________________
। २४७ ]
सस्कृत व्याकरण में भी स नियम का निर्देश नही उसमें विभक्तिया प्रथक रह ही नहीं सक्ती क्याकि उनकी मन्धि से शब्दो में विकार उत्पन्न हो जाते हैं। परन्तु हिन्दी में ऐसी बात नही । विभक्तियों को सटा कर या हटाकर लिखना रूढि, शैली या सुभीते का विषय है, व्याकरण का नहीं । शब्द अलग-अलग होने मे पढ़ने में सुभीता होता है, भ्रम की सम्भावना कम रह जाती है। अतः विभक्तियों का अलग लिखना ही अधिक श्रेयस्कर है। व्याकरण का कार्य केवल इतना ही है कि भाषा प्रयोगो की संगति मात्र लगा दे। उसे विधान बनाने का कोई अधिकार नही । अपप्रयोग तभी तक माना जा सकता है जब तक भ्रम या अजान के यशवर्ती होकर, कुछ ही जन किसी शब्द, वाक्य, मुहावरे आदि को प्रचलित रीति के प्रतिकूल बोलते या लिग्बने है ! अधिक जन-समुदाय, शिष्ट लेखको या वक्ताओं द्वारा प्रयुक्त होने पर वही माधु प्रयोग हो जाता है । शब्दो का लिग भी प्रयोग पर ही अवलंवित है ! जन्य मंस्कृत में 'दारा' शब्द पुल्लिग मे और अंग्रेजी में देशों के नाम स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होते हैं तब प्रयोगानुमार हिन्दी मे 'दहा शब्द मी उभयलिगो हो सकता है। हिन्दी के कुछ हितेपी चाहते हैं कि क्रियाओं के रूप में मादृश्य रहे । वे 'गया' का स्त्रीलिग ‘गयी' चाहते हैं, 'गडे' नहीं । कुछ लोग ‘लिया' और 'दिया' का स्त्रीलिग लिई' और 'दिई' चाहते हैं, 'ली'
और 'दी' नहीं। सरलता के कुछ पक्षपातियों की राय है कि क्रियानो को लिग-भेद के झमेले मे एकदम ही मुक्त कर दिया जाय । परन्तु वकानी का मह और लेखकों की लेग्वनी बग्यावरण बन्द नहीं कर सकते ।
द्विवेदी जी की प्रारंभिक रचनायो की रीति और शैली' भी उनके भाषा प्रयोगो की । ही भाँनि चित्य है । शब्दो को योजना में वे एक अोर तो मंस्कृत ने और दूसरी ओर अरबीफारमी-मिश्रित उर्दू में बुरी तरह प्रभावित हैं। कहीं-कहीं तो अनेक भाषाओं के शब्दा की विचित्र वि चडी रेल-यात्रा या बाजार के योग्य होते हुए भी साहित्यिक रचनाओं में अत्यन्त अमुन्दर ऊंचती है।
रोमन, बारनिरा, नम्बर. लैम्प, वेहिमाब, मरहम, वकील, कैंची, बटन, मोजा, फीता, नमूना अादि शब्द हिन्दी में खप गए हैं और उनका प्रयोग सर्वथा संगत है, परन्तु क्रिश्चियन (बे वि. र. ३), क्राइस्ट (वे. वि. र. १), फुटनोट्स (वे. वि र. भू ७), पैराग्राफ (हि. शि. तृ. भा. स. २८), आदि एवं स्वाधीनता' में प्रयुक्त जरूरत (१) शाइस्तगौ (२) दारमदार (E) जमात (१४) तहम्मुल (१६), मुस्तसना (२३।, ग्वयालात (२७,) मदाखिलत (२६), तकरीर (३४), पेशबन्दो (३५) आदि का प्रयोग हिन्दी के प्रति सरासर अत्याचार है। यह
१ रीति पद-रचना की प्रयाली और श धर्म है