ६ पासिंह सरस्वती माग १३ पृट । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तार्किक ! उस युग के पाठ का को बौद्धिक इयत्ना सीमित होने के कारण उस समय चिन्तनीय विषयो की व्याख्या की नितान्त आवश्यकता थी । गौरीशंकर हीराचन्द अोझा ने वर्तमान नागरी अक्षरों की उत्पत्ति'', अोर नागरी अंको की उत्पत्ति'२ श्रादि रोचक विचारगुक और ठोस निबन्ध लिखे । रामचन्द्र शुक्ल के साहित्य', 3 'कविता क्या है',४ 'काव्य में प्राकृतिक दृश्य',५ श्रादि निवन्ध भी व्याख्यात्मक कोटि के हैं । नागरी प्रचारिणीपत्रिका के मत्रहवें, अठारहवे, उन्नीसर्वे तथा तेईसवें भागी में प्रकाशित शुक्लजी के 'क्रोध', 'भ्रम', 'निद्रारहस्य', 'घृणा', 'करुणा', 'या', 'उत्साह 'श्रद्धाभक्ति', 'लज्जा और ग्लानि' तथा 'लोभ या प्रेम आदि मनोवैज्ञानिक निवन्ध विशेष सारगर्भित और विश्लेपणात्मक है । श्यामसुन्दरदास का 'साहित्यालोचन' सम्बत् १६७६ ] और पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का विश्वसाहित्य' [ १६८१ ई.] श्रादि व्याख्याप्रधान चिन्तनात्मक निबन्धो के ही संग्रह है जिनमें कविता, उपन्यास, नाटक आदि का विस्तृत और सूक्ष्म विवेचन किया गया है। अालोचनात्मक निबन्ध साहित्यिक रचनायी या रचनाकारो की ममीक्षा के रूप में उपस्थित किए गए। मिश्रबन्धु का वर्तमानकालिक हिन्दी साहित्य के गुण दोष',६ रामचन्द्र शुक्ल-लिखित जायसी , तुलसी और सूर की भूमिकाएं अादि निबन्ध की उसी कोटि में हैं । तार्किक निवन्धो में निबन्धकारों ने अपने सारगर्भित बिचारो को युक्तियुक्त ढंग में व्यक्त किया । चिन्तनान्मक निबन्ध के इस प्रकार की विशेषता विषय के न्यायानुकूल सप्रमाण प्रतिपादन में है । चन्द्र धर शर्मा गुलेरी, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, जयशंकर प्रसाद आदि के गवेषणात्मक और गुलाबराय के दार्शनिक निबन्धो का इस दिशा में महत्वपूर्ण स्थान है, उदाहरणार्थ उलूलुथ्वनि [ गुलेरी ], 'चन्द्रगुप्त मौर्य' [ प्रसाद आदि। भारतेन्दु युग के निवन्ध कहे जाने वाले लेखों में विश्य या विचार की एकतानतान थी। एक ही निवन्ध में अनिबद्ध रूप से सबकुछ कह डालने का प्रयास किया गया था। द्विवेदी जी ने हिन्दी के निवन्ध का निबन्धता दी । उस युग के महान् निबन्धकारों के ललाट पर यशस्तितक द्विवेदी जी के ही कृपालुकरों मे लगा। वेगीप्रसाद, काशीप्रसाद, रामचन्द्रशुक्ल, लक्ष्मीधर बाजपेयी, चतुर्भुज श्रौदीच्य, यशोदानन्दन अखौरी, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, पूर्णसिह, १. प्रथम हिन्दी-साहिय-सम्मेलन का कार्य-विवरण, पृष्ठ १६ । २. 'द्वितीय हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन का कार्यविवरण', पृष्ठ २३ । ३. 'सरस्वती', भाग ५, पृष्ठ १५४ और १८६ । ४. 'सरस्वती', भाग, १०, पृष्ट १५५ । ५. 'माधुरी'. भाग १, खांड, २ संख्या ५ और ६. पृष्ठ क्रमशः ४७३ और ६०३ । ६ 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका माग १८ सस्था ३ ४ पृष्ट ६३ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म यन्त्र गराशश कर पद का परमन न पुन त ल न श ााद के निर पा की प्रायोपान्न काटछॉट, सशाथन और पग्विन करके द्विवेदी जी ने उन्ह पठनीय और ठोस बनाया । उदाहरणार्थ 'इत्यादि की आत्मकहानी' क लेग्बक यशोदानन्दन अग्बौरी ने भाषा-त्रुटियो के अतिरिक्त वस्तु के संग्रह और त्याग में भी अकुशलता दिग्बन्लाई थी जिमके कारण रचना का निवन्ध-मौन्दय नष्ट होगया था । द्विवेदी जी ने अन्य संशाधनो के साथ उसकी उपमा में लिम्बित यूर अवच्छेद को ही निकाल दिया। वे कटेश नारायण तिवारी की एक अशरफी की अात्मकहानी', सत्यदेव के राजनीति-विज्ञान, पर्ण सिह के 'श्राचरण की सभ्यता' तथा 'मजदूरी और प्रेम,' रामचन्द्र शुक्ल के 'कविता क्या है ? और 'साहित्य' आदि निबन्धो में अन्यन्त शिथिलता होने के कारण उनके निवन्धत्व में दोष आ गया था। द्विवेदी जी ने उनका संस्कार और परिष्कार करके उन्हे निवन्ध का श्रादर्शरूप दिया । रीति और शैली लेखक की भाषा की रीति और शैली का वास्तविक दर्शन उमके निबन्धी में ही होता है । क्योकि नाटक, उपन्यास, कहानी अादि की अपेक्षा वह निबन्धों में अधिक स्वच्छन्दता पूर्वक लेग्वनी चत्ताकर अपने व्यक्रिय और प्रवृनि की निबन्ध अभिव्यजना कर सकता है। द्विवेदी-युग की भाषा और शैली का रूप भी इन्ही निवन्धी मे विशेष निखरा । द्विवेदी जी ने गहाभाषा का परिष्कार और संस्कार भी इन्ही निबन्यों के द्वारा किया। यह बात नागरी प्रचारिणी मभा के कलाभवन में रक्षित 'मरस्वती' की हस्तलिखित प्रतियों से स्पष्ट प्रमाणित हं । 'भापा और भाषा-सुधार' अध्याय में द्विवेदी जी की भाषा की रीति और शैली की विवेचना करते समय यह कहा गया था कि उनकी प्रौद रचनाओं में श्राद्योपान्त कोई एक ही गति या शैली नहीं है । उनमे मभी गतियों और शैलियों के वीज विद्यमान थे जो आगे चलकर उनके यग के गद्य-लेम्बको की कृतियों में विक्रमित हुए । द्विवेदी जी ने अपने यम के लेव को की रीति और शैली का भी परिमार्जन किया था। निम्नाकित उद्धरण उनके शेती-मुधार-कार्य को और भी स्पष्ट कर देंगे : मंशोदित (क) गमए वस्त्र की पूजा छोडो । गिरज गरुये वस्त्रा की जा मी करते की घन्टी क्यो मुनते हो ? रविवार हो ? गिरने की घंटी क्यो सुनते हो ? रविययों मनाने हो ? पाँच वक्त की वार क्यों मनाते हा ? पाच वक्त की नमाज निमाज किस काम की ? दोनो क्या पढ़ते हो, त्रिकाल सन्ध्या क्यो करते १. 'सरस्वती', १६०१ ई० २. द्विवेदी जी द्वारा संशोधित उपयुन तथा अन्य निबन्ध काशी नागरी प्रचारिणी सभा के कला भवन में रचिव सरस्वती की हम्नलिखिन प्रतियों में देने जा सकते हैं Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३२ मूल मशोपित हो! मजदूर के अनाथ नयन, अनाथ श्रात्मा और अनाश्रित जीवन की बोली मीग्यो । फिर देग्बोगे कि तुम्हारा यही माधारण जीवन ईश्वरीय भजन हो जायगा। (ख) वती की मध्या से क्या लाभ ? मजदूर के अनाथ नैनी, अनाथ अात्मा और अनाश्रित जीवन की बोली सीखो। दिनरात का साधारण जीवन एक ईश्वरीय रूपमजन हो जायगा । मजदूरी तो मनुष्य का व्यष्टी रूप समष्टी रूप का परिणाम है।' स्वर्णमुद्रा की अात्मकहानी गत सोमवार को मैं पं० शिव जी के सहित, कलकत्ते गया था। धूमते २ हम दोनों अद्भुतालय अजायबघर की तरफ जा निकले । (अजायबघर) की बात ही क्या ! वहा की सर्व संग्रहीत वस्तु अजीब हैं । वहा देश देशान्तर के सुन्दर, भयानक, छोटे, बडे जीवजन्तु देखने में आते हैं यहाँ पर रंग बिरंगी चिड़ियाँ हैं, वहाँ पर नानाप्रकार की मछलियां हैं | कहीं शेर कटघरे में बन्द इम बात को बताते हैं कि 'बुद्धिर्यस्य यलं तस्य', और कहीं अजगगे को देवकर जगत्पिता की करुणा याद पाती है। मजदूरी तो मनुष्य के समष्टि रूप का व्यष्टि रूप परिणाम है। एक अशरफी की श्रा-मकहानी एक दफा मै पंडित जी के साथ कलकसे गया । घूमते घामते हम दोनो अजायबघर की तरफ जा निकले । अजायबघर की बात ही क्या ? वहाँ की मभी चीजे अजीब हैं । कही देश देशान्तर के अद्भुत २ जीब जन्तु हैं, कहीं पर रंग बिरंगी चिड़िया है, कही नाना प्रकार की मछलिया हैं, कहीं शेर कटघरे में बन्द इस बात को बतलाते हैं कि बुद्धि र्यस्य बलं तस्य, और कही अजगरी को देखकर हिन्दुस्तान की अजगर-वृत्ति का स्मरण होता है। 1. 'पूर्णसिंह', मजदुरी और प्रेम, 'सरस्वती', १६११ ई०, काशी नागरी प्रचारिणी सभा के कता भक्म में रचित सरस्वती' की Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३३ (ग) कविता मनुष्यता की संरक्षिणी है। कविता सृष्टि के किमी पदार्थ वा व्यापार के उन अंशां को छाट कर प्रत्यक्ष करती है जिनकी उत्तमता वा बुराई मनुष्यमात्र की कल्पना में इतनी प्रत्यक्ष हो जाती है कि afa को अपनो विवेचन क्रिया से छुट्टी मिल जाती है और हमारे मनोवेगों के प्रवाह के लिए स्थान मिल जाता है । तात्पर्य यह कि कविता मनोवेगों को उभाड़ने की एक युक्ति है ।' 1 कविता से मात्र की रक्षा होती है। सृष्टि के पदार्थ या व्यापार विशेष को कविता इस तरह व्यक्त करती है मानों वे पदार्थ या व्यापार विशेष नेत्रों के सामने नाचने लगते हैं । वे मूर्तिमान् दिखाई देने लगते है । उनकी उत्तमता या अनुत्तमता का विवेचन करने में बुद्धि से काम लेने की जरूरत ही नहीं | कविता की प्रेरणा मे मनोवेगों के प्रवाह जोर से बहने लगते हैं तात्पर्य यह कि कविता मनोवेगों को उत्तेजित करने का एक उत्तम साधन है । द्विवेदी युग की गद्य भाषा में मुख्यतः चार रीतियां दिखाई देती है :- संस्कृत-पदावली, उर्दू ए-मुल्ला, ठेठ हिन्दी और हिन्दुस्तानी । गोविन्द नारायण मिश्र, श्यामसुन्दरदास चंडीप्रसाद हृदयेश श्रादि ने संस्कृत-गर्भित हिन्दी का प्रयोग किया है और अन्य भाषाओं के शब्दों को दूध की मक्खी की भाति निकाल फेंका है। वस्तुत हिन्दी का कोई लेखक उर्दू एमुल्ला का एकान्त लेखक नहीं हुआ। यदि वह ऐसा करता तो हिन्दी का लेखक ही न रह जाता । बालमुकुन्द गुप्त, पद्मसिंह शर्मा, प्रेमचन्द आदि ने यत्र तत्र अरबी-फारसी- प्रधान भाषा का प्रयोग किया है, यथा 'मेवासदन' में म्यूनिसिपल बोर्ड की बैठक के अवसर पर । ठेठ हिन्दी का वास्तविक दर्शन हरिऔध जी के 'ठेठ हिन्दी का ठाठ' में मिलता है। प्रेम चन्द, जी. पी. श्रीवास्तव आदि ने भी अपने देहाती पात्रों के मुख से ठेठ हिन्दी बुलवाई है । हिन्दुस्तानी [ वर्तमान रेडियो की हिन्दुस्तानी कही जाने वाली उर्दूए मुल्ला नही ] का सुन्दर रूप देवकी नन्दन खत्री के उपन्यासों में दिखाई पडता है । प्रेमचन्द तथा कृष्णानन्द गुप्त आदि की भाषा में भी हिन्दी उर्दू के समिश्रण में हिन्दुस्तानी का प्रयोग हुआ है । संस्कृत की परुपा, उपनागरिका और कोमला वृत्तियों की दृष्टि से भी हम द्विवेदी युग के गद्य की समीक्षा कर सकते हैं । गोविन्द नारायण मिश्र श्यामसुन्दरदास आदि की भाषा में कर्णकटु शब्दों के बहुत प्रयोग के कारण परुपा, रामकृष्ण दास, वियोगी हरि आदि के गद्यकाव्य में कोमलकान्त पदावली का समावेश होने के कारण कोमला और रामचन्द्र शुक्ल, W 1 १३०३ ई० की सरस्वती की उपर्युक्त प्रतियों में रामचन्द्र शुक्र तिम्बित कवित Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३३४ । सत्यदेव श्रादि की रचनाओं म उपयुक्त दोनों वृत्तिया का समन्वय ह न के कारण गानागरिका वृत्ति का प्रयोग हुआ है। द्विवेदी-युग की भाषा-शैली के निम्नाकित सात वर्ग किए जा मक्ते हैं:-- वर्णनात्मक, व्यंग्यात्मक, चित्रात्मक, वक्त तात्मक , स्लापात्मक, विवेचनात्मक और भावात्मक । राम नारायण मिश्र, विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक, सत्यदेव श्रादि के भौगोलिक लेखा, काशीप्रमाद जायसवाल, रामचन्द्र शुक्ल, लक्ष्मीधर बाजपेयी आदि के द्वारा लिखित जीवनचरित्रा प्रेमचन्द, विश्वम्भरनाथ शर्मा, बृन्दाबनलाल वर्मा आदि की अधिकांश कहानियो, यशोदा नन्दन अखौरी, वेंकटेश नारायण तिवारी, रामावतार पाडेय यादि के कथात्मक निबन्धी और मिश्रबन्धु आदि की परिचयात्मक अालोचनाश्रो की भाषा-शैली वर्णनात्मक है । इम शैली की विशेषता यह है कि लेखको ने शब्द-चयन में किसी एक ही भाषा के शब्द-ग्रहण और अन्य भापात्रो के शब्दो के बहिष्कार का अाग्रह नहीं किया है। श्रावश्यकतानुसार उन्होंने किसी भी भाषा के शब्द को निस्संकोच भाव से अपनाया है। भावव्यंजना अन्यन्त सरत और सुबोध हुई है। किसी भी प्रकार की क्लिष्टता या जटिलता अर्थ ग्रहण में बावक नहीं है। व्यंग्यात्मक शैली द्विवेदी-युग की भाषा की प्रमुख विशेषता है। द्विवेदी-युग के सम्पादका और बालोचको-बालमुकुन्द गुप्त, गोविन्द नारायण मिश्र, लक्ष्मीधर वाजपेयी श्रादि-के अतिरिक्त धर्म प्रचारको ने भी इस शैली का अतिशय अबलम्बन किया । द्विवेदी-सम्बन्धित अनेक वाद-विवादों की चर्चा प्रस्तुत ग्रन्थ के साहिन्यिक संस्मरण' अध्याय में हो चुकी है। उन वाद-विवादो और शास्त्रार्थ-पद्वति पर की गई आलोचनानी मे व्यंग्यात्मक शैली का पूरा विकाम हुआ है। इस शैली की विशेषता यह है कि लेखको ने किसी बात को सीधे सादे स्पष्ट शब्दो मे न कहकर उसे घुमा फिराकर लक्षणा और व्यंजना के द्वारा व्यक्त किया है । यह शैली कहीं तो अक्षेप-प्रक्षेप मे पूर्ण है, यथा उपर्युक्त विवादा में और कहीं काव्योपयुक्त ध्वनि के रूप में प्रयुक्त हुई है यथा गद्य काव्यो, नाटको नादि में । भावना की गहनता और कोमलता के अनुसार ही विवादों में अन्य भाषाओं के भी चुभते हुए शब्दों का लछमार प्रयोग किया गया है किन्तु दूसरे प्रकार की रचनाओं में संस्कृत की भावपूर्ण और क पदावली क ही प्राय व्यवहार हुअा है Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५. है शती द्विद युगान प्रतिनिवि तर पोडासा हृदयश है उनका प्रत्येक कृति इस शैली में विशिष्ट है। जयशंकरप्रसाद की कहानियो, रायकृष्णदास के गद्यकाव्यों, पूर्णसिंह के भावात्मक निबन्ध आदि में भी स्थान स्थान पर इस शैली का प्रयोग हुआ है 1 इस शैली के लेखकों ने संस्कृत की कोमलकान्त पदावली के प्रति विशेष आग्रह किया है । C । धार्मिक, राजनैतिक आदि आन्दोलनों, उनके वक्ताओं और उपदेशकों ने वक्तृतात्मक शैली को विशेष प्रोत्साहन दिया | हिन्दी के प्रायः सभी पाठकों को सब कुछ सिखाने की आवश्यकता थी । परिस्थितियों ने द्विवेदी युग के साहित्यकारको स्वभावतः उपदेशक और चला बना दिया । फलस्वरूप लेखकों ने वक्तृतात्मक शैली का प्रयोग किया। इस शैली की विशेषता यह है कि लेवक सभा मंच पर खडे होकर भाप करने वाले वक्ता की भाति धारावाहिक और श्रीजपूर्ण भाषा मे अपना वक्तव्य देता हुआ चला जाता है । पाठको का ध्यान विशेष रूप से आकृष्ट करने के लिए वह बीच बीच में संबोधन- शब्दों के प्रयोग, वाक्या और काव्याशों की पुनरावृत्ति, प्रश्नो की योजना, विरोध और विरोधाभास, चमत्कारपूर्ण विशेषण आदि की सहायता भी लेता है । द्विवेदी युग के साहित्यकारो मे श्यामसुन्दरदाम और चतुरसेन शास्त्री इन शैली के श्रेष्ठ लेखक हैं। पद्मम शर्मा सिंह, सत्यदेव आदि की भाषा में भी इसका यथास्थान समावेश हुआ है। इस शैली की रचनाओं की भाषा-रीति लेम्बकों के इच्छानुसार विभिन्न प्रकार की है । उदाहरणार्थ, श्यामसुन्दरदास की भाषा शुद्ध संस्कृत-प्रधान और चतुरनेन शास्त्री की संस्कृत-पदावली यत्र-तत्र उर्दू शब्दों में गुम्फित है । संलापात्मक शैनी का लेखक राठक ने एक घनिष्ठ सम्बन्ध सा स्थापित कर लेता है । वह अपने वक्तव्य को इस घरेलू ढंग से उपस्थित करता है कि मानों पाठक से समालाप कर रहा हो । मक और संतापात्मक शैलियों का मुख्य अन्तर यह है कि पहली मे खोज की प्रधानता रहती है और दूसरी में माधुर्य की । द्विवेदी युग में संलापात्मक शैली का मिद्ध लेखक कोई नहीं हुआ । नाटकों या मलाप रन्तनाओं' की भाषा शैली को मेलापात्मक नहीं कहा जा सकता क्योंकि वहाँ लेखक की प्रवृत्ति और व्यक्तित्व की कोई व्यंजना नही होती । वह तो लेखक- सन्निवेशित पात्रों के कथोपकथन की अनिवार्य प्रणाली है | कहानियो और उपन्यासों के पात्रों के कथोपकथन में लेखकों की संपत्मक प्रवृत्ति अवश्य दिखाई देती है | लाला पार्श्वतीनन्दन के दुम हमारे कौन हो, ३ श्रीमतो बंग महिला के 'चन्द्रदेव से $ कृष्णदास का 'मलाप' आदि । २ सरस्वती १३०४ ई० पृष्ट ११८ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी बातें" श्रादि निबधों में भी सलापा मक शैली का सुन्दर रूप व्यक्त हुआ है इस शैली के लेखों में हिन्दी, उर्दू या हिन्दुस्तानी का स्वच्छन्द्र प्रयोग हुअा है। गय कृष्णदास वियोगी हरि आदि के अनेक गद्यगीत भी इस शैली से विशिष्ट है ।। ठोस ज्ञान की अभिव्यंजन की दृष्टि ने विवेचनात्मक शैली का साहित्य मे विशिष्ट स्थान है। इस शैली का लेखक अपने निश्चित विचारों को निश्चित शब्दावली के द्वारा सारगर्मित ढंग से व्यक्त करता है। अन्य शैलियों से इस शैली की मुख्य विशिष्टता यह है कि इसमें विशेष विवेचन की सूक्ष्मता और विचारों की गहराई अपेक्षाकृत अधिक होती है। अन्य शैलियों में संवेदनात्मकता का भी बहुत कुछ पुट रहता है किन्तु विवेचनात्मक शैली हृदय संवादी न होकर मस्तिष्क प्रधान ही है । श्यामसुन्दरदास, पदुमलाल घुन्नालाल बख्शी गोरीशंकर हीरा चन्द अोझा, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी आदि के चिन्तनात्मक लेग्यो में इस शैली का अच्छा विकास हुआ है । रामचन्द्र शुक्ल के चिन्तनात्मक निबन्ध उन्हें निर्विवाद रूप से शैली का महत्तम द्विवेदी-युगीन लेखक सिद्ध करते हैं । द्विवेदी-युग के विवेचनात्मक शेली के लेखको की भापा प्रायः संस्कृत-प्रधान ही है । अपनी विचार-व्यंजना को असमर्थ समझकर पदुमलाल पुन्नालाल बरब्शी, रामचन्द्र शक्ल अादि ने कहीं कहीं कोष्टक और कहीं कहीं वाक्यक्रम में ही अँग्रेजी के पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया है। भावात्मक शैली की विशेषता काव्यमयी भावव्यंजना है। इस शैली के लेखको ने भावा की कोमलता के कारण तर्कसंगत शब्दावली के स्थान पर हृदयहारी कोमल कान्त पदावली के सन्निवेश पर ही विशेष ध्यान दिया है। इसके दो प्रधान रूप परिलक्षित होते हैं । पहला रूप 'कादम्बरी' आदि संस्कृत गद्यकाव्यो से प्रभावित चंडीप्रमाद हृदयेश, गोविन्द नारायण मिश्न आदि की आलंकारिक शैली है जिसमें उपमा, रूपक, अनुप्रास अादि अलंकारो की योजना द्वारा चमत्कार-प्रदर्शन का प्रयास किया गया है ।इस का उत्कृष्टतम रूप हृदयेश जी की रचनाओ में ही है । कुछ लेखको ने कहीं कहीं बरबस और अतिशय अलंकार-योजना के द्वारा भाषा और भाव के सौन्दर्य का नाश कर दिया है, यथा जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी ने 'अनुप्राम का अन्वेपण ३ लेख मे। इस शैली का दूसरा रूप पूर्णसिह, रायकृष्णदास, वियोगीहरि, चतुरसेन शास्त्री आदि की निरलंकार या यत्र तत्र अनायास ही अलंकृत, प्रसाद, माधुर्यमयी मार्मिक भाव व्यंजना में मिलता है । 'मजदूरी और प्रेम', 'साधना', 'अन्तर्नाद', 'अन्तस्तल' आदि रचनाएँ इस शैली की दृष्टि में विशेष उदाहरणीय है। १. 'सरस्वती' १६०४ ई०, पृष्ठ ५४० । २. उदाहरणार्थ 'विश्व-साहित्य', और 'जायसी-ग्रन्थावली' की भूमिका । ३ छटे हिन्दी का - भाग २ पृ० १६ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचना भारतन्दु-गुग ने कात्र, नाटककार, कथाकार , निवन्धकार श्रादि क पद म जीवन का मर्वतोमुग्बी आलोचना की और कारथितप्रतिभा ही उन समीक्षाओं का कारण रही। किन्तु उम युग का कोई भी साहित्यकार भावयितप्रतिभा के श्रावार पर साहिन्य का गण्यमान्य ममालोचक नहीं हुशा । ममीक्षा-सिद्धात के क्षेत्र में भारतेन्दु ने 'नाटक' नाम की पुस्तिका तो लिखी भी परन्तु रचनाओ की अालोचना मे कुछ भी नहीं प्रस्तुत किया। १८६७ ई. की नागरी प्रचारिंगी पत्रिका [ पृष्ट १५ मे ४७ ] में गंगाप्रसाद अग्निहोत्री का 'समालोचना' निवन्ध प्रकाशित हुश्रा । उसमे समालोचना के गुणो-मूल ग्रन्थ का ज्ञान, मत्यप्रीति, शान्त स्वभाव और सहृदयता--का परिचयात्मक शैली में वर्णन किया गया, अालोचना के तत्वों का ठोम और सूक्ष्म विवेचन नहीं । उनी पत्रिका पृष्ठ ८८ से ११६ ] मे जगन्नाथदास रत्नाकर ने 'ममालोचनादर्श लिखा । वह लेखक के स्वतंत्र चिन्तन का फल न होकर अँग्रेजी माहित्यकार पोप के 'एसे अनि कृटिसिज्म' का अनुवाद था। उसी पत्रिका के अन्तिम ५३ पृष्ठो में अम्बिकादत्त व्यास का गद्यकाव्य-मीमासा' लेग्य छपा ? उम लेग्न में अालोचक ने अाधुनिक गद्यकाव्य की मौलिक समीक्षा न करके संस्कृत प्राचार्यो', विशेष कर साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ, के अनुसार संस्कृत की कथा और श्राख्यायिका का सागोपाग वर्णन किया है । १६०१ ई० की 'सरस्वती' में द्विवेदी जी ने 'नायिकाभेद' पृष्ठ १६५ ] और कविकर्तव्य' [ पृष्ठ २३२ ] लेख लिखे । इन लेखों में उन्होंने कवियों को युग-परिवर्तन करने की चेतावनी दी । नायिकाभेद-विषयक पुस्तकां के लेखन और प्रचार को रोकने के लिए उन्होंने प्राचार्य के भाहित्यकार स्वर में कहा इन पुस्तको के बिना माहिल्य को कोई हानि न पहुंचेगी, उल्टा लाभ होगा। इनके न होने ही में समाज का कल्याणा है । इनके न होने ही से नश्वयस्क युवाजनो का कल्याण है । इनके न होने ही मे इनके बनाने और बेचनेवालो का कल्याण है । १० । उन्होंने संहारात्मक मिद्धान्तो का कवन्न उपदेश ही नहीं दिया, कवियों के समक्ष निश्चित रचनात्मक कार्यक्रम भी उपस्थिन किया--- "अाजकल हिन्दी मेकान्ति की अवस्था में है। हिन्दी कवि का कर्तव्य यह है कि वह लोगों की मचि का विचार रख कर अपनी कविता ऐसी सहज और मनोहर रचे कि पटे लिखे लोगा में भी पुगनी कविता के माथ मार नई कविता पाने का Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५८ ] उसी वर्ष की सरस्वती | पृष्ट ३२ म सठ हैपाल ल पोद्दर का वि और चय लेख छपा जिसमे उन्होंने संस्कृत श्राचार्यो के मतानुमार कधि और काव्य की रूपरेखा का चित्र खीचा । जैसा ऊपर कहा जा चुका है १६.३ ई से द्विवेदी-युग श्रारम्भ हुश्रा उसमें सभी विषयों पर सैद्धान्तिक अालोचनाएँ लिम्वी गई। भारतेन्दु-युग ने अपने को छन्द, अलंकार आदि के बन्धन से मुक्त करने का प्रयास किया था परन्तु वह अधूरा ही रहा । उन रीतिकालीन बन्धनों का प्रभाव द्विवेदी-युग के पूर्वाद्ध मे भो बना रहा । परिवर्तनशील परिस्थितियों और द्विवेदी जी की श्रादर्श भावनाओं के परिणामस्वरूप द्विवेदी-युग के उत्तरार्द्ध में उनका प्रभाव नष्ट होगया । संस्कृत-आचार्यों के अनुकरण पर पिगल, रम, अलंकार और नायक-नायिका भेद पर सामयिक पत्रों में प्रकाशित लेखो के अतिरिक्त अनेक ग्रन्थों को रचना हुई। हरदेवप्रसाद ने विमल वा छन्दपयोनिधि भाषा' (मं० १९८३), कन्हैयालाल मिश्र ने 'पिगलसार ( द्वितीय सं० १६११ ई०), जगन्नाथप्रसाद भानु ने 'काव्यप्रभाकर' (सं० १६६६), और 'छन्दः सारावती' (१९१७ ई०), बलदेवप्रसाद निगम ने 'श्यामालंकार' (१९६७', बाबूराम शमा ने काव्य प्रदीपिका' ( मं० १६६७), मागीलाल गुप्त ने 'भाषा पिगल' ( स० १९६७ ) रामनरेश त्रिपाठी ने पद्य प्रबोध' ( १६१३ ई०) और हिन्दी पद्य रचना' ( १६७४ वि०) बिनायकराव ने 'काव्य-कुसुमाकर',' पुत्तनलाल विद्यार्थी ने 'सरल पिंगल' और वियोगी हरि ने 'वृत्तचन्द्रिका' (१६७६ वि०) नामक पुस्तके लिग्त्री। इन पुस्तको में छन्दःशास्त्र के नियमों का संक्षिप्त निरूपण किया गया। रम और अलंकार के क्षेत्र में 'रस बाटिका',२ 'ममास-बिवरण', 'काव्यप्रवेश', 'अलंकार-प्रबोध', 'अलंकार प्रश्नोत्तरी', 'हिन्दीकाव्यालंकार', 'प्रथमालंकार-निरूपण', 'नवरस', 'अदित साहित्य दर्पण',१° 'साहित्य १. प्रथम भाग, सं० ११७३ और द्वि० भाग १६१६ ई. ! २, गंगाप्रसाद अग्निहोत्री, सं० १९६० । ३. अध्यापक रामरत्न । ४. अध्यापक रामरग्न, सं० १६७६ । ५. अध्यापक रामरत्न सं० १६७४ । ६. जगन्नाथ प्रसाद साहित्याचार्य, १११८ ई०। ७. जगन्नाथ प्रसाद साहित्याचार्य, १९१८ ई.।. ८. चन्द्रशेषर शास्त्री, १६७६ वि० । स० १३७० 1. श शास्त्री स. ११७८ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय , अार भापाभूपया ,२ नामक पुस्तक प्रकाशित हुई । द्विवदी जी के कठोर अनुशासन के कारण नायक-नायिका भेद और नख शिख-वर्णन पर अधिक ग्रन्थ-रचना नही हुई। प्रारम्भ में विद्याधर त्रिपाठी ने 'नवोडादर्श' ( १६०४ ई०) और माधवदाम सोनी ने 'नस्त्र शिस्त्र' ( म० १६६२ ) लिखे। आगे चलकर केवल जगन्नाथप्रसाद भानु की 'रसरत्नाकर' १६०६ ई० और नायिका भेद-शकावली' ( १९२५ ई.) को छोडकर इस विषय पर कोई अन्य उल्लेखनीय रचना नहीं हुई ! द्विवेदी-युग में लिन्वित अधिकाश साहित्य शास्त्र-ममीक्षाएँ ठोस और गम्भीर नहीं है । रामचन्द्र शक्ल, गुलाबराय, श्यामसुन्दरदास, पदुमलाल मुन्नालाल बख्शी आदि कुछ ही लेखको ने साहित्य मिद्धान्तो का यूक्ष्म और विशद् विवेचन किया। सुधाकर द्विवेदी ने अपने 'हिन्दी साहित्य' लैग्व में संस्कृत की महायना से साहित्य की व्याख्या की और मादित्य को सागोपांग काव्य बतलाया । माहित्य के विविध पक्षो का विस्तृत विवेचन न करके उन्हाने उसके रूप का एक स्थूल लक्षण मात्र बताया--- "काव्य के नाटक, अलंकार जितने अंग हैं मवों के सहित होने से साहित्य कहा जाता है ।"3 अपने उमी लेख में उन्होंने राजशेखर, मम्मट आदि संस्कृत-प्राचार्यों का उद्धग्गा देते हुए काव्य की थोथी परिभाषा की- “जो देश की भाषा हो उमी मे कुछ विशेष अर्थ दिखलाने को जिससे उस देश के सुनने वालों को एक रम मिल जाने से श्वशी हो, काव्य कहते हैं ।" काव्य को किमी देश-भाषा और उमी देश के मुनने वालो तक सीमित कर देने में अव्याप्ति है। 'रस', 'खुशी' आदि शब्दो का ढीले ढाले अर्थ में प्रयोग करने से वाक्य की गम्भीरता नष्ट हो गई है और वह अभीष्ट अर्थव्यंजना करने में असमर्थ हो गया है । गोविन्दनारायण मिश्र ने द्वितीय साहित्य-सम्मेलन के अवसर पर अपने सभापति के भाषण मे लच्छेदार और श्रालंकारिक भाषा में साहित्य का काव्यमय चित्र ग्वीचा । उन्होंने उसकी कोई चिन्तनाजनक परिभाषा नहीं की। गोपालराम - - १. रामशंकर त्रिपाठी पं० १९८५। २ ब्रजरत्नद्राम । ३. प्रथम हिन्दी-साहिन्य-सम्मेलन का कार्य-विवरण, भाग २, पृ. ३४ । ४. पग उद्धरण निम्नाकित है:___कोई कहते है कि माहित्य स्वर्ग की सुधा है, यह किमी व्यक्ति विशेष की सम्पत्ति नहीं, रचयिता की भी निज की वस्तु नहीं, यह देवताओं की अमृतम्ची रसीली वाणी है। कोई कहते हैं स्त्री पुरुषो की विचार-शक्ति को पुष्ट कर जान और विवेक बुद्धि का गठ जोडा आध, सार्वजनिक कर्तव्य बुद्धि और मब सद्गुणो सहित शीत्त सम्पन्न बनाने के साथ ही मनुष्यों के मन को सर्वोत्कृष्ट गार्व अलंकारों से अलंकृत कर अपूर्व रसास्वादन का अानन्द उपभोग कराने के द्वितीय मगधा का नाम भी मागिल है मैं मी रन विद्वानों के स्वर में अपना -- - - - - Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गहमरी ने अपने नाटक और उप यास' लख म चुलबुला भ पा म नारक म प नास की भिन्नता को लेकर कुछ स्थूल बान बतलाद उप यास क तत्वो की सूक्ष्म विवचना नहा की। बदरी नारायण चौधरी ने रूपक का लक्षण बतलाया-रूप के आरोप को रूपक कहते है जो सामान्यतः चार प्रकार से अनुकरण किया जाता है ।'' जगन्नाथदास विशारद ने नाटक की परिभाषा करते हुए लिखा-'नाटक उमको कहते हैं जिसमें नाट्य हो, 'अवस्थानुकृति नाट्यम्' अवस्था का अनुकरण करने का नाम नाट्य है ।”२ श्यामसुन्दरदाम ने भी यही त्रुटि की है-"किसी भी अवस्था के अनुकरण को नाट्य कहते है ।"3 दन समीक्षको ने धनन्जय और धनिक के कथन का अक्षरशः अनुवाद मात्र कर दिया है। उन्हें चाहिए था कि 'अवस्था' और 'अनुकृति' शब्दों की विशद् व्याख्या करके उनके अर्थ को स्पष्ट करते। दश रूपक में प्रयुक्त 'अवस्था' का अर्थ तुधावस्था, नुष्टावरथा बाल्यावस्था, वृद्धावस्था, सम्पन्नावस्था, विपन्नावस्था आदि न होकर धीर, उदात्त अादि नायको के स्थायी भाव की अवस्था है। इसका कारण संस्कृत नाटककार की दृष्टि की विशिष्टता है । उसका मानव जीवन के धर्म आदि पदार्थो मे में किसी एक को पाने का प्रयास करता है और संघर्षों के पश्चात् उमे प्रतिनायक के विरोध पर विजय तथा अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति होती है। नाट्यकला के प्रभाव मे संस्कृत-नाटक का पाठक या -- स्वर मिलाकर यही कहता हूँ कि सरद् पूनो के समुदित पूरनचन्द की छिटकी जुन्हाई सफल मन भाई के भी मुंह मसि मल, पजनीय अलौकिक पद नख चन्द्रिका की चमक के आगे तेबहीन मलीन श्री कलंकित कर दरसाती, लजाती, सरस सुधा धवली, अलौकिक सुप्रभा फैलाती, अशेष मोह जड़ता प्रगाढ तमसोम सटकाती, मुकाती निज भक्त जन मन वाछित पराभय मुक्ति मुक्ति सुचारु चारो हाथों से मुक्ति लुटाती, सकल कलापालाप कलकलित सुललित सुरीली भीड गमक झनकार सुतार तार मुर ग्राम अभिराम लसित बीन प्रवीन पुस्तकाकलित मखमल से समधिक मुकोमल अतिसुन्दर मुविमल ताल प्रवाल से लाल कर पल्लव वल्लव सुहाती, विविध विद्या विज्ञान सुभ सौरभ सरमाते विकसे फूले सुमनप्रकाश हास वास बसे अनायास सुगवित सित वमन लसन सोहा सुप्रभा विकमाती, मानस बिहारी मुक्ताहारी नीर क्षीर विचार सुचतुर कवि कोविद राज राजहंस हिय मिहासन निवासिनी मन्दहासिनी त्रिलोक प्रकासिनी सरस्वती माता के अति दुलारे प्राणों से प्यारे पुत्री की अनुपम अनोखी अतुल बल बाली परम प्रभावशाली सुजन मनमोहनी नव रम भरी सरस सुखद विचिन वचन रचना का नाम ही साहित्य है । द्वितीय हिन्दी-साहित्य सम्मेलन का कार्य-विवरण, भाग १, पृ० २६, ३०। १. द्वितीय हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन का कार्य-विवरण, भाग १ पृष्ट ४५ । २. द्वितीय हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन का कार्य-विवरण, भाग २, पृष्ठ २३८ ।-- ३ रूपक रास्प पृ०१० Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ४२ ] प्रेम नारायण टंडन ८७, बदरीनाथ गीता-वाचस्पति ५० बदरीनाथ मट्ट २१२, २१६, २२१, २२२, २३४, २३६, २४१, २६६, २७८, ३८६, ३१३, ३१४, ३४८, ३५४, बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन २, १४, १७, २१, २५, २६५, ३४०, बनारसी दाम चतु दो ५३, ४५, बल्देव प्रसाद मिश्र १५, १४६, ३०६ बल्देव प्रमाद निगम ३३८, बाणभट्ट ४२७, २८४, बाबूराव विष्णु पराडकर १६८, १४३, २१४, २३३, ३५१, ३६५, बालकृष्ण भट्ट १७, १६, २१, २२, २५, ३२, २७८, ३०८, ३१८, बालकृष्ण शर्मा नवीन ४२, २६७, २८१, बालकृष्ण शमा २७८, बालमुकुन्द गुप्त २, ४, ६, १० ११ १६, ४६, ६६, ६७, २११, २६५, ३२८, ३३३, ३३४, ३४७, ३६३, बिल्हण २३, बिहारी लाल ३५०, बी. एन. शर्मा ४६.६८, ६६, बेनी प्रसाद शुक्लः १६८, वेचन शर्मा उग्र ३०६, ३१४. ३१८, ३२२, वेटब १८०, बेभड़क १८०, बजरत्न दास ३३६, ब्रजवासी दास ६२, भगवतशरण उपाध्याय १६२, भगवती प्रसाद वाजपेयी २८२, भगवान दास मेला १६२, भगवान दास हालना ६७, पं० भगवान दीन ६७, ६६, २५८, २७८, २८०. २८७, ३२१, ३२३, ३४३, ३५०, ३६३, भट्ट नायक १२६, भट्ट नारायण ८१, २०७, भट्ट लोल्लट १२६, भरत १२०, भत हरि ७८, १४०, भवभूति ८३, ६२, १४६, ३१२, भवानी दयाल मन्यासी २७२, २७७, भवानी प्रसाद ४४, भामह ६३, १२०, भारतेन्दु २, ५, ७, ८, ६, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १६, २२, २३, २५, २६, ३०, ३१, ३०, ३३. १७८,११ २, १५१, १६०, १७३, १८५, १८७. १६२, २६४, २६५, २७७, ३११, ३४१, भारवि १, ६४, भीमनेन शर्मा ७, ३२, २७७, भुजंग भूपण भटाचार्य १६७, भूप नारायण दीक्षित ३६५, भोला दत्त पाडेय १६८, २६८, मदनमोहन मालबाय ३०, ७४, ७७, २७३, मदिरादेवी ३०६, मधुमंगल मिश्र २२३, २३६, २४०, २४१, २४४. २६३, ३२३ मनु २६२, मनोहर लाल श्रीवास्तव ३१५, मनन द्विवेदी २६६. ३५४. मम्मट ६५, ११७, १२५, मलिक मुहम्मद जायनी ३४५, मल्लिनाथ १२१, मदन्दुलाल गर्ग २६८, महादेव प्रसाद ३०७, महादेवी वर्मा ११२, २६७. महिमभट्ट १२५, मरेश चन्द्र प्रसाद ३५४. महेश चन्द्र मौलवी ३६१ मागीलाल गुप्त ३३८, माखन लाल चतुर्वेदी २६७, २७८, २६३, ३०१, ३०२, ३०५, ३०६ ३०८, ३०६, माघ ८२, १३२, माधवप्रसाद मिश्र १५, २७८, माधय दाम ११, ३३६, मिश्रबन्धु २६, १३३, १४२, २१२, २१३, २१४, २३७, २१८, २२० २२३, २२६, २२७, २२६, २३४, २३५, २३५, २४२, २४४, २५०, २६९, ३०८, ३३०, ३३४. ३४५,३५६, ३५१, ३६३, मुकुटधर पाडेय २६६, २८८ मुकुटधर शर्मा २६८- मुकन्दीलाल श्रीवास्तव २७८ मुग्धानलाचार्य १४६. मूलचन्द २७३, मैक्समूलर 3 मैथिलीशरण गुप्त १५ ४६ १२, ७६, ६, १२, १०४, Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ १५२ १६०, १५८ ११६ ११२ २ ८, २४५ ०६६ २६७, २६८ २०६८ २८. २८, २८६, २८७, २८८, २८६, २६२, २६२, २३४, २१५, २१०, २६८, ३००, ३०१. ३०२, ३०३, ३०५, ३०६, ३०८, ३१०, ३४८, ३६४, ३६१, यज्ञदत्त शुक्ल बी० ए० ८५, यशोदा नन्दन अखौरी २६८, २७८, ३२३. ३३०, ३३१, ३३४, रघुवीर सिह २०८, रतन मिह २६०, रविदत्त शुक्ल २६, रविवर्मा ५८, १७७, २६४, रवीन्द्र नाथ ४८. १४२, ३१२, रहीम ३४५, राजशेरवर १०३, ३६१, राधाकृष्ण दास २, १०, ११, १४, १७, १६, २६, १५१, १६४, १८०, २७७, ३४५. राधाचरण गोस्वामी १०. ११, १४, १५, १७, १६, २६ गधिकारमण सिह २८२, ३२७, ३२४, राधेश्याम कथावाचक, ३१२, रामकुमार खेमका १६८, रामकृष्ण वर्मा १८, ३०, ३१७, रामचन्द्र त्रिपाठी १५, रामचन्द्र वर्मा १६, ३२०, रामचन्द्र शुक्ल १३, ६७, ११२, ११८, १२४, १२७, १३७, १४२, १६८, २१४, २२०, २२३, २२६, २२८, २३३, २३४, २३५, २३६, २३८, २३६, २४१, २४३, २५३, २६६, २६८, २७७, २७८, २८१, ३०४, ३०७, ३१०, ३२३, ३२८, ३२६, ३३०, ३३१, ३३३, ३३४, ३३६, ३३६, ३४१, ३४२, ३४४, ३४५, ३५६, ३५८, ३६२, ३६३, ३६४, ३६५, रामचरित उपाध्याय २१६, २२०, २६६, २८१, २८६, ३००, ३१६, रामदत्त २५५, रामदाम गोड़ ३०६, रामदाम जी वेश्य ३२०, रामदीन सिह ३०, रामधारी सिंह दिनकर २६३, रामनरेश त्रिपाठी २६८, २७८, २८०, २८८, २६५, ३००, ३०५ ३३८, ३५४, रामनाथ सुमन ३०७, रामनारायण मिश्र २६, ७२, ३०८, ३३८, रामप्रसाद दीक्षित ७६, राममनोहर दास ३१२, राममोहन राय ८, रामरव सिंह महगल ४४, रामरन्न 'अध्यापक' ३३८, रामलाल ३२१, गमविलाश शर्मा डा० १०, १४, रामशंकर त्रिपाठी ३३६, रामसिह ३०१, रामानन्द ४६. रामावतार पाडेय ३३४ रामेश्वर प्रसाद वर्मा १७७, राहुल साकृत्यायन १६२, रायकृष्ण दास ५०, ५२, ५५. ६३. १०५, १२८, १६७, २६६, २६६, २८१, २८२, २८३, २८४, २८८, ३०१, ३३४, ३३५. ३३६, रुद्रदत्तजी ६८.६३. रूपनारायण पाण्डेय १६७, २६८ २७८, ३००, ३०१. ३०२ ३०४, ३०६, ३१२, लक्ष्मण नारायण गर्दै ३६५, लक्ष्मण सिह ३१, ८१, १५५, २६४, लक्ष्मीधर वाजपेयी ४६, ५२, ७६, १६८, १७०, १७६, २२६, २३२, २३७. २४२, २४३, २६२, २६८, ३२६, ३३०, ३३४, ३६१, ३६५, लक्ष्मीनारायण मिश्र १६२, लक्ष्मी प्रमाद १४, लक्ष्मी शंकर मिश्र ३०, लाल कवि ३५४, लोकमान्य तिलक ३. लोचन प्रमाद पाण्डेय १६८, २६८. ३०८, ३१४, लाज्जा राम मेहता ३१७, ३२१, ललित कुमार बन्योपाध्याय ३५०, लल्ली प्रसाद पाडेय २६८, लल्लू लाल १८, ३१, २६४, बंगमहिला । देविक श्रीमती ) बामन १२० शंकर २७५, शारदातनय ११५ शालग्राम शास्त्रा २६ ( गान्तिप्रिय दिवदा २ ८५ शिवकुमार मि ५० शिवपूजन सहाय Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ s.५, २७८. शिमहाय चतुर्वेदी ३१६, शिव सिंह मंगर २६ श्यामसन्दा दाम २६, १३, ४६, ६४, ६६ ६६, ७० ७६, ७२, ७३, १५१. १५६, १६. १६२, १८० २०८ २५३ २६६, २०६. २७७, ३२६, ३३३ ३३५, ३३६, ३३६, ३४०, ३४२, ३४४. ३४.७, ३४८. ३५१, ३६४, श्रद्वाराम फुल्लौरी ७, श्रीकण्ठ पाठक एम० ए० १३१, १६८, २१: श्रीकृष्ण लाल ३२०, श्रीकृष्ण हसरत ३१२, श्रीधर पाठक २ ४. ११, १२, १३, १४, ६६ १०८. ११५, १२८, २६५, २८, २८७, ३००, श्रीनाथ मिह ७६, २६६, श्रीनिवाम दाम १०, ११, १७, २१, ३२. ३४७, श्रीमती बंग महिला १६० २१६, २१७, २००.३५ २२८ २६८, ३२३, ३३५, श्रीशंकुक १२६, श्रीहए ८३, १५५, मन्यदेव १६८, १६०, २१३. २१४ २१६. २१७, २८, २१६. २२१. २२२. २२३, २२४, २२५, २२६, २२७, २२८. २२६, २३०, २३१, २३२, २३३, २३४, २३५ ३३६. २३८ २३६ २:०. २४१, २४२, २ ४३. २४८, २६३. २६८, ३३०, ३३४, ३३५, ३६५, सत्यनारायण कविरन्न ५८, १४६, २६८, ३१२, सत्यशरण रतूड़ी १६६, १६० २८७. मदलमिश्र ८. ३५, सदासुखलाल ३०. सनेही २६६. सन्तनिहाल मिह १६८, २३८, मन्तराम बी० ए० २७८, मवल मिह चौहान २८७ मम्पूर्णानन्द २७८. ३०१. सॉड १८० 'मितार हिन्द' १०. सियारामशरण गुप्त २८०, ८६, २६ ७. मी० बाइ. चिन्तामणि ७७, मुदर्शन ३०६ मुधाकर द्विवेदी २६. मन्दालाल १६८, २७३, २७४, सुभद्राकुमारी चौहान १. २६७, २८१. २६ ३. ३०१, ३०६, मुमित्रानन्दन पन्त ११५, १६२, २६३. २८०.२८६. २८८, ३०२, ३०५. ३०६, ३०८ भुबन्धु १९२. १३६, मूदन ३४५, सून १६२. सूर्यकांत त्रिपाठी निगला २६७, २७८, १. ३०८, सूर्यनारायण दीक्षित ४३, ५४ ५१. २१: २६७, २२५, २.३३, २३५, २३६. २३७, २४०. २४३, २५०. २६३, २६८, ३२३, मेठ कन्हैया लाल पोद्दार ३३८, मेठ गोविन्द दाम १६२, सेवक श्याम ३०७. सैयद अमीर अली मीर ७७, स्वामीरामतीर्थ १७३. हरदेव प्रसाद ३३८, हरिऔध १२, २८७. २८८, २६१ २६२, २६८, ३३३. हरिकृष्णा प्रभी १६६. हरिप्रमाद दिवेदी १८२, हरिभाऊ उपाध्याय ५२. ६०. हरिश्चन्द्र ५६ । रचनाएँ और सस्थाएँ - अंशुमती १६६, अंगरेज राज सुख माज सजे अति भारी १६, अंगरेजी फैशन में शराब की श्रादत ६, अँधेरी दुनिया ३२, अकबर के राजन्यकाल मे हिन्दी १३२, ३५४, अकलमन्द १८. अग्रवाल २७४, अग्रवालोपकारक २५, अग्रसर २७५, अचलायतन ३१२. अज्ञातशत्रु १०. ३१३. अजना ३.९ अंडमन द्वीप के निवासी १८ अतीत-स्मृति ८४ ८६ १५. अत्याचार का परिणाम ६०८ श्रद मत । अदाला 'लपि । प्रभत Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अालाप ८४ ८६ १५१ अद्भुत इरजाल १५१ अधिवास २८६ २६३ अनाथ २६७, अनित्य जग ३०२, अनुप्रास का अन्वेषण ३३६, ३५०, अनुभूत योगमाला २७६, अनुमोदन का अन्त ५२, ५३, ७०, ७२, १५२, अन्तर्नाद २८२, अन्तस्तल २२,३३६, अन्वेर नवारी २,१६ अन्योक्तिदशक २८७, अन्वेषण २६५, अपर प्राइमरी रीडर ८६, ८७, अबलाहितकारक २७७, अभिनवभारती १३२, अभिनन्दनाक ५२, अभिमन्युवध ३०६, अभ्युदय २७३, २७४, अभ्युदय प्रेस ४४. अमर कोश ३५, अमरवल्लरी ३२४, अमर सिंह राठौर १७, अमलावृत्तान्त-माला १६, अमृतलहरी ७६, ८६, ८७, १६२, २५२, अमेरिकन मिशन ६, अमेरिका की स्त्रिया २१४, २१८, २२१, २२३, २२६, २३३, २३६, २४३, २४४, २६३, अमेरिका के अग्वबार १६१, अमेरिका के खेतो पर मेरे कुछ दिन २२१, २२७, २२६, २३६, २४३,२४४, अमेरिका-भ्रमण २१६, २१६, २२२, २२३, २२४,२२५, २२६, २२७, २२८,२३०,२३२, २३४ २३६, २३८, २३६, २४०. २३१, २४१, अमेरिका में विद्यार्थी जीवन २१४, २१८, २२८, २३०, २३२, २३८, २३६, अयोव्याधिपस्य प्रशस्ति: ५४, ६०, अरबी कविता और अरबीकविता का कालिदास ३६१, अर्जुन २७५, २६४, अर्थ का अनर्थ १३६, अलंकार प्रबोध ३३८,अलंकार-प्रश्नोत्तरी ३३८, अलबरूनी १६७, अलमोडा अग्बबार २७४, अवतार-मीमामा ७, अवध के किमानी की बरबादी ८४, ८७, ८८, २६६, अवधवासी २७३, अश्रुधारा २८२, ऑसू २६७, २८१, २८२, २६४, ३०४, ३०५, ३०६, ३०७, अाकाशदीप ३२१, ३०५, ३२७, आख्यायिकास सनक ८३, ८६, ८७, आचरण की सभ्यता ३२६,३३१, श्राचार्य २७४, श्राज ३०, १८०, २७३, २७५, २७७, अातिथ्य १७७, आत्मनिवेदन ८५, ८७, ८८, नात्मविद्या २७५, २७७, श्रान्मा १४६, १५३, श्रात्मा के अमरत्व का वैज्ञानिक प्रमाण १४६, अात्माराम ३२६, ३२७, आत्माराम की टेटे ३४७, ३४८, प्रान्मोत्सर्ग २१६, २१६, २२५, २२७, २३१, २३३, २३४, आदर्श २७७, २८१, प्रादर्श दम्पति ३१७, श्रादर्श वर्ष २७८, आदर्श बहू ३१७, ३१६, अाधुनिक कवि ११५, २८६, ३०२, ३०३, अाधुनिक कविता १२०, १२१, १४२. अाधुनिक हिन्दी कहानियाँ ३२४, आधुनिक हिन्दी साहित्य का विकास ३२०, आध्यात्मिकी ८४, ८६, ८७, १५३, अानन्द २७३, २७४, श्रानन्दकादम्बिनी १५, २१, २२, २४, २५, २७, ३२, १४३, १५८, १७१, १८७, १८६, अाप १५, श्राभीर समाचार २७६, नारोग्य जीवन २७४, आर्य २७६, २७७, अार्यजगत २७५, आर्यदर्पण २४, २५, आर्यमापापाठावली ४५, आर्यभूमि ११३, आर्यमहिला २७७, आर्य मित्र. ६८, ६६, ७६, आर्य शब्द की व्युत्पत्ति ६८, आर्यसमाज ६, आर्य-सिद्धान्त २५, आर्यावर्त २७५ श्रार्यो की जमभूमि १४- १५५ श्रासोचनाबलि ८५ ८६ ८७, १२२ १२६ १३८ पाल्दाखड ३२० अ " अाशा १६, १५ आश्चर्यजनक घटी Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ कर्नम्याचदगी ११ कपू रम भरा १६ कवल १ कमयागी २७३, २७४, कर्मवीर २१४, कलकत्ता विश्वविद्यालय २७२, कलकत्ता समाचार २७३, कलंक ३६०, कन्नवार केसरी २७६, कलवार मित्र २७४, कलवार क्षत्रिय मित्र २७६, कलासर्वज सम्पादक १३०, १७६, कलियुगसती ३०६. कलाकुशल २७७, कलिकाल-दर्पण १३, कलिकौतुक १०, १७. कतिप्रभाव नाटक १०, कलिराज का ममा ६, १५, १८, कलिगज की कथा ११, कलिविजय नाटक ३०८, कलोधन-मित्र २७६, कल्याणी ३२१, कल्याण परिणय ३१४ कवि २८२, कवि और कविता ६३, १२०, १४५. १४७, १५३, कवि और काव्य ३३८, कविकंठाभरण :, कविकर्तव्य १४४, १५३, १५५, २२०, २२१, २२.२. २७६, ३३७, ऋषि की स्त्री ३२४, कवि कुल कंज दिवाकर २५, कविकुल कौमुदी सभा २६, कवि कौमुदी २७६, ऋविता ६३, १२०, १२१, १४५, १५३,कविता-कलाप ८६, ७६, ७, ११४, २८५, २६२, २६४, ०६, कविता के अच्छे नमूने १३८, कविता क्या है २१४, २२३, २२६, २२८, २३३, २३४. २३५, २३६, २३८, २.३६, २४१. २४३, ३३०, ३३१, ३३३, ३४२, ३६३, कवितावर्द्विनी-मभा २६, कवितावली २४८, कवित्व ३२६, कवि बनने के सापेक्ष माधन ६३, १२०, १२१, १४७, ऋत्रियों की ऊर्मिला-विषयक उदासीनता १२०, १२६, १४२, १४५, १६१, कविवचन सुधा १२, २३, २५, २६४, कविवर लछीराम १.४६, कविसमाज २६, कविहृदयसुधाकर ६३, कवीन्द्र बाटिका २७७, कस्यचित्कान्यकुन्जस्य १६८, कहाँ जाते हो २८१, काग्रेस की जय ४, काग्रेम के कर्ता १४७, काककूजितम ६७, १०७, ११४, ११५, कादम्बरी १६, १५०, २८४, ३३६, कादम्बिनी २७, काननकुसुम ३१६, कानपुर गज़द २७५, कानी में कॅगना ३२४, ३२७, कान्करन्स २७६, कान्यकुब्ज २७६, २७८, कान्यकुञ्जअबला-विलाप ६, १११, कान्यकुब्ज-प्रकाश २५. कान्यकुब्जलीव्रतम् ७८, कान्यकुजलीलामृतम् ६५, १११, कान्यकुब्ज हितकारी २७४, कामना ३१०, कामनातरु ३२७, कार्ल मार्म २६, कालिदास ५३, ८२. ८६, ८८, ६६, कालिदास और उनकी कविता ८४, ८८, १२०, १२२, १२३, १३६, १४०, १५३, ३६१, कालिदास और भवभूति ३५५, ३५६, कालिदास और शेक्सपियर ३५५, ३५६, ३६१, कालिदाम का समय-निरूपण १५४, कालिदाम का यितिकाल १५४, १५८, कालिदाम की कविता में चित्र बनाने योग्य स्थल १२४, १४०, १५३. कालिदम की दिवाई हुई प्राचीन भारत की एक झलक १३६, कालिदास की निरकुशता ५., ८४, ८६, ८६, १३०, १३१, १३३, १३७, १३८, १५२, ३४७, कालिदास की निरंकुशता पर विद्वामी की मम्मतिया १२५ कालिदास की वैवाहिकी कविता १२४ १०, कालिदास के मेघदत का गहस्य १३२ १५ ४६ ५- ३५५ कालिदास के प्रथा की Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१ कालिट म समय का भारत १५३ ३५२ कालिन्दी ७७ काव्यकल्पद्रम ११८, काव्यकुसुमाकर ३३८, काव्यप्रकाश ६३, ६४, ११८, १२५, काव्यप्रदीपिका ३३८, काव्यप्रभाकर ३३८, काव्यप्रवेश ३३८, काव्यमंया ७६, ८५,८७, १८, काव्य में उपेक्षिताएँ १४२, काव्य में प्राकृतिक दृश्य ३३०, ३४२, काव्यलता समा २७७. काव्यादशं १४, काव्यालोक ११७, काव्यामृतवर्षिणी २५, काव्यालंकार ३३८, काव्योपवन २८७, २८८, काशी का माहिन्य-वृक्ष १३०, १७६, काशी पत्रिका २४, १३५, २०३, काशी विश्वविद्यालय ५३, ५४, ६०, ७२, २७२, काश्मीर कुसुम २८, काश्मीरमुपमा १२८, किरण ३०३, किरातार्जुनीय ८१, ८६, ८७,६४, १३२, १३३, १३६, १४६, १६३, १६६, १६७, १६६, २५, २०६, किमान २८८७,२६४, २१७, किसानोपकारक २७७. कित्सा तोता मैना १८, किस्सा साढे दान यार १८, किस्मा हातिमताई १६, कीचक की नीचता २८०, कीतिकेतु ५६, कुकुर मत्त। २६३, कुछ अाधुनिक आविष्कार १४८, कुछ प्राचीन भाषा कवियों का वर्णन ३४५, कुन्ती और कर्ण २८०, कुमारसम्भव ७८, ८०, ८६, ८७. ६६, १३६, १६३, १६, १६८, १६६, २०२, २०८, २५१, २५२. कुमारसम्भवमापा ८३, ३३५, २८३, कुमारसम्भवम र ७, ८५,८७,९४, १०६, २०८. कुमुदसुन्दरी १०५, ११४, कुम्भ में छोटी बहू १८८ कुलटा १६, कुसुभ कुमारों १६, २०, ३२०, कृर्मि क्षत्रिय-हितैषी २४७, कृतज्ञता-जारन ४३ कृतजना प्रकाश ११२, कृषक-कन्दन २६७, कृषिकारक २५, २७, कृषिमुबार २१४, २१७. २२३, २२७,२३२, २७७, ऋणयशोदा १७७, कृष्णलीला नाटक ३०६, कृष्णार्जुनमुद्ध ३०६., ३१३, कृष्णानुदामा ३०६. केरलकोकिल १८३, १४, कैलाश २४५ कोकिल ११५, २८६, २६० कोयल १८१, २६१, कोविद-कीर्तन ८४, ८६.८७, १२४, कौटिल्य कुठार ५६, ७१, ८४, ८६, १५४, २५६, कौमीतल बार ३१०, क्रन्दन १६, क्रिश्चियन धर्नाक्यूलर लिटरेचर मोसाइटी ६, क्रोध ३३०. जोपाष्टक २४५, दत्रियपत्रिका २४, २५, क्षत्रिय मित्र २४४. क्षत्रिय वीर २७६, क्षत्रिय समाचार २७४, क्षमा प्रार्थना ४, क्षमा प्रार्थना का वितंडाबाद ७४, क्षमायाचना २८२. २८५, क्षीरोद प्रमाद ३१२, ग्वट कीरा युद्ध ३०३. स्वदीबोली का काव्य स्वतंत्रता ३६०, खडी बोली का पद्य १४, १७७, GE, बडगविलाम प्रेस २७१, खानजहाँ ३१२, खुनी ३२६, ३२७, स्वेता की बुरी दशा १४६, रवीष्ट चरितामृत पुस्तर १२. गंगाभीष्म २८५, गगावतरण ३१८, गगा लहरी ७८, ८५.८७.६६. १०७, १८. ११०, गगास्तवन ६३, ६६ गद्यकाव्य-मीमामा ३३५, गद्य-मीमामा १, बडझाला ३१४, गढ कुंडार ३१८, गढ़वाली २७५, गरीब २७५, गरीब हिन्दुस्तान ३३६, ३९२, गटभकाव्य .८ १.५ १२८ गहाई वैश्यनवक २७६. गायकवाड को प्राध्यपुस्तक माला १२५, गीत और मनन १ गीत ग किट - ६२E F .. ..+ र्गत-संग्रह '२ गोता Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ४२० । की पुस्तक १२, गुप्त निब धावली २, गुरुत्वाकर्षण शक्ति 33, गुलबदन उप रजिया बेग़म ३२१, गुलेबकावली ११६, १२०, गृहलक्ष्मी २७४, २३६. २७७, गृहस्थ २७७, ३२१, गोपियों की भगवद्भक्ति १५०, गोपी-गीत २८७, गोरखपुर के कवि ३५४, गोरक्षा १६, गोवध निषेध १७, गोसकट नाटक १०, १७, गोस्वामी तुलसीदास का जीवन चरित ३४५, गौड़हितकारी २७४, ग्यारह वर्ष का समय २३८, ३२३, ग्रन्थकार-लक्षण ६७, १०६, १११, ११४, ग्रन्थि २८०, २८६, ३०५, ३०६, ३०७, ग्राम-पाठशाला १०, घंटा ३१७, घृणामयी ३२०, ३२२, घृणा ३३०, धूरे के लत्ता बीने, कनातन के डौल बाँधै १५, चतुर सखी १६, २०, चना चबेना ३०७, चन्दहसीनाकेबतूत ३२०, चन्द्रकान्ता २०, ३१२, ३२०, चन्द्रकान्ता-सतति २०, ३१६, चन्द्रगुप्त १७५, ३१०, ३१३, चन्द्रगुप्त मौर्य ३२८, ३३०, चन्द्रदेव से मेरी बातें १८८, ३३५, चन्द्रप्रभा २७७, चन्द्रशेखर ७६, चन्द्रालोक ११८, चन्द्रा. वली १६, चन्द्रहास ३०८, चन्द्रहास का उपाख्यान २१२, २१७, २३३, २३५, २३६, २३७, २४०, ३२३, चन्द्रिका ११७, चरिनचर्या ८५,८६, ८७, १५१, चहार-दश १८, चरित-चित्रण ८५, ८६, ८८, १५१, चाँद ४४, १८५, १८६, २७४, २७७, २७८, चित्रकार ३२४, ३२७, चित्रमय जगत २७४, २७७, चित्रमीमासा-खंडन १४३, चित्रशाला प्रेस १७६, चीन में तेरह मास २, चुंगी की उम्मेदवारी या मेम्बरी की धूम ३१४, चुभते चौपदे २८०, २६३, चेतावनी २८१, २८३, ३०१, चैतन्य-चन्द्रिका २७५, चांचचालीसा ३०७, चौन्वे चौपदे २६३, छत्तीसगढ़-मित्र २५, १७३, १७४, १८२, १८५, २७६, छद्मवियोगिनी नाटिका ३०६, छंद-मंग्रह १२, छन्दः सारावली ३३८, छात्रोपकारिणी सभा २.७१, छोटी-छोटी बाता पर नुक्ताचीनी ६६, छोटी बहू ३२१, जख्मी हिन्दू ३०६, जगत सचाई मार ११, १३, जगदरभट्ट की स्तुतिकुसुमाजलि १५५. १५६, १५८, जनकनन्दिनी ३०६. ३१२. जनकवाडा दर्शन ३०८, जनमेजय का नागयज्ञ ३१०, ३१३, जन्मभूमि १११. ११३, जन्मपत्री मिलाने की अशास्त्रता ६, जन्मभूमि से स्नेह और उसके सुधारने की आवश्यकता है, जमा १६, जम्बुकी-न्याय ६८, १०५, ११४, १६७, १८१, जयदेव की जीवनी २८, जयद्रथ-वध २८०, २८७, २८६, २६२, २६३, ३०६, ३०७, जयसिह काव्य ३५२, जयाजी प्रताप २७४, जर्मनी का कवि सम्राट गोथे ३६१, जल-चिकित्सा ८६, ८७, २५५, जॉगीड़ा-समाचार २७४, जापान की स्त्रियाँ १४८, जायसी ग्रन्थावली २६६, ३३६, ३५३, जासूस, २७४, २७७, २७८, जिला कानपुर का भूगोल ८४.८६,८७, जीवन बीमा २१२, २१३, २१७, २२६, २२७, २२६, २३७. २५०, जीर्ण जनपद १३, जुही की कली २६७, २८६, २६२, जैनग़जट २७४ २७६ जैन-तत्व प्रकाश २७५ जैन महिला श्रादर्श २७७ जैन मित्र २७४ २७५ जैनशासन २७. जैन सिद्धान्त ७५ बैत हितैषी २७४ ज्ञान १४६ १५ , भान Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ & 1 ४२१ झाँसी शक्ति २७७ ज्योति २७७ ज्यातिष वेद ग १६१ ज्योतिपी की ग्रामदानी की रानी २८१, भरना ३०३, २०५, ३०६, टाल्स्टाय २६, टिड्डीदल २१२, २०७, २२५, २३५, २३७, २५०, २६३ टेसू की टांग ६२, १०५, १०६, ११४, १८१, टोडा जाति १८८, २२७. २२८, ठग-वृत्तान्त-माला २६, ठलुवा क्लव ३१८ ठहरौनी ११४, ठाकुर गोपाल शरण सिंह की कविता १४२, ठेठ हिन्दी का ठाउ ३३३, तदीय समाज २६, तन मन धन श्री गोसाई जी के अर्पण १० १७, तपस्वी १८ तप्तासंवरण १६ १७, तरंगिणी २८२ तरुण राजस्थान २७५ तरुणी २८६, तरुणोपदेश ७३,८२,८८, ताई ३२१, ३२३, ३२६, तारा ३१७ ३२०, तारा बाई ३१२, तिजारत २७६, तिरहुत समाचार २७५, तिलोत्तमा ३०८. तीन देवता ३२३, तीन पतोहू ३६७, तुम और मै ३०५, तुम वसन्त सदैव बने रहो २८७ तुम हमारे कौन हो २८१, ३३५. तुम्हे क्या २ १५ तुलसीदास की श्रद्भुद उपमाएँ २६०, तुलसी- स्मारक सभा २६, तृप्यन्ताम् ४, ११, २६, तेली समाचार २७४ श्राहि नाथ चाहि १११, त्रिमूर्ति ३६१, त्रिवेणी १६, २६०, २८२ ३६२ ३६३, ३४२, थियोसोफिकल सोसाइटी ६, ७, दक्षिणी ध्रुव की यात्रा १४८, दगाबाजी का उद्योग ११, दण्डदेव वा ग्रात्मनिवेदन १५१. २६२, दमदार दावे २८६, दमयन्ती का चन्द्रोपालम्भ १५०, १५३, -६२, दयानन्द-पाडित्य-खडन ७ दयानन्द - लीला ३०८, दर्शन २८२, दलित कुसुम ४६, दशकुमारचरित २८४ दशावतार कथा ३१७, दाऊदमाला १२. द न प्रतिदान १८८ दामिनी दूतिका ११ दिगम्बर जैन २७४, २०६, दिनेश दशक २८८, दिनों का फेर ३२४, दिल दीवानी ३०७, दोप-निर्वाण १६ दुःखिनी बाला १०, दुखी भारत ३०६, दुलाईवाली ३२२ दुर्गावती ३१०. ३१३, दुर्गेश- नन्दिनी १६, दुर्गाशप्तशती ३५ दृश्यदर्शन ८५,८७८८ १५०, दृष्टान्त प्रदीपिनी २०, देव और बिहारी १२५, ३४६, ३५६, ३५७, देवदासी ३२४, देवी ३१६ देवनागर-वत्सर २७८, देवन गरी प्रचारिणी सभा २७०, देवयानी ३०६, देवारचरित्र २६, देवीस्तु शतक ७८ ८५८७, ६६, १०७, १०८, ११०, देशहितैपियां के ध्यान देने योग्य कुछ बातें २१४, २१८, २२१, २२८. २३६. २४३. २६३. देशदूत १८० देशबन्धु २७६ देशहितंपी २४ देशी कपडा ४, देशोपालम्म ११३, देहाती २७७, देहाती जीवन २७५, दो तरंगे २८०, द्रौपदी ३१७, द्रौपदी-वचन- बाणावली १०५, द्वापर ६२, द्विजराज २७६, द्विवेदी- अभिनन्दन ग्रन्थ ५२, ५५, ५६, ६७, ६६, ७१, ७२, १६४ १६७. २६६. ३६४, द्विवेदी - काव्यमाला ७६, ६३६५ ६६ ६७, ६८,६६, १००, १०१, १०२, १०२, १०५, १०६, १०८, १०६ ११० १११, ११२, ११३, ११५, ११६, १६२, १६७, द्विवेदी- मीमासा ४२, ४६, ४६, ५१, ५६, ५८, ८७, द्विवेदी- स्मृति-अंक ५२, धनञ्जयविजय १६ धर्मकुसुमाकर २31 धर्मदिवाकर २५ धर्मप्रचारक २० २० धर्मरक्षक देश २७५, 7 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ४२२ । २७६ धमवीर ७७ धमसार २ धमाधम युद्ध ३०६ २१२ धमालाष ७ धारा E+ धाराधरधावन १७४, धूर्त रसिक लाल १६, धौग्वे का टट्टी ३२०, बबालो ६४, १७ ११८, १२५, २८, ध्वन्यालोकलोचन ११७, १६२, नखशिख ३३६, नन्द-विदा ३०६, नन्दोत्सव "१७, नमस्कार २९६, नये बायू ११, नरेन्द्र मोहिनी २०, नव जीवन २४, २७७, २८२, नवनीत २७४, २७७, नवरस ११८. १३८, ३४२, नवोडा १७७, नवोढ़ादर्श ३३६, नशा ६., नशा-स्वंडन चालीसा ५७, नहुष १६. नाईब्राह्मण २१६ नाक में दम ३१४, नागरी ८ नागरी अंकों की उत्पत्ति ३३०, नागरी तेरी यह दशा ६५, ११४, नागरी का विनयपत्र, १४, नागरी दाम का जीवनचरित २१, ३४५, नागरी-नाटक मदनी ३११, नागरीनारद २७, नागरी प्रचारक २७५, २७८, नागरी-प्रचारिणी पत्रिका २१, २२, २८, १६०, १८६, २६६. २७६, २७७, २७८, ३१४, ३२६, ३४१, ३४४, ३४५, ३४८, ३५२, ३५४, ३३७,, नागरी-प्रचारिणी सभा, काशी २१, २८, ३०, ४०, ४३. ४४, ४७, ५१, ५२, ५३, ५५. ६०, ६६, ६७, ६८, ६६, ७०, ७१, ७२, ७३, ७८८ ८८, ८८, ६७, १०४, १६०. १६३, १६४, १६५, १६७, १६, १७६, १८०, १८२, १६६, २०४, २०५. २०८, २१२, २५०, २५१ २६८, २६६, २७०, २७१, २७७, २८६, २६०, २६, २६२ ३३०, ३३१, ३३२, ३५१ ३६४ नाट्यशास्त्र ३३, ८३, ८६.८७ - ११६, १४७, ७५३, १४६, २६१, ३०६, ३११, ३२८. ३४१. नॉर्थ इंडिया ऑक्ज़िलियरी बाइबिल सोमाइटी ६, नार्थ इंडिया क्रिश्चियन टेक्स्ट-एन्ड-बुक मोमाइटी ६, नाटक ३३७, नाटक और उपन्यास ३४०, नायिका-भेद १२०, १२२ १३१, १४७, ३३६, नायिका-भेद-शंकावली ३३६, नासिकेतोपाख्यान १८, निर्गमागमचन्द्रिका २७६, २७७, निर्भय-अद्वैत-सिद्धम् ११, निरंकुर्शना-निदर्शन ३४७, ३०६, निस्साय हिन्दू १६, २०, निद्रा-रहस्य ३३०, निकृष्ट नौकरी १६, निबन्धिनी ४४, ६२, निरीश्वर वाद १४६, निशीथ-चिन्ता २८१, निष्टुर परिवर्तन २८६, ३०३, नोरक्वतार २८६ नीलिगिरि पर्वत के निवासी टोडा लोग २१६, २१७, २६३, नील देवी १६, नृतन ब्रह्मचारी १६, नेत्रोन्मीलन ३०८, नेपाल १५७. नैषधचरित ६३,८६, १२४ १३३ १३६, १४०, १५३ १५५, नैषधचरित-चर्चा ३४, ८३, ८६, १३८, नैषधचरितच और सुदर्शन ४४, १२५, १५४, न्यू अल्फ्रेड ३११, न्याय और दया २१३, २१४, २१३, २१८, २३, २२७, २२६. २३५, २४३. २४४: पढे-लिन्वे बेकार की नकल १८, पतिप्राणा अबला ५६, पतिवता ३१२ पधिक २८०, २८६ ३०३. ५, पद्य-प्रबोध ३३५, पद्य में हिन्दी की उन्नति २६, पद्मावती १७, परदा २८२. परदे का प्रारम्भ ३५४. परमात्मा की परिभाषा २६: परमार-बन्धु २७६, परिचय: ३३६. परिमल २६७ परिवर्वन ११५ २-१, परीक्षा गुरू ३१७ परोपकारी ६८ ७, ८ पर्यातोचक १६, Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२३ ] पल्लव २६७, ३०६, पत्रावली २८०, पवनदूत २१६, २२०, पाटलिपुत्र २७४, पाताल देश के हवशी २३४, पाखंड-विडंबन १६, पाप का परिणाम ३०६, पायनियर ६६, पालीवाल ब्राह्मणोदय २७४, पार्वती-परिणय नाटक ३६१, पीयूप-प्रवाह २५, २७७, पुनर्जन्म का प्रत्यक्ष प्रमाण १४६, पुरातत्व प्रसंग ८५, ८६, ८८, पुरानी समालोचना का एक नमूना १४२, पुरावृत्त ८५, ६, ८५, पुलिम-वृत्तान्त-माला १६, पूना १७६, पूर्णप्रकाश और चन्द्रप्रभा १६, पूर्व भारत ३०८, पृथ्वीराजरासो २६६, पृथ्वीराज-विजय महाकाव्य ३५२, परिस १४८, पंचपरमेश्वर ३२५, ३२७, पंचपुकार १.६७, ३४८, पंचपुकार का उपसंहार २६३, पंचवटी २८०, २८९, २६५, ३०६, ३०३, ३०८, पंडित और पंडितानी २२७, २२८ पाचाल पंडिता २७७, पिगल बा छन्द-पयोनिधिभापा ३३८, पिगलसार ३३८, प्रकृति-सौन्दर्य २८१, प्रचंड गोरक्षा १७. प्रजा-सेवक २७६ प्रणवीर २७५, प्रणयिनी-परिणय २०, प्रताप ४, ७६, २७४, २७७, प्रतिध्वनि ३२७ प्रतिभा १४६, १५३, १५८, २६१, २६२, २७७, २७८ प्रथमालंकार-निरूपण ३३८, प्रद्युम्न-विजय-व्यायोग १८, ३०८, प्रभा १८५, २७४, २७६, २७७, २७८ २८१, २८३, २८५, ३०१, ३०४, ३०५, ३१४, ३२५, ३२४, ३२६, ३४४, प्रभात-प्रभा २८७, प्रभात-मिलन ३०६, प्रभात वर्णनम् १०५, १०७, १०६, ११५, प्रमीला १६, २०, प्रयागरामगमन १७, प्रयाग-समाचार २५, ६६, प्रवीण पथिक २०, मलय २८१, प्रवासी १७६, १८३, १८४, १८५,२५६, प्रसाद ३०५, प्रसादजी के दो नाटक १२६, प्रहलाद चरित्र १७, प्राचीन ऋविता १७७. प्राचीन कविता का अर्वाचीन अवतार १७७, प्राचीन कवियों के काव्यो में दोषोद् भावना १२२, १२६, १५०, प्राचीन चिन्ह ८५,८६, ८७, १५० . प्राचीन तक्षण-क्ला के नमुने १७७, प्राचीन पडित और कवि ८३, ८६,८८, १२५. १४७, १५१, प्राचीन भारत की एक झलक १५५, प्राचीन भारत के विश्वविद्यालय २२६, २३७, प्राचीन भारत में जहाज १४८, प्राचीन भारत में रसायन विद्या १४८, प्राचीन भारत में राज्याभिषेक २३०, २३३, २३४, २३६, प्रायश्चित्त ३१४, प्रार्थना ११४, प्रिथप्रवास १०७. २६६, २८०, २८५, २८६ २८८,२८६, २६२,२६३,२६५,३०२,३०४,३०५, ३०६,३०७,प्रियम्बदा २७७, प्रेम २७५,३०५, प्रेमजोगिनी १६, प्रेमदोहावली १२, प्रेमपथिक २६७, २८०, २८८, ३०५, ३०६, प्रेम-पुष्पाचला ७, प्रेमलहरी २८२, प्रेमविलास २७७, प्रेमविलासिनी २४, प्रेमसागर १८, ३१, प्रेमाश्रम ३१७, ३१८, ३१६, ३२१, ३२२, प्लेग की चुडैल ३२३, प्लेग की भूतनी ११, प्लेगराजस्तव १८१, फिर २८२, फिर निराशा क्यों २८२, फूट और बैर ६. फौजी अखबार २७४, बड़ाभाई १६, बड़ी बहू ३१६, बनारस १५०, बनारम अखबार २२, बरनवाल चन्द्रिका २७६, बलिदान ३२७, बलोवर्द ४८,११४, १२८ बहुजातिन और बहुमक्किन्न । वाइरन ८ बागोवहार १८ वाणमा की कादरी Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसपीयूष १२४, मारवाडी २७५, मारमार कर हकीम २१४, मारवाडी ब्राह्मण २४. मारिशस इंडियन टाइम्स २७७, मार्जार मृषक २, १५, मालती १८, मालती-माधव ६२, ३१२, मालवमयूर २७६, मित्रसमाज २६, मित्र-विलाम २४, २५, मिथिला मिहिर २७४, मिलन ३०५, मिलन मुहूर्त ३२७. मिश्रबन्धु-विनोद ३५४, मिश्र भ्राताओ के नवरत्न २६, मीराबाई और नन्दविदा १७, मुक्तिमार्ग ३२५, ३२७, मुद्गरानन्द चरितावली ३२६, मुद्राराक्षस १६, मूर्तिपूजा ७, मच्छकटिक और उसके रचनाकाल का हिन्दू-समाज ३५२, मृत्युंजय २८७, मेक्समूलर १२६, मंघदूत ८१, ८६, ८७, १३६, मेघदूत भाषा ८३, मेघदूत मे कालिदास का आत्मचरित ३५५, मेघदूत-रहस्य १३२, १५७, १६७, मेटन प्रेस ४७, मेरी कहानी ७२, मेरी रसीली पुस्तकें ७३, ७४, मेरे प्यारे हिन्दुस्तान १०७, मैकडानेल पुष्पाजलि २६, मोरध्वज ३०६, मोहिनी २७६, मोहनचन्द्रिका २३, मौर्य विजय २८०, ३०६, म्यूनिसिपैलिटी ध्यानम् १५ यमपुर की यात्रा १५, यमलोक की यात्रा २, १८, यमुनास्तोत्र ७६, याद २८६, यादवेन्द्र २७८, युगवाणी २६७, युगान्त २६७, युगान्तर २७६, युगुलागुलीय १६, यूरोपियन धर्मशीलास्त्रियों के चरित्र २८, युरोपीय के प्रति भारतीय के प्रश्न ६, १६. योगप्रचारक २७६, योगिनी ३२७, योधाबाई १८८, रंगीला २७५, रघुवंश २६, ८०,८१, ८२, ८३, ८७, ६२, १३२, १३५, १३६, १३६, १४६, २०६, रगभूमि ३१८, ३१६, ३२१, ३२२, रंगीन छायाचित्र १४८, रजियाबेगम ३१७, रम्भा ११४, रसकलश ६२, ११६, रसगंगाधर ६४, रसज्ञरंजन ६३, ८४ ८६, ८८, ६१, ६३, ११६, १२१, १२२, १२६, १४१, १४२, १४५, १५१, १५३, १६८, २८०, २८५, २८७, २८८, २६, २६१, ३३७, रसिकपंच २५, रमिक बाटिका १८१, १८५, १८७, २७७, ३३८, रमिक रहस्य १८५, १८७, २७७, रमिया बालम ३२५, रसा का मनोवैज्ञानिक सम्बन्ध ३४२, राखी बन्द भाई २१४, ११८, २२१, २२८, २३०, राजतरंगिणी २८, राज-धर्म २२०, २२१, २३४, राजनीति-विज्ञान २१७, २१८ २२५, २२८, २३०, २३२ २३८,२४३, २४४, ३३१, राजपूत २७४, राजपूतनी २१३, २२१, २२५, २२६, २३३, २३६, २४१, राजसिंह १६, राजाभोज का सपना १०, ११, १८, राजा युधिष्ठिर का समय १५४, राणाप्रताप का महत्व ३०६, राधाकान्त ३२०, राधारानी १६, गनी केतकी की कहानी १८, ३०, रामकहानी २१२, रामकहानी की समालोचना १३१, १६१, १६८, २१२, रामकृष्ण मिशन ६, ७, रामचरितमानस ६२,११६, २४८, २६५, रामचन्द्रिका ३४३. रामायण २७६, रामलीला १७. रायगिर अथवा रायटेक २१२. राष्टीय हिन्द मन्दिर ६३, रुक्मिदी हरम १७ १८, ३०८, रूपक रहस्य ३४० ३४१ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . लक्ष्म १५१ १७३ ५८५ १८३, ५८ २७४ २७६ ५३८ ३५० लक्ष्मा मरस्मता भिन्तन, १७, लज्जा और ग्लानि ३३० लवकुश १६ लपगत्तता ११ . लिग्वन के सा न ३६३, लीडर.७६, लेटिनी हिन्दी २१३, २१५, लोअर प्राइमरी गडर ८४, ८६, ८७, लोकमान्य २७६, लोकोक्ति-शतक १५, लोम वा प्रेम ३३०. चक्रव्य १५४, क्तत्वकला ८८, बंगदर्शन २६८, बंगविजेना. :१६६. २१,, वंगवामी, २७३, बनवीर नाटक , वनिता-विलास ८६, ८६, ८८, १५१, १५२, वन्देमातरम् ५८, १७६, वरमाला ३०६, १३, वररुचि का भमय, २१४,२.३३. ३५१, वर्तमानकालिक हिन्दी साहित्य के गुमा ३३०, वर्तमान नागरी अक्षरो को उत्पत्ति ३३०, बर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट ३.२४, वर्षा-वर्णन २८७, वसंत १७, ११५, वसंतमालती २०. वसंतमेना २६४, वह छवि २८०, वाग्विलास. ८५. ५६, ८८, वारागना-रहस्य महानाटक १७, ३२२, वासवदत्ता १२२, १३६, २८४, २८५,. विक्रमाकदेवचरित-चर्चा ८३, ८६, ८७, ८६, १२४, १३८, १३६. १४०, १६४, विमादित्य और उनके संवत् की एक नई कल्पना १४८, विचार करने योग्य बातें १०६, विचार. विमर्श ८५, ८६, ८८, ११६, १२१, १२८, १३०, १३३, १४१, १४२, १४८, १५६, २०२, २५५, २५६, २५७, विजयिनी-विजय-जयन्ती ११, विज्ञ-बिनोद ८४, ८६, ८ विज्ञान १६४, २७७, २५८, विज्ञान-प्रचारिगी ममा २६, विजान-बाता ८५, ८६, ८८, विज्ञापनों की धूम २२०, २२५, विदेशी विद्वान ८४,८६, विद्या के गुण और मूर्खना के दोष ११, विद्यार्थी २३, २७६, २७३, विद्या प्रचारिणी सभा २७ १., विद्या-बिनोद १७३, २७७, ३-१२, विद्यासुन्दर १६, विधवा २६६, विधवा-विपत्ति १६, विधि-विडंबन ६५, १०६, विनय-विनोद ७८,, ८५, ८.६४, १६, १०२, १०६, १९७५ - १.०८, विपद कमोटी ३०६, विमाता का हृदय ३३४, वियोगिनी १७३, विराटा की पद्मिनी ३१८, विलाप २८२, विलायती समाचार पत्रो का इतिहास ३५४, विवाह-निलंबन १७, विवाह विषयक विचार व्यभिचार १५६, विवाह-संबन्धी कविताएं ११४, विशाल ३५०, ३१३, विशाल भारत.४५, १६४, विश्वामित्र २७३, ३०६, विश्व विद्या-प्रचारक २55, विश्व-साहित्य ३३०, ३६६, ३४२, ३४६, ३६१, विपुस्य-विषमौषधम् १६, विहारपत्रिका २७५, विहार-संधु २३४ विहार वाटिका ५,८७, ६४, ६६. १००, १०२, १.५, १०७, १०८, वीणा १६८, २८२, वीर-पंचरन २८०, २८७. ३०६, वीर भारत २७४, बीरेन्द्र वीर २०, बुश्रेष्ठ मूल कथा १२, वृत्तचन्द्रिका ३३८, वृद्ध १५, वेंकटेश्वर प्रेस २.७१, वेंकटेश्वर-नमा चार २५, ६६,.,६८, १३५, २७३, २७४, वेंकटेश्वर प्रेम की पुस्तके १२५, वेणीमहार ८०,८२,८६, १६३, १६८, १६६, २०३, २.४, २०, २५५. वैचित्य चित्रमा नानिक कोषु ८३, ८७ २६४, वैदिक देवता १५५, Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ १०६, १६५, १८१, सरलपिंगल २३२, सराय २८२, सहृदयानन्द ८९, साकेत १, १२, १४२, २८०, २६५, ३०७, साँची के पुराने स्तूप १५०, साधना १२८, २८२, २८३, २८४, मारंग २६६, सारसुधानिधि २, १५, २४, सावधान २७६, साहिल्य २७७, ३३१, ३३८, ३४१. ३६३, साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है १६, साहित्यदर्पण ६४, ३३७, ३३८, ३४१, ताहित्यपत्रिका २७५, २७७, साहित्यच्च १३१, साहित्य-संदर्भ ८४, ८६, ८८८, १४८, १५०, १५५, १५६, साहित्य-संदेश ३४, ६२, ६४, ८, १६३, १६४, १७३, ३६५, साहित्यसम्मेलन-पत्रिका २७२, ३१२, साहित्य-सीकर ८८, साहित्य मुधानिधि २५, साहित्यालाप ८६, ८८, साहित्यिक संस्मरण ३३४, मिहासन-छत्तीसी १८, सिन्ध देश की राजकुमारिया १७, सिन्धु समाचार २७५, संता-स्वयंवर नाटक ३०६, सुकवि-संकीर्तन ८४, ८८, १२५, १४७, सुखमार्ग २७६, सुगृहिणी २५, सुदशाप्रर्वतक २७४, सुदर्शन २५, ६६, ६७, २७८, ३२४, सुदामा १७, १७०, सुन्दर-सरोजिनी २०, सुधा ३२४, सुधानिवि २७४, सुधावर्पण २७३, मुबोध पत्रिका १२, सुभद्रा नाटक ३०६ सुमन ७६, ६१, सुहाग की साड़ी ३२६, सूरसागर २६५, सूर्य २७५, सूर्यग्रहणम् १०५, ११५, मष्टिविचार १४६, सेंटल हिन्दू स्कूल ५३, सेवासदन ३१७,३१६,३२१, ३२२, ३३३, सैनिक २७४, सोहागरात ७३, ७४, ७८, ८६, ६४, सौ अजान और एक सुजान १६,२८६, ३१८, सोत ३२३, मौन्दरानन्द १२६, सौन्दयोपासक २८२, ३२०, सोमनाथ के मंदिर की प्राचीनता १४८८, स्त्रीदर्पण २७४,२७७, स्त्रीधर्म शिक्षा २७७, स्त्री-धर्मशिक्षक २७४, स्त्रियों के विषय मे अत्यल्प निवेदन १६७, १६८, ग्नेहमाला २५, ८७, ६४, १००, १२, १०५, १०७, १०८, स्फुट कविता ४, ११०, स्वतंत्र २७३, स्वतंत्रता का मूल्य २८३, स्वतंत्र रमा परतंत्र लक्ष्मी १६, स्वदेश २७४, २७५, स्वदेश-प्रेम ३१७, स्वदेश बान्धव २७५, स्वदेशी प्रांदोलन ४, स्वप्न ११४, स्वराज्य २७४, स्वर्ग में विचार सभा का अधिवेशन २०, १५, १८, स्वर्गीय कुसुम २०, स्वर्णलता १६, स्वाधीनता ३३, ६०, ६३, ८०, ८६, ६७, १४६, २४७, २५२, २६१ स्वार्थ २७७, २७८, स्नेह २८६, हंस ५२, ८५, १६४. १७१, ३८४, हंस का दुस्तर दूत-कार्य १५१, हंस का नीर-दीर-विवेक १५७,२६१, हंस-सन्देश १५१, हन्टर कमीशन ३१,हम पंचन के ट्वाला मा ६०,हमारा उत्तम भारत देश ४,हमारा वैद्यकशास्त्र २२६, २३२, २३७, २४२, २४३, २६३, हमारा सम्वन् २२६, हमारी दिनचर्या १५, हमारीमसहरी १५, हरमिट १४, हरिदास कम्पनी २७१, हरिश्चन्द्र चन्द्रिका १५, १८, २३, हरिशचन्द्र मेगज़ोन ६, १६, २३, २७, हर्षचरित १२७, २८४, २८५, हलवाई वैश्य संरक्षक २७६, हितकारिणी २७४, २७७. हिन्दी २७७, ३५४, हिन्दी कालिदास--३३, १२२ १३५, १३७, हिन्दी कालिदास की -८३, ८६ ८. १४,६६, १३० १३१, १४० १४ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ १६५ १६८, १६६, २०० २०३ २०८ २०६, २१० २५३ २५६ हिन्दी व्याकरण २१६, २२४, हिन्दी-काव्यालंकार ३३८, हिन्दी-केसरी २७३, २७४, २७५, हिन्दी समाचारपत्र १४२, हिन्दी-गल्प-माला २७६, २७७, 'हिन्दो जिज्ञास्य सभा नेशनल सोसाइटी २७२, हिन्दी नवरत्न १२१, १२३. १२६, १३०, १३१. १३३, १४०, १४७, १४६, २११, ३४६, हिन्दू नाटक १४७, हिन्दी नाइट स्कूल २७२, हिन्दी पद्यरचना ३३८, हिन्दी पुस्तकालय २७२, हिन्दी-प्रचारक २७६, २७७, हिन्दी-प्रचारिणी सभा २७१, २७२, हिन्दी-प्रदीप १५, १८, २१, २४, २५, २७, १५८, १७१, १७३, १७७, १८६, २७८, हिन्दी फुटबालक्लब २७२, हिन्दी बालसभा २७२, हिन्दी भाषा और उसका साहित्य ६६, ८३,८६, ८७, १४६, १५४, १५८, १६१, हिन्दी महाभारत ८०, ८६.८७, हिन्दी रंगवासी ७, २५, ६६, २७४, हिन्दी विद्यालय ७२, हिन्दी शिक्षावली तृतीय भाग २०६, हिन्दी शिक्षावली तृतीयरीडर ६४ हिन्दी शिक्षावली तृतीय भाग की समालोचना ५६, ५७, ८३, ८६, १३१, १३७, १४०, १४१, १५८. १६२. १६३, १६४, १६५, १६८, २०१, २०५, २०८, २४७. २५१, २५३, २५६, २५७, हिन्दी सभा २७१, हिन्दी साहित्य १२६, १७७, १७६, ३३६ हिन्दीसाहित्य का इतिहास १३, ११८, १३७, ३४५, हिन्दी साहित्य परिषद् २७१, हिन्दी साहित्यसमिति २७१, हिन्दी साहित्य सम्मेलन ५०, ५३, ५६, ६७, ७६, ७८, १२१,२६६, ३३०, ३३६, ३४०, ३४१, ३४२,३५०, हिन्दू ३०६, ३२४, हिन्दोस्थान २५, १३५, २०३, हे कविते ११४, १३१, २८७, हेमन्त १७०, २६०, होली २, १५, होली की नकल १३ । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पक्ति प्रशुद 316 13 32. 11 320 14 320 1 320 11 पठ पत्रपठन पडेगा', 'पड़ेगा' विज्ञानी 'विज्ञानी' त्यन प्रत्यय गुरू " त्यत्र "त्पन्न भक्त्यै व प्रख्यार्पितगुणैः प्रख्यार्पितगुगः भिखारिण भिखारिणी कबरिहा वाङ्गमय बाङ्मय शक्तयेव 322 15 181 15 जात 162 18 नाटकी 211 16 दैनन्दनी 212 12 योग 251 1 शर्मा 251 14 उर्वमी 254 2 प्रसस्त 255 7 प्राय 262 16 बलात्मक 267 27 चैतन्य 268 6 अरोध 273 8 सामंजम 274 26 अन्र्तगत 276 17 श्राकर्षण 284 12 श्रात्मराम' 286 काउमका काव्यात्मकी 266 28 मरीम्ब जगत नाटकीय दैनन्दिनी प्रयोग बमा उर्वशी प्रशस्त श्राश्चर्य कलात्मक चेतन श्रारोप ममंजस अन्तर्जगत आकर्षक 'अात्माराम' बकरिहा 324 2 325 5 325 1 25 18 तेलीम तेली মৰিখ हर्षचरित शर जग शान 326 6 306 16 3 26 21 327 6 327 12 जा उप अन्धेरा घर घर কাস্বাম मरीग्वी उपधा निबन्ध आक्षेप इम शैली 334 22 क्रान्तितारी ग्रहस्थ'बने थे मगर दर्शना 337 15 1601 ई. माधिकार चिन्तनात्मक 306 25 साहित्यकार 336 25 विभिन्न घर घर 268 निबन्ध 301 31 अक्षेप क्रान्तिकारी शैली गृहस्थ बने हुए थे 304 1 कोटक माटे दर्शन विपन्न 3163 चिन्तनाजनक साहित्यिक "इन कथोद्धात उसका 'कृष्णाजु नयुद्ध' 313 27 भीड़ चंगी 14 15 दसरूपक गीति काव्यमय 215 6 प्रकारक रामकृया प्रेमा বল্প গাথা साहित्यिक कथोद्धात 'कृष्णार्जुन' 340 16 उसका नायक भीड दशरूपक काव्य म 341 12 342 4 7 भाच गौत प्रकार रायका पेरगा सा 47 पग्रकाषा ܘܪ ܕ 9 ܕ